बुधवार, 5 मई 2010

देसिल बयना - 28 : राजा के आगे और घोड़ा के पीछे नहीं चलना चाहिए

देसिल बयना - 28 : राजा के आगे और घोड़ा के पीछे नहीं चलना चाहिए

-- करण समस्तीपुरी

J0287643 उ दिन परवत्ता से लौट रहे थे तो देखे चोखाई महतो अपनी खटिया पर कराह रहे थे। हमको देखिये के भकचोंधर लग गया। महतो टोल में तो चोखाई की तूती बोलती थी। लरहन इस्टेट के मालिक राजा पछारण सिंघ के चिलमची (चिलम भरने वाला) था। ई तो गाँव-घर कम्मे आते थे और आते भी थे तो गर्र-गर्र.... चाह (चाय) का केतली उलटते रहता था द्वार पर। बाबू टोल के एकाध गो लाट साहेब भी कुर्सी तोड़ते थे असम मुलुक का इस्पेसल चाह पीने के लिए। उ चोखाई महतो आज खटिया धरे हुए है.... का बात हुआ भाई... ?

नजदीक गए तो देखे... आहि रे बा.... ! चोखाई का मुँह तो कोलपत आम जैसे एक तरफ से फूला और दूसरे तरफ से चोकटा हुआ था। बालू की पोटली गरम कर के पंजरी से नीचा रख के बूढा आँय-आँय कर रहा था। हम पूछे, "अरे महतोजी ! ई का हाल होय गया है... कैसे हुआ ई सब ?" सवाल खतमो नहीं हुआ था कि चोखाई खिसिया के बोला, "बौआ ! जिनगी में सब करम करिए.... मगर राजा के आगे और घोड़ा के पीछे कभी नहीं चलना चाहिए।"

हम कहे, "महतो जी ! इहो अवस्था में आप खूब कहावत कहते हैं...!"

image चोखाई महतो मसनद को कमर के नीचे सरका कर बैठने का उपक्रम करते हुए बोले, "कहाबत नहीं... हिरदय जलता है तब सच कहते हैं सरकार ! सारा उमिर पछारण सिंघ का हुक्का भरते हाथ खिया (घिस) गया.... और इतना सेवा का यही पिंसिल (पेंसन) मिला है, बुढ़ापा में। आँय...आँय.... ऊओह.... बाप रे...!" महतो जी फिर कराह पड़े।

हम पूछे, "लेकिन आपका ई हाल कैसे हो गया ?"

 image चोखाई महतो मसनद को पजरी में दबा कर आधा मुँह गमछा से ढक कर लगे अपना व्यथा-कथा बयान करे, "बौआ ! उमिर भर अपना देह को देह नहीं बुझे, राजा के सेवा में। दिन तो दिन और रात तो रात। पहाड़ जैसे जुआनी को पानी जैसे बहा दिए, दरबारी खटते-खटते। पछारण सिंघ के बापू राजा दहारण सिंघ के राज में चौदह बरिस के उमिर में दाखिल हुए थे। दो-दो पीढ़ी के हुकुम पर चंगुले पर खड़ा रहे। बुढ़ापा में तो बौआ सब इन्द्री कमजोर हो जाता है... तैय्यो हम हार नहीं माने। लड़का सब कितना बार बोला कि अब कौन चीज का कमी है... घर बैठ जाइए लेकिन दरबार का बहका जी कहीं माने... हम भी अपना जैसे-तैसे निवाहते रहे। दहारण सिंघ के जमाना में तो छुट्टियो छपाटी हो जाए.... मगर पछारण के राज में दरबार उजड़ता गया और हमरा ड्युटी डबल होता गया।

अब सत्तर बरिस का आदमी कितना टहल बजाये ? नजर के आगे पड़े नहीं कि कभी कप ले जाओ... तो कभी चिलम दे जाओ... परात उठाओ... पंडी जी को बुलाओ नहीं कुछ तो पीठ ही सहलाओ.... ! दम धरने के लिए बैठे नहीं कि बूढा कामचोर नाम पड़ा। उ तो धनकु भनसिया हमको सिखायाकक्का, राजा के सामने आप जाते काहे हैं ? उ को तो हुकुम करे का आदत है। सामने जाइएगा तो फरमाएगा ही। अब आप से इतना सकरेगा (संभालेगा) ? साँझ-भिनसार हाजरी बजाइए और रोटी तोड़ के आराम से ससर जाइए।" भाला कहा धनकु। उ दिन से कुछ आराम होने लगा।

पछिला महिना बैसाखी था। भिनसार पर्व और सांझ में राजा को अखाड़ा पर जाना था। ससुर भोरे से हमको कोल्हू के बैल के तरह जोत दिया। इधर बुहारो, उधर पानी डालो..., इसको उठाओ, सत्तुआ बनाओ, सहिजन तोड़ो.... बाप रे बाप दुपहर तक तीसी जैसे पेर दिया.... । ऊपर से कलेऊ (दोपहर का भोजन) कर के जाने लगा तो हिदायत कर दिया कि घोड़ा तैयार कर के रखना। सांझ में अखाड़ा पर जाना है।"

अब का बताएं बाबू ! दिन भर का थका-मंदा... ई ठहठाहिया धूप में सिर-पैर जला के अखाड़ा पर भी जाना होगा। हमको धनकु फिर सिखा दिया था कि कक्का राजा के आगे नहीं जाएगा नहीं तो अपने तो घोड़ा पर बैठ कर ठुमुक-ठुमुक जाएगा और आप से रास्ते भर चंवर डोलवायेगा। आगे-आगे पछारण सिंघ घोड़ा पर चढ़े ठुमुक रहे थे और पीछे पूरा हजूम। धनकु सहिये कहा रहा। जौन-जौन उके आगे गया सब को कुछ न कुछ हुकुम फरमाइए दिया। एक बार धोखा-धोखी में उके आगे पड़ गए कि बस थमा दिया काम, "ऐ चोखैय्या ! का मटरगश्ती कर रहा है... ? बड़ा धूप है रे... छतरी तान के चलो पीछे।"

हम कहे लो... एक बार राजा के आगे गए नहीं कि बेगार थमा दिया। अब का करते... ? राजा साहेब के माथे पर छतरी का छाँव कर घोड़ा के पीछे-पीछे झटक कर चले लगे। चार कदम चले कि नगाड़ा के आवाज पर घोडबा हड़क गया। ससुर जो दुलत्ती भांजा कि पजरी में लगा और हम लग्गा भर दूर मुंहे बल गिरे....! अअअ....आ....आह...!!!" चोखाई महतो दर्द से कराहते हुए बोले, "बौआ पन्द्रहिया हो गया... अभी तक हिल-डोल भी नहीं होता है....! दरद के मारे दिन-रत कुढ़-कुढ़ के मरते हैं। जिसके खातिर जान अर्पण कर दिए, उ ससुर एक बार हाल-समाचार के लिए भी किसी को नहीं भेजा... ! इसीलिए कहते हैं, 'राजा के आगे और घोड़ा के पीछे नहीं जाना चाहिए।' आप ई को कहावत मानिए तो मानिए... मगर हमरा तो हड्डी से ज्यादा हिरदय में टीस है.... ।" कहते-कहते चोखाई महतो की झुर्रियायी आँखों से आंसू ढलक कर सूजे हुए गाल को गिला करने लगे। महतो जी की दुर्दशा देख कर कलेजा पसीज (पिघल) गया। उको धानधस बंधाये और मने-मन यही सोचते हुए चल पड़े कि सच्चे कहते हैं महतो जी। राजा (अधिकारी) के आगे और घोड़ा के पीछे नहीं जाने में ही भलाई है।

13 टिप्‍पणियां:

  1. सही कहा जी, बहुत सुंदर लगा आप का यह लेख

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  2. गलती करने का सीधा सा मतलब है कि आप तेजी से सीख रहे हैं चोखाई महतो जी ।
    करण एक बार फिर एक अच्छी कहानी के ज़रिए आपने समझाया काफी हिट देसिल बयना को।

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  3. बहुत सही बात कही गयी है.

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  4. पुर्व की तरह यह्न देसिल बयना भी अच्छा लगा.

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  5. "बौआ ! जिनगी में सब करम करिए.... मगर राजा के आगे और घोड़ा के पीछे कभी नहीं चलना चाहिए।"
    bahut badhiya ,sundar rachna

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  6. भाई जी, हमरा कलम भलुक की बोर्ड बुझाता है तूड़ के बिगने का नौबत आ गया बुझाता है... बेजोड़ खिस्सा सुनाए हैं... मियाज हरियर हो गया.

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  7. राजा (अधिकारी) के आगे और घोड़ा के पीछे नहीं जाने में ही भलाई है।
    बहुते सुंदर लगा आपका यह देसिल बयना।

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  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  9. बात तो पते की कही...शानदार प्रस्तुति.
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  10. कहावत को बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है.

    ना राजा के आगादी , ना घोड़े के पिछाडी ...

    सुन्दर कहानी.

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  11. आज की वस्तविकता को दर्शाता ये लेख बहुत ही सुंदर है।

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