रविवार, 25 सितंबर 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 85

भारतीय काव्यशास्त्र – 85

- आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में निहतार्थ, अनुचितार्थ और निरर्थक दोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में अवाचक, अश्लील और सन्दिग्ध दोषों पर चर्चा की जाएगी।

अवाचक का अर्थ है वाचकत्व का अभाव, अर्थात् जिस अर्थ के लिए किसी शब्द प्रयोग किया जाय, पर वह उसका वाचक न हो, वहाँ अवाचक दोष होता है और यह एक नित्य दोष है। जैसे गीतेषु कर्णम् आदत्ते (गीतों पर ध्यान दो, अर्थात् ध्यान से सुनो) में आदत्ते को देने के अर्थ में किया गया है, जबकि उपसर्ग लगने के कारण इसका अर्थ लेना होगा, देना नहीं। अतएव इस उदाहरण में अवाचक दोष है। आचार्य मम्मट ने इसके लिए तीन उदाहरण दिए हैं। लेकिन तीसरा उदाहरण काफी समीचीन है। अतएव उसे नीचे उद्धृत किया जा रहा है-

जङ्घाकाण्डोरुनालो नखकिरणलसत्केसरालीकरालः

प्रत्यग्रालक्तकाभाप्रसरकिसलयो मञ्जुमञ्जीरभृङ्गः।

भर्तुर्नृत्तानुकारे जयति निजतनुस्वच्छलावण्यवापी-

सम्भूताम्भोजशोभां विदधदभिनवो दण्डपादो भवान्याः।।

अर्थात् अपने पति भगवान शिव के नृत्त का अनुकरण करते समय अपने शरीर के निर्मल लावण्य की वापी (बावड़ी) में उत्पन्न कमल की शोभा को धारण करनेवाला माँ पार्वती का प्रथम बार उठा वह दंडपाद (नाट्यारम्भ में ऊपर उठा पैर दंडपाद कहलाता है) सबसे अधिक उत्कर्षयुक्त है, जिसमें जंघा लम्बे मृणाल दंड के समान है और उसके नख की किरण रूपी केसर की पंक्ति से नतोन्नत है, जो ताजा लगे महावर की आभा के पसरे नये पत्तों से युक्त तथा सुन्दर नूपुर रूपी भौरे युक्त है। (यहाँ प्रयुक्त नृत्त पद को टंकणगत त्रुटि नहीं समझना चाहिए। नृत्त को परिभाषित करते हुए कहा गया है- पदार्थाभिनयो नृत्यं नृत्तं ताललयाश्रयम् अर्थात् पद के भाव के अनुसार हाव-भाव (अभिनय), ताल (कालक्रिया=beating time) और लय (द्रुत, मध्य, विलम्बित) इन तीनों का समाहार नृत्त कहलाता है।)

यहाँ विदधत् पद अवाचक है। क्योंकि इसे वहन करने के अर्थ में प्रयोग किया गया है, जिसके लिए दधत् पद सही होता। विदधत् का अर्थ निश्चित करना, विहित करना, घेरना, सम्मिलित करना आदि है, यह वहन करने का वाचक नहीं है। इसलिए यहाँ अवाचक दोष है।

जहाँ काव्य में लज्जासूचक, घृणासूचक अथवा अमंगलवाची शब्दों का प्रयोग किया गया हो, वहाँ अश्लील दोष होता है। यह तीन प्रकार का होता है- ब्रीडा, जुगुप्सा और अमंगल व्यंजक। सर्वप्रथम ब्रीडा (लज्जा) व्यंजक दोष का उदाहरण लेते हैं-

साधनं सुमहद्यस्य यन्नान्यस्य विलोक्यते।

तस्य धीशालिनः कोSन्यः सहेतारालितां ध्रुवम्।।

अर्थात् जिसका साधन इतना बड़ा है कि वैसा किसी दूसरे का नहीं दिखाई देता, उस बुद्धिमान की टेढ़ी भौंहों को और कौन सह सकता है।

यहाँ साधन शब्द के दो अर्थ- सेना और लिंग है। राजा के अर्थ में सेना और नायक के अर्थ में लिंग। साधन शब्द लिंग का वाचक भी हो सकता है। अतएव यहाँ ब्रीडा व्यंजक अश्लील दोष है।

लीलातामरसाहतोSन्यवनितानिःशङ्कदष्टाधरः

कश्चितकेसरदूषितेक्षण इव व्यामिल्य नेत्रे स्थितः।

मुग्धा कुड्मलिताननेन ददती वायुं स्थिता यत्र सा

भ्रान्त्या धूर्त्ततयाSथवा नतिमृते तेनानिशं चुम्बिता।।

अर्थात् दूसरी स्त्री ने निशंक होकर अधरपान करते समय जिसके अधर को काट लिया है, वह नायक अपनी पत्नी के पास गया और पत्नी ने अपने लीला कमल से उसके चेहरे पर क्रोध में आकर आघात कर दिया, जिससे नायक अपनी आँखें बन्द करके खड़ा हो गया मानो उसकी आँखों में पराग के कण भर गए हों। बेचारी भोली पत्नी यह समझकर कि लीला कमल के आघात से उसकी आँखों में धूल पड़ गयी है, अपने होठों को गोल बनाकर आँख में फूक मारने लगी। तभी भ्रम अथवा धूर्तता के कारण बिना क्षमा याचना किए नायक पत्नी को अपनी बाहों में भरकर काफी देर तक चुम्बन किया।

यहाँ वायु शब्द अपानवायु का भी वाचक हो सकता है। अतएव इस शब्द के प्रयोग होने के कारण यहाँ जुगुप्सा व्यंजक अश्लील दोष है।

मृदुपवनविभिन्नो मत्प्रियाया विनाशाद् घनरुचिरकलापो निःसपत्नोSद्य जातः।

रतिविगलितबन्धे केशपाशे सुकेश्याः सति कुसुमसनाथे कं हरेदेष बर्ही।।

अर्थात् मेरी प्रिया (उर्वशी) के अदृश्य (विनाश) हो जाने कारण मन्द-मन्द पवन से बिखरा घना और सुन्दर मयूर-पिच्छ प्रतिद्वन्द्वी विहीन हो गया है। अन्यथा फूलों से सुशोभित रतिकाल में खुले हुए बन्धनयुक्त सुन्दर केशों वाली उर्वशी के केशपाश की उपस्थिति में यह मयूर किसको मुग्ध कर पाता। अपने बर्हों (पूछों) पर गर्व करनेवाला यह बर्ही (मोर) उसके सामने पानी भरता।

यहाँ विनाश शब्द अदृश्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। क्योंकि विनाश का अर्थ अदृश्य भी होता है। पर विनाश शब्द का अर्थ नष्ट होना भी हो सकता है, जो अमंगलसूचक है। अतएव यहाँ अमंगल व्यंजक अश्लील दोष है। निम्नलिखित दोहे में तीनों प्रकार का अश्लील दोष देखा जा सकता है-

बौरे चूतन रंग में, हलि-हलि अलि झगरैल।

अंतक-दिन बर बिहरिहौ, लखि न भौंर यह सैल।।

यहाँ चूत पद में लज्जा-सूचक, हलि-हलि में घृणासूचक और अन्तक पद में अमंगल-सूचक दोष हैं। जबकि चूत आम के अर्थ में और अंतक-दिन अन्तिम दिन (आखिरकार) के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं।

ये अनित्य दोष हैं। आचार्य लोग शांत रस में जुगुप्सा-सूचक, शृंगार रस में लज्जा-सूचक और भविष्य में अमंगल सूचन को दोष नहीं मानते।

जहाँ काव्य में किसी शब्द के कारण सन्देह पैदा हो जाय वहाँ सन्दिग्ध दोष माना जाता है। जैसे निम्नलिखित श्लोक में-

आलिङ्गितस्तत्रभवान् सम्पराये जयश्रिया।

आशीःपरम्परां वन्द्यां कर्णे कृत्वा कृपां कुरु।।

अर्थात् संग्राम मे विजयश्री से आलिंगित आप नमस्करणीय आशीर्वचन-परम्परा को सुनकर कृपा करें, तात्पर्य यह कि आप सदा अनायास ही विजयी होते रहते हैं और इसके परिणाम स्वरूप आपकी आशीर्वाद पाने की परम्परा सी बन गयी है और इससे आपकी हमलोगों पर कृपा भी बनी रहती है (पुरस्कार आदि के रूप में धन-धान्य मिलता रहता है)।

यहाँ वन्द्याम् पद के कारण सन्देह उत्पन्न होता है कि इसे वन्द्या शब्द को द्वितीया विभक्ति में प्रयुक्त समझकर इसका अर्थ परम्परा के विशेषण के रूप में वन्दनीय लिया जाय अथवा वन्दी (जबरदस्ती कैद की गयी स्त्री) शब्द का सप्तमी एक वचन में प्रयुक्त समझा जाय और उसका अर्थ बलात् कैद की गयी स्त्री पर लिया जाय, इसमें सन्देह हो जाता है। क्योंकि वन्दी शब्द का सप्तमी विभक्ति के एक वचन और वन्द्या (वन्दनयोग्य) का द्वितीया विभक्ति के एक वचन में वन्द्याम् पद ही बनेगा। अतएव इसके कारण इस श्लोक में संदिग्ध दोष है।

12 टिप्‍पणियां:

  1. आचार्य जी मैं रविवार को आपके ज्ञानवर्धक आलेख की प्रतीक्षा में रहती हूँ. आभार.

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  2. विद्वतापूर्ण आलेख।
    काव्यप्रेमियों के सीखने और समझने के लिए उत्कृष्ट शृंखला।

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  3. यदि लिखा न होता तो मैं भी एकबारगी नृत्य-नृत्त के झमेले में उलझ गया होता। आभार उपयोगी ज्ञान हम सब के साथ साझा करने के लिए। यह महत्कर्म जारी रहे।

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  4. उदाहरण देकर आपने बहुत अच्छी तरह से समझाया है इस अंक में।

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  5. प्रस्तुति स्तुतनीय है, भावों को परनाम |
    मातु शारदे की कृपा, बनी रहे अविराम ||

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  6. बहुत ज्ञानवर्धक आलेख...आभार

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  7. बेहद ज्ञानवर्धक आलेख ..आभार ।

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