राष्ट्रीय आन्दोलन
307. गांधीजी
का एक वर्ष के लिए अवकाश
1926
3 जनवरी, 1926 को नवजीवन में सार्वजनिक कार्य से एक वर्ष के लिए बाहर रहने
की घोषणा की, ताकि आश्रम के काम को देख सकें। उन्होंने घोषणा की: "कम से कम
अगले 20 दिसंबर तक,
मैं आश्रम से बाहर नहीं
निकलूंगा, निश्चित रूप से अहमदाबाद से बाहर नहीं निकलूंगा, सिवाय स्वास्थ्य के अनिवार्य कारणों या किसी
अप्रत्याशित घटना के।" उनकी इस घोषणा से कि 1926 उनके लिए मौन का
वर्ष’ रहेगा, यह अफ़वाह भी फैली कि वे राजनीति से संन्यास ले रहे हैं। लेकिन अवकाश के दिन किसी तरह व्यर्थ नहीं गए। बावन
सोमवारों को छोड़कर,
'मौन' वर्ष किसी भी मायने में मौन नहीं था। उन्होंने
यात्रा नहीं की, उन्होंने किसी जनसभा को संबोधित नहीं किया; लेकिन उन्होंने बातचीत की, लिखा, आगंतुकों
का स्वागत किया और भारत और अन्य देशों में हजारों लोगों के साथ पत्राचार किया। इसी
अवकाश काल के दौरान उन्होंने अपनी आत्मकथा साप्ताहिक किस्तों में लिखनी शुरू की
जिसे वे ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ कहते थे। ये मूल गुजराती में धारावाहिक रूप से
प्रकाशित हुए। महादेव देसाई इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद करते थे।
देशबंधु की मृत्यु
के बाद स्वराजियों की स्थिति
स्वराज पार्टी में ऐसे लोग घुस गए
जो सत्ता में पद चाहते थे। वे सरकार में शामिल हो गए। एम.सी. केलकर, एम.आर. जयकर
आदि नेताओं ने इनका साथ दिया। सत्ता में साझेदारी के मुद्दे पर लाला लाजपत राय और
मदन मोहन मालवीय ने पार्टी छोड़ दी। पार्टी को और अधिक टूटने से बचाने के लिए
पार्टी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में अपनी आस्था व्यक्त की। मार्च 1926 से विधान मंडल में
भाग न लेने का फैसला किया। नवंबर में हुए चुनावों में स्वराजियों ने हिस्सा तो
लिया लेकिन उनकी हालत पस्त ही रही। हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता भी उनके लिए
चुनौती बनी रही। साम्पदायिक ताक़तों ने स्वराजियों के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ रखा था।
मुसलमान वर्ग भी आरोप लगाता कि स्वराजी मुसलमानों के हितों की अनदेखी कर रहे हैं।
इन सब कारणों से स्वराज पार्टी कमज़ोर हो गई। केन्द्र में इसे 40 सीटों पर विजय मिली।
मद्रास में आधी सीटों पर इसने क़ब्ज़ा किया। लेकिन उ.प्र., मध्य प्रांत और पंजाब में
इसे भारी हार का सामना करना पड़ा। साम्प्रदायिक ताकतें विधान मंडल में अपनी जगह
बढ़ाने में सफल हुई। इस बार राष्ट्रीय मोरचा भी न बन सका। संयुक्त प्रांत से अकेले
पं. मोतीलाल नेहरू ही केन्द्रीय काउंसिल के लिए चुने जा सके। उन्हीं के शब्दों में,
“राष्ट्रीयता
और हीन कोटि की सांप्रदायिकता के बीच लडाई थी, और उसमें सांप्रदायिकता की जीत
हुई।”
दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस
कमेटी ने 6 मार्च,
1926
को वॉक-आउट प्रस्ताव पारित किया। इसमें कांग्रेस द्वारा निर्धारित लाइनों पर आगामी
आम चुनावों की तैयारी करने और गांधी द्वारा तैयार किए गए रचनात्मक कार्यक्रम को
आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया। 3 अप्रैल को रिस्पॉन्सिविस्टों ने स्वतंत्रों के
साथ हाथ मिला लिया और भारतीय राष्ट्रीय पार्टी का गठन किया। मोतीलाल नेहरू ने नई
पार्टी के गठन को स्वराज पार्टी के लिए चुनौती माना।
अप्रैल 1926 में लॉर्ड रीडिंग ने
पद छोड़ दिया और उनकी जगह लॉर्ड इरविन ने ले ली। गांधीजी इस महत्वपूर्ण परिवर्तन
का उल्लेख यंग इंडिया में नहीं किया, न ही किसी अन्य तरीके से इसका
उल्लेख किया। वे अभी भी एक असहयोगी थे जो वायसराय के बजाय जनता पर काम कर रहे थे।
उनका आदर्श वाक्य था भीतर से स्वराज। अन्य सुधारकों के विपरीत, गांधीजी स्वराज को
सामाजिक सुधार जितना ही महत्वपूर्ण मानते थे। अप्रैल 1926 में, मतभेदों को दूर करने
के उद्देश्य से मोतीलाल नेहरू ने गांधीजी से प्रस्ताव रखा कि स्वराजवादी नेता
गांधीजी के लिए सुविधाजनक तिथि पर साबरमती में एक सम्मेलन में उत्तरदायी सहकारी
नेताओं से मिल सकते हैं। उन्होंने गांधीजी से एक तिथि तय करने और जयकर और अन्य
लोगों को टेलीग्राफ करने का अनुरोध किया। गांधीजी ने तदनुसार जयकर, अणे, मुंजे और अन्य लोगों
को 20 अप्रैल को साबरमती में आमंत्रित किया। सूचना संक्षिप्त होनी थी क्योंकि
गांधीजी 22 अप्रैल को एक छोटे प्रवास के लिए मसूरी जाने की योजना बना रहे थे।
हालाँकि गांधीजी इस बात को लेकर असमंजस में थे कि जाएँ या न जाएँ। इस मामले का
फैसला सिक्का उछालकर किया गया। मसूरी यात्रा सफल नहीं हुई। साबरमती के सम्मेलन में
गांधीजी,
सरोजिनी
नायडू,
मोतीलाल
नेहरू,
लाजपत
राय,
जयकर, अनी, मुंजे, डी. वी. गोखले और जी.
ए. ओगले ने भाग लिया। सम्मेलन ने 6/7 मार्च 1926 को दिल्ली में अखिल भारतीय
कांग्रेस कमेटी द्वारा पारित प्रस्ताव पर विचार किया, जिसमें यह निर्धारित
किया गया था कि कांग्रेसजन (क) तब तक सरकार से उपहार में पद स्वीकार करने से इंकार
करेंगे,
जब
तक कि कांग्रेस की राय में सरकार द्वारा संतोषजनक उत्तर नहीं दिया जाता; (ख) जब तक सरकार द्वारा
ऐसा उत्तर नहीं दिया जाता,
तब
तक आपूर्ति से इंकार करेंगे और बजट को खारिज कर देंगे, सिवाय तब जब
कार्यकारिणी समिति अन्यथा निर्देश दे।
गांधीजी को संदेह होने लगा कि
ब्रिटेन की नीति हिंदू-मुस्लिम दोस्ती के खिलाफ़ है। 12 अगस्त, 1926 को उन्होंने लिखा, 'भारत सरकार अविश्वास
पर आधारित है। अविश्वास में पक्षपात होता है और पक्षपात से विभाजन पैदा होता है।' ऐसा लगता था कि सरकार
मुसलमानों को तरजीह देती है। गांधीजी ने सोचा था कि हिंदू-मुस्लिम सौहार्द भारत
में स्वशासन लाएगा। अब उन्हें लगा कि जब तक अंग्रेज, यानी तीसरा पक्ष, यहां हैं, हिंदू-मुस्लिम सौहार्द
लगभग असंभव है। इस प्रकार धार्मिक शांति, जो स्वतंत्रता की शर्त है, स्वतंत्रता के बाद ही
आ सकती है। इस दुविधा के बावजूद, गांधीजी आशावान बने रहे: एकता
हमारे बावजूद आएगी... जहाँ मनुष्य का प्रयास विफल हो सकता है, वहाँ ईश्वर की इच्छा
सफल होगी। इस बीच,
भारत
के कई हिस्सों में दो धार्मिक समुदायों के बीच खूनी लड़ाई हुई।
आश्रम से बाहर
निकले
पूरे देश में लोग चाहते थे कि गांधी जी राजनैतिक और
अराजनैतिक कार्यक्रमों में आएं और भाषण दें। लोगों को हैरानी हुई कि गांधी जी
निमन्त्रण, यहां तक कि अपने प्रिय मुद्दों से जुड़े कार्यक्रमों के निमंत्रण को भी
इंकार कर रहे थे। बापू ने घोषणा कर रखी थी कि इस साल के भाषणों और यात्राओं के सभी
कार्यक्रमों को वे रद्द कर रहे हैं। अब वे आश्रम में ही रहेंगे। अब वे अपने
महत्वपूर्ण प्रयोग –
अलग-अलग पृष्ठभूमि की सामान्य स्त्रियों और पुरुषों के समूह को सत्य और अहिंसा के
उच्चतम आदर्शों में ढालने के काम पर अधिक ध्यान देंगे।
गांधी जी को आश्रम में बांधे रखने वाले कारणों को लेकर कई
अटकलें लगाई जा रही थीं। यहां तक कि अंगरेज़ अधिकारी भी अटकलें लगा रहे थे।
स्वाधीनता आंदोलन स्थगित अवस्था में था। शायद गांधी जी को लग रहा हो कि कांग्रेस
के दो गुटों के बीच के दरार को पाटना बहुत ज़रूरी है। एक गुट सरकार से असहयोग ज़ारी
रखने के पक्ष में था, तो दूसरा गुट अंगरेज़ी राज को भीतर से चुनौती देने के लिए
चुनाव के ज़रिए राज्यों की विधायिकाओं में प्रवेश करना चाहता था। गांधी जी की
निष्क्रियता को देख कर कुछ लोग तो यह भी सोचने लगे कि वे सार्वजनिक जीवन से संन्यास
लेना चाहते हैं।
इस वर्ष गांधी जी आश्रम के विद्यालय में पढ़ाते रहे। प्रार्थना
सभाओं में गीता का प्रवचन देते रहे। आश्रम का काम काज देखते रहे। पत्राचार करते
रहे। और इस सबसे बढ़कर गुजराती में अपनी आत्मकथा लिखते रहे। अध्य़ाय दर अध्याय इसके
अंश “नवजीवन” में धारावाहिक छपते रहे। महादेवभाई को इसका
अंगरेज़ी अनुवाद करने का जिम्मा सौंपा गया ताकि उसे “यंग इंडिया” में धारावाहिक प्रकाशित किया जाए। अनुवाद में
महादेवभाई को मीरा बहन का अमूल्य सहयोग प्राप्त हुआ। इसके अलावा आगन्तुकों का
तांता लगा ही रहता था। उनके साथ कांग्रेस की राजनीति, आंगरेज़ों के ख़िलाफ़ पार्टी की नीति में परिवर्तन
के पक्षधरों और विरोधियों की अन्तहीन बहस होती रहती थी।
इन सब बहसें, विचार-विमर्श के लिए पटेल, नेहरू, अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान आते रहते थे। एक बार नेहरू
जी एक दिन के लिए आश्रम में ठहरे। वे बापू की कुटिया में अतिथि कक्ष में ठहरे थे।
नेहरू जिस उत्साह से असहमति व्यक्त करते थे वह उन्हें अच्छा लगता था। जो लोग बापू का प्रतिरोध या उनकी आलोचना करते थे उनके प्रति
वे उन लोगों से ज़्यादा आकर्षित होते थे, जो उनसे तुरन्त सहमत हो जाते थे। वे प्रशंसा से ज़्यादा
आलोचना से अनुग्रहीत होते थे। आलोचना से वे गुप्त प्रसन्नता अनुभव करते थे और
उन्हें वैसी ही स्फ़ूर्ति से भर देती थी जैसे ठंडे पानी से स्नान करने पर मिलती है।
मई में गांधी जी सिर्फ़ एक सप्ताह के लिए आश्रम से बाहर
निकले। बम्बई के गवर्नर ने लॉर्ड लिनलिथगो की अध्यक्षता में भारत सरकार के द्वारा
गठित कृषि आयोग के सदस्यों से मुलाक़ात के लिए उन्हें आमंत्रित किया था। यह बैठक पहाड़ी पर्यटन स्थल महाबलेश्वर में एक
दिन के लिए होने वाली थी। गवर्नर के निमंत्रण पर बैठक में भाग लेने के लिए जब
गांधी जी ट्रेन पकड़ने के लिए गए तो स्टेशन पर काफ़ी भीड़ थी। गांधीजी हाथ जोड़ कर भीड़
का अभिवादन कर रहे थे। 14 मई को वे बम्बई पहुंचे। उन्होंने इस मौक़े का इस्तेमाल कुछ
बीमार रिश्तेदारों और मित्रों से भी मिलने में किया। उनके पुत्र देवदास का बम्बई
में एपेंडीसाइय़िस का ऑपरेशन हुआ था। वे स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। गांधीजी उनसे
मिलने गए।
महाबलेश्वर पहुंचे
16 मई को महाबलेश्वर पहुंचे। वहां वे सर चुन्नीलाल मेहता के
साथ ठहरे। 18 मई को कार्यकारी गवर्नर सर हेनरी लॉरेन्स से
मिले और उनसे कृषि, चर्खा एवं पशु समस्या ओअर चर्चा की। 20 मई को गांधी जी पूना पहुंचे। वहां काका
कालेलकर से मिलने सिंहगढ़ गए। देवलाली में मथुरादास से मिले।
स्वामी श्रद्धानन्द
का बलिदान
1926 के मध्य में स्वामी
श्रद्धानंद बीमार थे। मीरा बहन वहां रहकर हिंदी-उर्दू सीखती थी। एक दिन अब्दुल
रशीद नामक युवक स्वामीजी से मिलने आया। सेवक को उसने पानी लाने के बहाने बाहर भेज
दिया और स्वामीजी को छूरा मारकार उनकी हत्या कर दी। सेवक गंगाशरण भागा हुआ आया तो स्वामीजी
को ख़ून से लथपथ पड़ा देखा। उसने रशीद को जकड़ लिया। भागने के प्रयास में रशीद ने
छूरे से गंगाशरण पर भी वार किया। घायल होने के बावजूद भी गंगाशरण ने उसे नहीं
छोड़ा। मीरा बहन भी भागी आई। लेकिन स्वामीजी सदा के लिए दुनिया छोड़ चुके थे। रशीद
को पुलिस के हवाले कर दिया गया। उस पर केस चला और उसे फांसी की सज़ा हुई। लेकिन
ब्रिटिश हुकूमत तो चाहती थी कि हिंदू-मुसलमान के बीच अशांति बनी रहे। इसलिए खूनी
रशीद का मृत देह सरकार ने उसके घरवालों को सौंप दिया। हज़ारों लोग उसके जनाजे में
इकट्ठे हुए और उसे शहीद बना दिया। जनाजे को दफ़ना कर लौट रही उत्तेजित भीड़ ने फैज
बाज़ार में हिंदू दूकानों की लूटपाट की। भोले-भाले लोग अंग्रेज़ों की चाल में फंस
चुके थे। स्वामीजी ने आर्यसमाज से संन्यास की दीक्षा ली थी और महात्मा मुंशीराम से
स्वामी श्रद्धानंद बन गए थे। उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की थी। इनका एक साप्ताहिक पत्र था, जिसका नाम था – The Liberator.
गुवाहाटी कांग्रेस अधिवेशन
1926 ई. में कांग्रेस का 41वां वार्षिक अधिवेशन 26 से 28 दिसंबर तक असम में पहली बार आयोजित किया गया। गौहाटी ने
पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए और बेहद कम समय में प्राकृतिक सुंदरता के बीच
ब्रह्मपुत्र के तट पर खादी के कैनवास के नीचे एक शहर बसा दिया। असम के बांस, असम की मिट्टी,
असम के भूसे और असम के मजदूरों की मदद
से इस अवसर पर बहुत ही साधारण लेकिन कलात्मक झोपड़ियाँ बनाई गईं। गुवाहाटी में श्रीनिवास आयंगर की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। राजनीति से एक साल के संन्यास की गांधीजी की अवधि अब
पूरी होने जा रही थी। गांधीजी ने सारी चर्चा में दिलचस्पी से भाग लिया। इस अधिवेशन
में गांधीजी ने स्वामी श्रद्धानन्दजी के संबंध में प्रस्ताव पेश किया और इसका
अनुमोदन मौ. मुहम्मदअली ने किया। गांधीजी ने शोक प्रस्ताव पेश करते हुए कहा:
"हमें आंसू नहीं बहाने चाहिए,
बल्कि अपने दिलों को शुद्ध करना चाहिए
और उन्हें श्रद्धानंदजी की तरह की आग और आस्था से मजबूत करना चाहिए। उन्होंने
बहादुरी के अखंड रिकॉर्ड से देश को चकित कर दिया है। वास्तव में, वे लोग दोषी हैं जिन्होंने एक-दूसरे के खिलाफ़ नफ़रत की
भावनाएँ भड़काईं। हिंदू और मुस्लिम दोनों ही मतों के नेता पापी हैं।"
उन्होंने अपील की कि सभी को उनकी मृत्यु से सबक लेना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपने
जीवित रहते हुए देश की सेवा की। "आइए हम स्वामीजी के निर्दोष खून से अपने
दिलों को साफ करें।" हत्या के कारणों पर प्रकाश डालते हुए गांधीजी ने कहा, “शायद आप लोग समझ गए होंगे कि मैंने अब्दुल रशीद को ‘भाई’
क्यों कहा। मैं तो उसे स्वामीजी के हत्या का दोषी तक नहीं ठहराता। दोषी तो असल में
वे हैं, जिन्होंने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ घृणा को उत्तेजित किया।”
इस अधिवेशन के अवसर पर खादी की प्रदर्शनी भी आयोजित की गई थी। इसके द्वारा
लोगों को विश्वास दिलाया गया कि खादी का अर्थ है – निर्धनों को भोजन और वस्त्र
देना। अधिवेशन में संस्थागत चुनावों में भाग लेनेवालों के लिए आदतन खादी पहनना अनिवार्य घोषित कर किया गया। परिषदों में काम
के सवाल पर, यह निश्चित रूप से निर्धारित किया गया था कि विधानमंडलों
में कांग्रेस के सदस्यों को सरकार द्वारा उपहार में दिए गए मंत्री पद या अन्य
कार्यालय को स्वीकार करने से इनकार नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें
अन्य दलों द्वारा मंत्रिमंडल के गठन का विरोध करना चाहिए। कांग्रेस के पार्षदों से
कहा गया कि वे विधायी अधिनियमों के सभी प्रस्तावों को खारिज कर दें, जिनके द्वारा नौकरशाही अपनी शक्तियों को मजबूत करने का
प्रस्ताव करती है। उन्हें प्रस्ताव पेश करने और उन उपायों और विधेयकों को पेश करने
और उनका समर्थन करने की सलाह दी गई जो राष्ट्रीय जीवन के स्वस्थ विकास और देश के
आर्थिक, कृषि,
औद्योगिक और वाणिज्यिक हितों की उन्नति
और व्यक्ति, भाषण,
संघ और प्रेस की स्वतंत्रता की सुरक्षा
के लिए आवश्यक थे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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