शनिवार, 6 मार्च 2010

चैत खेलब बलजोरी हो रामा....

-- करण समस्तीपुरी
फागुन का रंग उतरा भी नहीं कि चतुरंगिनी चैती बयार चित्त की चंचलता में चार-चार चपल-चारु पंख लगा रही है। ऋतुराज के यौवन पर मन्मथ की मार से उपजे जलन को फागुन का पूर्ण-चन्द्र भी शीतल न कर सका। वसुधा की धानी चुनर के रंग ढलने लगे, प्रकृति का गदरायापन और गहरा रहा। कमसिन महुआ के फूट रहे यौवन की सुरभि से मत्त भ्रमर वृन्द को रसाल के प्रौढ़ मंजर के अरुण अंचल में हरी-हरी पलकें खोल रहे रसराज के शैशव की सुधि लेने की भी फुर्सत कहाँ ? अनंग के अस्त्र और मारक हुए जा रहे हैं। मयंक की मयूख मयंकमुखी के मन की उद्विग्नता को और बढ़ा रही है।
ऐसा संयोग सिर्फ प्रकृति ही बना सकती है। फागुन के बाद चैत। मानो, फागुन में होली के भंग के रंग को उद्दीप्त करने के सभी कारक विधि ने चैती आँचल में छुपा दिए थे। फागुन में सृंगार-सरोवर बनी धरा का जल चैत में और कल-कल बहने लगता है। फगुआ में परदेश से जिनके प्रीतम आये हैं उनका अंगना खिल उठा लेकिन जिनके नहीं आये, वो आंगना क्या करे ?
दिन में मंद समीर में हिलते गेहूं की स्वर्णाभ बालियाँ हृदय में लपटें उठाती हैं तो राका की श्यामल वक्ष पर झिलमिल करते तारे उर में आग लगाते हैं। निशा के एकाकीपन में जाग उठता है विप्रलंभ सृंगार। प्रेयसी के पास हैं प्रियतम तो संयोग सृंगार और 'जाके बलम विदेसी उसके सृंगार कैसी' तो विप्रलंभ। फागुन आते ही उमरने लगता है सृंगार रस और फागुन का नशा बना रहता है चैत तक। इसीलिए मिथिलांचल में कहते हैं, 'फागुन खेलब होरी ! चैत खेलब बलजोरी !!' फगुआ में उद्दात्त उर की उन्मुक्त अभिव्यक्ति होती है तो चैती विरह की हूक सी उठाती है। कारण दोनों ही हो सकता है, 'आ गया मधुमास लेकिन तुम नहीं आये....' या होली में आये हृदयेश की विदाई.... 'चार दिनों का प्यार ओ रब्बा बड़ी लम्बी जुदाई..... लम्बी जुदाई !'
स्थिति जो भी हो, प्रियवर से चिर-विरह या आसन्न विरह की आशंका, जब बिरहिनी के हृदय को भेदती है तब फूटता है यह ग्राम्य-गीत :
सूतल पिया के जगाबे कोयलिया, आधी-आधी रतिया !
सूतल पिया के जगाबे कोयलिया, आधी-आधी रतिया !!
आन दिन बोले कोयली भोर-भिनसारबा !
आजु कोयली बोले अध-रतिया हो रामा, बैरिन कोयलिया !!
सूतल पिया के जगाबे कोयलिया, आधी-आधी रतिया !!
कोयली के कूक सुन जियरा बेकल भेल !
फाटल बिरह से छतिया हो रामा, आधी-आधी रतिया !!
सूतल पिया के जगाबे कोयलिया, आधी-आधी रतिया !!
गीत मैथिली में है। फगुआ में आये प्रियतम का आज उषा काल में वापसी मुहूर्त है। प्रियतमा चाहती है कि आज की रात लम्बी हो। प्रभात देर से आये। प्रियतम की नींद मुहूर्त निकलने के बाद खुले.... संयोग सुख कुछ दिन और मिले। इसीलिये समशीतोष्ण चैती निशा में कोयल की कूक नायिका को रास नहीं आ रही है। आधी रात में कोयल की कूक से नेह के नीड़ में सोये प्रियतम कहीं जाग ना जाएँ। और दिन तो कोयल प्रातः काल में बोला करती थी। आज पता नहीं क्यूँ बैरी आधी रात से ही हूक मचा रही है। लगता है कोयल को भी मेरे सुख से ही बैर है। आधी रात में वज्र के समान तीक्ष्ण कोयल की कूक सृंगार सुख के हिंडोले में झूल रही नायिका को वास्तविकता की कठोर पाषाण पर पटक देती है। उसका हृदय व्याकुल हो जाता है। विरह से छाती फटने लगती है कि अब तो प्रियवर समयपूर्व जग जायेंगे और मुहूर्त पर ही परदेश-प्रस्थान कर जायेंगे।
गीत का प्रभाव दोनों ही स्थितियों का द्योतक है। एक तो पूर्व वर्णित है। दूसरी यह कि नायिका (दूर बसे प्रियतम से प्रेम की) स्वप्न-रथ पर मत्त जा रही है। आधी रात में कोयल की कूक निर्दयी सत्य से उसका साक्षात्कार करवाती है। नींद टूटने पर पाती है कि प्रियतम तो है ही नहीं। तब विरह से व्याकुल उसका हृदय फटने लगता है। अस्तु॥
आज फुर्सत में पता नहीं क्या-क्या लिख गया। अब आप ही बताइयेगा, 'अतिशयोक्ति' तो नहीं हुई ?

13 टिप्‍पणियां:

  1. nahee jee koi atishyokti nahee huee .
    dehatee bhasha me apanee ek mithas hai jo ujagar karane me aap saksham hai .

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  2. भावपूर्ण लिखा है..प्राकृतिक सौंदर्य का सुन्दर वर्णन है...और प्रीतम के प्रति प्रयासी की भावनाओं का तो कहना ही क्या....गीत में माधुर्य है..

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  3. रचना अच्छी लगी. शुभकामनाएं

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  4. बढियां विश्लेषण...रचना अच्छी लगी..... शुभकामनाएं.....

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  5. करण जी,आपके लेख में कुछ नया पढ़ने को मिल रहा है.अच्छी पोस्ट.

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  6. करण जी,आपके लेख में कुछ नया पढ़ने को मिल रहा है.अच्छी पोस्ट.

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  7. लेखनी प्रशस्त है, बांधती है, भाषा पठनीय है। रचना को पूरी पढ़ने की रुचि जगाती है। आपको साधुवाद।

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  8. badhiya, bahut badhiya, lag raha hai jaise such much chait aa gaya ho

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