राष्ट्रीय आन्दोलन
249.
चम्पारण सत्याग्रह-4
1917
गांधीजी का टेलीग्राम मिलने पर 17 अप्रैल को पटना में कांग्रेस
नेताओं की एक बैठक हुई। उन्होंने चंपारण में गांधीजी के काम में मदद करने का फैसला
किया। पोलाक शाम की ट्रेन से आ रहे थे। राजेंद्र प्रसाद और कुछ अन्य लोगों ने अगली
सुबह उनके साथ मोतिहारी जाने का फैसला किया। ब्रजकिशोर प्रसाद भी उसी ट्रेन से
कलकत्ता से आ रहे थे।
जब तक गांधीजी और उनका दल अदालत से वापस लौटा, तब तक हेनरी पोलाक, मजहरुल हक, राजेंद्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा और
शंभुशरण सिंह पटना से आ चुके थे। उन्होंने गांधीजी के जेल जाने की स्थिति में भावी
कार्रवाई पर चर्चा की। धरणीधर प्रसाद और रामनवमी प्रसाद ने पहले ही गांधीजी के साथ
जेल जाने की घोषणा कर दी थी। यह तय हुआ कि गांधीजी के जेल जाने के बाद मजहरुल हक
और ब्रजकिशोर प्रसाद मिशन का नेतृत्व संभालेंगे। जब वे जेल जाएं, तो धरणीधर प्रसाद और
रामनवमी प्रसाद उनके पीछे चलें। उनकी गिरफ्तारी के बाद राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण और शंभुशरण
उसी क्रम में उनके पीछे चलें।
18 अप्रैल की शाम को पटना में राय कृष्ण सहाय बहादुर की अध्यक्षता
में बिहार प्रांतीय संघ की बैठक हुई, जिसमें यह निर्णय लिया गया
कि गांधीजी को उनके काम में हर संभव सहायता दी जाएगी और सरकार को विरोध के तार भी
भेजे जाएंगे।
गांधीजी किसानों की शिकायतों की जांच-पड़ताल के काम में लग गए। 19
अप्रैल को सुबह से ही मोतिहारी में गोरख प्रसाद के घर पर किसानों की भारी भीड़
उमड़ पड़ी। बयान दर्ज करने का काम फिर से शुरू हुआ। गांधीजी ने खुद बयान दर्ज
करने और दूसरों द्वारा दर्ज किए गए बयानों की जांच करने में हिस्सा लिया। उनके काम
करने का तरीक़ा अनोखा था। अपने सहयोगियों ब्रज किशोर प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद,
महादेव देसाई, नरहरि पारेख, जे.बी. कृपलानी आदि अनेक नेताओं और बुद्धिजीवियों के
साथ सबेरे गांवों में निकल जाते और दिनभर घूम-घूम कर किसानों का बयान दर्ज़ करते।
वह हर किसान से कड़ी ज़िरह करते। हर बयान की बहुत बारीक़ी से छान-बीन करते। कोई बात
को बढ़ा-चढ़ाकर कहता, तो उसे रोक देते। जो ज़िरह में उखड़ जाता उसका बयान तो लिखते ही
नहीं। वह ऐसी कोई बात दर्ज़ नहीं करते जो ग़लत साबित हो जाए या काट दी जाए। काम तेजी
से आगे बढ़ा। और भी स्वयंसेवक उनके साथ जुड़ गए। चम्पारण में ही गांधी को नया नाम
मिलता है, 'बापू!’
गांधीजी जांच को जल्द समाप्त करना चाह रहे थे। यह काम मोतिहारी के
गोरख बाबू के घर से पूरा कर पाना संभव नहीं लग रहा था। इसलिए एक बड़ा मकान भाड़ा पर
लिया गया। दिन भर वे सभी बयान दर्ज करने में व्यस्त रहे। उनमें से कुछ ने सोचा कि
चूंकि रात के 9 बज चुके हैं, इसलिए वे अगले दिन चले जाएँगे। गांधीजी ने महसूस किया कि अगर वे उस
दिन नहीं चले, तो यह एक बुरी शुरुआत होगी। वे अपना पहला संकल्प ही तोड़ देंगे।
उन्हें उसी दिन चले जाना चाहिए। उस समय वे अपना सामान उठाने के लिए आदमी कहाँ से
लाएँगे? गांधीजी ने अपना बिस्तर और एक छोटा सा टिन का डिब्बा उठाया जिसमें
खजूर और मूंगफली थी जो उनका आहार था और घर की ओर चल पड़े जो ज़्यादा दूर नहीं था।
दूसरों को भी उनका पीछा करना पड़ा। उन्होंने पाया कि घर ठीक से साफ़ नहीं हुआ था।
गांधीजी ने झाड़ू उठाई और उसे साफ़ करना शुरू कर दिया। दूसरे लोग भी उनके साथ हो
लिए। यह काम करने और जीने के नए तरीके का उनका पहला सबक था। उन्हें और भी बहुत कुछ
सीखना था।
चंपारण में गांधीजी किसानों की लड़ाई तो लड़ ही रहे थे, सामाजिक दूरियों को भी
पाटने की कोशिश कर रहे थे। वो आग्रह करते थे कि सबकी रसोई एक जगह बने। हर बड़ा
शख़्स अपने साथ एक सेवक या रसोइया लेकर आया हुआ था। गांधीजी इसे अनावश्यक बताते थे।
डाक्टर राजेंद्र प्रसाद अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "गांधीजी के साथ रहने की
वजह से हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ज़बरदस्त बदलाव आ गया। मैं जाति नियमों का
बहुत कड़ाई से पालन करता था और गैर ब्राह्मण के हाथ का छूआ कुछ भी नहीं खाता था।
धीरे-धीरे हम सब लोग साथ खाना खाने लगे।" एक-एक कर उन सबने अपने सारे नौकर
वापस भेज दिए। वे अपने कपड़े खुद धोते, कुएं से खुद पानी निकालते
और अपने बर्तन भी खुद ही साफ़ करते। अगर उन्हें पास के गाँव में जाना होता तो पैदल
ही जाते। ट्रेन में वे तीसरे दर्जे में सफ़र करते। सबने बिना पलक झपकाए अपने जीवन
के सारे ऐशो-आराम छोड़ दिए थे। स्वयंसेवकों ने मैला ढोने, धुलाई, झाडू-बुहारी तक का काम
किया। वे सभी भोजन की तैयारी और वितरण में हाथ बंटाने लगे। इस प्रक्रिया में
जातिगत बंधन टूट गए। उन्होंने भोजन के बाद अपने कपड़े और अपनी प्लेटें खुद धोना
शुरू कर दिया। खाना पकाना भी सरल हो गया। नमक और हल्दी को छोड़कर बिना मसाले के
खाना पकाया जाता था। यह स्वस्थ और पौष्टिक था।
गाँधीजी के साथ काम करने वाले लोग चंपारण में उनकी निजी ज़िंदगी को
भी आश्चर्य के साथ देख रहे थे। आचार्य कृपलानी अपनी आत्मकथा 'माई टाइम्स' में लिखते हैं, "गांधीजी
अपना निजी काम खुद करते थे। यहाँ तक कि अपने कपड़े भी खुद अपने हाथ से धोते थे।
अपने कपड़ों के बारे में वो बहुत संवेदनशील होते थे। अगर उनकी टोपी पर एक मामूली
सा दाग भी रह जाए तो वो उसे नहीं पहनते थे और अगले दिन दोबारा उसे धोते थे। मैंने
गांधीजी से ही धोती धोना सीखा था, लेकिन वो उनकी तरह दाग-रहित नहीं होती थी।" गांव के लोग जो अपना
बयान दर्ज करवाने आए थे, वे यह देखकर चकित और खुश थे कि बड़े वकील खुद अपनी प्लेटें धो रहे थे, नहाने के लिए कुएं से पानी
खींच रहे थे और अपने कपड़े धो रहे थे। यह बदलाव स्वयंसेवकों के लिए अच्छा था। इसने
उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल की सजा के लिए तैयार किया।
चंपारण में दरअसल सत्याग्रह तो हुआ ही नहीं था। एक भी जुलूस नहीं
निकला। एक भी धरना नहीं हुआ। कहीं नारा लगाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी। गांधीजी
समस्या की जड़ तक पहुंचने के लिए कुछ लोगों से बात करते हैं और उसको रिकार्ड में
लाते हैं ताकि हर चीज़ का कागज़ी सबूत रहे उनके पास। वो लोगों का बयान दर्ज करने
का काम शुरू करते हैं जिससे अंग्रेज़ दहशत में आ जाते हैं। एक मार्के की बात है कि
सच्चाई को दर्ज करने में भी बहुत ताक़त होती है। प्रशासन को जैसे ही पता चलता है
कि बयान दर्ज हो रहे हैं, वो लोग घबराने लगते हैं कि ये क्या हो रहा है? फिर वो वहाँ पर एक दरोगा
को बैठा देते हैं। गांधीजी उसके लिए कुर्सी की व्यवस्था करवाते हैं और कहते हैं कि
वो भी सुनेगा और देखेगा कि कौन क्या कर रहा है। 20 अप्रैल को बयान दर्ज करने और
गवाहों से जिरह करने का काम उसी तेज़ रफ़्तार से जारी रहा। बयान देने के लिए
किसानों का तांता लगा हुआ था, जिससे मजदूर सूर्योदय से सूर्यास्त तक व्यस्त रहते थे। कुछ पुलिसवाले
आकर काश्तकारों के पास बैठते थे। एक वकील को यह पसंद नहीं था। वह बरामदे में बयान
दर्ज कर रहा था। वह उठकर रिकॉर्डिंग करने के लिए कमरे के अंदर चला गया। पुलिसवाले
उसके पीछे-पीछे वहाँ भी आ गए। वह परेशान था। यह मामला गांधीजी को बताया गया, जिन्होंने उन्हें सलाह दी
कि वे पुलिसकर्मियों पर ध्यान न दें और अपना काम जारी रखें। काश्तकारों को
पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में अपनी बात कहने की आज़ादी होनी चाहिए। उन्हें डर छोड़
देना चाहिए, उन्होंने सलाह दी।
गाँधीजी को न भाषा समझ में आती है, न वो हिंदी ठीक से बोल
पाते हैं। सारे सरकारी दस्तावेज़ कैथी भाषा में हैं। राजेंद्र बाबू जैसे उनके साथ
के वकील उनसे पूछते हैं कि उनके लिए वो क्या कर सकते हैं ? गांधीजी कहते हैं, “न तो
मुझे आपकी वकालत की ज़रूरत है और न ही आपकी अदालत की। मुझको तो आपसे क्लर्कों का
काम लेना है। जो ये लोग बोल रहे हैं, उसको दर्ज करे और जो मैं
नहीं समझ पा रहा हूँ, वो मुझे समझाएं।” इससे एक ऐसा माहौल गढ़ता
चला जाता है कि शासन तंत्र हड़बड़ा जाता है और इसकी समझ में ही नहीं आया कि इस
शख़्स से कैसे निपटा जाए। बयान दर्ज कराने के लिए आने वाली भीड़ बढ़ती गई। बयान
दर्ज कराने के लिए उन्हें और मदद की ज़रूरत थी। 21 अप्रैल की शाम को मुज़फ़्फ़रपुर
और छपरा से कई वकील काम में शामिल होने के लिए आए। उन्हें अपना काम करने के लिए
ज़मीन पर छोटी-छोटी चटाई पर बैठाया गया, जहाँ संभव हो तो उनके
सामने छोटी-छोटी डेस्क रखी गई। किराएदार उनके सामने खाली ज़मीन पर बैठे। गांधीजी
सुबह जल्दी उठ जाते। उसके बाद सभी सहयोगी भी जल्दी ही उठ जाते। उन दिनों सामूहिक
प्रार्थनाएँ नहीं होती थीं। वे अपना बिस्तर मोड़ते, उसे उचित स्थान पर रखते, नहाते और नाश्ता करते और
सुबह 6.30 बजे काम पर लग जाते। वे सुबह 11.30 बजे तक काम करते, फिर दोपहर का भोजन करते और
1 बजे तक आराम करते और फिर शाम 6.30 बजे तक काम करते। फिर वे शाम की सैर में
गांधीजी के साथ शामिल होते और उनसे बातचीत करते। यह सब शिक्षा की एक प्रक्रिया थी।
पोलाक और एंड्रयूज भी आ गए
थे। पोलाक वापस चले गए। एंड्रयूज को पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार काम करने के
लिए फिजी जाना पड़ा। चंपारण के कार्यकर्ता चाहते थे कि वे रुकें। उन्होंने कहा कि
मोहन के कहने पर वे रुकेंगे। गांधीजी ने राजेंद्र बाबू से कहा कि वे चार्ली को
रुकने के लिए नहीं कहेंगे, क्योंकि उन्हें अपने साथ रखने की उनकी इच्छा भय और आत्मविश्वास की
कमी के कारण पैदा हुई थी। उन्हें लगा कि एक अंग्रेज होने के नाते वे अंग्रेज
अफसरों से ज्यादा प्रभावी ढंग से निपट पाएंगे। गांधीजी ने कहा कि उन्हें यह पसंद
नहीं है और इसलिए वे चार्ली को भेज रहे हैं। उन्हें समस्याओं और परिस्थितियों से
निपटने की अपनी क्षमता पर विश्वास विकसित करना चाहिए। इसलिए एंड्रयूज चले गए लेकिन
उनकी जगह लेने के लिए मजहरुल हक आ गए।
21 अप्रैल को गांधीजी ने हेकॉक से मुलाकात की। गांधीजी को बताया गया
कि लेफ्टिनेंट गवर्नर के निर्देश पर उनके खिलाफ मामला वापस लिया जा रहा है और वे
अपनी जांच जारी रखने के लिए स्वतंत्र हैं, जिसमें उन्हें स्थानीय
अधिकारियों से हर संभव सहायता मिलेगी। यह पहली जीत थी। इससे चंपारण के मजदूरों और
लोगों का हौसला बढ़ा और उनका आत्मविश्वास बढ़ा।
22 अप्रैल को गांधीजी ब्रजकिशोर प्रसाद, रामनवमी प्रसाद और कुछ
अन्य लोगों के साथ बेतिया के लिए रवाना हुए। उनके दर्शन पाने के लिए प्रत्येक
स्टेशन पर किसानों की भीड़ इंतजार कर रही थी। जब ट्रेन दोपहर 4.30 बजे बेतिया
पहुँची, तो भीड़ इतनी अधिक थी कि सुरक्षा के दृष्टिकोण से ट्रेन को
प्लेटफ़ॉर्म से कुछ दूरी पर रोकना पड़ा। जैसे ही गांधीजी अपने तीसरे दर्जे के
डिब्बे से उतरे, उन पर फूलों की वर्षा की गई, लोगों ने 'महात्मा गांधी की जय' का नारा लगाया! लोगों ने
गांधीजी के लिए व्यवस्थित गाड़ी से घोड़ों को अलग कर दिया ताकि वे खुद उसे खींच
सकें। गांधीजी ने सख्ती से मना किया। लोग छोटी-छोटी धूल भरी गलियों में उनका नाम
जपते हुए उनके पीछे-पीछे चले गए। राजकुमार शुक्ल आनंद में थे। आखिरकार उन्होंने
गांधी को अपने लोगों के पास पहुंचा दिया था। उन्हें हजारी मल की धर्मशाला ले जाया
गया, जो बेतिया में उनके प्रवास की अवधि के लिए उनका मुख्यालय बन गया।
बेतिया में अपनी जांच को आगे बढ़ाने में उनकी मदद करने के लिए
गांधीजी ने ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद और उनके सहयोगियों शंभू बाबू, अनुग्रह बाबू, धरणीधर बाबू, रामनवमी बाबू और अन्य
वकीलों की सहायता ली। कार्यकर्ताओं में जे.बी. कृपलानी भी थे, जो "सिंधी होने के
बावजूद जन्मजात बिहारी से ज़्यादा बिहारी थे।" मज़हरुल हक़ भी कभी-कभार उनसे
मिलने आते थे। बेतिया में गांधीजी ने बिना समय गंवाए स्थानीय एस.डी.एम. और बागान
मालिकों के प्रतिनिधियों से मुलाकात की। बयान दर्ज करने का काम जोर-शोर से शुरू
किया गया। गवाही देने के लिए किसानों की भीड़ उमड़ती रही।
23 अप्रैल को गांधीजी राजकुमार शुक्ल के घर गए और उनके परिवार के
सदस्यों से बात की। वह मुरली भरहवा नामक छोटे से गांव में रहता था, जो नक्शे पर बेतिया से
ज्यादा दूर नहीं था, हालांकि वहां केवल तपती हुई वादियों से होकर पगडंडी के रास्ते से ही
पहुंचा जा सकता था। यह गांव निकटतम रेलवे स्टेशन से सात मील दूर था। यह भारत के
सैकड़ों-हजारों लुप्त गांवों में से एक और गांव था। अपनी आत्मकथा में उस व्यक्ति
के बारे में गांधीजी के अंतिम शब्दों से हम इतना तो अनुमान लगा सकते हैं:
"राजकुमार शुक्ल हजारों किसानों तक पहुँचने में असमर्थ थे, और फिर भी उन्होंने मेरा
स्वागत ऐसे किया जैसे हम आजीवन मित्र रहे हों। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि यह शाब्दिक सत्य है
कि किसानों के साथ इस मुलाकात में मैं ईश्वर, अहिंसा और सत्य के
आमने-सामने था।" उसने लेफ्टिनेंट गवर्नर को कई याचिकाएँ भेजीं, और चूँकि इन याचिकाओं में
एस्टेट मैनेजरों के आचरण को दर्शाया गया था, इसलिए उसे मुकदमे के लिए
लाया गया और तीन सप्ताह के कारावास की सजा सुनाई गई। जेल की सजा ने उसे न्याय पाने
के लिए पहले से कहीं ज़्यादा दृढ़ बना दिया। अप्रैल 1915 में वह छपरा में आयोजित
प्रांतीय सम्मेलन में उपस्थित हुआ, और किसानों के साथ
दुर्व्यवहार के बारे में एक सार्वजनिक घोषणा की। जब दिसंबर 1916 में लखनऊ में
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उनकी मुलाकात गांधीजी से हुई, तो वे पहले से ही एक
अनुभवी आंदोलनकारी थे। जिस समय गांधीजी मुरली भरहवा के गुमनाम गांव से चले गए, राजकुमार शुक्ल इतिहास के
पन्नों से गायब हो गए। गांधीजी को चंपारण लाने के अपने लगातार प्रयासों से
उन्होंने एक ऐतिहासिक उद्देश्य पूरा किया, घटनाओं की एक ऐसी श्रृंखला
शुरू की जिसने भारतीय इतिहास को गहराई से प्रभावित किया। चंपारण में गांधीजी ने
पहली बार खुद को भारतीय धरती पर पाया। लंबे समय से वे एक ऐसे कार्यक्षेत्र की तलाश
में थे, जहां वे दक्षिण अफ्रीका में विकसित किए गए तरीकों का इस्तेमाल कर
सकें।
24 अप्रैल को ब्रजकिशोर प्रसाद के साथ गांधीजी पड़ोसी गांव लौकेरिया
गए। उन्होंने गांव वालों की स्थिति के बारे में विस्तृत पूछताछ की। उन्होंने अपनी
शिकायतें बताईं। गांव वालों के बयान दर्ज करने से पहले ब्रजकिशोर प्रसाद ने उनसे
बारीकी से जिरह की। पार्टी ने रात गांव में बिताई और गांधीजी ने बायरिया कारखाने
का दौरा किया और प्रबंधक एच. गेल से मुलाकात की। अगले दिन गांधीजी घोड़ागाड़ी लेने
के बजाय पैदल ही बेतिया वापस आए। इससे उनके एक पैर में सूजन आ गई। इस दर्द की परवाह किए बिना गांधीजी अगले दिन बेतिया से कुछ ही दूरी
पर कुरिया फैक्ट्री के अंतर्गत सिंधछपरा गांव में पहुंचे। पुलिस वाले उनका पीछा कर
रहे थे। उन्होंने फिर से नील की खेती के बारे में विस्तृत पूछताछ की। उन्होंने
देखा कि घरों के चारों ओर नील की खेती हो रही है। उन्होंने गांव वालों के बयान
दर्ज करवाए। किसानों की जीवन-स्थिति बहुत दयनीय थी।
27 अप्रैल को ब्रजकिशोर
प्रसाद और अन्य लोगों के साथ गांधीजी बेलवा कारखाने के अंतर्गत आने वाले गांवों का
दौरा करने के लिए आगे बढ़े। यह दल सुबह 4 बजे बेतिया से पैदल
नरकटियागंज स्टेशन के लिए रवाना हुआ और दो घंटे बाद वहां पहुंचा। यहां से गोरखपुर
के विंध्यबासिनी प्रसाद और दो अन्य लोग दल में शामिल हो गए। सुबह 9 बजे दल राजकुमार शुक्ल के
गांव मुरली भरहवा पहुंचा। शुक्ल ने गांधीजी को दिखाया कि किस तरह एक महीने पहले ही
बागान मालिकों के भाड़े के गुंडों ने उनके घर को लूट लिया था। अनाज के मिट्टी के
बर्तन पलट दिए गए थे, केले के पेड़ काट दिए गए थे। जिन खेतों को कारखाना प्रबंधन के आदेश
से चर लिया गया था, उनमें अब केवल डंठल और तने ही बचे थे। गांधीजी ने जो कुछ देखा
उससे वे बहुत दुखी हुए। उन्होंने शुक्ला और उनके परिवार को सांत्वना दी। दिन में रैयतों के बयान दर्ज किए गए। सैकड़ों लोग गवाही देने के लिए
आगे आए। 28 अप्रैल की सुबह यह दल बेतिया वापस आ गया।
28 अप्रैल को बिहार प्लांटर्स एसोसिएशन के मानद
सचिव हरबर्ट कोक्स ने गांधी जी की तफ़तीश के विरोध में मोरशेड को पत्र लिखा। 5 मई बिहार प्लांटर्स एसोसिएशन के सचिव एच. ई. कॉक्स ने एक प्रस्ताव पारित कर
गांधीजी की तफ़तीश के तरीक़े के प्रति अपना विरोध जताया। उसने सुझाव दिया कि गांधीजी का आंदोलन किसानों
की शिकायतों के निवारण से कहीं अधिक "किसी बड़े राजनीतिक आंदोलन का
हिस्सा" था।
सारे देश में इस चंपारण सत्याग्रह की चर्चा हो
रही थी। गांधीजी ने बड़ी सतर्कता से इसे राजनीतिक आन्दोलन होने से बचा लिया। सारे
देश के पत्रकार चंपारण आना चाहते थे। गांधीजी ने प्रमुख अखबारों को पत्र लिखकर
उनके संवाददाताओं को चंपारण आने से रोक दिया। वे ख़ुद ही प्रत्येक तीन-चार दिन के
बाद वहां की संक्षिप्त रिपोर्ट अखबारों को भेज दिया करते थे। मालवीयजी ने गांधीजी
को आश्वासन दिया कि ज़रूरत पड़ने पर वे किसी भी समय चंपारण आने को तैयार हैं। लेकिन
गांधीजी ने उन्हें भी आने से मना कर दिया। इस पूरे कार्यक्रम में कांग्रेस का भी
कहीं नाम नहीं लिया गया और न ही किसी कांग्रेसी नेता ने इसमें भाग लिया।
जो काम गांधीजी कर रहे थे, उस काम में पैसों की भी ज़रूरत थी। लेकिन
गांधीजी की मितव्ययिता ने सारे काम को मात्र तीन हज़ार में निपटा दिया। फरियादियों
के बयान को कड़ी जांच-पड़ताल के बाद दर्ज़ किया जाता। सरकार की ओर से एक खुफ़िया पुलिस
का एक सदस्य हर समय उपस्थित रहता।
1 मई की शाम को गांधीजी, ब्रजकिशोर प्रसाद के साथ, मोतिहारी के लिए ट्रेन से रवाना हुए, जहाँ बागान मालिकों ने उनसे अगले दिन मिलने का
प्रबंध किया था। बागान मालिकों के साथ उनकी बैठक का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। 3 मई को बेतिया लौटने से पहले गांधीजी ने जिला
मजिस्ट्रेट और बंदोबस्त अधिकारी से मुलाकात की।
ब्रजकिशोर बाबू और राजेन्द्र प्रसाद ने गांधीजी की काफी सहायता की।
ब्रजकिशोर बाबू ने अपनी पुत्री प्रभावती को भी इस कार्य में लगाया। राजेन्द्र बाबू
और उनकी पत्नी राजवंशी देवी भी इस काम में जुटे थे। आचार्य कृपलानी ने सरकारी
कॉलेज की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और गांधीजी के संरक्षक और द्वारपाल का जिम्मा
ले लिया। रोज़ हज़ारों लोग मिलने आते। जांच-पड़ताल के अलावा गांधीजी किसानों को
सत्याग्रह के सिद्धांतों की शिक्षा भी देते। वह किसानों को स्वास्थ्य रक्षा के
आरंभिक सिद्धांतों की भी शिक्षा देते। बच्चों को शिक्षा देने पर ज़ोर देते। उन्होंने
निरक्षर किसानों को स्वास्थ्य रक्षा के आरंभिक सिद्धांतों की शिक्षा देने और उनके
बच्चों के लिए विद्यालय चलाने के लिए स्वयं सेवकों को संगठित किया। एक साथ दो
मोर्चे जारी रखना गांधीवादी रणनीति की विशेषता थी – एक मोर्चा बाहर के अन्याय के
खिलाफ और एक मोर्चा अन्दर के अज्ञान और असहाय भाव के खिलाफ। वे कहते आज़ाद होने
के लिए आदमी को अपने पांव पर खड़ा होना पड़ेगा। इस तरह जहां उन्होंने अपने
अधिकारों के लिए लड़ने का साहस प्रदान किया वहीं अपने कर्तव्यों का पालन करना भी
सिखाया।
वे चाहते थे कि इन कामों में महिलाओं की भी भागीदारी होनी चाहिये। कस्तूरबा को महिलाओं को आंदोलन से जोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।
भीतिहरवा गांव में कस्तूरबा को यहां की महिलाओं की बातचीत में यह पता चला कि महिलाओं के
पास पहनने के लिए एक भी ढंग की साड़ी नहीं है। घर के अंदर तो जैसे-तैसे चल जाता है ऐसी हालत
में बाहर कैसे निकलें। उन्होंने कहा- गांधीजी से हमें कपड़े दिलाओ तो हम भी बाहर आएंगी।
चंपारण के गांवों में गांधीजी ने भारत की गरीब जनता की असलियत पहली बार देखी थी।
उन्हें खुद पर शर्म भी आई कि हमारे भाई बहन इस हालत में गुजर करते हैं और हम इतनी
बड़ी पगड़ी पहनते हैं। कालांतर में गांधीजी ने देश के गरीब देहातियों की ऐसी ही दयनीय हालत देख-देख
कर एक दिन अचानक पगड़ी और लंबी धोती कुर्ता हमेशा के लिए त्याग कर सबको चौंका दिया। चंपारण
के आंदोलन ने गांधीजी का हुलिया भी बदला और नजरिया भी। गांधीजी खास की श्रेणी से आम में आ गये और अंत तक आम ही बने रहे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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