शनिवार, 31 जुलाई 2010

प्रेमचंद का पद्य-कौशल

प्रेमचंद का पद्य-कौशल


मेरा फोटोकरण समस्तीपुरी

भारतेंदु ने ब्रज-भाषा में पद्य के साथ खड़ी बोली में गद्य का प्रणयन किया लेकिन हिंदी साहित्य में गद्य को प्रतिष्ठा किसने दिलाई ? मुझे नहीं लगता इसका उत्तर गूगल पर या इनसाय्क्लोपिडिया में खोजना पड़ेगा।

संस्कृत वांग्मय का आरम्भ ही पद्य में हुआ है। वेद और उपनिषद पद्य में है। श्रुति और स्मृतियाँ पद्य में हैं। रामायण और महाभारत जैसे महाग्रंथ पद्य मेंहैं। साहित्य ही नहीं नीति, दर्शन, आयुर्वेद, अर्थ-शास्त्र सभी पद्य में थे। संस्कृत से आसूत हिंदी साहित्य मध्यकाल तक पद्य में ही था। आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ पद्य के आवरण से उन्मुक्त होने को कसमसा रही थी। भारतेंदु हरिश्चंद्र का युग हिंदी साहित्य में वयः संधि का युग था। भारतेंदु ने ब्रज-भाषा में पद्य के साथ खड़ी बोली में गद्य का प्रणयन किया लेकिन हिंदी साहित्य में गद्य को प्रतिष्ठा किसने दिलाई ? मुझे नहीं लगता इसका उत्तर गूगल पर या इनसाय्क्लोपिडिया में खोजना पड़ेगा।

मैं बात कर रहा हूँ कलम के सिपाही की।  कलम के मज़दूर की। मुंशी प्रेमचंद की। वाराणसी के समीप लमही के कायस्थ कुलोत्पन्न धनपत राय उर्दू में नवाब राय के नाम से अफ़साना-निगारी करते थे। वतन-परस्ती के ज़ज़्बे से लबरेज़ उनकी किताब 'सोज़े-वतन' बरतानि हुकूमत को हज़म नहीं हुई। 'सोज़े-वतन' की हज़ारों प्रतियां क्या जली वतन को प्रेमचन्द मिल गया। नवाब की कलम पर हुकूमत की पाबन्दी हो गयी थी। नवाब भूमिगत हो गए किन्तु कलम चलती रही।  लिपि बदल गयी, जुबान कमोबेश वही रहा। तेवर वही रहे और जज्बे में कोई तबदीली मुमकिन थी क्या ?

साहित्य में होरी, धनिया और गोबर जैसे 'सर्वहारा' पात्रों को स्थान दिलाने का श्रेय भी प्रेमचंद को ही है। पुरातन काल से चले आ रहे आदर्श साहित्य को प्रगतिवाद का यथार्थ मुँह चिढाने लगा था। प्रेमचंद ने प्रगतिवादी साहित्य को नयी दिशा दी --आदर्शोन्मुख यथार्थवाद।

हिंदी कथा साहित्य के पर्याय हो गए प्रेमचंद। बेशक कलम में जादू था। कफ़न, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, ईदगाह, सद्गति, नशा जैसे ३०० से अधिक कथाओं और सेवा-सदन, गबन, गोदान, निर्मला जैसी दर्ज़न भर उपन्यास के लेखक प्रेमचंद ने हिंदी में कुल तीन नाटक भी लिखे -- कर्बला,संग्राम और प्रेम की वेदी। बल्कि यूँ कहें कि साहित्य में होरी, धनिया और गोबर जैसे 'सर्वहारा' पात्रों को स्थान दिलाने का श्रेय भी प्रेमचंद को ही है। पुरातन काल से चले आ रहे आदर्श साहित्य को प्रगतिवाद का यथार्थ मुँह चिढाने लगा था। प्रेमचंद ने प्रगतिवादी साहित्य को नयी दिशा दी --आदर्शोन्मुख यथार्थवाद।

सेवासदन की कुलीन नायिका सुमन अभाव और कुरूतियों के दंश से तबायफ हो जाती है किन्तु देह का सौदा नहीं करती। यही था प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद। प्रेमचंद की रचना-यात्रा वैविध्य से भरी हुई है। सेवासदन के गांधीवादी प्रेमचंद गबन में मार्क्सवादी विचारधारा में ढलते दीखते हैं लेकिन गोदान तक आते-आते वामपंथ से भी उनका मोहभंग हो चुका है। मंगलसूत्र पूरा नहीं हुआ... वरना क्या पाता इसमें समाजवाद की भी पोल खुल जाती।

प्रेमचंद के लिए एक बार अल्लामा इकबाल ने कहा था, “मैं शायर नहीं होता गर नवाब की तरह लिख पाता।" लेकिन प्रेमचंद काव्य प्रतिभा के भी धनी थे। उनका कथा-साहित्य इतना प्रभावशाली और लोकप्रिय था कि इतर विधाओं पर न कभी उनका ध्यान गया न ही उनके प्रशंसकों का। कथा-क्रम में ही उन्होंने कई फुटकर ग़ज़ल और छंद लिखे हैं। आईये ज़रा प्रेमचंद के पद्य-कौशल से भी साक्षात्कार कर लेँ।

दफ़न करने ले चले थे, जब तेरे डर से मुझे !

काश तुम भी झाँक लेते, रोज़-ए-दर से मुझे !!

सांस पूरी हो चुकी दुनिया से रुखसत हो चुका,

तुम अब आये हो उठाने मेरे बिस्तर से मुझे !

क्यूँ उठता है मुझे, मेरी तमन्ना को निकाल,

तेरे दर तक खींच लाई थी, वही घर से मुझे !!

हिज्र की शब कुछ यही मूनिस था मेरा, ऐ क़ज़ा,

रुक जरा रो लेने दे, मिल-मिल के बिस्तर से मुझे !!

(संग्राम से आकलित)

किसी को दे के दिल कोई, नवा संजे फुगाँ क्यों हो ?

न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में जबां क्यों हो?

वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क, जब सिर फोरना ठहरा,

तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संगे-ए-आस्तां क्यों हो ?

कफस में मुझसे रुदादे चमन कहते न डर हमदम,

गिरी है जिस पे कल बिजली, वह मेरा आशियाँ क्यों हो ??

यह फितना आदमी की खानावीरानी को क्या कम है,

हुए तुम दोस्त जिसके उसका दुश्मन आसमां क्यों हो ?

कहा तुमने कि क्यों हो गैर से मिलने में रुसवाई,

बाजा कहते हो, सच कहते हो, फिर कहिये कि हाँ क्यों हो ??

(संग्राम से आकलित)

क्या सो रहा मुसाफिर, बीती है रात सारी !

अब जाग के चलन की कर ले सभी तय्यारी !!

तुझको है दूर जाना, नहीं पास कुछ खजाना,

आगे नहीं ठिकाना, होवे बड़ी खुवारी !

पूंजी सभी गंवाई, कुछ ना करी कमाई,

क्या लेके घर को जाई, करजा किया है भारी !!

अब जाग के चलन की कर ले सभी तय्यारी !!

(संग्राम से आकलित)

जय जगदीश्वरी, मात सरस्वती,

शरणागत प्रतिपालनहारी !

चन्द्र-ज्योत सा बदन विराजे,

शीश मुकुट माला गलधारी !

वीणा वाम-अंग में सोहे,

संगीत धुन मधुर पियारी !

श्वेत वसन कमलासन सुन्दर,

संग सखी और हंस सवारी !!

(संग्राम से आकलित)

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सामाजिक मनोविज्ञान के कुशल चितेरे - प्रेमचन्द

-हरीश प्रकाश गुप्त

8 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेमचन्द के बारे में आज के दैनिक जागरण में भोपाल से निलय श्रीवास्तव लिखते हैं-"बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रेमचंद ने अपने लेखन के माध्यम से गांधीजी तथा अन्य क्रांतिकारियों को स्वराज की लड़ाई के लिए आगे बढ़ने हेतु प्रेरित किया। जब गांधी जी ने स्वराज की लड़ाई छेड़ रखी थी, तब मुंशी जी अपनी कलम लेकर मैदान में उतरे थे। इसी ख्याल से उन्होंने गोरखपुर से निकलने वाले एक उर्दू अखबार तहकीकात और एक हिन्दी अखबार स्वदेश से बाकायदा जुड़ने और उनमें नियमित रूप से बराबर लिखने की कुछ शक्ल बनानी चाही, पर वह नहीं बनी तो मुंशी जी बनारस आ गए। फिर कुछ ऐसा संयोग बना कि सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के चार महीने बाद मुंशीजी मारवाड़ी विद्यालय, कानपुर पहंुच गए। लेकिन अपने यहां प्राइवेट स्कूलों का जो हाल है, स्कूल के हेडमास्टर प्रेमचंद की स्कूल के मैनेजर महाशय काशीनाथ से नहीं बनी और साल पूरा नहीं होने पाया कि मुंशी जी ने बहुत तंग आकर 22 फरवरी 1922 को वहां से इस्तीफा दे दिया और फिर बनारस पहंुच गए। बनारस में उन्होंने संपूर्णानंद जी के जेल जाने पर कुछ महीने मर्यादा पत्रिका का संपादन भार संभाला। फिर वहां से अलग होकर काशी विद्यापीठ पहंुच गए, जहां उन्हें स्कूल का हेडमास्टर बना दिया गया। अपना प्रेस खोलने की धुन भी बरसों से मन में समाई थी। उसकी भी तैयारी साथ-साथ चलती रही। कुछ ही महीनों बाद जब स्कूल बंद कर दिया गया, तो मुंशीजी पूरे मन-प्राण से प्रेस की तैयारी में लग गए, जो खुला भी। लखनऊ में माधुरी पत्रिका के संपादक की कुर्सी संभालने का प्रस्ताव मिलने पर उसे स्वीकार करने के सिवा गति न थी क्योंकि अपना प्रेस रोजी-रोटी देना तो दूर रहा बराबर घाटे पर घाटा दिये जा रहा था। फिर छह: बरस लखनऊ रह गए और वहीं रहते-रहते 1930 में बनारस से अपना मासिक हंस शुरू किया। 1932 के आरंभ में लखनऊ का आबदाना खत्म हुआ और मुंशी जी फिर बनारस आ गए। हंस तो निकल ही रहा था, जागरण नामक एक साप्ताहिक और निकाला। वह भी बहुत अच्छा पत्र था, लेकिन अच्छा पत्र निकालना और उसे चला पाना दो बिल्कुल अलग बातें हैं, दोनों पत्रों के कारण जब काफी कर्जा सिर पर हो गया, तब उसे सिर से उतारने के लिए मोहन भवनानी के निमंत्रण पर उसके अजंता सिनेटोन में कहानी लेखक की नौकरी करने बंबई पहंुचे। मिल या मजदूर के नाम से उन्होंने एक फिल्म की कथा लिखी और कांट्रेक्ट की साल भर की अवधि पूरी किए बिना दो महीने को वेतन छोड़कर बनारस भाग आए, क्योंकि बंबई का और उससे भी ज्यादा वहां की फिल्मी दुनिया का हवा-पानी उन्हें रास नहीं आया। बंबई टाकीज तब हिमांशु राय ने शुरू ही की थी। उन्होंने मुंशीजी को बहुत रोकना चाहा पर मुंशी जी किसी तरह नहीं रुके। यहां तक कि बनारस से ही फिल्म की कहानियां भेजते रहने का प्रस्ताव भी नहीं स्वीकार किया। बंबई से सेहत और भी काफी टूट चुकी थी। बनारस लौटने के कुछ ही महीने बाद बीमार पड़े और काफी दिन बीमारी भुगतने के बाद 8 अक्टूबर 1936 को चल बसे। अपने बारे में उन्होंने लिखा था- मेरा जीवन एक सपाट समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गड्ढे तो हैं। पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो यहां निराशा ही होगी।"

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  2. जिस पद्य को उद्धृत किया गया है,उसके कई शब्दों के अर्थ दिए जाने चाहिए थे। इसके अभाव में भाव सुग्राह्य नहीं रह गया है।

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  3. मनोज जी,
    आज सारे दिन जो आपने यज्ञ का आयोजन किया है उसके लिए प्रशंसनीय जैसा शब्द बहुत छोटा है... प्रेमचंद जैसे कालजयी लेखक सदियों में भी नहीं जन्म लेते हैं... धन्य है यह भारत भूमि जिसने ऐसे कलम के सिपाही को जन्म दिया.
    आपके आयोजन में जो बातें कही गईं उनके विषय में कहने की क्षमता मुझमें नहीं है... आपकी रचना से लेकर करण जी तक तथा मध्य में आचार्य परशुरा राय जी, डॉ. रमेश मोहन झा… आज के दिन को धन्य बना दिया आपने… हमारी ओर से सादर नमन खेत की मेंड़ पर बैठकर साहित्य सृजन करने वाले उस कथा शिल्पी को... और आप सबों का आभार!
    सलिल चैतन्य

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  4. prmchand ke lekhan ke ek bhinn pahaloo se avagat karaane ke liye aabhar. samanyata log unkei is pratibha se anabhijnya hai.
    post shodhpoorn lagi.

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  5. वाह! कहां से ढूढ लाये सागर में से मोती.

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