रविवार, 6 फ़रवरी 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-52 :: रौद्र और वीर रस

भारतीय काव्यशास्त्र-52

रौद्र और वीर रस

- आचार्य परशुराम राय

मित्रों आज इस शृंखला के एक वर्ष पूरे हो गए। इस शृंखला का श्रीगणेश पिछले वर्ष 7 फरवरी को हुआ था। जब इस शृंखला पर काम करने के लिए आदरणीय मित्र श्री मनोज कुमार जी ने कहा था तो बड़ा अजीब सा लगा था कि एक तो इस विषय पर लिखना कठिन है और अगर लिखा भी जाए तो उसे पढ़ेगा कौन? पर आप पाठकों की सहृदयता ने मेरा ऐसा उत्साह बढ़ाया कि आज इसे एक वर्ष हो गए। इस अवसर पर आज सर्वप्रथम मैं आदरणीय मनोज कुमार जी को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ जिनकी प्रेरणा से इस शृंखला का आज एक वर्ष पूरा हुआ और ब्लाग जगत में भारतीय काव्यशास्त्र का अस्तित्व बना। इसके बाद मैं अपने बाल सखा श्री सुरेन्द्र नाथ राय, संस्कृत प्रवक्ता/इंटर कॉलेज, बीरपुर, गाजीपुर जनपद, उ.प्र., का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने समय-समय पर मेरी शंकाओं के समाधान में मेरी हर सम्भव सहायता की। अंत में, मैं अपने सहृदय पाठकों के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ, जो इस नीरस विषय और मेरे बचकाने लेखन पर अपना मंतव्य देकर मेरा उत्साहवर्द्धन करते रहे हैं।

पिछले अंक में हास्य और करुण रस पर चर्चा हुई थी। इस अंक में चर्चा के लिए रौद्र और वीर रस लेते हैं।

रौद्र रस का स्थायिभाव क्रोध है। इसमें शत्रु आलम्बन और उसके द्वारा मुक्के आदि का प्रहार, काटने, फाड़ने, युद्ध आदि की उग्र चेष्टाओं का वर्णन उद्दीपन विभाव कहे गए हैं। भृकुटि-भंग, ओठ चबाना, ताल ठोंकना, डाँटना, गरजना, अपनी वीरता का बखान करना, शस्त्र संचालन, आवेश, उग्रता, रोमांच, स्वेद (पसीना आना), वेपथु (क्रोध से शरीर का काँपना), क्रोध से आँखों और चेहरे का लाल होना आदि इसके अनुभाव हैं। आक्षेप करना, क्रूर दृष्टि, मोह, अमर्ष (कोप) आदि रौद्र रस के संचारिभाव हैं। आचार्य विश्वनाथ कविराज ने अपने ग्रंथ साहित्यदर्पण में रौद्र रस के स्थायिभावों, विभावों, अनुभावों और व्यभिचारिभावों के विवरण इस प्रकार दिए हैं-

रौद्रः क्रोधस्थायिभावो रक्तो रुद्राधिदैवतः।

आलम्बनमरिस्तत्र तच्चेष्टोद्दीपनं मतम्।।

मुष्टिप्रहारपातनविकृतच्छेदावदारणैश्चैव।

सङ्ग्रामसम्भ्रमाद्यैरस्योद्दीप्तिर्भवेत्प्रौढा।।

भ्रूविभङ्गौष्ठनिर्दंशबाहुस्फोटनतर्जनाः।

आत्मावदानकथनमायुधोत्क्षेपणानि च।।

उग्रतावेगरोमाञ्चस्वेदवेपथवो मदः।

अनुभावास्तथाक्षेपक्रूरसंदर्शनादयः।।

मोहामर्षादयस्तत्र भावाः स्युर्व्यभिचारिणः।

रक्तास्यनेत्रता ..................................।।

इनके भाव ऊपर दिए जा चुके हैं, रौद्र रस के वर्ण और देवता को छोड़कर। सभी रसों के वर्ण और देवता के विवरण रस विवेचन के अंत में दिया जायेगा। रौद्र रस के उदाहरण के रूप में काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण दोनों ही ग्रंथों में भट्टनारायण कृत वेणीसंहार नामक संस्कृत नाटक से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है-

कृतमनुमतं द्दृष्टं वा यैरिदं गुरुपातकं मनुजपशुभिर्निर्मर्यादैर्भवद्भिरुदायुधैः।

नरकरिपुणा सार्धं तेषां सभीमकिरीटिनामयमसृङ्मेदोमांसैः करोमि दिशां बलिम्।।

महाभारत के युद्ध में निर्दयतापूर्वक छल से धृष्टद्युम्न के द्वारा आचार्य द्रोण का वध किए जाने पर उनके पुत्र अश्वत्थामा की यह उक्ति है। इसका अर्थ है- जिन शस्त्रधारी मर्यादारहित नरपशुओं ने यह महापाप किया है या जिसने इसकी अनुमति दी है (अनुमोदन किया है) अथवा जिसने इसे (वध को) देखा है उन सबके, श्रीकृष्ण, भीम, अर्जुन आदि सहित (जिन्होंने धृष्टद्युम्न को वध करने से रोका नहीं) सभी के रक्त, मेद (चर्बी) और मांस से मैं सभी दिशाओं की बलि (पूजा) करता हूँ (करूँगा)।

यहाँ एक कमी यह दिखती है कि शब्द चयन रौद्र रस के अनुरूप नहीं है, अर्थात् श्रुतिकटु वर्णों की बहुलता नहीं है। हिन्दी में पद्माकर का निम्नलिखित कवित्त रौद्र रस के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है-

वारि टारि डारौं कुम्भकर्नहिं बिदारि डारौं,

मारौं मेघनादै आज यों बल अनंत हौं।

कहै पद्माकर त्रिकूट ही को ढाहि डारौं,

डारत करेई जातुधानन को अन्त हौं।

अच्छहिं निरच्छ कपि रुच्छ ह्वै उचारौं इमि,

तोसे तिच्छ तुच्छन को कछुवै न गंत हौं।

जारि डारौं लंकहि उजारि डारौं उपवन,

फारि डारौं रावन को तो मैं हनुमंत हौं।

यह हनुमान जी उक्ति है, सम्भवतः अशोक वाटिका में माँ सीता की दुर्दशा देखकर क्रोधाभिभूत होकर उन्होंने यह कहा है। यहाँ रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद आदि आलम्बन विभाव, उनके कृत्य, कटूक्ति आदि उद्दीपन विभाव, विभिन्न प्रकार से अपनी वीरता का बखान अनुभाव और गर्व, अमर्ष, उग्रता आदि व्यभिचारी भाव हैं।

वीर रस का स्थायिभाव उत्साह, शत्रु, ऐश्वर्य, साहसपूर्ण कार्य, कीर्ति आदि आलम्बन विभाव, उनकी चेष्टाएँ-प्रदर्शन, ललकार आदि उद्दीपन विभाव, युद्ध के सहायक- अस्त्र, शस्त्र, सेना आदि की व्यवस्था देखना, सेना को प्रेरित करना, अंग-संचालन आदि अनुभाव और धैर्य, मति, गर्व, स्मृति, तर्क, असूया, रोमांच आदि संचारिभाव हैं। कुछ आचार्य इसके चार भेद मानते हैं- दानवीर, धर्मवीर, दयावीर और युद्धवीर। किन्तु आचार्य मम्मट आदि वीर रस का अन्य कोई भेद नहीं मानते।

काव्यप्रकाश में वीर रस के उदाहरण के रूप में हनुमन्नाटकम् से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है-

क्षुद्राः संत्रासमेते विजहत हरयः क्षुण्णशक्रेभकुम्भा

युष्मद्देहेषु लज्जां दधति परममी सायका निष्पतन्तः।

सौमित्रे ! तिष्ठ पात्रं त्वमसि नहि रुषां नन्वहं मेघनादः

किञ्चिद्भ्रूभङ्गलीलानियमितजलधिं राममन्वेषयामि।।

यह श्लोक लंका युद्ध के समय मेघनाद की उक्ति के रूप में आया है। इसमें वह कहता है- ऐ क्षुद्र वानरों, तुमलोग मत डरो, ऐरावत के गण्डस्थल को भेदने वाले ये बाण तुमलोगों के शरीर पर गिरने से लज्जा का अनुभव करते हैं। हे लक्ष्मण, तुम भी हटो, तुम भी मेरे क्रोध के योग्य नहीं हो, मैं मेघनाद हूँ, मैं तो तनिक सी भौंहें टेढ़ी कर समुद्र को वश में करने वाले राम को खोज रहा हूँ।

यहाँ आलम्बन विभाव राम हैं, उनके द्वारा समुद्र पर सेतु बनाना उद्दीपन विभाव, क्षुद्र बन्दर आदि के प्रति उपेक्षा और प्रतापी राम की खोज अनुभाव, ऐरावत के गण्डस्थल के छेदन की स्मृति, ‘बाणों का वानरों को मारने से लज्जित होना’ आदि उक्ति से व्यंजित गर्व व्यभिचारिभाव हैं। राम के साथ युद्ध करने के लिए मेघनाद का उत्साह स्थायिभाव है।

निम्नलिखित सवैया वीर रस के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जा रहा है। इसमें लंका में रावण का रीछ, वानर आदि के साथ युद्ध का वर्णन है।

क्रुद्ध दशानन बीस भुजानि सो लै कपि रीछ अनी सर वट्टत।

लच्छन तच्छन रत्त किए दृग लच्छ विपच्छन के सिर कट्टत।

मारु पछारु पुकारु दुहूँ दल, रुण्डि झपट्टि दपट्टि लपट्टत।

रुण्ड लरैं भट मत्थनि लुट्टत जोगिनि खप्पर ठट्टनि ठट्टत।

युद्ध में रावण का उत्साह स्थायिभाव, रीछ तथा वानर आलम्बन, वानरों, रीछों आदि की क्रीड़ाएँ एवं लीलाएँ उद्दीपन विभाव, आँखों का लाल होना तथा शत्रुओं के सिर काटना आदि अनुभाव हैं और उग्रता, अमर्ष आदि संचारिभाव हैं।

साहित्यदर्पणकार ने भगवान परशुराम की दानवीरता के वर्णन से सम्बन्धित निम्नलिखित एक श्लोकांश उद्धृत किया है-

त्यागः सप्तसमुद्रमुद्रितमहीनिर्व्याजदानावधिः

अर्थात् बिना किसी फल की इच्छा के अकारण सात समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का दान करना परशुराम के त्याग की सीमा है। यहाँ त्याग के प्रति परशुराम जी का उत्साह स्थायिभाव है, दान के पात्र ब्राह्मण आदि आलम्बन, ब्राह्मणों की सत्त्वगुण-परायणता उद्दीपन विभाव है, सर्वस्व परित्याग आदि अनुभाव एवं हर्ष, धैर्य आदि संचारिभाव हैं।

दानवीर के उदाहरण के रूप में पद्माकर जी का निम्नलिखत कवित्त दिया जा रहा है-

संपति सुमेर की कुबेर की जो पावै ताहि,

तुरत लुटावत बिलम्ब उस धारै ना।

कहै 'पदमाकर' सो हेम हय हाथिन के,

हलके हजारन के बितर बिचारै ना॥

गंज गजबकस महीप रघुनाथ राव,

पाइ गज धोखे कहूँ काहू देइ डारै ना॥

याही डर गिरिजा गजानन को गोइ रही,

गिरि तें गरे तें निज गोद तें उतारे ना

यहाँ भगवान राम की दानवीरता का वर्णन किया गया है। इसमें याचक आलम्बन, धन, सम्पत्ति, हाथी, घोड़े आदि उद्दीपन, इनका दान करना अनुभाव, दान देने का हर्ष आदि संचारिभाव और दान देने में उत्साह स्थायिभाव है।

धर्मवीर के लिए साहित्यदर्पण में निम्नलिखत उदाहरण दिया गया है-

राज्यं च वसु देहश्च भार्या भ्रातृसुताश्च ये।

यच्च लोके ममायत्तं तद्धर्माय सदोद्यतम्॥

यहाँ महाराज युधिष्ठिर की धर्मवीरता से सम्बंधित उक्ति का वर्णन है- मेरे राज्य, धन, शरीर, स्त्री, भाई, पुत्र आदि जो भी मेरे पास है, वह सबकुछ धर्म के लिए उपस्थित है।

इसमें धर्म के कार्य आलम्बन, राज्य, धन, शरीर आदि उद्दीपन, कार्य, आचरण आदि अनुभाव, धर्म के प्रति दृढ़ता संचारिभाव हैं और धर्म के प्रति उत्साह स्थायिभाव है।

हिन्दी में पद्माकर जी का यह कवित्त धर्मवीरता का उदाहरण द्रष्टव्य है-

तृण के समान धन धाम राज त्याग करि,

पाल्यौ पितु वचन जो जानत जनैया है।

कहै 'पदमाकर' बिबेक ही की बानी बीच,

साचो सत्य बीर धीर धीरज धरैया है।

स्मृति पुरान बेद आगम कह्यो जो पंथ,

आचरत सोई सुद्ध करम करैया है।

मोह मति मन्दर पुरन्दर मही को, धनी,

धरम धुरन्धर हमारो रघुरैया है।

इसमें भी धर्म सम्बन्धी कार्य आलम्बन, वेद, पुराण आदि के वचन उद्दीपन, धर्म के लिए किए गए कार्य, आचरण आदि अनुभाव एवं धैर्य, मति-दृढ़ता आदि संचारिभाव हैं। धर्म के प्रति उत्साह इसका स्थायिभाव है।

दयावीर के लिए साहित्यदर्पण में निम्नलिखित उदाहरण दिया गया है-

शिरामुखै: स्यन्दत एव रक्तमद्यापि देहे मम मांसमस्ति।

तृप्तिं न पश्यामि तवापि तावत्किं भक्षणात्त्वं विरतो गरुत्मन्॥

यह श्लोक नागानन्दनाटकम् से उद्धृत किया गया है और गरुड़ के प्रति जीमूतवाहन की उक्ति है। शंखचूड़ के बदले में जीमूतवाहन सर्पों की वध्य-शिला पर बैठा था। उसे एकान्त में ले जाकर उसके अंग को नोच-नोचकर खा लेने के बाद भी उसके अविकृत सौन्दर्य, आनन्दमग्न मन और प्रफुल्लित वदन को देखकर गरुड़ जी एक ओर हटकर उसे देखने लगे। उस समय जीमूतवाहन गरुड़ जी को सम्बोधित करते हुए कहता है – हे गरुत्मन्, मेरी नाड़ियों से अभी भी रक्त बह रहा है, मेरे देह में मांस अभी भी शेष है और मैं देख रहा हूँ कि आप अभी तृप्त भी नहीं हुए हैं, फिर आपने खाना क्यों बन्द कर दिया? इसमें दयावीर जीमूतवाहन का शंखचूड़ के प्रति दया का उत्साह स्थायिभाव है। विभाव, अनुभाव व संचारिभावों को भी इसी प्रकार अलग-अलग देख लेना चाहिए।

हिन्दी में कवि कमलापति का निम्नलिखित कवित्त दयावीर के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है-

सुनि 'कमलापति' विनीत बैन भारी तासु,

आसु चलिबे की लखी गति यों दराज की।

छोड़ि कमलासन पिछोड़ि गरुड़ासन हूँ,

कैसे कै बखानों दौर दौरे मृगराज की।

जाय सरसी में यों छुड़ाय गज ग्राह ही तें,

ठाढ़े आये तीर इमि सोभा महाराज की।

पीत पट लै लै कै अंगौछत सरीर,

कर कंजन तें पोंछत भुसुण्ड गजराज की॥

इस कवित्त में उस घटना का उल्लेख किया गया है जब हाथी को मगर ने नदी में पकड़ लिया था और वह प्राण रक्षा के लिए नारायण को पुकारने लगा। उसकी पुकार सुनकर भगवान कैसे दौड़े है, इसका यहाँ वर्णन किया गया है। अन्य पदों में किए गए उल्लेखों के अनुसार स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव और संचारिभावों का आकलन कर लेना चाहिए।

युद्धवीर का उदाहरण अलग से नहीं दिया जा रहा है। वीर रस का प्रथम उदाहरण ही युद्धवीर के उदाहरण के रूप मे समझना चाहिए।

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23 टिप्‍पणियां:

  1. यह पोस्ट देखते ही देखते एक वर्ष का सफर तय कर लिया।इस पोस्ट को साफल्य मंडित करमे की पृष्ठभूमि में आचार्य परशुराम राय एवं गुरू तुल्य श्री मनोज कुमार जी का अभूतपूर्व योगदाम रहा है। इस अप्रतिम कार्य के लिए दोनों ही व्यक्ति भूरि-भूरि प्रशंसा के पात्र हैं। भारतीय काव्यशास्त्र को पूर्ण समग्रता में काव्य मनीषियों के विचारों का उदाहरणों के साथ प्रस्तुत करने के कारण इसमें सहज बोधगम्यता एवं सरसता उत्पन्न होती रही,परिणामस्वरूप, व्लाग जगत से जुड़े लोग ज्ञानार्जन करते रहे।मैं अपनी ओर से धन्यवाद देता हूं।आशा ही नही अपितु विश्वास है कि यह पोस्ट हिंदी व्लाग की अनुपम कृति होने के साथ-साथ एक धरोहर भी सिद्ध होगी। बधाई।

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  2. रसो के बारे में आपने बहुत ही प्रामाणिक आलेख प्रस्तुत किया है!
    इस शृंखला का एक वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में आपको हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  3. रौद्र और वीर रस पर ज्ञानवर्धक आलेख.श्रंखला के एक वर्ष पूरे होने पर हार्दिक बधाई.

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  4. अत्यंत गूढ़ विषय पर सफलतम सन्देश
    ज्ञान की ये धारा यूं ही बहती रहे और हमारे खजाने को भरती रहे

    मनोज जी, स्लिप डिस्क की बीमारी के लिए एक जड़ी मिल गयी है ,कुछ ही समय में मेरा शोध पूरा हो जाएगा तो इसे पोस्ट कर दूंगी.आप एनी किसी भी पीड़ित को इसका लाभ जरूर दिल्वाईयेगा.

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  5. विश्वास ही नहीं होता आचार्य जी कि एक वर्ष हो गये.. मैं तो जुड़ा भी बहुत देर से था.. नुकसान मेरा.. मनोज जी ने जो पुनीत कार्यकिया है उसके लिये हृदय से आभारी हूँ..

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  6. .

    आपके इस बार के लेख में कुछ त्रुटियाँ [टंकण संबंधी] रह गयी हैं. जैसे : चेष्टओं / ओठ चबना / उदारण ...

    है परशुराम से पायी मैंने शिक्षा
    इसलिये मातृ वध की होती है इच्छा.
    जब-जब माता जमदग्नि पूत छलेगी
    मेरी जिह्वा परशु का काम करेगी.

    आचार्य जी, यहाँ मातृ-वध में कौन-सा रस है?
    वीर अथवा रौद्र अथवा कोई रस का आभास.

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  7. आचार्य परशुराम राय जी!
    काव्य-शास्त्र लेखन में एक वर्ष पूर्ण करने पर आपको -बधाई! रस भारतीय काव्य-शास्त्र का वैशिष्ट्य है। नाटक और सिनेमा में इसका खूब उपयोग होता रहा है। योरप और अमेरिका के विद्वान भी इसके महत्व को अब स्वीकारने लगे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के माल को खपाने हेतु बनाए जाने वाले विज्ञापनों में रस-निष्पत्ति का भर पूर उपयोग हो रहा है। इस व्यवसायिक युग में उसी प्रोफेशनल की दुकान खूब चमक रही है जो जाने-अनजाने रस-शास्त्र का सहारा ले रहा है। आजकल काव्य-लेखन की ओर भी लोगों का रुझान खूब देखा जा रहा है। इसे आत्मसात कर लेखन करने से उनके लेखन की गुणवत्ता बढ़ सकती है। आप हिंदी में जो कार्य कर रहे हैं वह हिंदी वालों के लिए वरदान से कम नहीं। इस क्रम को जारी रखिए।इस जटिल और महत्वपूर्ण कार्य के लिए आपको कोटिश: धन्यवाद!
    कृपया पर्यावरण और बसंत पर ये दोहे पढ़िए......
    ==============================
    गाँव-गाँव घर-घ्रर मिलें, दो ही प्रमुख हकीम।
    आँगन मिस तुलसी मिलें, बाहर मिस्टर नीम॥
    -------+------+---------+--------+--------+-----
    शहरीपन ज्यों-ज्यों बढ़ा, हुआ वनों का अंत।
    गमलों में बैठा मिला, सिकुड़ा हुआ बसंत॥
    सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी

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  8. आचार्य जी बहुत बधाई, पता ही नहीं चला और श्रंखला ने एक वर्ष भी पूरा कर लिया. कृपया आगे हम सभी का मार्गदर्शन करते रहें.
    आ० प्रेम जी की टिप्पणी से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ और मैं कहूँगी कि "यह श्रंखला हिंदी व्लाग की अनुपम कृति होने के साथ-साथ एक धरोहर भी सिद्ध होगी।"
    मनोज जी बहुत बहुत आभार यह श्रंखला और अन्य ज्ञानवर्धक सामिग्री उपलब्ध कराने के लिए.

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  9. रस सिद्धांत और रसों के बारे में आपकी यह श्रृंखला काफी उपयोगी है ...आपका आभार

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  10. आप को ब्लाग के एक वर्ष पुरे होने की बधाई, बहुत सुंदर लेख के लिये धन्यवाद

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  11. @ प्रतुल वशिष्ठ जी
    अशुद्धियों को बताने के लिए आभार।
    ठीक कर दिया।

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  12. @ डॉ० डंडा लखनवी जी,
    आपका आशीर्वाद बना रहे। यह हमारी ऊर्जा बढाता है।

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  13. @ आचार्य परशुराम राय जी
    आभार आपका। आपने न सिर्फ़ हमारी बात मानी बल्कि ब्लॉजगत को एक अन्मोल खजाना दिया है। पाठकों की प्रत्रिक्रिया भले कम हो पर जितने भी हैं वह हमारे उत्साह को बढाने और बनाए रखने के लिए काफ़ी हैं।
    भारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।

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  14. @ alka sarwat जी
    बहुत बहुत धन्यवाद।
    आप भी ब्लॉग जगत को स्वस्थ रखने का महत्त्वपूर्ण करने का काम कर रही हैं। स्लिपडिस्क का तो मैं ख़ुद ही मरीज़ रहा हूं। जल्द से पोस्ट डालिए।

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  15. हैप्पी फर्स्ट बर्थडे...
    एक और ज्ञान से भरपूर रचना..आभार.

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  16. संस्कृत अथवा किसी अन्य ऐसी भाषा से,जो अब सहज ग्राह्य नहीं है,उदाहरण देने से आम पाठक रस का आस्वादन नहीं कर पाता। निवेदन है कि आधुनिक संदर्भों को उद्धृत किया जाए।

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  17. प्रतुल जी,
    टंकणगत त्रुटि को बताने के लिए साधुवाद। मनोज कुमार जी ने उन्हें शुद्ध कर दिया है। इसके लिए उन्हें हृदय से आभार।
    आपके दूसरे प्रश्न का उत्तर यह है कि भगवान परशुराम द्वारा मातृ-वध क्रोधवश नहीं किया गया था, अपितु पित्रादेशवश। क्योंकि जब पिता ने वर माँगने के लिए कहा तो उन्होंने वर माँगा था कि माँ जीवित हो जाय ओर उक्त घटना उन्हें याद न रहे।
    अतएव इसे वीर रस (धर्मवीर) का इदाहरण कहना चाहिए।

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  18. शिक्षामित्र जी,
    इस अंक मे लगभग प्रत्येक रस का हिन्दी का उदाहरण भी दिया है। संस्कृत के उद्धरणों के हिन्दी में अर्थ दिए गए हैं। सामग्री के अभाव में हर स्थान पर हिन्दी का उदाहरण देना सम्भव नहीं हो पाता। इसके लिए क्षमा चाहूँगा। वैसे आपका सुझाव अत्युत्तम है। कोशिश में हूँ। सामग्री मिलने पर उपयुक्त स्थानों पर देने का प्रयास करूँगा, ताकि भावी पाठकों को सुविधा हो।
    सुझाव के लिए आभार।

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  19. वन्दना जी,
    काव्यशास्त्र के इस अंक को चर्चा मंच पर लेने के लिए आपका हृदय से आभार।

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  20. काव्य शास्त्र के एक वर्ष पूरे करने पर आपको बहुत बहुत बधाई। आपके श्रमसाध्य कार्य से हम सब लाभान्वित हुए हैं। आपको आभार

    जवाब देंहटाएं
  21. .


    आचार्य जी, कृपया मुझे कुतर्की न मानना और न ही अहंकारी, मैं केवल जिज्ञासु हूँ.
    क्षमा भाव के साथ कहना चाहता हूँ —
    ________

    किन्तु आचार्य जी, 'उत्साह' वाले स्थायी भाव से 'विस्मय' जन्म लेता है और वीर से अदभुत रस उत्पादित होता है.
    क्या मातृ-वध में 'उत्साह' स्थायी भाव माना जाये? आपने इस कृत्य को धर्मवीर की श्रेणी बताया. लेकिन शास्त्रीय नियमों के अनुसार यह उदाहरण अपवाद बन गया है.
    क्रोध के बिना वध संभव नहीं हो पाता बेशक वह धर्म-युद्ध में किये गये वध हों.
    मुझे यहाँ रौद्र रसाभास लगता है. क्या ऐसा नहीं है?

    ...

    जवाब देंहटाएं
  22. .

    — : रसाभास : —

    जहाँ रस आलंबन में वास
    करे उक्ति अनुचित अनायास
    जसे परकीया में रति आस.
    हुवे उक्ति शृंगार रसाभास.

    अबल सज्जन-वध में उत्साह
    अधम में करना शम-प्रवाह.
    पूज्यजन के प्रति करना क्रोध
    विरक्त संन्यासी में फल चाह.

    वीर उत्तम व्यक्ति में भय
    जादू आदि में हो विस्मय.
    बलि में हो बीभत्स का हास
    वहाँ होता रस का आभास.

    .

    जवाब देंहटाएं
  23. आद.आचार्य जी,
    इस ज्ञानवर्धक श्रृंखला के एक वर्ष पूरे होने पर हार्दिक बधाई !

    जवाब देंहटाएं

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