बुधवार, 7 जुलाई 2010

देसिल बयना - 37 : गोसाईं दिए खटिया, गोसाईं दिए नींद

देसिल बयना – 37

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गोसाईं दिए खटिया, गोसाईं दिए नींद


-- करण समस्तीपुरी

अलख निरंजन ! बुढ़ारी (बुढ़ापा) में गींजन !! हें...हें....हें....हें.... ! अलख निरंजन तो बहुते सुने होंगे मगर बुढ़ारी में गींजन परोरिया वाली काकी का जोरल मिसरा है। परोरिया वाली काकी याद हैं न.... उ रमलील्ला वाला झपसी कक्का के गाम पर.... ! हाँ वही, जो हाथ चमका-चमका के फकरा जोरे में इस्पात (एक्सपर्ट) थी।

झपसी कक्का रमलील्ला में विश्वामित्र के पाठ लेते थे। उ इस्टेज पर जो गरज के "अलख-निरंजन" बोलते थे कि बिना माइको-लाउडिसपीकर के टोला हिल जाए। गाँव-घर के धिया-पुता से लेकर बढ़-बुजरुग भी कक्का को देखते ही बोल पड़ते थे'अलख-निरंजन'। लेकिन न अब उ देवी न उ कराह... ! रमलील्ला कंपनी का भी भट्ठा बैठ गया और कक्का का भी अवस्था लद गया। उ पर से जुआनी में गांजा के सोंट बुढ़ापा में दम्मा का ऐसन जबदगर मेहमान बना कि बेचारे विश्वामित्तर सठियाये से पहिलही खटियाये गए।

Vista06बड़का लड़का खखोरन पुरैनिया कोट में मोहरीरी करते थे। उ परिवार लेके वहीं रह गए। छोटका बटोरन गाँव में चिमनी भट्ठा पर मुंशीगिरी करता था। दू साल से उ की लुगाई भी बसती थी। कक्का रमलील्ला में थे। बटोरन सीजन में भट्ठे पर रहते थे... घर में बचे सास-पुतोहू। काकियो काम-धंधा में चर-फर थी... हंसिये-खेल में दिन बीत जाए।

मगर इधर कक्का का देह का गिरा... सब का परीच्छा (परीक्षा) शुरू होय गया। खखोरन भाई हफ्ता भर का छुट्टी मार के आये। कक्का को रिक्सा पर बैठा कर समस्तीपुर ले गए। कलेजा का फोटो निकलवा के डॉ नंदी से देखा-सुना के काकी के हाथ में दावा-दारु का थोड-बहुत खर्चा थमा के लौट गए। कक्का के खटिया धरे से घर का काम में वैसे ही बरकत हो गया। काकी गाय-गोरु के बाद कक्का का सेवा-टहल और बटोरन की लुगाई चूल्हा-चक्की, दाना-पानी के सुखाये अबाये में लगी रहती।

महीने दिन में बहुरिया का हिम्मत जवाब दे गया। बहाना कर के भागी नैहर। अब तो और जुलुम। बेटा चिमनी पर, मरद खटिया पर, खुट्टा पर नयी बियाई गाय, धानरोपनी का टाइम..... काकी बौला हो गयी। बटोरन दुपहर में आये और देख सुन के लौट जाए। एक दिन निहोरा कर के बोली, "रे बाबू ! हमरी भी अब जुआनी नहीं रही... घर-द्वार तुही लोगों का है। ऊपर से बूढा खटिया पर अलख - निरंजन करते रहता है। हम अकेले केतना हड्डी पर कबड्डी खेलेंगे... ! ससुरारी जा के बहुरिया का बिदागरी करा लाओ।"

भट्ठा पर से दू दिन की छुट्टी ले बटोरन गए लुगाई के बिदागरी कराये। ससुरारी जाने का नामे सुन के उ को नौ मन पानी पड़ गया। मगर उ की महतारी थी खेलल खेसारी। कोना में ले जा के पता नहीं कौन मंतर दी कि बहुरिया अपना बक्सा-पेटी संभालने लगी। सांझ में ठकुआ-पूरी पका के भार-डोर बंध गया। किरिन फूटे से पहिलही बुद्दर दास के बैल-गाड़ी पर सब समान सैंता गया। बटोरन देखे कि आहि रे तोरी के... बक्सा-पेटी, डाला-चंगेरा तो ठीक है... ई खटिया काहे लाद रहे हैं ?"

फट से बगल में खड़ी उ की ससुरिया साड़ी के अंचरा को हाथ से पकड़ मुँह ढक कर बोली, "पाहून ! ई थान तर के गोसाईं वाला खटिया है। दू साल हो गया... अभी तक नाती-नतनी खेलाये का भाग नहीं जगा... ! भगत जी मंतर से बाँध के दिए हैं, चुरमुनिया के लिए। ई पर सोये से घर में धन-पूत का बिरधी होगा। गोसाईं बाबा भगत जी के सपना में कहिन हैं।" धन और पूत का बिरधी... बटोरनो मने-मन खुशिये हुआ।

पहर ढलते-ढलते बैल-गाड़ी झपसी कक्का के द्वार लग गया। सब समान उतारा। बहुरिया खटिया पर विशेष नजर रक्खे हुए थी। सास को गोर लग कर सबसे पहिले खटिया का खिस्सा सुनाई। धन-पूत का बिरधि सुन के सासु माँ भी खूबे खुश हुई थी। बहुरिया भी हाथ-पैर धोई और नैहर के भार का कलेऊ कर सांझे गोसाईं वाला खटिया पकर ली। काकी भी समझी कि रास्ता की थकी मंदी है। सांझ का काम-धंधा निपटाए लगी।

लेकिन हौ बाबू ! ई बहुरिया के खटिया तो जबर्दश्त निकला... ! ऐसन जबर्दश्त कि ओह्की नींदे नहीं टूटे। काकी बेचारी जल-मर के सब काम कर ले तब बेचारी बहुरिया जबर्दश्ती कर के किसी तरह उठे, जलखई-कलेऊ कर के फिर निन्द्रासन पर सवार। घर-बाहर संभालते-संभालते अधमरी काकी कभी चिढ जाती थी तो कक्का खटिया पर से बोलें, "अलख-निरंजन"। ई पर काकी और चिढ के बोलती थी, "बुढ़ारी में गींजन"।

काकी का देह तो एकदम सूख के खटाई हो गया था। उ दिन बटोरन महतारी का दशा देख कर पूछा, "अम्मा का होय गया है ई... ? बापू दम्मा से खटिया धरे... तू अपनी देह काहे सूखा रही हो ? रामजी के इच्छा से घर में दाना-पानी का कम्मी नहीये है। अब तो बहुरियो को ला दिए हाथ बंटाने... फिर तू काहे मरुआ के लत्ती की तरह सूखी जा रही है... !"

काकी का दुन्नु आँख डबडबा गया। मगर उहो घड़ी में हाथ चमका के एगो फकरा गढ़िये दी, "हाँ रे बौआ ! बहुरिया को तो लाइए दिया। ऊपर से बहुरिया के निन्द्रासनो ला दिया.... गोसाईं बाबा वाला खटिया। फिर बाते का है... 'गोसाईं दिए खटिया, गोसाईं दिए नीन (नींद) ! तो सोये बहुरिया सगरो दिन !!' तोहरी लुगाई कहती है कि एक बेर उ खटिया पर सो का गई, गोसाईं बाबा उ का अंग-अंग में नीन भर दिए हैं। आँखे नहीं खुलती है। ई बूढा भर जुआनी किया 'अलख-निरंजन' तो अब उके साथ-साथ हमें भी 'बुढ़ारी में गींजन'। गोसाईं बाबा सब को सब कुछ दिए और हमरे दिए ई दुर्दिन। तू उधर चिमनी अगोरो... इधर खेती-पथारी और गाय-गोरु भी सुखाई जाए.... ! बहुरिया तो गोसाईं के दिया खटिया पर सोइए रही है न... फिर काहे नहीं घर में धन-पूत का बिरधी होगा... !" 'गोसाईं दिए खटिया, गोसाईं दिए, नीन ! सोये बहुरिया सगरो दिन !!' कहती हुई काकी उठ कर चली गयी गाय को घास देने।

बटोरन माथा पर हाथ धरे सोचने लगा, ''गोसाईं दिए खटिया, गोसाईं दिए, नीन ! सोये बहुरिया सगरो दिन !!'' फिर कैसे घर में धन-पूत का बिरधी होगा... ! फिर उ के समझ में आया कि उ की महतारी कितना दरद से और काहे ई बात कही थी। आखिर जब कोई अपने कर्तब्य से बचने के लिए, दैवी शक्ति या प्राकृतिक प्रक्रिया का बहाना करे तो और का कहा जा सकता है। आखिर काकी कही तो सोलहो आने सही, ''गोसाईं दिए खटिया, गोसाईं दिए, नीन ! सोये बहुरिया सगरो दिन !!''

तो यही था गोसाईं का दिया आज का देसिल बयना। मगर आप भी पढ़ते-पढ़ते सो नहीं जाइएगा। अरे सोना-उठना तो लागले रहता है, एक बार टिपिया दीजियेगा तो हमरा हौसला न बढ़ जाएगा... बूझे कि नहीं ? खैर बूझे तो बूझे और नहीं बूझे तो जय राम जी की !!

21 टिप्‍पणियां:

  1. ए महराज! आप त कमाले करते हैं... अगर हमरा बचिया घंटी नहीं बजाए होती, त हमको पते नहीं चलता कि हम दिल्ली में हैं कि फनिस्वर नाथ रेनू जी के प्रदेस में हैं. एक्के बार में बुढ़िया का लाचारी, कलजुगी पुतोह का कलाकारी अऊर बेटवा का जिम्मदारी सब समझ में आ गया... घर घर देखा, एक्के लेखा... करन जी..का कीजिएगा, कऊन कहेगा कि देस तरक्की कर गया है, जब अभियो पुतोह गोसाईं जी का खटिया तूड़ रही है अऊर बुढ़िया सास बेचारी चुल्हा फूँक रही है...

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  2. मार्मिक चित्रण! भाषा की चाशनी में पगी और बिहार की आत्मा से सनी मीठी रोटी का स्वाद मिला आपको पढकर. करण जी मुझे मुझसे मिलाने का शुक्रिया!!

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  3. हमेशा एक नयी कहावत को इस देसिल बयना से समझाना ...अद्भुत है....बहुत पसंद आया

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  4. @ चला बिहारी....
    सलील जी,
    ईमान की बात बता रहा हूँ... यह लिखते वक़्त हमेशा एजाज हमख्याल रहा. मैं यह रचना आपही को समर्पित करता हूँ !! दुवा नवाजें !!! अबकी शुक्रिया नहीं कहूँगा... !!

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  5. @ संवेदना के स्वर,
    आपकी प्रतिक्रिया किसी की कलम की संवेदना को कैसे जगा सकती है... यह मैं समझ रहा हूँ ! बहुत ही अच्छा लगा आपका प्रोत्साहन !! धन्यवाद !!!

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  6. @ संगीता (गीत) जी,
    रचना आपको पसंद आयी, आपके आशीर्वचन मिले..... मेरा परम सौभाग्य है !!

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  7. करन जी! हम ई लायक सच्चो नहीं हैं कि हमको आप समर्पित कीजिए अपना ई देसिल बयना. हम बतकही करते हैं, बाकी आप असली कलाकार हैं. आपका भावना का हम इज्जत करते हैं, लेकिन ऐसा सम्मान मत दीजिए जिसके हम लायक नहीं हैं.

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  8. सो तो जरूर गये थे मगर टिप्प्याणे की बात सुन कर नीन्द खुल गयी इस काम मे तो हम माहिर हैं--मगर समीर जी से कम। हा हा हा।

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  9. @ चला बिहारी.....
    सलील जी,
    आपने मेरे जज़्बात को क़द्र बख्शी... जहेनसीब ! मैं बस इतना ही कहना चाहूँगा कि 'रहिमन हीरा कब कहे लाख टके की मोल !' यूं तो आपके परिचय से ही मैं आपका मुरीद हो गया था अब तो आपका ब्लॉग भी पढ़ आया हूँ, जिसमे आपने राही मासूम राजा, गुलज़ार साहब और के.पी. सक्सेना के नायब लेखन का तर्जुमाँ किया है.... यकीन मानिए आपका लेख पढने के बाद इस बोली में लिखने का मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ा है....! लेकिन शुक्रिया नहीं कहूँगा.... !!! हा...हा... हा... !!!!

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  10. संवेदनशील रचना के साथ देसिल बयना का अंदाज़ क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।
    और सलिल जी का टिप्पनी हमरो बात माना जए। ऊ जो कह दिहिन है उससे ज़्यादा कोई का कह सकता है।

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  11. जब कोई अपने कर्तब्य से बचने के लिए, दैवी शक्ति या प्राकृतिक प्रक्रिया का बहाना करे तो और का कहा जा सकता है।
    ham bhi dekhe hain ek do aise hi kisse ..

    desi andaz me muhavra samjhane ka tarika achha hai ..!

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  12. बहुत खूब...अपनी माटी की बोली-भाषा पढ़कर अच्छा लगा.

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  13. 2000 करोड़ की संपत्ति की मालकिन, एक नव-यौवना को तलाश है मिस्टर राइट की!

    क्या अब आपका नंबर है? ;-)

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  14. 'गोसाईं दिए खटिया, गोसाईं दिए नीन (नींद) ! तो सोये बहुरिया सगरो दिन !!'mast likhe hai bhai ji..bilkul gaurtalab hai

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  15. सभी पाठकों को मैं हृदय से धन्यवाद देता हूँ !!!

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  16. बहुत ही कारीगरी से चित्रण किया है काकी की दुश्वारि्यों का।

    वैसे गोंसाई जी का खटिया घरो-घर पहुंच ही गया है।

    बहुत सुंदर

    आभार

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  17. यह टिपण्णी श्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने लोंग इन नहीं कर पाने के कारण ई-मेल से भेजी है,

    "Priya Karan,
    Es baar ka desil bayana ekdam desi hai .Desil Bayana me jo itna jyada desi mithas bharne me aap safal hue hain uske liye meri badhaiyan sweekar karen."
    -GyanChand Marmagya

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  18. 'रहिमन हीरा कब कहे लाख टके की मोल !' aap jaise lekhak ho to Desil Bayna kahe na ho anmol!!

    mai aapki tarif karna nahi chahta, kyonki tulna karne ke lie kuchoo nahi dikh raha hai.................

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  19. एक एक शब्द ,एक एक वाक्य पर बलिहारी...
    कैसा आनंद मिला.... अब का कहें...

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