बुधवार, 18 अगस्त 2010

देसिल बयना - 43 : सोनार से दोस्ती तो कान दोनों सोन...

देसिल बयना – 43

सोनार से दोस्ती तो कान दोनों सोन...

करण समस्तीपुरी

मंगरू और लहरू दुन्नु सहोदर भाई थे। बड़ा परेम था दुन्नु में। बूझिये कि एक्के रोटी में इधर से काट के मंगरू खाए तो उधर से लहरू। बुझावन कक्का के जाने के बाद सिहंता काकी अकेली बड़ी संभालके रखी थी दुन्नु भाई और एकलौती बेटी भगजोगनी को।

सोलह चढ़ते भगजोगनी का हाथ पीला करवा दिए। अगिले साल गवना करा के उ बेचारी ससुराल बसने लगी। इधर काकियो का देह गिरने लगा था। जोखू मामू फारबिसगंज से मंगरू के लिए रिश्ता लाये थे। वर-कन्या का जोग मिला। हम लोग भी बरियाती में खूब सुरजापूरी आम चूसे थे। एतना ही नहीं फारबिसगंज से फुकफुकिया गाड़ी में बैठ के नेपाल के विराटो नगर घूम आये।

पुतोहिया (पुत्रबधू) के हाथ के खा के सिहंता काकी फेर टनमना गयी।  दू साल बाद फारबिसगंज वाली भौजी के कोनो रिश्ते में लहरुओ का मंडप बँधावा दी। अब तो काकी का हल जमीन छोड़ असमानो में चलने लगा। एगो पतोहू तलवा सहलाए तो एगो मगज। टोला-मोहल्ला के लोग को सिहंता काकी के सुख-शान्ति देख कर जो सिहंता (लालच)  लगता था कि पूछिये मत।

एगो कहावत है न कि जनम के मरण और भाई में भिन्न होना ही है। लोग-बाग़ का सिहंता ऐसा बिषाया कि काकी का घर दू फांक हो गया। एगो साधारण बात पर। लहरू का जिगरी दोस्त था चमकू सोनार। मगर उका आना-जाना फारबिसगंज वाली को एक्को रत्ती पसंद नहीं था। चमकुआ को लेके उ अगरम-बगरम बोलने लगी, छोटकीयो पिल गयी। लहरुआ भी बमक गया। फिर तो फारबिसगंज वाली भौजी जो रोदना पसारी (रोना शुरू की)  कि मंगरू लाल को पेठिया गाछी से तास छोड़ के आना पड़ा।

कोप-भवन में ऐसन नमक-तेल लगा के अश्रुमय कथा सुनाई कि मंगरू लाल का भी पौरुष जाग गया। जौन भाई को गोदी में खेलाया रहा वही पर लाठी तान दिहिस।

कोप-भवन में ऐसन नमक-तेल लगा के अश्रुमय कथा सुनाई कि मंगरू लाल का भी पौरुष जाग गया। जौन भाई को गोदी में खेलाया रहा वही पर लाठी तान दिहिस।  किसी तरह काकी बुझा के शांत की दुन्नु को। मगर कल से फिर वही मामला। मंगरुआ कहे कि हम उ सोनार को घर-आँगन में टपने नहीं देंगे... और लहरुआ कहे कि हमरा दोस्त है... हम जहां चाहेंगे वहाँ बुलायेंगे।

पर-पंचायत हुआ। सिहंता काकी के घर में खीचा गया लकीर। जर-जमीन का जो बंटवारा हुआ सो हुआ... काकियो को जीते जी दू टुकड़ा में बाँट लिया। छः महीना मंगरू में और छः महीना लहरू में। अब चाहर दिवारी के इस पार मंगरू खुश और उ पार लहरू। बीच में घुट-घुट के मरे सिहंता काकी। लहरू का दोस्ती था चमकू से तो मंगरू का मिसरीलाल बनिया से। मिसरी लाल बात तो करता था मिसरिये घोल के मगर हाथ का था कनिक टाईट।  वैसे बेर-वखत में नकद-उधर चला देता था। मंगरू यही में दिन-रात उसका माला जपता था। फारबिसगंज वाली ई से बड़ा खिसियाती थी।

महोखिया माय दुन्नु अंगना में काम करती थी।   उ दिन छोटकी हलस के दिखाई थी करनफूल, "हे महोखिया माय ! ई देखो ! चमकू भैय्या अपने हाथ से गढ़ के दिए हैं.... राखी के बखसीस में।"महोखिया माय करनफूल को लेकर अंगूठा से सहला-सहला कर बोली थी, "वाह री दुल्हिन ! ई तो खांटी सोना का है... ! गढ़ाई भी है केतना अच्छा।" करनफूल का फोटो महोखिया माय के आँख में छपगया था।

महोखिया माय के पेट में छोटकी के करनफूल वाला बात कुलबुला रहा था। उस से रहा नहीं गया। सांझ के बदले दुपहरे में चली गयी, फारबिसगंज वाली के घर काम करे। काम-धाम तो बाद में होगा। सबसे पहिले उ के कान में जोरन डाल कर्ण्फूल दी, "ऊंहूं... ! का हे बड़की दुल्हिन... ? आज-कल तो बहुत इनाम-पाती मिलता है। कुछ पता है कि नहीं.... ? अरे उ चमकू सोनार.... तोहरी गोतनी को दुन्नु कान में ढाई-ढाई भरी खांटी सोना का करनफूल दिया है।" इधर महोखिया माय आँख नचा-नचा कर बोल रही थी और उधर फारबिसगंज वाली का आँख फटा जा रहा था।

मंगरूआ मिसरी लाल के दूकान से समान-पाती ले के लौटा था। फारबिसगंज वाली के सामने झोला-थैला खोलते

हुए कहा, देखो सारा समान हो गया।  यार हो तो मिसरी लाल जैसा। नकद उधारी जो दिया सो दिया... और हे ई देखो.... टाटा कम्पनी का नमक है। पुरैनिया कोठी के चुल्हामन बाबू के घर में यही नमक से सुआदी विन्जन (ज़ायकेदार व्यंजन) बनता है। हें... हें... हें.... ! मंगरुआ बतीसी निपोर के बोल रहा था, "अपना मिसरी लाल फिरिए में दे दिया एक पैकेट इतना महंगा नमक।"

मंगरुआ खिखिया-खिखिया कर मिसरी लाल का गुणगान कर रहा था। फारबिसगंज वाली का तलवा का लहर मगज पर चढ़ गया। बाप रे बाप ! सारा मोटरी-थैला उठा के फ़ेंक दी.... ! गुस्से में मंगरुआ को झकझोर के बोली, "बंद करो ई मिसरी पुरान !" फारबिसगंज वाली बारी-बारी से दोनों हाथ चमका के बोले जा रही थी, "आय... हाय ! बड़ा इनका दोस्त दानी राजा करण है कि कृष्ण भगवान ? जो सुदामा जैसे इनको तिरलोक का राज दे दिया है। अरे इहाँ तो लोग दोस्ती में सोना-चांदी लुटाते हैं और ई भकलोल.... ! एक पैकेट नमक में मिसरिया के नाम का अष्टयाम कर रहे हैं......!” झटाक  ! लौंगिया मिरचाई की तरह तिलमिलाई फारबिसगंज वाली समान के साथ-साथ मंगरूओ को एक धक्का दे दी।

बेचारी काकी मुँह में अंचरा ठूंस के इतना देर से फारबिसगंज वाली का चंडीलीला देख रही थी। मंगरुआ को धक्का दिया तो उनसे रहा नहीं गया। चश्मा ठीक कर के बोली, "बहुत हो गया ! उ (मंगरू) को का कोस रही हो ? जैसा करोगे वैसा ही न मिलेगा... ! उ किहिस सोनार से दोस्ती तो कान दुन्नु सोन ! और तेरा बनिया से दोस्ती तो छटाक (एक किलोग्राम का बारहवां भाग) भर नोन (नमक) मिला। ई में अपना करम और अपना संगत का दोष दो... !"

"सोनार से दोस्ती तो कान दुन्नु सोन ! बनिया से दोस्ती तो छटाक भर नोन !!" महोखिया माय सांझ में हमरे माताराम को किस्सा सुना रही थी। ई कहावत कहते-कहते बेचारी का हंसी रुका नहीं। फिर हमरी माताराम बोली थी, "हाँ ! ठीके तो बोली सिहंता दीदी। "सोनार से दोस्ती तो कान दुन्नु सोन ! बनिया से दोस्ती तो छटाक भर नोन !!" जैसा संगत रहेगा वैसा ही फल मिलेगा न... ! फिर हम सब भाई-बहिन को डांटते हुए बोली थी, "तुम लोग का गीत बना के गा रहा है ? बात सोना और नमक का नहीं है। कहने का मतलब कि जैसा संगत करोगे वैसा ही वैसा बनोगे। अच्छे संगत में रहोगे तो सोने जैसा अच्छा गुण आएगा। बुरे संगत में रहोगे तो दुर्गुण सीखोगे.... !"

हूँ ! तभी से हम सिहंता काकी का कहावत और मातरम की सीख का ऐसा गिरह बांधे कि जादे दोस्ती करते ही नहीं हैं। कम ही दोस्ती करते हैं लेकिन अच्छे लोगों से, गुणवान लोगों से करते हैं। वरना क्या फायदा है... ? “सोनार से दोस्ती तब न कान दुन्नु सोन... नहीं तो बनिया से दोस्ती तो छटाक भर नोन !"

29 टिप्‍पणियां:

  1. करण जी, देसिल बयना की कथाएं लोकोक्ति की ही तरह तोक मानस की सहज अभिव्यक्ति बन पड़ी हैं।
    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

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  2. कथा रचना लोकोक्ति के साथ बहुत ही स्वाभाविक संबंध बनाए रखने में सफल है। यह करण जी की लेखनी की सफलता है।
    बधाई।

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  3. हमेशा की तरह लाजवाब प्रस्तुती! बहुत बढ़िया लगा खासकर तलवार से लड़ने की तस्वीर बहुत ही आकर्षक लगा!

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  4. Ram Ram Karan Ji...
    desil estyle ka desil bayna humesa ki tarah aj b bahute acha hai..Kahwat ke dwara jindgi se judi sachai batane ka apka e tarika prasansniye hai....
    E to humko ni pata ki apka e desil bayna kalpnik hota hai ya sachi ghanta par...lakin humko padhke to sab sache ka lagta hai...mano jaise e kahani ho ghar ghar ki...
    Aj ke samay me du bhai jindgi bhar sath nibhaye aisa kahi dekhne ko ni milta hai.....shadi ke pahle tak to thik hai shadi ke bat alag ho jaye to sara dosh putoh ke mathe de diya jata hai...apke is desil bayna ko he lijiye magrun ki biwi ne jo kaha jo kaha hi lakn mangru to apne bhai ko bachpan se janta tha to ka jarurat thi usse apne lugai ki bat manne ki????usko to ulta apni lugai ko samjahan tha .......Hum to bas inna he kahenge agar do bhaiyon aur unki dharampatniyon mai apsi samjhdari ho to na do bhai kabi alag hone aur na he maa-baap ko is dukh ka samna karna parega...
    Kuch zada he likh diya sayad maine..ab ka kare apke desil bayna ko padh humko b likhne ka man ho gaya...
    Jaha tak apke is desil bayna ka kahawat hai "सोनार से दोस्ती तो कान दुन्नु सोन ! बनिया से दोस्ती तो छटाक भर नोन !!"
    to isme to sath pratisat sachahi hai...
    Agki desil bayna kae intzar ke sath apko bahot bahot dhanyawad...

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  5. यह देसिल बयना भी लाजवाब ...संगत का असर खूब समझाया है ..

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  6. रोचक शैली!बेहतरीन प्रस्तुति!

    हमारे यहाँ तो ये कहा जाता है कि सुनार और कुत्ते का तो कभी सोते हुए का भी विश्वास नहीं करना चाहिए :)

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  7. bahut sunnar karan jee... ee khissa tay sunne rahiye lekin bisari gel rahiye.. aahank sapreshan kshamata bahut prabhavshaali achhi... maithili lik katha aahank upkaar manat.. je online yug me wo aahank prayas say adhik sa adhik lok tak pahunchi rahal achhi.. shubhkaamna

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  8. “सोनार से दोस्ती तब न कान दुन्नु सोन... नहीं तो बनिया से दोस्ती तो छटाक भर नोन !"
    फकरा का मतलब एकदम किलियर हो गया...

    भगजोगनी.....आह...कितना आनंद आया का कहें....

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  9. जैसा संगत करोगे वैसा ही वैसा बनोगे। अच्छे संगत में रहोगे तो सोने जैसा अच्छा गुण आएगा। बुरे संगत में रहोगे तो दुर्गुण सीखोगे....
    कुछ कहने को अब बचा नहीं। उत्तम रचना।

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  10. सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

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  11. कहावत और कहानी का अद्भुत ताल-मेल!
    सरस, रोचक, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक!

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  12. सभी पाठकों का मैं हृदय से आभारी हूँ ! आपका प्रोत्साहन ही हमारी रचनात्मक ऊर्जा का इंधन है !! हमारे नियमित पाठकों के साथ-साथ टीम के सदस्यों को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूँ !!!

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  13. @ वीरेन्द्र सिंघ चौहान,
    वीरेन्द्र जी, आप हमारे ब्लॉग पर पहली बार आये हैं. आपका हार्दिक अभिनन्दन और धन्यवाद !!!

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  14. @ रचना जी,

    लगता है आप महीना भर के टिपण्णी की खुदाक एक्कहि बार में पूरा कर लिए हैं. आपका बात में भी दम है मगर का कीजियेगा हम तो वही लिखते हैं तो देखते हैं. बस बुझ लीजिये कि 'तू पढता कागद की लेखी ! मैं कहता आँखिन की देखी !!" बहुत अच्छा लगा आपकी प्रतिक्रिया देख कर ! ई पर तो हम धनवाद से इलाहावाद तक बार देंगे.... ! आभार !!!

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  15. @ अरुण सी रॉय,
    अरुण जी,

    अपनेक टिपण्णी पढि मोन गदगद भए गेल. एना बुझना रहल अछि जे सोनपुर मेला में भुतियायेल दू टा भाई भेंट गेल होइयैक. हम अपनेक धन्यवाद कहू तखन ईहो अपनेक स्नेहक सम्मान नहि होएत... ! तैं हम किछु आओर नहि कहि अपने सँ एक टा आग्रह करैत छी, 'अहाँ अप्पन सम्पर्क संख्या देबाक कृपा करब.... ? तखन फोन पर कतेक रास बात बतियायेल जेतैक... !!!

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  16. SAMASTIPURI JI,

    Yah ank achchha laga. Kintu ea shikayat yah hai ki "Solahavan chadate hath pila karane" ke bajay "Bisavan chadate hath pila karana" adhik achchha rahata. Ydyapi ki gaon me aisa log aj bhi kar rahen hain. Kabhi-kabhi svabhavikata ko adarsh ke liye tilanjali dena shreyaskar hai.

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  17. फेर एगो कहानी।
    फेर एगो फकरा।
    फेर-फेर बढिया लगा।
    हम त बुध का इंतज़ारे करते रहते हैं। कि कब करण जी का पोस्ट आए और अपना घर-दुआर घूम आएं।

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  18. का करें ऑफिस जाए के जल्दी में पढें कि टिप्पनी लिखें कुछो नहीं बुझाता है... पराते पढे थे अऊर राते में जवाब लिखने का टाइम मिला है त मान लीजिए कि भोरे के भुलाएल साँझे भेंटा गए हैं… डेट नहिंए बदला है त एब्सेंटि नहिंए लगेगा आपका किरपा से... चलिए अब तनी देसिल बयना का बात बतियाएँ... ई देसिल बयना हम अपना बेटी को हिंदी में समझाए..काहे कि ई एतना गहिरा मतलब वाला बात है कि जिन्नगी में कभी पुरान नहीं होने वाला है... हमरी एगो हिंदी के प्रोफेसर थीं..उनके साथ घरेलू सम्बंध था. अब साइंस कॉलेज में हिंदी के क्लास का बात त समझिए सकते हैं... हमरे बगले में बईठल दू चार गो लईका उनका मजाक उड़ा दिया... ऊ बाद में हमको बहुत डाँटीं, ई जानते हुए कि हम कुछो नहींकिए थे..बोलीं कि ऊ सब तुमरा दोस्त है ना.. त जैसन संगत तुमरा है ओइसने ना बेहवार होगा..हमरे जगह कोनो दोसर प्रोफेसर होते त तुम भी मजाक उड़ा रहे होते... इसलिए संगति का असर त हम बढिया से बूझते हैं..
    एगो राज का बात बताएँ... आप का संगति में अएला के बाद से हमरा लेखन में भी सुधार आने लगा है... मार्क कीजिएगा आप भी!!!

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  19. सुंदर प्रस्तुति!

    हिन्दी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है।

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  20. @ परशुराम राय,
    आदरणीय आचार्य जी,
    बहुत-बहुत धन्यवाद ! आपकी आज्ञा सिरोधार्य है. साहित्य से समाज में एक सबल सन्देश जाता है. आगे से ध्यान रखूँगा.
    सादर !!!

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  21. @ चला बिहारी,
    हूँ.... ! हम कल्हे भर दिन आपका आशा देखते रहे... ! माने ऐसा लगता है कि देसिल बयना पूरा हुआ ही नहीं ! आज भोरे-भोरे देखे तो मन परसन्न हो गया..... !!!!

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  22. बाप होता त लगाता चार चटकन दुनो भाई को। बूढी मां बेचारी क्या करे!यही सब रह गया था देखने को।

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  23. रोचक अंदाज़ में लिखा है आपने इसे .... लोक कथाओं की तरह का ही संदेश देती है ये रचना ... बहुत प्रभावी ....

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  24. PRATHAMTAH: DESIL BAYNAK MADHYAM SA
    MAITHIL SAMAJAK KHANTI LOKOKTI KE BRIHAT ROOP ME PRASAR OHO SUNDAR GULP SA BHARAL...KE LEL SADHUWAD

    DOOTIYATH: SALIL BHAIJEEK OOPASTHITI EHI DESIL BAYNAK LEL EKTA BAHOOT NEEK BAAT....

    KARAN BHAI....EE DESIL BAYNA SATAT PRAVAHMAYA RAHE EKAR KAMNA SAHIT

    SADAR...SK JHA (CHANDIGARH)

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  25. पुरानी कहावतों का भी जबाब नहीं !!

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आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।