310. गांधीजी के बेटे रामदास की शादी
1928
जनवरी 1928 के अंत में, महीनों की यात्रा के
बाद,
गांधीजी
एक साल के आराम के लिए साबरमती आश्रम लौट आए। लगभग तुरंत ही वे 1897 में दक्षिण
अफ्रीका में जन्मे अपने तीसरे बेटे रामदास की शादी के जश्न में व्यस्त हो गए, जो बहुत पहले दक्षिण
अफ्रीका से लौटकर परिवार के साथ रहने आया थे। वह अब तीस साल का हो चुके थे, वह एक शर्मीले और शांत
स्वभाव का व्यक्ति थे। सगाई करीब दो साल पहले 15 अक्टूबर 1925 को हुई थी, लेकिन गांधीजी तब तक शादी के लिए
राजी नहीं हुए जब तक दुल्हन ने अपना सत्रहवाँ साल पूरा नहीं कर लिया।
27 जनवरी, 1928 को गांधीजी के तीसरे
बेटे रामदास का विवाह अत्यंत सादगी के साथ निर्मला वोरा से सम्पन्न हुआ। समारोह
आश्रम के नियमों के अनुसार आयोजित किए गए। विवाह के दिन वर-वधु ने उपवास किया।
गोशाला और कुंए के आसपास सफाई की। प्रकृति के साथ तादात्म्य के रूप में पौधों को
पानी दिया। कताई की। गीता का बारहवां अध्याय पढ़ा। स्वच्छ श्वेत खादी के वस्त्र
पहने। शरीर पर कोई आभूषण नहीं था। हिंदू विवाह की सामान्य रस्मों को सावधानीपूर्वक
टाला गया। विवाह कुल 90 मिनट में सम्पन्न हो गया। न बाजे
थे, न संगीत, न भोज और न दहेज। बड़ों की उपस्थिति में यज्ञ की अग्नि के सामने
जोड़े ने सेवा के प्रति निष्ठा और समर्पण की शपथ ली। केवल कुछ दोस्त ही मौजूद थे।
गांधीजी ने अपने पुत्र
को गीता की एक प्रति और पुत्रवधु को आश्रम भजनावलि की एक प्रति, और कातने की तकली
उपहार में दी। कस्तूरबा ने अपने पति के हाथ से कती सूत से बनी एक लाल किनारे की
साड़ी और लाल कांच की चूड़ियां और सिंदूर दिया। पुत्रवधू ने भी अपने हाथ से सोने की
चार चूड़ियां उतार कर सास के हाथों में दे दिया। आश्रम में व्यक्तिगत संपत्ति का
कोई स्थान नहीं था, इसलिए ये चूड़ियां आश्रम कोष में रखी गईं और वहां से स्वराज फंड
में दान दे दी गईं। विवाह के सारे समारोह पर सिर्फ़ सवा रुपया ख़र्च हुआ था। गांधीजी
ने वर-वधू को आशीर्वाद देते हुए कहा, “अपनी पत्नी का आदर
करना। तू उसका मालिक नहीं, सच्चा मित्र है।” गांधीजी ने दोपहर के
समय एक गंभीर भाषण में उन्हें संबोधित किया और उन्हें निरंतर गरीबी और आत्म-संयम, प्रार्थना और सादगी के
लाभों के बारे में बताया। जब उन्होंने रामदास और देवदास का जिक्र किया तो उनकी
आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने बताया कि उनके दो बेटे हैं, जिनका पालन-पोषण उन्होंने ही किया और उनकी देखभाल में ही हुए। इस अवसर पर गांधीजी ने अपने बेटे और पुत्रवधू से कहा,
"तुम अपनी पत्नी
के सम्मान की रक्षा करोगे और उसके स्वामी नहीं, बल्कि उसके सच्चे
मित्र बनोगे। तुम उसके शरीर और उसकी आत्मा को उतना ही पवित्र रखोगे, जितना कि, मुझे विश्वास है, वह तुम्हारे शरीर और
तुम्हारी आत्मा को पवित्र रखेगी। इसके लिए तुम्हें प्रार्थनापूर्ण परिश्रम, सादगी और आत्म-संयम का
जीवन जीना होगा। तुम दोनों में से कोई भी एक दूसरे को वासना की वस्तु न समझे।
"तुम दोनों ने
यहाँ अपनी शिक्षा का कुछ हिस्सा प्राप्त किया है। अपनी जान मातृभूमि की सेवा में
समर्पित करो और तब तक मेहनत करो जब तक तुम्हारा शरीर थक न जाए। हम गरीबी के लिए
प्रतिबद्ध हैं। तुम दोनों अपनी रोटी अपने माथे के पसीने से कमाओगे, जैसे गरीब लोग कमाते
हैं। तुम एक दूसरे की दैनिक मेहनत में मदद करोगे और उसमें आनंदित रहोगे।
"मैंने तुम्हें
कोई उपहार नहीं दिया है। मैं तुम्हें तकली का एक जोड़ा और अपनी प्रिय गीता तथा
भजनावली की प्रतियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे सकता। ये सूत की मालाएं तुम्हारी
रक्षा का कवच बनें। यदि मैं तुम्हारे लिए मित्रों से कोई मूल्यवान उपहार खरीद लाता, तो संसार मेरा उपहास
करता, परन्तु आज यह साक्षी देगा कि मैंने
तुम्हें केवल वही चीजें दी हैं, जो मेरे पद के योग्य
हैं।
"गीता आपके लिए
हीरों की खान बने, जैसा कि यह मेरे लिए रही है, जीवन पथ पर यह आपकी
निरंतर मार्गदर्शक और मित्र बनी रहे। ईश्वर आपको सेवा का लंबा जीवन प्रदान
करे।"
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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