301. गांधीजी
की तैयारी का दौरा
1925
1925 में भारत असामान्य रूप से शांत था। अंग्रेज़ गांधीजी को एक चुकी हुई राजनैतिक ताकत
मान रहे थे। स्वतंत्रता संग्राम बिखरी हुई हालत में था। नेताओं के बीच
मतभेद पैदा हो रहे थे। पूरे देश में सांप्रदायिक वैमनस्य की घटनाएं हो रही थीं। राजनीति मुख्यतः काउंसिलों तक ही सीमित रही। इस दौरान सक्रिय राजनीति से अलग-थलग बापू
आत्मानुशासन, सहनशीलता और सादगी के उच्चतर मूल्यों को समर्पित एक समुदाय की रचना
में व्यस्त थे। अंग्रेज़ मानते थे कि गांधीजी अस्पष्ट से सामाजिक कार्यक्रम चला रहे
थे जो उस तरह के कार्यक्रमों से काफ़ी अलग थे, जिनसे साम्राज्य को खतरा हो सकता था।
लॉर्ड बर्केनहेड ने तो यहां तक कह डाला था, “बेचारे गांधी तो खत्म ही हो गए। अपनी वीणा के साथ अन्तिम चारण
के रूप में वे अपने चरखे के साथ एक दयनीय व्यक्ति नज़र आते हैं, जो प्रशंसकों की भीड़
नहीं जुटा सकता।” अंग्रेज़ों ने
उन्हें भले ही चुका हुआ मान लिया हो, भारत की जनता उनके अगले कदम की प्रतीक्षा कर
रही थी। गांधीजी ने कहा, स्वराज के लिए आन्दोलन ने अब अलग रूप ले लिया है। अब चरखा
कातने, हिन्दू समाज से छुआछूत को मिटाने और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काम करने की नैतिकतावादी राजनीति की
जाएगी। गांधी जी के लिए आध्यात्मिकता का अर्थ था आत्मानुशासन और समाज के प्रति
पूर्ण समर्पण।
चर्खा
संघ की स्थापना
गांधीजी ने स्वेच्छा से ख़ुद को राजनीतिक मंच से
अलग करने का फैसला ले लिया। उन्होंने अपना पूरा समय ‘नीचे की ओर से’
राष्ट्र का निर्माण करने के महत्त्वपूर्ण काम में लगा दिया। उन्होंने कहा था, “मेरा
तरीक़ा उनका तरीक़ा नहीं है, मैं नीचे से शुरू करके ऊपर की ओर जाने की कोशिश कर रहा हूं”। अंग्रेज़
कहते, गांधी थक गया है, खत्म हो गया है, भारतीय नेता कहते साबरमती के संत ने
राजनीति से संन्यास ले लिया है।
इस
दशक में गांधीजी ने रेल, मोटर, बैलगाड़ी, जो भी सवारी मिली उससे सारे देश का एक छोर
से दूसरे छोर तक का दौरा किया। साल की शुरुआत में, उन्होंने काठियावाड़, मध्य भारत, बंगाल, मालाबार और त्रावणकोर के गांवों का दौरा किया। हर
जगह लोगों ने अपार उत्साह और परम श्रद्धा भावना से उनका स्वागत किया। लोग बस महात्माजी
की वाणी सुनने आते थे। उनके दर्शन से कृतार्थ हो जाते थे। लोगों की इस भक्ति भावना
को गांधीजी रचनात्मक दिशा में मोड़ने का सतत प्रयत्न किया करते थे। वे जहां भी जाते
खादी, हिंदू-मुस्लिम एकता, राष्ट्रीय शिक्षा, बाल विवाह, छुआछूत जैसी
युगों पुरानी सामाजिक कुरीतियों को छोड़ने और चरखा चलाने की सलाह देते। गांधीजी का
मानना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता तो देश की आर्थिक और सामाजिक पुनरुत्थान की
अनुवर्ती है। स्वयं जनता के अपने प्रयत्नों से ही यह पुनरुत्थान होगा। उनके जोशीले
और भावुक शब्द निकले: "मैं यात्रा करता हूं क्योंकि मुझे लगता है कि जनता
मुझसे मिलना चाहती है। मैं निश्चित रूप से उनसे मिलना चाहता हूं। मैं उन्हें कुछ
शब्दों में अपना सरल संदेश देता हूं और वे और मैं संतुष्ट होते हैं। यह धीरे-धीरे
लेकिन निश्चित रूप से जनता के मन में प्रवेश करता है।"
राजनीतिक शिथिलता के उन तीन वर्षों में चरखा और
खादी को गांधीजी ने नित्य की नियमित पूजा के ही स्थान पर बिठा दिया था। हाथ कते सूत को वह देश के ‘प्रारब्ध की डोर’ कहते
थे। कांग्रेस संगठन के लिए उन्होंने ‘खादी
मताधिकार’ का सुझाव दिया था। ‘सूत का मुद्रा की तरह उपयोग’ की बात करते
थे। चरखे से गांधीजी के इतने अधिक लगाव को न तो अंग्रेज़ ठीक से समझ पाए और न शहरों
में रहने वाले आधुनिक भारतीय ही। अंग्रेज़ों को इस ओर न रुचि थी न इच्छा।
शिक्षा-प्राप्त शहरी भारतीयों का गांवों के प्रति अज्ञान था। गांधीजी का मानना था
कि चरखा चलाकर सूत कातने से बढिया और सीधा-सादा गृह-उद्योग भारतीय गांवों के लिए
दूसरा और कोई हो ही नहीं सकता। गांधीजी ने 1928 के कलकत्ता अधिवेशन
में कहा था, “जिस मुल्क की औसत
आमदनी तीन रुपए से कुछ ही ज़्यादा हो और जिसकी आबादी का दसवां भाग सिर्फ़ एक बार की
रोटी पाता हो, उनके लिए चरखे से पांच-छह रुपया कमा लेना कितनी बड़ी बात होगी!” गांधीजी के लिए गांव के
किसान, मज़दूर, के लिए जिस तरह चरखे का आर्थिक महत्त्व था, उसी तरह शहर में रहने वालों
के लिए उसका नैतिक या आध्यात्मिक महत्त्व था। गांधीजी के अनुसार अब तक नगर गांवों की
ग़रीबी पर फलते-फूलते रहे थे, अब समय आ गया था कि गांव का कता-बुना कपड़ा ख़रीदकर अपने
पुराने पापों का प्रायश्चित करें और इस तरह शहर और गांवों के बीच आर्थिक एवं भावनात्मक
संबंध स्थापित किए जाएं। चरखे का अर्थशास्त्र नए गांव की संपन्नता का अर्थशास्त्र
था। गांधीजी चरखे को निरंतर कई गुणों से विभूषित करते गए। चरखा आर्थिक बीमारियों
का रामबाण ही नहीं राष्ट्रीय एकता और आज़ादी का मूलमंत्र भी बन गया। चरखा विदेशी
राज्य के विरोध का प्रतीक भी बन गया। खादी के सुगठित प्रचार के लिए उन्होंने अखिल
भारतीय चरखा संघ की स्थापना की।
साप्ताहिक यंग इंडिया
के प्रत्येक अंक में कई पृष्ठ व्यक्तियों की सूची और उनके द्वारा काटे गए सूत की
सही संख्या के लिए समर्पित थे। कुछ सूत कातने वाले कोष में सूत देते थे जो इसे
ग्रामीणों को देता था, अन्य लोग स्वयं सूत बुनते थे।
गांधी का साबरमती आश्रम साधारण चरखा बना रहा था, लेकिन 1926 में
प्रबंधक ने घोषणा की कि उनके पास इतने ऑर्डर हैं कि वे उसे पूरा नहीं कर सकते।
स्कूल कताई का कोर्स करा रहे थे। कांग्रेस की बैठकों में, सदस्य वायलिन केस जैसा
एक छोटा सा बॉक्स खोलते थे, एक मुड़ने वाला चरखा निकालते थे और
कार्यवाही के दौरान बिना आवाज़ किए उसे कातते थे। गांधीजी ने शहरवासियों और
ग्रामीणों से प्रतिदिन एक घंटा चरखा चलाने को कहा। 'कड़ी मेहनत के बाद यह
सुखद विविधता और मनोरंजन प्रदान करता है।'
कताई अन्य सुधारों की
जगह नहीं लेती; यह उनके अतिरिक्त है। लेकिन
उन्होंने कताई की तुलना में उन पर कम जोर दिया।
हां दिसंबर 1924 में हुए बेलगाम कांग्रेस का फायदा यह हुआ
कि अब स्वराज्य वादियों को अपरिवर्तनकारियों की तरफ़ से कोई परेशानी नहीं रही। कांग्रेस
के दोनों धड़ों के बीच एकता स्थापित करना गांधीजी का उद्देश्य था। गांधीजी ने
दोनों दलों के बीच ऐसा बैलेंस स्थापित कर दिया था कि उन्हें तराजू के दो पलड़ों पर
रखा जा सकता था। ख़ुद गांधीजी रचनात्मक कार्य में जुटे रहे। राजनीतिक रूप से शान्त भारत में अन्य विपदाओं
की कमी नहीं थी। बंगाल और असम में बाढ़ से भयंकर तबाही हुई। मद्रास प्रेसिडेंसी के
कुछ ज़िलों और राजपुताना की अधिकतर रियासतों में सूखा पड़ा, जिससे धन-जन की क्षति हुई। त्रावणकोर के दर्जन भर गांव
जातीय अत्याचार से जल उठा। देश के कई भागों में हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। दोनों समुदायों में अमन क़ायम करने की
कोशिशों के लिए वे रावलपिंडी जाना चाहते थे, पर ब्रिटिश
हुक़ूमत ने अनुमति नहीं दी।
1920 के दशक में युद्ध के बाद
साम्राज्य विरोधी उभार ठंडा पड़ता गया। इसके कारण भारत में अंग्रेज़ सरकार की नीति
कठोर होती जा रही थी। उद्योग जगत में भी काफ़ी हलचल तेज़ हो रही थीं। पूंजीवाद सशक्त
हो रहा था। यह देशव्यापी स्तर पर संगठित होने लगा था। जिसके कारण 1927 में जी.डी. बिड़ला और
पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास ने मिलकर फ़ेडेरेशन ऑफ इंडियन चैबर्स ऑफ कॉमर्स एंड
इंडस्ट्रीज़ (FICCI) की स्थापना की। थोड़े ही वर्षों
में फ़िक्की भारतीय पूंजीपतियों के वर्गीय हितों की एक महत्वपूर्ण प्रवक्ता बन गई।
यात्राओं के दौरान काम ने गांधीजी
को थका दिया। दिन में तीन या चार बार मीटिंग के लिए रुकना, हर रात रुकने के लिए
अलग जगह,
भारी
पत्राचार जिसे उन्होंने कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया, और बड़ी-बड़ी राजनीतिक समस्याओं और
अपनी छोटी-छोटी व्यक्तिगत कठिनाइयों पर उनसे बात करने वाले पुरुषों और महिलाओं के
साथ अनगिनत व्यक्तिगत साक्षात्कार - ये सब भीषण गर्मी और उमस में - उन्हें थका
देते थे। इसलिए,
नवंबर
1925 में उन्होंने सात दिन का उपवास किया। भारत को उनकी चिंता थी और उन्होंने
विरोध किया। उपवास क्यों?
'जनता
को मेरे उपवासों की उपेक्षा करनी होगी और उनके बारे में चिंता करना बंद करना होगा,' गांधीजी ने कहा। 'वे मेरे अस्तित्व का
हिस्सा हैं। मैं अपनी आँखों के बिना भी उतना ही अच्छा कर सकता हूँ, जितना कि उपवास के
बिना। आँखें बाहरी दुनिया के लिए हैं, उपवास आंतरिक दुनिया के लिए हैं।' यह एक व्यक्तिगत
उपवास था;
'इस
उपवास का जनता से कोई लेना-देना नहीं है'। ऐसा कहा जाता है 'मैं सार्वजनिक संपत्ति
हूँ... ऐसा ही हो। लेकिन मुझे मेरी सभी गलतियों के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए।
मैं सत्य की खोज करने वाला हूँ। मैं अपने प्रयोगों को सबसे अच्छी तरह से सुसज्जित
हिमालयी अभियानों की तुलना में असीम रूप से अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ।' वह आध्यात्मिक
ऊंचाइयों को छूने की कोशिश कर रहे थे; उनका मानना था कि उपवास शरीर पर
मानसिक प्रभुत्व को बढ़ाता है।
गांधीजी दिमाग और ताकत को जोड़ने
की कोशिश कर रहे थे,
शहर
और कस्बे को एक करने की कोशिश कर रहे थे, अमीर और गरीब को जोड़ने की कोशिश
कर रहे थे। एक विभाजित देश और एक बिखरी हुई सभ्यता के लिए वह इससे बड़ी सेवा क्या
कर सकते थे?
गांधी
ने सिखाया कि वंचितों की मदद करने के लिए आपको उन्हें समझना होगा और उन्हें समझने
के लिए आपको कम से कम कभी-कभी उनके जैसा काम करना होगा। कताई प्रेम का एक कार्य था, संचार का एक और
माध्यम। यह संगठन का एक तरीका भी था। 'कोई भी एक जिला जो खादी के लिए
पूरी तरह से संगठित हो सकता है, अगर उसे पीड़ा के लिए भी
प्रशिक्षित किया जाता है,
तो
वह सविनय अवज्ञा के लिए तैयार है।' इस प्रकार, खादी स्व-शासन की ओर
ले जाएगी।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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