251. चम्पारण
सत्याग्रह-6
1917
17 जून, 1917 को बेतिया से गांधीजी राष्ट्रीय विद्यालय के कार्यों और
अन्य मामलों को देखने के लिए अहमदाबाद चले गए। 28 जून, 1917 को अहमदाबाद से डॉ. देवा, सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी के
सचिव के साथ मोतिहारी वापस आ गए। बयानों की रिकॉर्डिंग बंद होने के बाद, गांधीजी
की स्वयंसेवकों की टीम अब एकत्रित किए गए विशाल डेटा के अध्ययन और विश्लेषण पर
अपना ध्यान केंद्रित कर सकती थी। अब तक उनके पास 850 गांवों के 8,000
से अधिक रैयतों के बयान थे। ये बयान 60 से अधिक कारखानों से संबंधित थे। इसके
अलावा बड़ी संख्या में आधिकारिक दस्तावेज और अदालतों के फैसले भी थे। इन सभी की
जांच की जानी थी और जांच समिति के समक्ष प्रस्तुत किए जाने वाले दस्तावेजों का चयन
किया जाना था।
गर्मियों और शरद ऋतु के दौरान आयोग ने बेतिया, मोतिहारी
और अन्य स्थानों पर बैठकें कीं, गवाहों से जिरह की, बयान
दर्ज किए और नील की खेती करने वाले किसानों पर लगाए गए असंख्य करों और जबरन वसूली
पर विस्तार से चर्चा की। 11
जुलाई को रांची में प्रारंभिक बैठक के बाद समिति ने 17 जुलाई से बेतिया और
मोतिहारी में सार्वजनिक बैठकें शुरू कीं।
समिति में गांधीजी के शामिल होने से किसानों के
मन में बड़ी उम्मीदें जगी थीं और बेतिया में बड़ी भीड़ उमड़ पड़ी थी। 16 जुलाई तक
कम से कम दस हजार किसान इकट्ठे हो गए थे। सभी सदस्य समिति के काम में व्यस्त थे, लेकिन
गांधीजी ने दोपहर में बाहर आकर उत्सुक ग्रामीणों से मिलना सुनिश्चित किया। एक
संक्षिप्त भाषण में उन्होंने उन्हें समझाया कि समिति उनकी शिकायतों के निवारण के
लिए बनाई गई है, उन्हें समिति की बैठक में बड़ी संख्या में नहीं
जाना चाहिए और अगर उन्हें कोई शिकायत करनी है तो उन्हें उनके सहायकों के सामने ऐसा
करना चाहिए।
17 जुलाई को बेतिया में गवाहों की परीक्षा शुरू
हुई। मुज़फ़्फ़रपुर के जाने-माने वकील श्री कैनेडी बागान मालिकों की ओर से
कार्यवाही देख रहे थे। गांधीजी के सहायकों और काश्तकारों को टिकट पर समिति में
शामिल किया गया। बंदोबस्त अधिकारी श्री स्वीनी पहले गवाह थे और उनकी परीक्षा में
पूरा दिन लग गया। 18 जुलाई को बेतिया राज के प्रबंधक और एक अधिकारी
से पूछताछ की गई। अगले दिन राजकुमार शुक्ला ने काश्तकारों का पक्ष रखा। बेतिया में
कुल पाँच बैठकें हुईं।
समिति के पास पहले से ही बिहार प्लांटर्स
एसोसिएशन, 25 रैयतों, बेतिया एस्टेट के प्रबंधक, बंदोबस्त अधिकारी, एस.डी.एम. बेतिया, आयुक्त, तिरहुत प्रमंडल और बिहार लैंडहोल्डर्स एसोसिएशन के बयान और
ज्ञापन थे। 17 से 30 जुलाई के बीच बेतिया और मोतिहारी में आयोजित आठ सार्वजनिक
बैठकों में समिति ने 19 गवाहों से पूछताछ की। समिति के सदस्यों ने अनेक कारखानों
और उनके अधीन गांवों का दौरा किया, कारखानों
के अभिलेखों और खातों की जांच की तथा समिति से मिलने के लिए बड़ी संख्या में
एकत्रित रैयतों से पूछताछ की। सरकार ने समिति को चंपारण जिले के इतिहास, आर्थिक
स्थिति और पूर्व कृषि विवादों से संबंधित आधिकारिक अभिलेख भी उपलब्ध कराए थे।
बिहार प्लांटर्स एसोसिएशन के प्रतिनिधि जे.वी. जेम्सन से दो बार पूछताछ की गई - 26
जुलाई और 24 अगस्त को।
14 अगस्त तक बेतिया में अंतिम साक्ष्य दर्ज कर लिए
गए थे। गांधी ने समिति के समक्ष कई किरायेदारों के बयान और अदालतों के कई फैसले
पेश किए। समिति का काम फिलहाल खत्म हो गया और अगली बैठक सितंबर के आखिर में तय की
गई। गांधीजी 16 अगस्त को अहमदाबाद के लिए रवाना हुए और
राजेंद्र प्रसाद को चंपारण में काम का जिम्मा सौंप दिया। 22 सितंबर को गांधीजी रांची लौट आए।
23 सितम्बर रांची में लेफ़्टिनेन्ट गवर्नर से
बातचीत में चम्पारण में सरबेशी और स्वयंसेवकों के क्रियाकलापों की चर्चा की गई। सरबेशी
में शामिल दो अन्य चिंताओं, अर्थात् जल्लाहा और सिरनी के मामले में, समिति
ने सिफारिश की कि राशि 25 प्रतिशत कम होनी चाहिए।
3 अक्तूबर समिती के अन्य सदस्य के साथ रिपोर्ट
साइन किया गया। 4 अक्तूबर समिति के रिपोर्ट को स्थानीय भाषा में
छपाई हो इस विषय पर लेफ़्टिनेन्ट गवर्नर को पत्र लिखा। समिति ने 4 अक्टूबर को सरकार
को अपनी रिपोर्ट सौंपी। समिति ने पाया कि तिनकठिया प्रणाली अलोकप्रिय और लाभहीन थी
और सिफारिश की कि चंपारण में नील उगाने की प्रणाली को पूरी तरह समाप्त कर दिया
जाना चाहिए।
समिति ने आगे सिफारिश की कि नील की खेती खुश्की
प्रणाली के तहत की जानी चाहिए, जिसमें निम्नलिखित शर्तों का पालन किया जाना
चाहिए: (1) काश्तकार को समझौते में प्रवेश करने या न करने की स्वतंत्रता होनी
चाहिए; (2) चयनित भूखंड पूरी तरह से रैयत की पसंद पर
होना चाहिए; (3) कीमत समझौते द्वारा और पूरी तरह से वाणिज्यिक
आधार पर तय की जानी चाहिए; (4) कीमत फसल के वजन के आधार पर निर्धारित की
जानी चाहिए; और (5) कोई भी अनुबंध छोटी अवधि के लिए होना
चाहिए, किसी भी मामले में तीन साल से अधिक नहीं।
नील की खेती करने के दायित्व के बदले लगाए जाने
वाले सरबेशी पर समिति ने गांधीजी द्वारा तुरकौलिया, मोतिहारी
और पीपरा के साथ किए गए समझौते का स्वागत किया।
कारखानों द्वारा रैयतों से लिए जाने वाले तवान
या एकमुश्त भुगतान के बारे में समिति ने पाया कि अस्थायी रूप से पट्टे पर दिए गए
गांवों में यह पूरी तरह अनुचित है और सिफारिश की कि ऐसे मामलों में बेतिया एस्टेट
को पट्टे को नवीनीकृत करने से इनकार कर देना चाहिए। मोकरारी गांवों में, जहां
इसे लिया गया था, समिति ने 10 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक की वापसी
की सिफारिश की।
अबवाब के संबंध में, समिति
ने बताया कि ये अवैध थे, लेकिन यह भी ध्यान दिया कि रामनगर एस्टेट में
इन्हें व्यवस्थित रूप से लगाया जाता था, खासकर
यूरोपीय ठेकेदारों द्वारा, जिन्होंने कभी नील की खेती नहीं की। इसके अलावा, जमींदारों
के नौकर दस्तूरी नामक भुगतान पर कमीशन लगाते थे, जो
समान रूप से अवैध था।
सरकार ने 6 अक्टूबर को जारी एक आदेश-परिषद
द्वारा समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया। 20 नवंबर 1917 को कार्यकारी परिषद
के सदस्य डब्ल्यू. मौड ने विधान परिषद में चंपारण कृषि विधेयक, 1917 पेश किया। इस विधेयक में चंपारण कृषि जांच
समिति की सिफारिशें शामिल थीं, जिसका विधान परिषद में बागान मालिकों के प्रतिनिधियों ने
कड़ा विरोध किया। 29 नवंबर को श्री मौड द्वारा प्रस्तुत चंपारण कृषि विधेयक पारित
हुआ और कुछ ही महीनों में कानून बन गया। जांच समिति की रिपोर्ट 4 मार्च 1918 को परिषद के विचारार्थ
प्रस्तुत की गई। इसके तुरंत बाद विधेयक कानून बन गया।
चंपारण कृषि अधिनियम की सबसे महत्वपूर्ण
विशेषताएँ थीं: 1. तिनकठिया का उन्मूलन; 2.
तुरकौलिया में सरबेशी में 20 प्रतिशत और अन्य कारखानों में 26 प्रतिशत की कमी; 3.
काश्तकारों को नील उगाने के दायित्व से मुक्ति और स्वैच्छिक आधार पर नील उगाने की
स्वतंत्रता; 4. अधिनियम द्वारा कवर किए गए मामलों के संबंध
में मुकदमेबाजी को रोकने की व्यवस्था।
आधिकारिक जांच ने बड़े बागान मालिकों के खिलाफ
सबूतों का एक बड़ा ढेर इकट्ठा किया और जब उन्होंने यह देखा तो वे सैद्धांतिक रूप
से किसानों को पैसे लौटाने पर सहमत हो गए। उन्होंने गांधी से पूछा, 'लेकिन
हमें कितना भुगतान करना होगा?' बागान मालिकों के प्रतिनिधि ने 25 प्रतिशत
की सीमा तक वापसी की पेशकश की, और उनके आश्चर्य से गांधीजी ने उनकी बात मान
ली।' जांच समिति की अनुशंसा के अनुसार, जिसे
सरकार ने स्वीकार कर लिया, बेतिया एस्टेट में फैक्ट्रियों द्वारा वसूले गए
तावान का 25 प्रतिशत हिस्सा किरायेदारों को वापस कर दिया गया। जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने पूरे 100 प्रतिशत की वापसी क्यों नहीं की, तो
उन्होंने जवाब दिया कि बागान मालिकों को काश्तकारों से चुराए गए पैसे का एक चौथाई
भी वापस करने के लिए मजबूर करके उन्होंने उनकी प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया है।
घटनाओं ने गांधीजी की स्थिति को सही साबित कर
दिया। कुछ ही वर्षों में ब्रिटिश बागान मालिकों ने अपनी जागीरें छोड़ दीं, जो
किसानों के पास वापस आ गईं। नील की बटाईदारी खत्म हो गई। चंपारण में गांधीजी के साथ रहे कृपलानी ने लिखा
कि गांधीजी ने अपने सत्याग्रह से जो हासिल किया, वह
विभिन्न परिस्थितियों के संयोजन का परिणाम था। ये परिस्थितियाँ आम तौर पर मनुष्य
और मनुष्य तथा समूह और समूह के बीच अधिक न्याय के पक्ष में थीं। यह भी सच है कि
अगर गांधीजी ने पहला छोटा कदम नहीं उठाया होता, तो
अंतिम परिणाम लाने वाली अन्य ताकतें लंबे समय तक निष्क्रिय रह सकती थीं।
चंपारण
आंदोलन के परिणाम
जांच समिति की कार्रवाही के दौरान निलहे गोरे,
जिनके विरुद्ध जांच समिति गठित की गई थी, गांधीजी के काम करने की शैली से काफ़ी प्रभावित
हुए और उनको लगने लगा कि गांधीजी उनके सच्चे हितैषी हैं। समिति के पास ऐसे अनेकों
प्रमाण थे, जिसके आधार पर निलहों के विरुद्ध अत्याचार, भ्रष्टाचार और तानाशाही के
आरोप सिद्ध होते। यदि जांच समिति इन चीज़ों को अपनी रिपोर्ट में दर्ज़ करती तो इन
आरोपों से निलहों का बचना असंभव ही था। लेकिन चर्चा के आरंभ में ही गांधीजी ने
कमेटी के निलहों को यह घोषणा कर भयमुक्त
कर दिया था कि उन्हें भूतकाल से इतना वास्ता नहीं है जितना कि वर्तमान और भविष्य
से है। जो शिकायतें दर्ज़ की जा रही हैं उस पर कोई निर्णय कमेटी द्वारा नहीं दिया
जाएगा। अगर नील की खेती की अत्याचारी प्रथा उठा ली जाती है और निलहों के जुल्म
बन्द हो जाते हैं, तो इतने से ही उन्हें संतोष हो जाएगा।
अपनी जानकारी, दृढ़ता और धीरज से गांधीजी ने
जांच-समिति में किसानों के मामले की पैरवी की। समिति ने किसानों की सभी शिकायतों
को सही माना। गांधीजी ने समिति में मांग रखी कि भविष्य में किसानों का ऐसा शोषण न
हो सके, इसकी गारंटी के तौर पर किसानों से जबरन वसूल की गई रकम की एक-चौथाई भाग
रकम वापस कर दी जाए। समिति ने एक राय से निलहों से अनुचित रीति से लिए हुए रुपयों
का एक भाग वापस करने और सौ वर्ष पुरानी दमनकारी तिनकठिया प्रथा को रद्द करने की
सिफ़ारिश की। हालांकि अपने विपक्षी से आगे बढ़कर मिलने के लिए तैयार रहने वाले
गांधीजी निलहों को भी एक छोटी-सी रियायत देने पर तैयार हो गए।
गांधीजी न सिर्फ़ अपना पक्ष विश्वासोत्पादक
तरीक़े से रखते थे, बल्कि बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने विरोधी के पक्ष को भी समझने
में रुचि रखते थे। उनकी इस दोधारी योग्यता से प्रभावित होकर आयोग का एक सदस्य
जार्ज रेनी ने कहा था, “श्री गांधी मुझे संत पॉल की याद दिलाते हैं।” आम आदमी जैसे दिखने वाले इस राजनेता ने अपने थोड़े
दिनों के प्रवास में नील साहबों का आतंक खत्म कर दिया। आम जनता को भय मुक्त कर
दिया। एक ऐसा समझौता हुआ जिसमें दोनों पक्ष ख़ुश थे। किसानों को इस बात की ख़ुशी थी
कि नील की खेती और उसके साथ जुड़े अत्याचार और उत्पीड़न का अन्त हो जाएगा। निलहों को
यह ख़ुशी थी कि वे अत्याचारी और उत्पीड़क के रूप में सारी दुनिया के सामने धिक्कारे
नहीं जाएंगे और ग़ैर-क़ानूनी ढंग से जो रुपए उन्होंने बटोरे थे वे सारे उनसे उगलवाए
नहीं जाएंगे। विधान-सभा में गोरे निलहों के प्रतिनिधि के समर्थन से क़ानून पास हुआ।
किसानों के बच्चों की शिक्षा के लिए जो स्कूल खोले गए थे, उन स्कूलों को निलहों ने
आर्थिक मदद दी। चूंकि खेती में अब निलहों को फायदा नहीं हो रहा था, तो उन्होंने
आने वाले वर्षों में अपनी ज़मीन कम दाम पर उन्हीं काश्तकारों को बेच दीं जिन्हें वे
अरसों से सताते आ रहे थे। किसानों को अपनी ज़मीन वापस मिल गई। निलहों को पंजे से
छुटकारा मिला।
आम आदमी जैसे दिखने वाले गांधीजी ने यह सब किया
अहिंसा और सत्य के सहारे। अपनी राजनीति को उन्होंने कसौटी पर कसा। चंपारण आंदोलन
ने गांधीजी को भारत की आम जनता में विश्वास जगाया था। रूढ़िवादी परंपरा और आधुनिकता
के विरोधाभासों के बीच ज़रूरत है चंपारण आंदोलन के भग्नावशेषों को पुनर्जीवित करने
की। गांधीजी ने चंपारण में किसानों की ओर से जो साहसिक काम किया और इन कामों में
उन्हें जो सफलता मिली उससे लोगों में उत्साह की एक लहर दौड़ गई। लोगों ने पाया कि
वह अपने तरीक़ों का भारत में भी प्रयोग करने को तैयार हैं। लोगों में उनके तरीक़ों
में सफलता की आशा दिखाई दी। चंपारण
गांधीजी की भारत में पहली पाठशाला थी। यहाँ गांधीजी की पढ़ाई हुई। यहाँ से ही इस
देश के लोगों और उनकी सादगी और सरलता की ताकत को उन्होंने पहचाना। आप जीवन में एक
ठौर ढ़ूढ़ते हैं, जहाँ पैर टिका कर आगे बढ़ते हैं। चंपारण गांधीजी
के राजनीतिक जीवन का एक ठौर था। उन्होंने
भारतीय धरती पर अपनी पहली लड़ाई जीत ली थी।
चंपारण किसान आंदोलन देश की आजादी के संघर्ष का
मजबूत प्रतीक बन गया था। देश को राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, मजहरूल हक, ब्रजकिशोर प्रसाद जैसी महान विभूतियां भी इसी आंदोलन से
मिलीं।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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