बुधवार, 5 मार्च 2025

304. मेडलीन स्लेड (मीरा बेन) का पदार्पण

राष्ट्रीय आन्दोलन

304. मेडलीन स्लेड (मीरा बेन) का पदार्पण



1925

1925 में गांधी जी की एक विदेशी सहयोगी मेडलीन स्लेड का पदार्पण होता है। उनका जन्म एक प्रतिष्ठित ब्रिटिश परिवार में 1892 में हुआ था। उनके पिता विलायत के नौसेना के कमांडर एडमिरल सर एडमंड स्लेड थे। उन्होंने एक समय में ब्रिटिश नौसेना के ईस्ट इंडीज स्टेशन की कमान संभाली थी, इसलिए मैडेलीन के लिए भारत बिल्कुल भी अजनबी देश नहीं था। एक ओहदेदार ब्रिटिश अफसर की बेटी होने के चलते उनकी ज़िंदगी अनुशासन में गुज़री। मेडलिन बाल्यकाल से ही विशेष प्रवृत्ति की थी। पिता की रईसी की ज़िन्दगी न अपनाकर वह नाना-नानी की गांव की ज़मीन पर पली-बढीं। बचपन में ही उन्होंने घुड़सवारी सीख ली थी और उन्हें जानवरों से बेहद प्यार था। कपड़े-लत्ते, आभूषण-श्रृंगार का उन्हें कोई शौक नहीं था।

15 वर्ष की उम्र में ही वह बीथोवन की बहुत बड़ी भक्त थीं। बीथोवन संगीत में वह इतना रमी कि सांसारिक मोह से बिल्कुल ही कट गईं। उनमें श्रद्धाभक्ति भर गई। वे रोमां रोलां की भी बहुत बड़ी प्रशंसक थीं। रोमां रोलां स्विट्जरलैंड के विलेनेव गांव में नदी के किनारे अपनी बहन के साथ रहते थे। बहुत ही अच्छा पियानो बजाते थे। रोमां रोलां बीथोवन पर प्रमाणिक विद्वान माने जाते थे। उन्होंने संगीतकार बीथोवेन के जीवन पर दस खंडों में रोमां रोलां द्वारा रचित उपन्यास ज्यों क्रिस्ताफ़े अनेकों बार पढ़ा था। वे इस संगीतकार के प्रति बेहद आकर्षित थीं। रोमां रोलां से मेडलिन का संपर्क अक्टूबर 1923 में लंदन यात्रा में हुआ था। रोमां रोलां ने मेडलिन को बताया कि वह गांधीजी की जीवनी लिख रहे थे। मेडलिन ने गांधीजी का नाम सुना ही नहीं था। इस माध्यम से मेडलिन का परिचय गांधी जी से हुआ। साल भर बाद यह पुस्तक (1924 में) प्रकाशित हुई।

रोमां रोलां ने मेडलिन को अपनी आध्यात्मिक पुत्री के रूप में अपना लिया था। जब मेडलिन चौथी बार रोमां रोलां से मिलीं तो रोलां ने महात्मा गांधी का ज़िक्र किया। मेडलिन ने पूछा, “ये कौन हैं?”

रोलां ने सहजता से कहा, “ये दूसरे यीशु हैं। अच्छाई और पवित्रता के मामले में गांधी यीशु से कमतर नहीं हैं। और हृदयस्पर्शी और विनम्रता के मामले में तो वे यीशु से भी श्रेष्ठ हैं। निराशा और दिशाहीनता के इस युग में गांधी उम्मीद के मसीहा हैं। युद्ध पिपासु के उन्माद से ग्रस्त इस दुनिया के लिए वे विवेक की आवाज़ हैं।

रोमां रोलां की बातों ने मेडेलीन को इस कदर प्रभावित किया कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी को लेकर गांधीजी के बताए रास्तों पर चलने की ठान ली। मेडलिन के परिवार ने उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की। पिता ब्रिटिश नौसेना के आला अधिकारी थे और ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा और स्थिरता के प्रति समर्पित थे। ऐसे शख्स की बड़ी बेटी एक ऐसे आदमी से जुड़ने जा रही थी जिसे अंग्रेज़ लोग ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे बड़ा शत्रु मानते थे। उनके माता और पिता दोनों ने उनके निर्णय का सम्मान किया। भारतीय भाषा सीखने की न सिर्फ़ सलाह दी बल्कि लन्दन में रह रहे एक भारतीय को शिक्षक के रूप में नियुक्त भी कर दिया।

18 साल पहले, जब मैडलिन पन्द्रह साल की थीं तब वो भारत में रह चुकी थी। उस समय उनके पिता सर एडमंड स्लेड रॉयल, नेवी के ईस्ट इंडियन स्टेशन के कमांडर इन चीफ़ थे। वे मुंबई में रहते थे। तब उनके साथ, उनकी मां, बहन रहोना और पुरानी नर्स बर्था भी साथ में थीं। 15 साल की छोटी लड़की के रूप में, वह भारत और सीलोन में काफी घूम चुकी थी। हालाँकि तब प्रोटोकॉल की आवश्यकताओं के कारण उसकी गतिविधियाँ बहुत सीमित थीं, इसलिए वह केवल ब्रिटिश शासक मंडलियों और भारतीय राजघरानों के सदस्यों के साथ ही मिल-जुल सकती थी, लेकिन वह भारत के प्रभाव से पूरी तरह से अछूती नहीं थी। मैडलिन का लालन-पालन काफ़ी ऐश-ओ-आराम में हुआ था। वे विचारों में खोई रहने वाली लड़की थीं। अकेलापन उनको अच्छा लगता था। अज्ञात और असीम सृष्टि के बारे में उनके मन में जिज्ञासा उठती रहती थी। एक व्यक्ति, एक स्थिति, एक विचार सरणि पर एकाग्रचित्त होने और असंगत तथा अनावश्यक बातों को इच्छानुसार परे रखने की उनमें सहज वृत्ति थी। रोमां रोलां ने उनकी इस क्षमता को वरदान में मिली आध्यात्मिकता की पक्की निशानी कहा था। उनका मानना था कि सत्य और सम्पूर्णता का रास्ता मानव रूप में साकार शाश्वत आत्मा के प्रति समर्पण में है। वह आत्मा उन्हें गांधीजी में दिखाई देती थी।

दिखने में मैडलिन काफ़ी सुंदर थीं। घने काले बाल, सुगठित बदन और छह फ़ुट का शरीर। उनका व्यक्तित्व प्रभावोत्पादक था। रोलां ने गांधीजी का वर्णन दूसरे यीशु के रूप में किया था। यह सुनकर तो मैडलिन का मन गांधीजी से मिलने को उत्सुक हो गया। उन्होंने गांधीजी से पत्रव्यवहार किया। बताया कि वे उनकी राह पर चलने के लिए साबरमती आश्रम रहने को तैयार हैं। शुरु में तो गांधीजी ने उन्हें हतोत्साहित किया पर वे अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं। अंत में गांधीजी ने उनकी बात मानी। गांधीजी ने उन्हें साल भर घर पर ही रह कर आश्रम की दिनचर्या पालन करने का निर्देश दिया। मेडलिन ने पिछला एक साल कठिन प्रशिक्षण में गुजारा था। इस दौरान उन्होंने आश्रम की नियमावली और भारत के बारे में किताबें पढ़ी थीं। पवित्र ग्रंथों का अध्ययन किया था। उर्दू सीखा था। चरखा कातना और बुनाई भी सीखी। निजी आदतों को बदलना शुरु कर दिया था, शराब छोड़ने, खेती सीखना शुरू करने से लेकर शाकाहारी बनने तक। फ़र्श पर पलथी मारकर बैठने में शुरु-शुरु में उन्हें काफ़ी तकलीफ़ होती थी। फ़र्श पर सोना तो एक दुष्कर कार्य था। किन्तु उन्होंने नंगे फ़र्श पर सोने का अभ्यास ज़ारी रखा। मांस खाना छोड़ दिया। शराब पीनी छोड़ दी। सादा जीवन अपना लिया। कुछ दिन स्वीस के एक कुटीर में रह कर भिक्षुओं की तरह कठोर जीवन का पालन किया। फिर गांधीजी को पत्र लिख कर बताया, क्या मैं आ सकती हूं?

24 जुलाई 1925 को गांधी जी ने जवाब देते हुए कहा, आप जब भी आना चाहें, आपका स्वागत है। .... आश्रम का जीवन फूलों की सेज नहीं है। ये बात मैं आपको डराने के लिए नहीं चेतावनी के लिए लिख रहा हूं। मैडलिन ने तो ठान ही ली थी, उन्होंने मुंबई रवाना होने का निर्णय कर लिया। 25 अक्तूबर  को फ़्रांस के मार्सेलिए बन्दरगाह पर मेडलिन स्लेड पी एंड ओ पोत के जेट्टी पर खड़ी थी, मुम्बई की ओर रवाना होने के लिए। वे एक आदिम उम्मीद से भरी दुनिया की ओर जा रही थी। उनका गन्तव्य एक व्यक्ति था, गांधी, कोई देश नहीं। उनके हाथ में एक सन्दूक था जिसमें उर्दू व्याकरण, भागवत गीता और ऋग्वेद का फ्रांसीसी अनुवाद के साथ हाल ही में प्रकाशित फ्रांसीसी भाषा में रोमाँ रोलाँ रचित बापू की जीवनी महात्मा गांधी थी।

मेडलीन के दूसरे हाथ में चमड़े का एक थैला था। उस थैले में सफ़ेद खादी के नए पांच फ्राक रखे थे। खादी का कपड़ा खासतौर से भारत से मंगाया गया था। जाड़े में प्रयोग के कुछ और वस्त्र थे। और था गहनों का एक छोटा-सा बक्सा, जिसे वे गांधी आश्रम को दान में देने वाली थीं।

33 साल की मैडलिन स्लेड (22 नवम्बर 1892 - 20 जुलाई 1982) को लिए जहाज 6 नवम्बर  की सुबह देर गए मुंबई के प्रिसेंस बंदरगाह पहुंचा। घाट पर यूरोपीय और भारतीय लोगों की भीड़ थी। भारतीयों के हाथों में फूल मालाएं थीं। मेडलीन जहाज की सीढ़ियों से उतर कर बाहर आ गई। आश्रम उन्हें जल्द से जल्द पहुंचना था। गांधीजी ने उनकी आगवानी के लिए एक अमीर पारसी वकील को भेजा था। उन्होंने मेडलीन को सुझाव दिया कि कुछ दिन बम्बई में आराम करें, थोड़ा घूम लें, शहर को देखें। लेकिन मेडलीन ने मेजबान का यह अनुरोध शालीनता से ठुकरा दिया और उसी शाम आहमदाबाद के लिए रेलगाड़ी से रवाना हो जाने की अपनी इच्छा ज़ाहिर कर दी और उसी दिन अहमदाबाद जाने वाली गुजरात मेल के प्रथम श्रेणी से मेडलीन अहमदाबाद के लिए रवाना हुईं।

अहमदाबाद पहुंची

जब गाड़ी अगले दिन अहमदाबाद पहुंची, तो उनकी आगवानी करने वालों में गांधीजी के सचिव महादेव देसाई, उनके भरोसेमंद राजनैतिक सिपाही सरदार वल्लभभाई पटेल (कांग्रेस में जिनकी कद की बराबरी केवल जवाहरलाल नेहरू करते थे) और साप्ताहिक यंग इंडिया के प्रबंधक स्वामी आनंद थे। आखिर मेडलीन महान फ्रांसीसी लेखक और बापू के प्रशंसक रोमां रोलां के परिचय से आ रही थीं। उनके आगमन से एक महीना पहले बापू को रोलां का पत्र मिला था, जिसे बापू ने मेडलिन के आगमन के एक दिन पहले सुबह की प्रार्थना सभा में पढ़कर सुनाया था। लिखा था, “प्रिय भाई! जल्द ही आप साबरमती में मेडलिन स्लेड का स्वागत करेंगे। वे मेरी बहन और मेरी प्यारी मित्र हैं और मैं उन्हें अपनी मानस पुत्री मानता हूं।वे एकदम सीधी सादी और ईमानदार हैं। आप जिस लक्ष्य के लिए कार्य कर रहे हैं उसके लिए यूरोप उनसे ज़्यादा विनम्र या निष्काम व्यक्ति प्रस्तुत नहीं कर सकता।

अहमदाबाद स्टेशन से तांगे में बैठकर वे आश्रम के लिए रवाना हुईं। इधर साबरमती आश्रम में मेडलिन को लेकर बहुत ही उत्सुकता और अटकलें थीं। आशंकाएं भी ज़ाहिर की जा रही थीं। लोगों को शिकायत थी कि गांधीजी उन्हें कुछ खास हैसियत दे रहे हैं। आश्रम के प्रवेश द्वार के दाहिने ओर के पहले मकान का कोने वाला कमरा उनके लिए चुना गया था। जब वे आश्रम पहुंची तो उन्होंने विनम्र किंतु स्पष्ट शब्दों में कहा कि उन्हें सीधे बापू के पास ले जाया जाए। जब हृदयकुंज में गांधीजी को देखा तो उन्हें लगा कि सामने ‘एक फ़रिश्ता’ खड़ा है। उन्होंने ईसा का दूसरा अवतार देखा। जैसे ही उन्होंने फ़र्श पर बिछे गद्दे पर बैठी उनकी कृशकाया देखी, उन्हें उनकी दिशा से आते प्रकाश की जबरदस्त अनुभूति हुई। यह ऐसा प्रकाश था जिसे उन्होंने देखा नहीं बल्कि महसूस किया ... उनकी आंखों के पीछे जैसे उसका विस्फोट हो गया था। मेडलिन उनके आगे फ़र्श पर लेट गईं। अपना सब कुछ छोड़ कर सदा के लिए आ चुकी मैडलिन को देख कर गांधीजी भी काफ़ी अभिभूत हुए। तुरंत अपने गद्दे से उठकर आगे आए और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए सहारा दिया। उन्होंने कहा, तुम मेरी बेटी बन कर रहोगी। उन्होंने उसे मीराबेन नाम दिया। उस दिन से दोनों में बाप-बेटी का भाव जाग उठा जो आजीवन बना रहा। रोमां रोलां को 13 नवम्बर 1925 को लिखे अपने पत्र में गांधीजी ने कहा, कैसा रत्न आपने मुझे भेजा है!

गांधीजी से अपनी पहली मुलाकात को मेडेलीन ने कुछ यूं बयां किया, 'जब मैं वहां दाखिल हुई तो सामने से एक दुबला शख्स सफेद गद्दी से उठकर मेरी तरफ बढ़ रहा था। मैं जानती थी कि ये शख्स बापू थे। मैं हर्ष और श्रद्धा से भर गई थी। मुझे बस सामने एक दिव्य रौशनी दिखाई दे रही थी। मैं बापू के पैरों में झुककर बैठ जाती हूं। बापू मुझे उठाते हैं और कहते हैं- तुम मेरी बेटी हो।'

आश्रम जीवन में आने के बाद उनको ‘मीरा’ का खिताब दिया गया। 16वीं शताब्दी की राजपूत राजकुमारी मीरा ने बचपन से ही खुद को भगवान कृष्ण को समर्पित कर दिया था। मेवाड़ के शासक घराने में तेरह साल की उम्र में ही ब्याही गई मीरा ने पत्नी के कर्तव्य निभाने से मना कर दिया था। उनका कहना था कि वे पहले ही कृष्ण से ब्याही जा चुकी हैं। अब राजा की पत्नी के कर्तव्य निभाना उनके लिए संभव न था। ईश्वर भक्ति में मीरा ने अपने समय की राजपूत राजघरानाओं की महिलाओं से जुड़ी गहरी वर्जनाओं को तोड़ा। उनके पति की असामयिक मृत्यु के बाद उनके ससुराल वालों ने उन्हें सताना शुरू किया। वे महल से भाग गईं और कृष्ण प्रेम और भक्ति के गीत बनाती, गाती और घूमती रहीं। उनके गीत हिंदी कविता की अमूल्य धरोहर बन गए। बापू आधुनिक मीरा के हृदय में कृष्ण का स्थान रखते हैं। मेडलिन से मीराबहन के रूप में उनका पुनर्जन्म हुआ। उन्होंने अपना नाम चरितार्थ कर दिया।

मीराबहन ने अपने अतीत को भुलाने के लिए विशेष प्रयास किया। पहले भगवद्गीता पढ़ी। पेरिस से लाए अपने कपड़े जला डाले। खादी का सपाट चोंगा बनवा लिया। अपने सुंदर बाल कटवा लिए। अपने उच्च-वर्गीय लालन-पालन को तिलांजलि दे दी। अपने परिवार को त्याग दिया। गांधीजी ने उन्हें बेटी की तरह अपना लिया था। शुरु में आश्रम के अन्य लोगों का व्यवहार उनके प्रति ठंडा और चौकसी भरा था। धीरे-धीरे वे वहां की दिनचर्या में रम गईं। सर्वश्रेष्ठ सूत कताई करने वाले सुरेन्द्र भाई को उन्हें सूत कताई सिखाने का जिम्मा सौंपा गया। उन्होंने रोमां रोलां को पत्र लिख कर सूचित किया, “मैं कल्पना नहीं कर सकती कि वे कितने दिव्य हैं। मैंने एक पैगम्बर से मिलने की तैयारी की थी, मुझे एक देवदूत मिले। मुझे ईश्वर की चेतना से रू--रू होने का सौभाग्य मिला है। उनके हाथों में अमरत्व की रहस्यमयी छुअन है।

आश्रम में मीरा बहुत मेहनत करती थीं। तुलसी महार से चरखा सीखतीं, हिंदी शिक्षक से हिंदी सीखतीं, अपने काम को उन्होंने हल्के ढंग से कभी नहीं लिया। वे शौचालयों की सफ़ाई में उतनी ही सावधानी बरततीं जितनी कि बरतनों के धोने में। वे भारतीय वस्त्र पहनतीं, निरामिष भोजन करतीं और भारतीयों के बारे में बड़े चाव से पढ़तीं। उन्हें बापू के सोने से पहले उनके साथ एक घंटे बिताने की अनुमति मिल गई थी। बापू अपनी कुटिया के बरामदे पर अपने बिस्तर पर लेटे होते और मीरा पास में बरामदे पर बैठी होतीं। बापू उनकी बातें सुनते रहते, और बीच-बीच में एकाध सवाल पूछ लेते। बा चुपचाप उनके सिर में नारियल तेल की मालिश करती रहतीं। बातचीत अंग्रेज़ी में होती, जो बा की समझ से परे थी।



भगवद्भक्ति आश्रम में

जनवरी 1927 में मीरा बहन दिल्ली-मुम्बई पर बसे रेवाड़ी शहर के बाहरी इलाके में स्थित भगवद्भक्ति आश्रम में आ गईं। बापू ने उन्हें स्वामी श्रद्धानंद के इस आश्रम में हिंदी की और बेहतर पढ़ाई के लिए भेजा था। बापू चाहते थे कि वे भारत के लोगों जैसी हिंदी बोलने लगें और गांव वालों की ज़बान भी समझने लगें। उन्हें वहां तीन महीने रहना था।

26 मार्च 1927 को बापू एक दिन के लिए रेवाड़ी के भगवद्भक्ति आश्रम में दिल्ली से आए। उनके साथ महादेव भाई और देवदास गांधी थे। बापू काफ़ी ख़ुश थे। आसपास के गांवों के लोग उनके दर्शन के लिए दोपहर में आश्रम के फाटक पर जमा हो गए। गांधीजी ने उन्हें चरखा कातने और गांवों में शौचालय बनाने के महत्व के बारे में बताया। शाम के समय टहलते वक़्त बापू ने मीरा बहन से पूछा कि उन्हें भगवत्भक्ति आश्रम का जीवन कैसा लग रहा है तो मीरा बहन ने बताया कि बापू के आश्रम की तरह वहां का जीवन उन्हें पसंद नहीं आ रहा है और वे वहां के लोगों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं।

बापू के सानिध्य में नहीं रह पाने के कारण मीरा बहन को उस आश्रम में मन नहीं लग रहा था। उन्हें समझाते हुए बापू ने उन्हें कहा, तुम मेरे पास रहने नहीं,  मेरे आदर्शों के लिए भारत आई हो। अबतक तो तुम्हें मालूम हो ही गया होग कि उन आदर्शों को, जिन्हें मैंने चुना है, कितना जीता हूं। यह अब तुम्हारे ऊपर है कि तुम उन आदर्शों का सम्पूर्णता से पालन करो, जिनका मुझे पालन करना है। वहां का प्रशिक्षण समाप्त हो जाने के बाद मीरा बहन ने वर्धा आश्रम में एक महीने रहने का फैसला किया। वे साबरमती आश्रम में नहीं रहना चाहती थीं क्योंकि वहां बापू के बिना रहना उन्हें पसंद नहीं था। वर्धा के आश्रम में सुधारवादियों और रूढ़िवादियों का ज़िक्र करते हुए वे लिखती हैं कि महिलाओं को उनके मासिक धर्म की अवधि में अलग-थलग रखने के रिवाज़ के प्रति रूवादियों के आग्रह उन्हें पसंद नहीं।

किसी तरह सितम्बर के मध्य तक मीरा बहन वर्धा के आश्रम में रहीं। वे वर्धा से बम्बई और फिर पूना चली आईं। उन दिनों बापू दक्षिण भारत की यात्रा पर थे। मीरा बापू के काफ़ी निकट ही थीं। वे बापू के दर्शन करना चाह रही थीं। बिना बापू को सूचित किए वे बंगलूर की ट्रेन पकड़ कर और बंगलूर में बस पकड़कर शहर के बाहरी इलाक़े में पहुंच गईं, जहां बापू ठहरे थे। बाहर से तो बापू ख़ुश दिखे। उन्होंने मुसकरा कर मीरा बहन का स्वागत किया। लेकिन कुछ घंटों के बाद ही बापू ने उन्हें लगभग डांटते हुए कहा कि उन्हें अपने पर काबू रखना चाहिए। अगली सुबह जब वे बापू के कमरे में गईं तो बापू ने उन्हें पर्ची थमाते हुए कहा कि आज उनका मौन रखने का दिन है। उन्होंने अपनी मंशा ज़ाहिर करते हुए दूसरी पर्ची पर लिखा कि उन्हें शीघ्र साबरमती आश्रम लौट जाना चाहिए। बापू ने लिखा था, तुम्हारे अंदर साहस है। मगर तुम कमज़ोर हो। साहस के साथ शांति न हो, तो कमज़ोरी आ जाती है। मैं तुम्हारी भलाई के लिए कर रहा हूं। उन्हें विदा करने के लिए स्टेशन तक महादेव भाई आए। उन्होंने कहा कि उन्हें बापू से खुद को अलग रखना होगा। मीरा बहन के लिए यह अपमान की स्थिति जैसी लगी। रोमां रोलां को पत्र लिख कर उन्होंने अपनी मनोभावना प्रकट की, दुत्कारी गई कुतिया जैसे दुम दबाए भागती है वैसे ही मैं शरमा कर भाग आई।

आश्रम में वे अपने भावी कार्यक्रम में नई ऊर्जा से जुट गईं। गांवों में दूध के उत्पादन के ज़रिए वे लोगों की सेवा करना चाहती थीं। मीरा बहन ने गांधीजी से जितना संभव हो सके दूरी बनाने का फैसला कर लिया। साबरमती आश्रम से वे उत्तर बिहार के मधुबनी ज़िले के दूरदराज़ के छतवन गांव चली आईं। गांव की औरतों को कताई-बुनाई के बेहतर तरीक़े सिखाना उनका उद्देश्य बन गया। गांव के गिने-चुने पक्के मकानों में से एक को उन्होंने अपना ठिकाना बनाया। वे दिन भर हॉल में बैठकर रूई की धुनाई करतीं और धुनी हुई रूई की पूनी बनाकर वे औरतों को दे देतीं। जिससे वे कताई करतीं और उससे उनकी कमाई होती। इसके अलावा शौचालय के लिए गड्ढे खोदना भी उनके क्रार्यक्रम में शामिल था।

ऋषिकेष के आश्रम में

गांधी जी जब कभी बाहर जाते मीराबहन को साथ ले जाते। भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के लिए बनवाए गए संडास का निरीक्षण करने का काम उन्होंने मीरा बहन को सौंपा। मीराबहन ने संडासों का निरीक्षण करके रिपोर्ट गांधीजी को दिया।

मीराबह्न को साबरमती आश्रम से कन्या गुरुकुल (दरियागंज), दिल्ली भेज दिया गया। बाद में भागीराभक्ति आश्रम, पुणे। और बाद में जब भी दूरस्थ स्थानों पर आश्रम की स्थापना होती तो देख रेख के मीरा बहन को ही भेजा जाता था।

गांधीजी एक अद्भुत करिश्माई व्यक्तित्व थे। उनकी आंखों में चुम्बक की शक्ति थी। इस शक्ति के कारण मिलने वाला उनसे अभिभूत हो जाता था। गांधीजी के व्यक्तित्व से छिटकती ज्योति की आभा में चमकने का ख़्याल एक ऐसा प्रलोभन था, जो उनके अनेक सहयोगियों को उनके रथ पर खींच लाया था। किसी करिश्माई व्यक्ति के प्रति भावनात्मक प्रेम ने अनहोनी को होनी बनाया। लोग, जिसमें महिलाएं भी शामिल है, उनसे दीर्घजीवी गुरु-शिष्य संबंध बनाना लेते थे। किन्तु गांधीजी अपनी अनेक महिला सहयोगियों के लिए निस्संदेह पितृवत्‌ थे। मीरा बहन के साथ भी ऐसा ही संबंध था।

सेवाग्राम की गरमी में मीरा बहन का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था। तब उन्होंने अनेक वर्ष ऋषिकेष के नज़दीक पशुलोक आश्रम में बिताए। इस दौर में सांप, बिच्छू, छिपकिलियां और चूहे उनके साथी थे। मानों वे परिवार के सदस्य हों। उन्होंने ने बापू को लिखा भी ‘मैं चूहों की एक फौज के साथ जीने की आदत डाल रही हूं।’ रात में वे उछलकर उनके बिस्तर पर आ जाते थे, उनके परों को कुतरने लगते थे, उनके बिस्तर पर कूदते फांदते थे और उनके बालों को उलझा देते थे। वे उन्हें परेशान करते तो थे, लेकिन उनका साथ देते थे, इसलिए वे उनकी शुक्रगुज़ार थीं और कृतज्ञ मीराबहन इस बात का खास ख्य़ाल रखती थीं कि उनमें से कोई उनके शरीर के भार से कुचल न जाय। मीरा बहन को पशुओं खासकर गाय से बहुत प्रेम था। उन्होंने अपने आश्रम का नाम ‘पशुलोक’ रखा था। अपने घूमने के लिए उन्होंने एक घोड़ा रखा था जिसका नाम सजीला था। पशुलोक जब विशाल संस्था बन गई तो मीरा बहन ने उसे उत्तर प्रदेश की सरकार को दान दे दिया और ख़ुद केदारनाथ के पास ‘गोपाल आश्रम’ बनाकर रहने लगीं। जीवन के अंतिम वर्षों में वह भारत में सूनी पड़ने लगी थीं, तो वियना के पास एक जंगल में अस्ट्रिया देश में रहने लगीं। बिथोवन अस्ट्रियन थे। 1982 में उनकी मृत्यु हो गई। 1981 में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

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