राष्ट्रीय आन्दोलन
315. ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान
पेशावर में चल रहे जन आंदोलन से
अंग्रेज़ सरकार बहुत घबराई हुई थी। पेशावर पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत की राजधानी थी।
यहां पर उस्मानजाई के समृद्ध ग्राम-प्रधान के बेटे अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान पाठान 1912 से ही शिक्षा और सामाजिक सुधार
संबंधी काम करते आ रहे थे। उन्हें ख़ान साहब या बादशाह ख़ान कहा जाता था। बहुत से लोग
उन्हें फ़्रंटियर गांधी या सीमांत गांधी भी कहते थे। छह फ़ीट चार इंच के क़द वाले
खान साहब अहिंसा के पुजारी थे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी
से प्रेरणा पाकर बादशाह ख़ान ने उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में एक अहिंसक आंदोलन का
नेतृत्व किया था। आमतौर पर पठानों को अहिंसा से जोड़कर नहीं देखा जाता, लेकिन बादशाह ख़ान के ख़ुदाई ख़िदमतगारों
ने अहिंसा का रास्ता चुना।
खान अब्दुल गफ़्फ़ार खान उत्तर
पश्चिमी सीमांत प्रांत क्षेत्र में सक्रिय थे। 1930 के दशक में उन्होंने सेवाग्राम में
गांधीजी के साथ ख़ासा वक़्त बिताया। वो रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने शांति निकेतन भी
गए। उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में अत्यंत सक्रिय भूमिका निभाई थी। 1928 में उन्होंने पाश्तो भाषा का
मशहूर पत्र ‘पख़्तून’ निकालना शुरू किया। 1929 में उन्होंने ‘ख़ुदाई ख़िदमतग़ार’
नाम से एक स्वयं सेवक दल का गठन किया। इस संगठन का लक्ष्य संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत
था। प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती थी कि वह खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की उन्हें कदर नहीं
है। यह दल लाल कुर्ता पहनता था, इसीलिए
इसे "सुर्ख पोश" कहा जाता था। उनका
यह मानना था कि गांवों के दौरों के कारण लाल कुरता कम गंदा होता है। बादशाह ख़ान
गांधीजी के आदर्शों को मानते थे और उनके परम शिष्य थे। अहिंसा के आदर्श के कारण
पठानों के पारंपरिक ख़ूनी झगड़ों में कमी आई। चूंकि छोटे और मंझोले ज़मींदार,
काश्तकार, ग़रीब किसान और खेत-मज़दूर, सभी ख़ुदाई ख़िदमतग़ारों में शामिल थे इसलिए
पेशावर और उसके आसपास के इलाक़ों में आंतरिक सामाजिक तनावों का बढ़ना रुक गया। उनके
राजनीतिक कार्यों द्वारा निर्मित माहौल ने पेशावर में जन-आंदोलन में योगदान दिया, जिसके दौरान शहर लगभग एक सप्ताह से
अधिक समय तक भीड़ के हाथों में रहा। पेशावर के प्रदर्शन इसलिए महत्वपूर्ण हैं
क्योंकि यहीं पर गढ़वाली रेजिमेंट के सैनिकों ने निहत्थे भीड़ पर गोली चलाने से
इनकार कर दिया था। वहां के लोगों में उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया
जा सकता है कि 1930 में 23 अप्रैल को जब बादशाह ख़ान और कुछ अन्य नेताओं की गिरफ़्तारी हुई, तो पेशावर में
भारी जन-उभार देखने को मिला। इसकी अंग्रेज़ों ने कल्पना भी नहीं की थी।
किस्सा-कहानी बाज़ार में जन सैलाव उमड़ पड़ा। बख़्तरबंद गाड़ियां तैनात कर दी गईं।
गोलियों की बौछारें होती रहीं, लेकिन तीन घंटों तक भीड़ डटी रही। ढ़ाई सौ लोग सरकारी
सिपाहियों की गोली के शिकार हुए। इसमें एक रोचक वाकया हुआ था। गढ़वाल राइफल्स की एक
टुकड़ी के हिन्दू सिपाहियों ने मुसलमान भीड़ पर गोली चलाने से इंकार कर दिया था। उन
पर कोर्ट मार्शल चलाया गया। इसमें उन्होंने कहा था, “हम निहत्थे भाइयों पर गोलियां कैसे
चला सकते थे। भारत की सेना बाहरी शत्रु से लड़ने के लिए है। तुम चाहो तो हमें गोली
से उड़ा दो।”
27 साल जेलों में बिताए
काँग्रेस के जिन लोगों ने भारत के विभाजन
का विरोध किया था उनमें से एक थे ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान। 31 मई से 2 जून के बीच 1947 में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई
जिसमें पाकिस्तान को स्वीकार करने का अहम फ़ैसला लिया गया। सीमांत गांधी को लगा कि
उनके साथ धोखा किया गया है। न सिर्फ़ ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कई साल जेल में रखा, बल्कि आज़ादी के बाद पाकिस्तान की सरकार
भी उन्हें जेल में रखने से पीछे नहीं रही। नेल्सन मंडेला की तरह बादशाह ख़ान ने भी
अपनी ज़िंदगी के 27 साल जेल में बिताए। दिसंबर 1921 में बादशाह ख़ान को पेशावर जेल में रखा गया। अपने लंबे
क़द की वजह से उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। बादशाह ख़ान अपनी आत्मकथा
'माई लाइफ़ एंड स्ट्रगल' में लिखते हैं, "जब मैंने जेल के कपड़े पहने तो पायजामा मेरी पिंडली तक ही आया और कमीज़ मेरी नाभि
तक भी नहीं पहुंच पाई। जब मैं नमाज़ पढ़ने बैठता था तो तंग होने की वजह से मेरा पायजामा
अक्सर फट जाता था।"
वर्ष 1930 में जब गांधी ने नमक सत्याग्रह किया
तो बड़ा असर सीमांत प्रांत में भी दिखाई दिया। 23 अप्रैल 1930 को ब्रिटिश सरकार ने ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार
ख़ान और उनके कुछ साथियों को पेशावर जाते हुए गिरफ़्तार कर लिया। ये ख़बर सुनते ही
हज़ारों लोगों ने चारसद्दा जेल को घेर लिया, जहाँ ग़फ़्फ़ार ख़ान को रखा गया था। पूरा
पेशावर शहर सड़कों पर आ गया। उस दिन पेशावर के क़िस्साख़्वानी बाज़ार और सीमांत प्रांत
में अंग्रेज़ पुलिस की गोलियों से तक़रीबन 250 पठान मारे गए। इसके बावजूद आमतौर से
गर्म ख़ून वाले पठानों ने कोई जवाबी हिंसक कार्रवाई नहीं की। यहाँ तक कि सेना की गढ़वाल
राइफ़ल्स के जवानों ने पठानों की निहत्थी भीड़ पर गोली चलाने से इनकार कर दिया।
आज़ादी के दस महीनों के अंदर पाकिस्तानी
जेल में
देश के विभाजन के विरोधी ग़फ़्फ़ार
ख़ां ने पाकिस्तान में रहने का निश्चय किया, जहां उन्होंने पख़्तून
अल्पसंख़्यकों के अधिकारों और पाकिस्तान के भीतर स्वायत्तशासी पख़्तूनिस्तान (या
पठानिस्तान) के लिए लड़ाई जारी रखी। 23 फ़रवरी 1948 को बादशाह ख़ान ने पाकिस्तान संविधान
सभा के सत्र में भाग लिया और नए देश और उसके झंडे के प्रति अपनी निष्ठा की शपथ ली।
पाकिस्तान के संस्थापक और संविधान सभा के प्रमुख मोहम्मद अली जिन्ना ने उन्हें चाय
पर बुलाया। इस मौके़ पर उन्होंने ग़फ़्फ़ार ख़ान को गले लगाते हुए कहा- "आज मैं
महसूस कर रहा हूँ कि मेरा पाकिस्तान बनाने का सपना पूरा हुआ।"
पाँच मार्च, 1948 को ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने पहली
बार पाकिस्तान की संसद में भाषण दिया। उन्होंने स्वीकार किया कि 'मैंने भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन
का विरोध किया था।' उन्होंने विभाजन के दौरान हुए नरसंहार की तरफ़ सांसदों का ध्यान खींचा, लेकिन ये भी कहा कि अब जब विभाजन हो
ही चुका है तो अब लड़ाई की गुंजाइश ही नहीं बनती। बादशाह ख़ान और पाकिस्तानी सरकार
के बीच सुलह बहुत दिनों तक नहीं रह सकी। ब्रिटिश सरकार के जाने के दस महीनों के अंदर
ही बादशाह ख़ान को देशद्रोह के आरोप में पश्चिम पंजाब की मॉन्टगोमरी जेल में तीन साल
के लिए भेज दिया गया।
अप्रैल, 1961 में पाकिस्तान के सैनिक शासक अयूब ख़ान
ने उन्हें फिर गिरफ़्तार कर सिंध की जेल में भेज दिया। 1961 तक बादशाह ख़ान पाकिस्तान की सरकार
के लिए एक 'देशद्रोही', 'अफ़ग़ान एजेंट' और ख़तरनाक व्यक्ति हो गए थे। हालात ऐसे बने कि उन्हें पाकिस्तान छोड़कर अफ़ग़ानिस्तान
में शरण लेनी पड़ी। 1969 में जब भारत की प्रधानमंत्री अफ़ग़ानिस्तान के दौरे पर गईं तो वहाँ भारत के राजदूत
अशोक मेहता ने बादशाह ख़ान को श्रीमती इंदिरा गांधी के सम्मान में दिए गए भोज में आमंत्रित
किया। प्रधान मंत्र्री इंदिरा गांधी ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान से पूरे 22 साल बाद मिलीं। बादशाह ख़ान पूरे 22 सालों बाद भारत आ रहे थे। हवाई-अड्डे
पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण उनके स्वागत के लिए पहुंचे हुए थे।
बादशाह ख़ान भारत में जहाँ-जहाँ गए लोगों की बड़ी भीड़ उनको सुनने के लिए उमड़ पड़ी।
दिल्ली पहुंचने पर बादशाह ख़ान को खुली कार में हवाई अड्डे से शहर लाया जाया गया।
बादशाह ख़ान के भारत पहुंचने के एक
या दो दिन बाद देश के कई भागों में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए। बादशाह ख़ान ने इन
दंगों को रोकने के लिए तीन दिन के अनशन की घोषणा की। ये सुनते ही दंगे रुक गए। 24 नवंबर, 1969 को उन्होंने संसद के दोनों सदनों की
संयुक्त बैठक को संबोधित किया। संसद में दो टूक बात करते हुए उन्होंने कहा, "आप गांधी को उसी तरह भुला रहे हैं जैसे
आपने गौतम बुद्ध को भुलाया था।"
सत्तर के दशक की शुरुआत में अफ़ग़ानिस्तान
की सरकार ने उन्हें जलालाबाद में रहने के लिए एक घर दे दिया। बादशाह ख़ान उस घर में
पलंग की जगह चारपाइयों का इस्तेमाल करते थे. वो अपने शयनकक्ष में न सोकर जाड़े में
भी पहली मंज़िल के बरामदे में सोया करते थे। बादशाह ख़ान ने शुरू में अफ़ग़ानिस्तान
में सोवियत हस्तक्षेप का समर्थन किया लेकिन 1981 में जब वो इलाज के सिलसिले में भारत
आए तब तक वो अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत उपस्थिति के ख़िलाफ़ हो चुके थे। वर्ष 1987 में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान एक
बार फिर भारत आए, जहाँ उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न दिया गया। 20 जनवरी 1988 की सुबह 6 बजकर 55 मिनट पर बादशाह ख़ान ने 98 वर्ष की उम्र में अंतिम साँस ली। उनकी
अंतिम इच्छा थी कि उन्हें अफगानिस्तान में जलालाबाद में उनके घर के अहाते में दफ़नाया
जाए। फ़्रंटियर गांधी के क़रीब बीस हज़ार प्रशंसकों और समर्थकों ने पाकिस्तान में उतमनज़ई
से उनके जनाज़े के साथ बिना किसी पाकिस्तानी पासपोर्ट और अफ़ग़ान वीज़ा के डूरंड लाइन
पार कर अफगानिस्तान में प्रवेश किया। उनके साथ कारों, ट्रकों और बसों का एक लंबा काफ़िला
गया। जलालाबाद में इस जलूस में कई और हज़ार लोग शामिल हो गए। उनके अंतिम संस्कार में
पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल ज़िया-उल-हक़ और भारत के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी दोनों
मौजूद थे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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