305. बापू का उपवास
1925
दिसम्बर 1925 की बात है। एक दिन बापू काफ़ी उदास और ग़मगीन नज़र आ रहे थे।
आश्रम के लोग मुंह लटकाए घूमते नज़र आए। कमरे में फुसफुहाट में बातें हो रही थीं।
मगनलाल भाई, सुरेन्द्र भाई और दो अन्य वरिष्ठ आश्रमवासी सुबह-सुबह बापू की कुटिया
में जा रहे थे। लम्बी बातचीत के बाद वे बाहर निकले तो काफ़ी गम्भीर दिखे। शाम की
सभा में बापू ने गंभीर और नपी-तुली आवाज़ में कहना शुरु किया, “मैंने कल से एक सप्ताह का उपवास का निर्णय लिया
है! आश्रम में जो कुछ हुआ उसके कारण मुझे ऐसा करना पड़ रहा है। तीन लड़के गंदी हरकत करते
पाए गए हैं, उनके इस दुराचरण के लिए प्रायश्चित स्वरूप मैं उपवास करने जा रहा हूं।”
जब मीरा ने पूछा, “आखिर आपको उपवास क्यों करना पड़ रहा है?” तो बापू फट पड़े, “तुम्हें पता भी है कि क्या हुआ है? तीन लड़के समलैंगिक
क्रिया करते पाए गए। यह इस आश्रम में हुआ है। देश भर के लोग इस उम्मीद में इस आश्रम
के लिए दान भेजते हैं कि मैं यहां एक नए आदमी का निर्माण में लगा हूं। उन लड़कों का
चरित्र मेरे लिए एक पवित्र थाती है।”
मीरा ने कहा, “तो इसके लिए आप उपवास करने जा रहे हैं। अपने स्वास्थ्य, अपने
जीवन को खतरे में डालने जा रहे हैं।”
बापू ने दुखी स्वर में कहा, “मैं क्या कर सकता हूं? उन्हें दंडित करने का तो
कोई सवाल ही नहीं उठता। उनके शिक्षक के रूप में मुझे उनके विचारों और इच्छाओं में
प्रवेश करना चाहिए। उनकी अशुद्धता मिटाना चाहिए। बच्चों को आन्तरिक शुद्धता के
बारे में सबसे पहले बताया जाना चाहिए। यह पहला और सबसे महत्वपूर्ण पाठ यदि वे सीख
लें तो बाक़ी सभी चीज़ें आ जाएंगी। मैं उपवास करके खुद को दंडित करूंगा ताकि ये लड़के
अपने भीतर झांकें। उन्हें अपनी ग़लतियों का अहसास होगा। उन्हें समझ में आएगा कि
जीवन की छोटी-छोटी चीज़ों में शुद्धता और सच्चाई ही चरित्र निर्माण की एकमात्र
कुंजी है।”
आश्वस्त न होते हुए मीरा ने पूछा, “लेकिन उपवास ही क्यों?”
बापू ने बताया, “एक स्थिर, छोटी सी आन्तरिक आवाज़ मुझे कहती है कि उन लड़कों
में जो अशुद्धता है वह मेरे भीतर भी है। उसे मुझे उपवास के ज़रिए शुद्ध करना चाहिए।
अगर मैंने अपनी आन्तरिक आवाज़ को दबाने की कोशिश की तो मैं अपनी सारी उपयोगिता खो
दूंगा।”
उपवास के पहले तीन दिन तो बापू चल कर प्रार्थना स्थल पर
जाते रहे। तीसरे दिन चलने के लिए उन्हें सहारे की ज़रूरत पड़ी। बाक़ी चार दिन उन्हें
खाट पर बैठा कर वहां तक ले जाना पड़ा। सातों दिन नमक और सोडा बाइकार्बोनेट मिलाकर
खूब पानी का घूंट ले लिया करते। सप्ताह होते-होते उनका वजन सात पाउंड घट गया। सातवें दिन उन्होंने
अंगूर के रस में मिला नारंगी का शरबत और नारंगी के फांक खाकर उपवास तोड़ा। बाद में, दिन में उन्होंने बकरी के दूध में पानी मिलाकर
पिया। बारह दिनों तक उन्होंने ठोस खाद्य नहीं लिया।
आश्रम से क़रीब डेढ़ मील दूर साबरमती जेल तक की प्रातः और
सायंकालीन तेज चहलकदमी का सिलसिला फिर शुरू कर दिया। पहली सुबह बापू ने उन दो लड़को
को साथ लिया, जो समलैंगिक यौनाचार करते पाए गए थे। वे उनकी
लाठी बने। बापू ने अपने हाथ उनके कंधों पर रखा हुआ था। वे काफ़ी उत्साहित लग रहे
थे। पूरे रास्ते वे हंसते और मज़ाक़ कर रहे थे। अंतिम पचास गज बच गए तो बापू ने अपने
पैर ज़मीन से उठा लिए और अपना पूरा भार उन लड़कों के कंधों पर डाल दिए और चिल्लाए,
“चलो हम देखते हैं कि तुम
लोग कितनी तेजी से दौड़ सकते हो।”
दोनों लड़के बापू को उठा कर जेल के दरवाज़े की ओर दौड़ चले।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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