राष्ट्रीय आन्दोलन
226. अनुभवों
से प्रेरणा
गांधीजी ने 1914 में दक्षिण अफ्रीका छोड़ा। वह एक व्यावसायिक
फर्म के सहायक वकील की हैसियत से 105 पौण्ड वार्षिक मेहनताने पर वहां गए थे। फिर वहीं रुक गए और
चोटी के वकील बन कर पांच हजार पौण्ड वार्षिक की वकालत जमा ली और उसे स्वेच्छा से
छोड़ भी दिया। वकालत शुरू करने के पहले दिन बम्बई की अदालत में एक मामूली से
मुकदमे में जिरह करते समय उनके हाथ-पैर ढीले पड़ गए थे। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने एक नया राजनैतिक
संगठन बना डाला और एक अनुभवी नेता की सी कुशलता से उसे चलाया भी। वहां के गोरे
अधिकारियों और कूटनीतिज्ञों के द्वेष भाव तथा भारतीय व्यापारियों और मजदूरों की
असहाय अवस्था ने उनके अन्तस्थ शौर्य और साहस को जगा दिया था। कोई बड़ा पुरस्कार तो
उन्हें मिलना न था, उल्टे खतरे बहुत बड़े थे, वकालत का धंधा चौपट होने से लेकर जान से मार
दिए जाने तक। लेकिन दक्षिण अफ्रीका में वकालत और सार्वजनिक कार्य आरम्भ करना उनके
लिये सौभाग्य पूर्ण ही सिद्ध हुआ। भारत में महान नेताओं और धुरंधर वकीलों के सामने
उन्हें कौन पूछता। अपने देश में नेतृत्व का गुण और पहल करने की प्रतिभा शायद ही
उनमें विकसित हो पाती। 25 वर्ष की उम्र में जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में नेटाल
इंडियन कांग्रेस की स्थापना की तो यह क्षेत्र बिल्कुल खाली पड़ा था। अतः वह उन
विचारों पर पूरी आजादी से अमल कर सके, जिनकी किसी भी सुव्यवस्थित राजनैतिक संगठन में खिल्ली उड़ाई
जाती।
सत्य और प्रतिज्ञाओं का भला राजनीति से क्या
सम्बन्ध? बाद में यही प्रश्न बार-बार भारत में भी उठा और
यदि गांधीजी विचलित नहीं हुए तो इसका कारण यही था कि दक्षिण अफ्रीका में काफी समय
पहले वह राजनीति से इनका सम्बन्ध जोड़ चुके थे और इसकी पुष्टि भी कर चुके थे। ऐसी
जगह काम शुरू करना जहां न तो पेशेवर राजनीतिज्ञ थे और न राजनीतिक जंजीरों का कोई
बंधन अवश्य ही उस व्यक्ति के लिए लाभदायक था जिसे राजनीतिशास्त्र का ज्ञान नहीं था
और जिसके सिद्धान्त आचरण पर ही आधारित होते थे।
गांधीजी द्वारा भारत की आजादी की लड़ाई बहुत
बड़े पैमाने पर लड़ी गई और यहां की समस्याएं भी बहुत बड़ी थी, लेकिन ऐसे बहुत से अवसर आए जब उन्हें दक्षिण
अफ्रीका के अनुभवों से प्रेरणा मिली। गांधीजी की राजनीतिक नीतियों ने ही नहीं, उनके व्यक्तित्व ने भी दक्षिण अफ्रीका में
रूपाकार प्राप्त किया। उनके जीवन के निर्माण काल का अधिकांश समय भी वहीं बीता।
धर्म
संबंधी विचार
गांधी जी मुख्यतः एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनकी
धार्मिक विचारधारा का किसी मत या रीति-रिवाज़ से मतलब नहीं था। उसका आधारभूत संबंध
उनके नैतिक नियम में दृढ़ विश्वास से था। अपने विश्वास को वे सत्य या प्रेम का नियम
कहते थे। नैतिक और धार्मिक प्रश्नों में उनकी रुचि तो बचपन से ही थी, लेकिन इनके विधिवत अध्ययन का अवसर उन्हें
दक्षिण अफ्रीका में ही मिला। प्रिटोरिया के क्वेकर मित्र उन्हें ईसाई तो न बना सके, पर धर्म-सम्बन्धी अध्ययन की उनकी स्वाभाविक
जिज्ञासा अवश्य ही तीव्र हो गई। उसके बाद तो अपने धर्म के अतिरिक्त उन्होंने ईसाई
तथा दूसरे धर्मों का भी गंभीर अध्ययन किया। अफ्रीका-प्रवास के प्रथम वर्ष में
उन्होंने करीब अस्सी पुस्तकें पढ़ी, जिनमें बहुत सी धर्म-सिद्धान्तों पर थी। इनमें से एक थी
टालस्टाय की पुस्तक ‘द किंगडम आफ गाड इज विदिन यू’ (वैकुंठ तुम्हारे हृदय में है)। टालस्टाय की
पुस्तकों पर वह मुग्ध हो गए और आने वाले वर्षों में उन्होंने ‘गास्पेल्स इन ब्रीफ’ (संक्षिप्त सुसमाचार), ‘व्हाट टु डू’ (क्या करें?), ‘स्लेवरी आफ अवर टाइम्स’ (हमारे जमाने की गुलामी), ‘हाऊ शैल वी एस्केप?’ (हम कैसे भागें?), ‘लेटर्स टु ए हिन्दू’ (एक हिन्दू को लिखे पत्र), और ‘द फर्स्ट स्टेप’ (पहला कदम) पढ़ डाले।
टालस्टाय के निर्भीक आदर्शवाद और स्पष्टवादिता
ने उन्हें मंत्रमुग्ध कर दिया। ईसाई-विद्रोही टालस्टाय ने संस्थागत धर्म के प्रति
उनकी आस्था को दूर कर दिया। नित्यप्रति के जीवन को नैतिक सिद्धान्तों के अनुरूप
बनाने पर जो बल टालस्टाय ने दिया था, उससे उन्हें अपने में सुधार के प्रयास को समर्थन मिला। शायद
ही कुछ लोगों ने इतना कम पढ़ कर उससे इतना लाभ उठाया हो। पुस्तकें उनके लिए घड़ी
भर का मनबहलाव नहीं, अनुभवों का संचित कोष होती थीं। पुस्तकों के विचारों से
सहमत होते तो उन्हें आत्मसात कर लेते और तदनुसार आचरण भी करते, असहमत होते तो उन्हें छोड़ देते।
रस्किन की पुस्तक ‘अण्टू दि लास्ट’ से इतने प्रभावित हुए कि नेटाल की राजधानी छोड़
कर जूलूलैंड के जंगल में जा बसे। स्वेच्छा से गरीबी को गले लगाया और अक्षरशः पसीने
की कमाई खाने लगे। गांधीजी को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली पुस्तकों में टालस्टाय
की पुस्तकें भी थीं। आंख मूंद कर अनुकरण करने का तो उनका स्वभाव ही नहीं था, लेकिन यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि
टालस्टाय की कृतियों के अध्ययन से ही उनके अपरिपक्व विचारों को प्रौढ़ता मिली।
आधुनिक राज्य की संगठित या प्रच्छन्न हिंसा, नागरिक सविनय अवज्ञा अथवा असहयोग के अधिकार-सम्बन्धी
अपने विचारों का समर्थन गांधीजी को टालस्टाय की पुस्तकों में मिला। आधुनिक सभ्यता
और औद्योगीकरण से लेकर यौन-सम्बन्धों और शिक्षा आदि अनेक विषयों पर टालस्टाय की
मीमांसा से गांधीजी सहज ही सहमत थे। दोनों में हुए पत्र-व्यवहार से यह बात स्पष्ट
होती है कि जीवन की देहरी पर खड़े युवा गांधी में टालस्टाय के प्रति श्रद्धा और
कृतज्ञता थी। वयोवृद्ध टालस्टाय गांधीजी के विचारों से विस्मित और प्रफुल्लित हुए।
टालस्टाय ने गांधीजी को लिखा था कि, “और इसलिए हमें ऐसा लगता है कि ट्रांसवाल में
तुम्हारा कार्य संसार में आजकल होने वाले कार्यों में सबसे अधिक आवश्यक और
महत्वपूर्ण है और उसमें न केवल ईसाई राष्ट्र किन्तु पूर्ण संसार के सभी राष्ट्र
निस्सन्देह भाग लेंगे।”
ईसाई तथा इस्लाम धर्मों की पुस्तकें तो दक्षिण
अफ्रीका में आसानी से मिल जाती थी लेकिन हिन्दू धर्म की पुस्तकें उन्हें भारत से
मंगानी पड़ती थी। धार्मिक विषयों पर वह अपने मित्र रायचन्द भाई के साथ
पत्र-व्यवहार भी करते थे। गांधीजी के क्वेकर मित्र यह समझते थे कि वह ईसाई धर्म
स्वीकार करने वाले हैं, लेकिन रायचन्द भाई के प्रभाव से ही अन्तिम रूप से उनकी
श्रद्धा में दृढ़ हो गई। धर्मों के
तुलनात्मक अध्ययन, धर्म-ग्रन्थों के पाठ और विद्वानों के सत्संग और
पत्र-व्यवहार से गांधीजी इस नतीजे पर पहुंचे कि सत्य बुद्धि से उतना ग्राह्य नहीं
है जितना हृदय से और अक्षरशः आचरण में पालन किया जाना ही सत्य में विश्वास का
प्रमाण है।
इन्हीं वर्षों में गांधीजी की जीवन पद्धति में
परिवर्तन हुआ। ‘भगवद् गीता’ से, जिसे उन्होंने अपना ‘आध्यात्मिक कोश’ कहा था, उन्होंने ‘अपरिग्रह’ के आदर्श को आत्मसात किया, जिससे वह स्वेच्छा से गरीबी के मार्ग पर चल
पड़े। दूसरा आदर्श था ‘निष्काम कर्म’, जिससे उन्हें सार्वजनिक जीवन के लिए आवश्यक अद्भुत सहन
शक्ति प्राप्त हुई। एक धर्मार्थ चिकित्सालय में नुस्खों से दवाइयां बनाने और
वितरित करने का भार उठा कर उन्होंने अपने को इस काम के लिए प्रशिक्षित किया, जिससे कि वह उन गिरमिटिया मजदूरों की सेवा कर
सकें जो दक्षिण अफ्रीका के सबसे गरीब भारतीय थे। डरबन के निकट फीनिक्स में और
जोहान्सबर्ग के निकट टालस्टाय फार्म पर उन्होंने छोटी-छोटी ऐसी बस्तियां बनाई, जहां स्वयं वह और उनके आदर्शों को अपनाने वाले
लोग, नगरों की गर्मी और धूल तथा आदमी के लोभ और
द्वेष से दूर हट कर शान्ति पा सकें।
गांधीजी के उस काल का व्यक्तित्व-चित्रण उनके
पहले जीवनी-लेखक जोहान्सबर्ग के श्रद्धेय जोसेफ जे. डोक ने अपनी पुस्तक में किया
है। वह लिखते हैः “एक
छोटा, दुबला-पतला पर फुर्तीला व्यक्ति मेरे सामने
खड़ा था और मेरी ओर देखने वाले उस व्यक्ति के चेहरे से सुसंस्कृति और उत्साह की
झलक मिलती थी। उसकी त्वचा का रंग सांवला और आंखें काली थी, लेकिन उसके चेहरे को आलोकित करने वाली
मुस्कराहट और उसकी सीधी निर्भय दृष्टि सामने वाले के दिल को बरबस जीत ले रही थी।
उसकी उम्र के बारे में मेरा अनुमान बिल्कुल सही निकला। वह करीब 38
वर्ष का था। वह बहुत अच्छी
अंग्रेजी बोल रहा था जिससे यह प्रकट ही था कि वह सुसंस्कृत व्यक्ति था। …इस भारतीय नेता की ओर जिस बात ने मुझे तत्काल
आकर्षित किया, वह थी आत्मविश्वास की दृढ़ता, हृदय की महानता और निष्कपट सत्यवादिता। हमारे
इस भारतीय मित्र का वैचारिक और आध्यात्मिक स्तर अधिकांश लोगों से बहुत ऊंचा है।
मेरी आफ वैथेनी की तरह उसके काम भी ऐसे होते हैं कि लोग उसे गलत समझते हैं और
अक्सर सनकी कह बैठते हैं। जो उससे परिचित नहीं हैं वह उसकी दुनियादारी के पूर्ण
अभाव के पीछे कोई-न-कोई बुरा हेतु अथवा पूरब वासियों की ‘मक्कारी’ ही देखते हैं। लेकिन उसे जानने वाले उसके आगे
शर्म से पानी-पानी हो जाते हैं। मेरे विचार में रुपये का उसे जरा भी लोभ नहीं है।
उसके देशवासी भी उसकी अद्भुत निःस्वार्थपरता पर आश्चर्य करते हैं और उन्हें इस
कारण क्रोध भी आता है। पर साथ ही वे उसे प्यार भी करते हैं; ऐसा प्यार जो उनके विश्वास और गर्व का द्योतक
है। वह उन असाधारण व्यक्तियों में से है जिनके सत्संग से ज्ञान की वृद्धि होती है… और परिचय मात्र से जिसके प्रति सहज प्रेम उत्पन्न
हो जाता है।”
जनवरी 1928 में गांधी जी ने “फेडरेशन ऑफ इंटरनेशनल फेलोशिप” (आंतर्राष्ट्रीय मैत्री संघ) के समक्ष कहा था,
“बहुत दिनों के अध्ययन और अनुभव के बाद मैं इन
निष्कर्षों पर पहुंचा हूं, सभी धर्म सत्य होते हैं, सभी धर्मों में कोई-न-कोई भूल
या कमी अवश्य होती है और सभी धर्म मेरे लिए लगभग उतने ही प्यारे हैं, जितना मेरा
अपना हिंदू धर्म। दूसरे धार्मिक विश्वास के लिए भी मेरे मन में उतना ही सम्मान है,
जितना अपने धार्मिक विश्वास के लिए। इसलिए धर्म परिवर्तन की कल्पना असंभव है। औरों
के लिए हमारी प्रार्थना यह नहीं होनी चाहिए कि हे प्रभु, जो प्रकाश तूने हमें
दिखाया है वही उन्हें भी दिखा, बल्कि
हमारी प्रार्थना यह होनी चाहिए कि हे प्रभु, उन्हें अपने उच्चतम विकास के लिए
जितने भी प्रकाश और सत्य की आवश्यकता है वह सब तू उन्हें दे।”
गांधी जी की
दृष्टि में सत्य और अहिंसा एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। उन्होंने रूढ़ियों और अन्य
कई बातों को अस्वीकार किया, जो उनकी आदर्शवादी व्याख्या से मेल नहीं खातीं। उनका
कहना था, “मैं किसी भी ऐसे
पुराने विश्वास या प्रचलन का ग़ुलाम बनने से इंकार करता हूं जिसे मैं समझ नहीं सकता
या जिसका में नैतिक आधार पर समर्थन नहीं कर सकता।” उनके अनुसार सबसे बड़ी बात नैतिक नियम थी, जो उनकी समझ में
होना चाहिए। उनकी विचारधारा पर विवाद हो सकता है, लेकिन वे अपने को एक ही आधारभूत
मापदंड से नापने पर ज़ोर देते थे। फिर भी कुछ सीमा तक वे अपने को हमेशा परिवर्तनशील
परिस्थिति के अनुकूल बनाते रहते हैं। वे दूसरों के लिए जो कुछ भी सलाह बताया कते
थे उसका उससे पहले अपने पर प्रयोग करते थे। हर सुझाव, सलाह या प्रयोग वे हमेशा
अपने से ही शुरू करते थे। उनके वचन और कर्म में कोई भिन्नता नहीं थी। इसी कारण से
उनकी समग्रता कभी नष्ट नहीं हुई। उनके जीवन में और उनके कार्यों में कभी अभिन्नता
नहीं रही। तभी तो वे कहते थे मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। अपनी असफलताओं में भी वे
उन्नति की ओर बढ़ते हुए दिखाई देते थे।
जिस भारत को वे अपने आदर्शों के अनुकूल बनाना चाहते थे,
उसके प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करते उन्होंने कहा, “मैं एक ऐसे भारत के लिए प्रयत्न करना चाहता हूं, जिसमें
निर्धन-से-निर्धन व्यक्ति भी यह अनुभव कर सकेंगे कि यह उनका अपना देश है, जिसके
निर्माण में उनकी भी सुनी जाएगी, जिसमें ऊंच-नीच का भेद-भाव नहीं होगा, जिसमें सभी
जातियां पूर्ण सामंजस्य के साथ जीवन-यापन करेंगी। ऐसे भारत में छुआछूत और मादक
पदार्थों का शाप नहीं होगा, स्त्रियों को पुरुषों के ही समान अधिकार मिलेंगे ...
यह है वह भारत जिसके मैं स्वप्न देखा करता हूं।”
राजनीति
का अध्यात्मीकरण
गांधी जी को
भारतीय संस्कृति पर गर्व था, वे इसे व्यापक रूप देना चाहते थे। लिखते हैं, “भारतीय संस्कृति न तो पूर्ण रूप से हिंदू है, न मुस्लिम, न
कोई और। वह इन सबका मेल है।” वे राष्ट्रीय आंदोलन के धार्मिक और आध्यात्मिक पहलू पर ज़ोर दिया करते थे। उनका
धर्म कोई कट्टरपंथी नहीं था। उसमें जीवन के प्रति एक निश्चित धार्मिक दृष्टिकोण का
निर्देश होता था। अपने सार्वजनिक भाषणों में वे धर्म को बीच में नहीं लाते थे। वे
अपने निजी उदाहरण द्वारा लोगों को बातें समझाते थे। दुनिया में जिस चीज़ को
महत्वपूर्ण समझा जाता है, जिनका मूल्य लोगों की दृष्टि में अधिक होता है, उनमें से बहुतों का त्यागकर गांधी जी ने सरल और सादगी से
भरे जीवन को अपनाया था, इसलिए उनकी बातों का लोगों पर गहरा असर होता था। वे
रामराज्य का बार-बार उल्लेख करते थे। उनका कहना था कि वह सुनहरा युग फिर आने वाला
है। जनता के हृदय तक पहुंचने की उनमें आश्चर्यजनक योग्यता थी।
उनका कहना था, “मैं चाहता हूं कि सभी देशों की संस्कृतियां मेरे घर के पास
जितनी संभव हो, उतनी स्वतंत्रता के साथ उड़ती रहें, किंतु मैं इस बात के लिए तैयार
नहीं कि उनमें से कोई मुझे उड़ा ले जाए। मैं दूसरों के घर में बिना अधिकार प्रवेश
करने वाले व्यक्ति या भिखारी या दास के रूप में रहने को तैयार नहीं।”
गांधी जी ने कभी
अपनी जड़ों को हिलने नहीं दिया। उन्हें मज़बूती से पकड़े रहे। आत्मिक एकता में
विश्वास रखते हुए उन्होंने अपने को जनता में लीन कर दिया। जनता की आत्मा के साथ
अपनी आत्मा को मिला दिया। असहायों और निर्धनों के साथ तादात्म्य की उनमें एक उत्कट
भावना थी। पद दलितों के उत्थान की अभिलाषा। इसके सामने उनके लिए धर्म गौण बन जाता
था। उनका तो कहना था, “जिस देश के लोग
अधभूखे हों उसका न कोई धर्म हो सकता है, न कोई कला, न कोई संगठन। ... जो भी चीज़
भूखों मरती हुई लाखों जनता के लिए उपयोगी हो सकती है, वही मेरी दृष्टि में सुंदर
है।”
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ
पर
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