मंगलवार, 20 जुलाई 2010

मौन बने कर लें फेरा

मौन बने कर लें फेरा

आचार्य परशुराम राय

J0341554 सुन्दरता  के जल माध्यम को

भेद  गड़ीं नजरें  प्रियतम की।

झूम उठा  मेरा  मन   ऑंगन

पाकर सुरभि किसी चेतन की।

 

J0178632 प्राण   सुधा  अर्पित   करने   को

उमड़ा जलधि असीम हृदय का।

ज्ञात न थी इसको  निज  सीमा

उमड़ा छोड़ साथ निज तन का।

 

026nh टूट   गयी   टकराकर   आशा

सागर के इस निर्मम तट से।

झूल   रही   कोरी   अभिलाषा

सूने  मन-तरु  की  डाली  से।

 

आफ़त-1 हर प्रयास बस फेन  बन रहा

उच्छ्वासों  का  वाष्प    सघन।

घोर   विरह घर की चपला ने

चमकाए  निज  कुपित  नयन।

 

Vista18विरह जलधि की बेला में ये

करते   ऑंसू   संधि   प्रबल।

देख आज समगुण की मैत्री

काँप रहा  मेरा  तन  निर्बल।

 

Vista20 देख यवनिका जग नयनों की

पकड़  धरा  की   धूसर डाली।

झूल   रही  है  दृग   लतिकाएँ

स्वप्न पत्र से सज मतवाली।

lambs शास्त्र महल के कोलाहल में

मिलन   कहाँ      मेरा-तेरा।

विरहानल  के साक्ष्य  भवन

मौन   बने  कर   लें    फेरा।

(चित्र साभार गूगल सर्च)''''''''

26 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  2. आचार्यवर,
    नमस्कार ! 'प्रसाद' याद आ गए. "कहाँ विमोहिनी ले जावेगी... रिझा मुझे झंकृत पायल से..... !" भाषा पर छायावाद का संस्कार दृष्टिगोचर होता है. कल-कल छल-छल बहती हुई शब्दावली.... वही सुकोमल विम्ब.... प्राकृतिक उपादान.... ! साधु-साधु !! अब थोड़ा दुस्साहस करूँ.... ? मैं इसे आंच पर चढ़ाना चाहता हूँ... लेकिन थोड़ा वक़्त ले कर... !!!! आदेश दिया जाए !!!!!!

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  3. @karan samastipuri : samastipuri ji,
    namaskar! aap se anurodh hai ki isse aanch par charhayen.isse mujhe khushi hogi....

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  4. आचार्य जी, इस पर कुछ भी कहना दुःसाहस होगा. अब तो प्रतीक्षा रहेगी, विस्मृत हो चुके छायावाद की आँच पर करण जी की लेखनी से पगी, महुए की सुगंध से माती हुई, एक नूतन रचना का...
    इस उपवन में पदार्पण करना एक तीर्थ का अनुभव प्रदान करता है.
    आभार मनोज जी का भी!

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  5. वाह! आज तो यहां कल-कल छल-छल सरिता प्रवाहित हो रही है।

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  6. यह कविता आपके विशिष्ट कवि-व्यक्तित्व का गहरा अहसास कराती है।

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  7. छंदों और बिम्बो से सजी छायावाद की छाया से लदी ये मनमोहक कविता सराबोर कर गयी.

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  8. बहुत सुन्दर लगा हर छन्द, धन्यवाद

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  9. देख यवनिका जग नयनों की

    पकड़ धरा की धूसर डाली।

    झूल रही है दृग लतिकाएँ

    स्वप्न पत्र से सज मतवाली।

    एक एक छंद भावमयी...मन प्रसन्न हो गया ...

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  10. शास्त्र महल के कोलाहल में मिलन कहाँ मेरा-तेरा। विरहानल के साक्ष्य भवन मौन बने कर लें
    टूट गयी टकराकर आशा सागर के इस निर्मम तट से। झूल रही कोरी अभिलाषा सूने मन-तरु की डाली से।
    bahut hi sundar rachna hai aapki

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  11. बहुत सुन्दर. सुन्दर भाव.

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  12. राय जी साहित्यिक प्रतिभा के धनी है, जिसका प्रमाण यह कविता है.

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  13. भाषा पर छायावाद का संस्कार दृष्टिगोचर होता है| सुकोमल विम्ब..!

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  14. शास्त्र महल के कोलाहल में

    मिलन कहाँ मेरा-तेरा।

    विरहानल के साक्ष्य भवन

    मौन बने कर लें फेरा।

    bahut badhiyaa

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  15. सघन अनुभूति के उपरांत इतनी गहन भावना आती है।
    विरह जलधि की बेला में
    ये करते ऑंसू संधि प्रबल।
    देख आज समगुण की मैत्री
    काँप रहा मेरा तन निर्बल।

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  16. अद्भुत...मन प्रसन्न हो गया पढ़कर.

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  17. आपकी रचना शानदार है
    भाषा तो और भी जबरदस्त
    बहुत अच्छा लगा.

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  18. यह हुई ना बात!
    प्रतीकों का सहज एवं सफल प्रयोग किया गया है।

    बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  19. आदरणीय मनोज जी
    परिकल्पना ब्लॉगोत्सव 2010 में सम्मानित होने पर हार्दिक बधाइयां स्वीकार करें!
    भविष्य के लिए मंगलकामनाएं !!

    प्रस्तुत काव्य रचना बहुत सुंदर है , इसके लिए भी बधाई !

    शस्वरं पर भी आपका हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइएगा , आपकी प्रतीक्षा में पलक - पांवड़े बिछे रहेंगे …
    शुभाकांक्षी
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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