गुरुवार, 16 जून 2011

आँच-73 : आलोचना और आलोचना-धर्मिता भाग-2

 

अर्थान्वेषण

 

- आचार्य परशुराम राय

 

आँच के 70वें अंक में आलोचना और आलोचना-धर्मिता पर चर्चा हुई थी। पाठकों की प्रतिक्रियाओं को पढ़कर लगा कि इस पर कम से कम दो-चार चर्चाएँ और होनी चाहिए। वैसे भी जब वह अंक लिखा तो लगा था कि चर्चा अभी पूरी नही हो पायी है और यह सोचकर कि एक ही रचना अधिक लम्बी हो गयी, तो पाठक उब जाएँगे। अतएव बाद में समय मिलने पर लिखने का विचार कर उसे वहीं छोड़ना पड़ा। लेकिन इतना जल्दी लिखना होगा, यह नहीं सोचा था। इस स्तम्भ के लोकप्रिय लेखक हमारे मित्र श्री हरीश जी आजकल अवकाश पर हैं और इस स्तम्भ का कार्यभार अस्थायी रूप से मुझे सौंप गए हैं। मैं इधर व्यस्तता के कारण कोई रचना समीक्षा के लिए देख भी नहीं पाया। वैसे इस स्तम्भ के लिए सामग्री प्रदान करने में श्री मनोज कुमार जी की प्रमुख भूमिका रहती है। लेकिन संयोगवश वे भी एक सप्ताह के लिए प्रवास पर थे। तो सोचा इसी पर एक और चर्चा क्यों न करली जाए। पहले विचार आया था कि भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त होने वाली ध्वनियों पर एक विस्तृत चर्चा की जाय। पर लगा कि एक विषय उठाया जा चुका है तो उसी को क्यों न आगे बढ़ाया जाय़, ध्वनियों पर फिर कभी चर्चा करेंगे। अतएव आज आलोचना और आलोचना-धर्मिता के अन्तर्गत अर्थान्वेषण पर चर्चा प्रस्तुत है।

आलोचक या पाठक का एक धर्म रचना में अर्थान्वेषण भी है। रचनाकार चाहे कोई भी क्यों न हो- एक समर्थ और प्रसिद्ध रचनाकार या सामान्य/नवोदित। क्योंकि मैंने देखा है कि एक नया रचनाकार भी ऐसी बातें लिख जाता है कि उससे वह स्वयं और पाठक दोनों चमत्कृत हो उठते हैं। क्योंकि जब रचनाकार भाव के मद में विभोर होता है, तो अचेतन और अवचेतन मन के कुछ कपाट खुल जाते हैं तथा अनायास कुछ भाव बिम्बों के साथ मानस तट पर हिलोरें मारने लगते हैं, जिन्हें वह लिपिबद्ध कर लेता है। इसमें किसी को सन्देह नहीं होना चाहिए कि अचेतन और अवचेतन मन हमारे ज्ञान का अपूर्व भण्डार है। आज सामान्य दिखनेवाला और लिखनेवाला भविष्य में अच्छा रचनाकार हो सकता है। अतएव उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। लेकिन दलबन्दी के आधार पर नहीं। समीक्षा के लिए अत्यन्त उत्कृष्ट मानी जानेवाली एक पत्रिका में एक ऐसी कविता प्रकाशित हुई थी कि उसे कविता कहने में शर्म आती है। इसलिए कवि-समागम आवश्यक है। आज बलॉग-जगत में रोज इतनी कविताएँ प्रकाशित होती हैं कि शायद दो-चार मोटे-मोटे काव्य-संग्रह निकल सकते हैं। फिलहाल आज चर्चा अर्थान्वेषण पर है। इसके लिए महाकवि जयशंकर प्रसाद द्वारा विरचित चन्द्रगुप्त नाटक का एक गीत लेते हैं-

अरुण यह मधुमय देश हमारा !

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।

सरस तामरस गर्भ विभा पर - नाच रही तरु शिखा मनोहर।

छिटका जीवन हरियाली पर - मंगल कुंकुम सारा।

लघु सुरधनु से पंख पसारे - शीतल मलय समीर सहारे।

उड़ते खग जिस ओर मुँह किए - समझ नीड़ निज प्यारा।

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इस गीत में भारत देश का गुणगान किया गया है। यह गीत चन्द्रगुप्त नाटक के दूसरे अंक के प्रारंभ में आया है, जिसे सिल्यूकस की पुत्री कार्नेलिया को गाते हुए दिखाया गया है। यह गीत चूँकि खड़ी हिन्दी में है, इसका अर्थ या भावार्थ नहीं दिया जा रहा है। लेकिन यदि इसपर थोड़ा ध्यान दें, तो कुछ प्रश्न अनायास ही मन में उठते हैं कि इस गीत को एक विदेशी लड़की द्वारा गवाने के पीछे नाटककार का प्रयोजन क्या हो सकता है। क्या मात्र यह बताने के लिए कि वह भारतीय संगीत सीख रही है और समय मिलने पर उसका अभ्यास कर रही है अथवा नाटक में मनोरंजन के लिए कुछ गीत होने चाहिए। मुझे तो नहीं लगता कि महाकवि प्रसाद के ये ही उद्देश्य रहे होंगे या इनमें से कोई एक। यदि हम प्रसाद जी की समकालीन भारतीय राजनीतिक परिस्थितियों पर दृष्टि डालते हैं, तो पाते हैं कि भारत परतंत्र था, स्वतंत्रता पाने के लिए भारतीयों में छटपटाहट भरी भावना धीर-धीरे अपनी पराकाष्ठा की ओर अग्रसर हो रही थी। एक ओर महात्मा गाँधी का सत्याग्रह आन्दोलन था, तो दूसरी ओर क्रान्तिकारियों का खून उबाल पर था। ऐसे में प्रसाद जी का यह गीत पाठकों को प्रेरित कर रहा था कि जिस देश का गुणगान विदेशी कर रहे हैं, उस देश की सन्तान हो तुम, जहाँ प्रकृति अपना सारा सौन्दर्य-भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक सबकुछ अर्पित किए हुए है, उसकी रक्षा करो, उसे स्वतंत्र करो। ताकि सभी भारतीय प्रकृति प्रदत्त सुख का सम्यक रूप से आनन्द ले सकें। आगे पुनः उनका प्रयाण गीत- हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती। स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती। ........... गीत इस भाव को पुष्ट करता है। अतएव किसी रचना में अन्तर्निहित अर्थ का अन्वेषण करना भी एक आलोचक को अभिप्रेत होना चाहिए।

इसी प्रकार प्रातःस्मरणीय संत महाकवि तुलसीदास जी का एक दोहा लेते हैं, जो रामचरितमानस का है-

मास दिवस का दिवस भा, मरम न जानइ कोइ।

रथ समेत रवि थाकेऊ, निसा कवन विधि होइ।।

यह दोहा मानस में भगवान राम के जन्म के समय का है। जिसमें कहा गया है कि जिस समय भगवान राम का जन्म हुआ, उस समय एक महीने का एक दिन हुआ। सूर्य रथ सहित रुक गए, तो रात कैसे हो। यह बात तर्कसंगत तो नहीं लगती। क्योंकि सूर्य का एक स्थान पर रुकना सम्भव नहीं। अब यहाँ मन में बात उठती है कि क्या तुलसीदास जी झूठ बोल रहे हैं। राम! राम! ऐसा कहना भयंकर अपराध होगा। ऋषितुल्य संत तुलसीदास जी और झूठ, बिलकुल नहीं, असम्भव-असम्भव-असम्भव। क्योंकि महाकवि भवभूति अपने नाटक उत्तररामचरितम् में कहते हैं-

लौकिकानां हि साधूनामर्थं वागनुवर्तते।

ऋषीणां पुनरातद्यानां वाचमर्थोSनुधावति।।

अर्थात् लौकिक साधुओं या संतों की वाणी वस्त्वर्थ का अनुसरण करती है, जबकि पुरातन (वैदिक या लोकोत्तर) ऋषियों की वाणी का अनुसरण अर्थ स्वयं करता है। और इसमें संदेह नहीं कि तुलसीदास जी भले ही वैदिक ऋषि न हों, किन्तु उसी कोटि के सन्त हैं। अतएव वे गलत बिलकुल नहीं कह सकते। तो प्रश्न उठता है कि आखिर तुलसीदास जी कहना क्या चाहते हैं? यहाँ दो अर्थों की ओर संकेत किया जा रहा है- प्रथम साहित्यिक दृष्टि से और दूसरा आध्यात्मिक दृष्टि से। साहित्यिक अर्थ यह किया जाता है कि जहाँ अयोध्या में लोग एक उत्तराधिकारी राजा के लिए तरस रहे थे, वहाँ चार उत्तराधिकारी एक साथ जन्म ले चुके हैं। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि महाराज दशरथ अपनी प्रजा में बहुत ही लोकप्रिय थे। ऐसी स्थिति में पूरी अयोध्या के आनन्द का ठिकाना नहीं रहा होगा। वहाँ महीनों तक महोत्सव का माहौल रहा होगा। ऐसी स्थिति में अयोध्यावासियों को रात और दिन का आभास ही नहीं रहा होगा। और इस आनन्द की अभिव्यक्ति के लिए सन्त महाकवि ने इस बिम्ब को लिया होगा। आध्यात्मिक अर्थ है कि जब साधक के अन्तःकरण में भगवान राम का जन्म होता है, तो अंधकार रूपी अज्ञान समाप्त हो जाता है, ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। यदि भौतिक रूप से देखें, तो हमारे शरीर में काल रूप में हमारी साँसें हैं। जब साधक को परम चैतन्य की अनुभूति होती है, तो उसकी साँसें रुक जाती हैं और वह परम समाधि में कालातीत अवस्था का अनुभव करता है। इसका विवरण स्वामी रामकृष्ण परमहंस आदि की साधनाजन्य जीवन-यात्रा में मिलता है। तो इस दोहे में तुलसीदास जी का संकेत इस ओर भी है। इसके अतिरिक्त अन्य अर्थ भी हो सकते हैं।

इसी प्रकार संत कबीर का एक पद देखा जा सकता है-

एक अचंभा देखा रे भाई, ठाढ़ा सिंघ चरावै गाई।

पहले पूत पीछे भइ माई, चेला के गुरु लागै पाई।

जल की मछली तरवर ब्याई, पकरि बिलाई मुरगै खाई।

बैलहि डारि गूँनि घरि आई, कुत्ता कूँ लै गई बिलाई।

तलिकर साषा ऊपरि करि मूल, बहुत भाँति जड़् लागै फूल।

कहै कबीर या पद जो बूझै, ताँकू तीनों त्रिभुवन सूझै।

अब यहाँ खड़े होकर सिंह का गाय चराना, माँ के पहले पुत्र का पैदा होना, शिष्य को गुरु का शिष्य के पैर लगना (चरण स्पर्श करना), जल की मछली का पेड़ को जन्म देना, बिल्ली को पकड़कर मुर्गे का खाना, बैल को रस्सी डालकर घर आना, कुत्ते को बिल्ली द्वारा पकड़ कर ले जाना, वृक्ष की शाखाओं का नीचे होना और जड़ ऊपर होना आदि उनके स्वभाव के विपरीत है और कबीर यह आश्चर्यजनक घटनाएँ देखकर दंग हैं। और इसपर कबीर कहते हैं कि जो इस पद को समझ लेगा उसे तीनों लोकों का ज्ञान हो जाएगा। पता नहीं कबीर किस लोक की बात कर रहे हैं। विद्वान कबीर के ऐसे प्रयोग को उनकी उलट बाँसियाँ कहते हैं और इसमें अर्थान्वेषण किए बिना भावबोध होना असम्भव है। इसमें सिंह, गाय, माँ, पुत्र, गुरु, चेला आदि प्रतीक हैं जिनके माध्यम से कबीर अपनी आध्यात्मिक अनुभूति को व्यक्त कर रहे हैं।

अतएव अर्थान्वेषण आलोचक का पहला धर्म होना चाहिए या यों कहना चाहिए कि आलोचना के मूल में अर्थान्वेषण है और आलोचना रूपी वृक्ष इसी से विकसित होता है। आलोचना के अन्य अंग इसकी शाखाएँ-प्रशाखाएँ हैं। अर्थान्वेषण का भी एक समीकरण होना चाहिए जिससे उसके विभिन्न अवयवों के साथ अर्थ संतुलित हो।

फिर कभी अवसर मिलने पर इस शृंखला की अगली कड़ी पर विचार किया जायगा।

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9 टिप्‍पणियां:

  1. ---सुन्दर अति सुन्दर व्याख्या ...अर्थान्वेषण वस्तुत: काव्य में आलोचना का मूल होना चाहिये....
    --अत्यन्त तथ्यपरक जानकारी....उदाहरण एक दम सटीक व सरलता से समझने योग्य....व सरस...

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  2. बहुत अच्छी और दिलचस्प लगी आपकी अर्थान्वेषण की व्याख्या, अगले अंक का इंतजार रहेगा।

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  3. इस तरह की पोस्ट और जानकारियों की बेहद जरुरत है.बहुत बहुत आभार यह श्रंखला शुरू करने का .आगे का इंतज़ार रहेगा.

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  4. बहुत अच्छा लगा यह विश्लेषण पढ़ कर ... आभार

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  5. सत्य वचन! साधु वचन !!सरस शिक्षण!!! आलोचक के अर्थान्वेषक दृष्टि से ही तो पाठक को दिशा मिलती है। धन्यवाद !

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  6. आलोचना और आलोचना-धर्मिता के अन्तर्गत अर्थान्वेषण पर सार्थक चर्चा की है आपने.
    हार्दिक बधाई।

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  7. सीखना और सिर्फ सीखना.. बस यही है आचार्य जी की पोस्ट की उपलब्धि हमारे लिए!!

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  8. बहुत अच्छा आलेख है- आलोचना की मूल भावनाओं को सकारात्मक दिशा देता हुआ। आशा है,अन्य आलोचक भी सहमत-प्रेरित होंगे।

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