राष्ट्रीय आन्दोलन
313. श्रमिक
आन्दोलन
1928
इस वर्ष व्यापक श्रमिक
आन्दोलन देखने को मिलते हैं। बंगाल में लिलुआ रेल कार्यशाला में एक लंबा और कड़ा
संघर्ष चला। हड़ताल को तोड़ने के लिए पुलिस द्वारा गोलीबारी भी हुई। मज़दूर किसान
पार्टी के नेतृत्व में जूट मिलों में हड़तालें हुईं। श्रमिकों को राष्ट्रवादी
समर्थन भी मिलता था। दिसंबर 1928 में कलकत्ता के कामगार
वर्ग ने राजनीति में अपनी भागीदारी और राजनीतिक प्रौढ़ता का प्रदर्शन किया जब मज़दूर
किसान पार्टी के नेतृत्व में हज़ारों की संख्या में कामगार कांग्रेस अधिवेशन के
स्थान तक जुलूस बनाकर पहुंचे और न सिर्फ़ अपनी मांगे रखीं बल्कि पूर्ण स्वराज की
मांग करने वाले प्रस्ताव को भी स्वीकार किया। बंगाल के श्रमिक आन्दोलन में
सुभाषचन्द्र बोस ने गहरी रुचि दिखाई। जुलाई में साउथ इंडियन रेलवे में उग्र हड़ताल
हुई। इसके नेता सिंगारवेलु और मुकुंदलाल सरकार को जेल की सज़ा हुई। सबसे प्रसिद्ध
हड़ताल कपड़ा मिल मज़दूरों की थी। बड़े कपड़ा उद्योगपतियों का यही प्रयत्न रहता था कि
सरकार द्वारा लंकाशायर और जापान के विरुद्ध चुंगी को संरक्षण देना अस्वीकार कर
देने पर जो भार पड़ा था, उसे मज़दूरों के सिर पर थोप दें। इससे मज़दूरों के
पारिश्रमिक में कटौती होती थी। इसके विरोध में ज़बरदस्त हड़ताल हुई और हड़ताल तभी
समाप्त हुई जब मिल मालिकों ने 1927 की मज़दूरी बहाल कर
दी। इसकी प्रतिक्रिया में पूंजीपतियों और सरकार, दोनों की तरफ़ से प्रत्याक्रमण
हुआ। परिणामस्वरूप अगले वर्ष एक बड़ा सांप्रदायिक दंगा हुआ। सरकार की दमनात्मक
कार्रवाई हुई और अधिकांश मज़दूर नेता गिरफ़्तार कर लिए गए। मेरठ में एक लंबा केस चला
जो चार साल तक चला। 1933 में अभियुक्तों को कड़ी सज़ाएं
हुईं। मज़दूरों के बढ़ते रोष को देखकर अखिल भारतीय कांग्रेस ने एक श्रमिक अनुसंधान
विभाग की स्थापना की। सुभाषचन्द्र बोस कुछ कांग्रेसी नेता ट्रेड यूनियनों के नेताओं
के जेल में रहने के कारण अनुपस्थिति को देखकर श्रमिकों पर अपना प्रभाव जमाने लगे।
इस बात के संकेत भी मिलते हैं कि अब धीरे-धीरे श्रमिक आंदोलनों में उतार आ रहा था।
1928 के अंत तक मज़दूर नेता कांग्रेस के
प्रति एकता और संघर्ष की नीति अपनाए हुए थे। वे कांग्रेस की आलोचना भी करते थे और
उसके साथ एक साम्राज्यवाद विरोधी संयुक्त मोर्चे के निर्माण का प्रयास भी करते थे।
दिसंबर 1928 भारतीय कम्युनिस्ट राष्ट्रवादी
मुख्यधारा से अलग-थलग रहने लगे। वे नेहरू और सुभाष पर वैचारिक आक्रमण भी करने लगे।
श्रमिकों में कांग्रेस की रुचि सीमित ही रही थी। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान गांधीजी
शीर्ष भूमिका निभा रहे थे। उनका आम हड़ताल जैसे हथियार का प्रयोग करने का इरादा
नहीं था। इसे वह अत्यंत विभाजक और खतरनाक मानते थे। इधर आर्थिक परिस्थिति भी
श्रमिक आन्दोलन के प्रतिकूल होती जा रही थी। परिणामस्वरूप कामगारों की मालिकों के
साथ सौदेबाज़ी की क्षमता कमज़ोर पड़ती गई।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।