गुरुवार, 29 सितंबर 2011

आँच- (89) पर : शैशव

समीक्षा

आँच- (89) पर : शैशव

clip_image002हरीश प्रकाश गुप्त

मेरा फोटोआज से लगभग एक वर्ष पहले इसी ब्लाग पर एक बालगीत प्रकाशित हुआ था शैशव। यह एकमात्र बालगीत है जो अभी तक इस ब्लाग पर प्रकाशित हुआ है। पाँच पदों में रचे गए इस गीत में बालवृत्तियों का और उसके मनोभावों का सूक्ष्म चित्रण हुआ है। आचार्य़ परशुराम राय द्वारा रचित यह बालगीत बहुत ही सरस, सहज और मनमोहक है। इसकी शब्द योजना आकर्षक है। आँच के इस स्थायी स्तम्भ पर अभी तक किसी भी बाल गीत पर चर्चा नहीं हुई है। अतः सोचा कि इस रचना के माध्यम से इस रिक्ति को भरने का कुछ प्रयास किया जाए।

clip_image008शिशु का जीवन जहाँ स्वच्छन्द जीवन होता है वहीं नितान्त निश्छल भी होता है। दीन-दुनियाँ के आग्रहों से पूर्णतया मुक्त। आग्रह तो बाह्य वातावरण-पर्यावरण, मानवीय व्यवहार-बर्ताव और अपेक्षाओं से निर्मित होते हैं। शिशु की अपेक्षाएं भला क्या हो सकती हैं? क्षुधा के समय उदर पूर्ति तथा स्नेहासिक्त स्पर्श। इससे पृथक शिशु की दुनियाँ अपनी है, जिसमें वह बिलकुल स्वतंत्र-स्वच्छन्द होकर अपने क्रियाक्रलापों में निर्मग्न रहता है। न कोई नियम, न कोई बन्धन। वह पूर्णतया एकाग्रचित्त होकर, तन्मयता के साथ अपने में लगा रहता है। यह भले ही उसका अँगूठा चूसना क्यों न हो? उसके लिए अँगूठा चूसना भी अमृत पान के सदृश ही है। आप कभी अंगूठा चूसते बच्चे के मुख से उसका हाथ हटाकर देखिये। वह कितना मचलता है, कितना रोता है? और फिर जैसे ही उसे अँगूठा फिर से मुख में रखने का अवसर मिलता है, उसका रोना, मचलना काफूर हो जाता है। हमारी सामान्य समझ में यह सब उसका खेलना और विभिन्न खिलवाड़ करना है, लेकिन ये ही उसके कार्य हैं और वह इन खिलवाड़ों को पूरे मनोयोग से सम्पादित करता है, उनमें आनन्द लेता है और प्रफुल्लित होता है। उसका यही भोलापन हमारी बड़ी समझ को बहुत भाता है और उसकी निश्छल अबोधता हमें गुदगुदाती है “... भर देते सब में खुशियाँ”।

clip_image004जीवन में शैशव ही ऐसा काल है जहाँ सांसारिक जगत के उत्तरदायित्व नहीं हैं। दिनानुदिन की समस्याएं नहीं हैं, जीवन संघर्ष नहीं हैं, आरोह और अवरोह भी नहीं हैं। जीवन मुक्त प्रवाह की तरह है। वास्तव में, शिशु की कार्य के प्रति तन्मयता, लगन, निष्ठा, तथा निश्छलता, निर्भीकता और निष्कपटता आदि वे मानवीय भाव हैं जो बढ़ती उम्र के साथ दूरी बना लेते हैं, लेकिन हमारा जो अन्तर्मन है, उसमें यह तृषा जीवंत रहती है। अन्तिम पद में कवि की एक बार पुनः शिशु जीवन पाने की अभिलाषा इसी तृषा से उद्भूत है, जिसमें आनन्द की पराकाष्ठा है और जिसके आगे दुनियाँ के सब वैभव अर्थहीन हैं। जिसमें न कोई पक्षपात है और न ही अपने पराए का कोई भाव है।

clip_image014बच्चे स्वभावतः निर्भय होते हैं। डरना तो वे समाज से सीखते हैं। कहीं-कहीं तो हम अपने उत्तरदायित्वों को सीमित करने के लिए अथवा अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए उन्हें जाने- अनजाने डरना सिखाते है। अन्यथा शिशु का डर से दूर–दूर का वास्ता नहीं होता। ज्ञान भी हमारे डर का एक कारण है। जिसके बारे में हम नहीं जानते उससे डर कैसा? बच्चा नहीं जानता कि बिना मुंडेर की छत पर आगे बढ़ने से क्या होगा? वह उसी तन्मयता से आगे बढ़ता रहता है। अभी हाल ही में मेरे एक मित्र ने मेरी मेल पर एक बच्चे की फोटो भेजी है जिसमें बच्चा भीड़ में अपने पिता की ऊँचे उठी हथेली पर दोनों पाँव जमाए खड़े होकर दृश्यवलि कैमरे में कैद करने की चेष्टा में है और उसके चेहरे पर सम्भावित खतरे के कारण लेश मात्र भी भय़ के निशान नहीं हैं। इसी प्रसंग मे अभी हाल में मध्य प्रदेश के एक बच्चे का चित्र मस्तिष्क में उभर आया जिसमें वह पाँच वर्ष का बालक भयावह रूप से उफनाती नदी के बीचोबीच मात्र एक छोटे से पत्थर पर निर्भीकता से डटा रहा। बाद में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने उस बालक को उसके साहस के लिए पुरस्कृत भी किया था। कवि ने शिशु की इसी निर्भयता को गीत में कुछ इस तरह व्यक्त किया है - “निर्भयता का पिए रसायन / चलते गति स्वच्छंद लिए”।

clip_image006हिन्दी में बालगीतों पर अधिक कार्य नहीं हुआ है। क्योंकि बालगीतों को स्तर का साहित्य नहीं माना गया। हॉलाकि यह विधा भी अन्य विधाओं की तरह साहित्य की एक विधा है और कुछ कवियों ने इस दिशा में साहस का परिचय देते हुए अपनी कलम चलाई है तथा बहुत सुन्दर और मनोहर गीत साहित्य को दिए हैं। आचार्य राय जी का प्रस्तुत गीत भी ऐसी ही एक सशक्त रचना है। इस गीत की शब्द योजना न केवल मनभावन और आकर्षक है, बल्कि यह बाल मनोविज्ञान की सूक्ष्म अभिव्यक्ति भी है। गीत में भावों की गहनता है। तथापि आचार्य जी का ध्यान गीत के कुछ विन्दुओं पर आकृष्ट करना चाहूँगा। यद्यपि पूरा गीत मात्रिक दृष्टि से सर्वथा सुसंगत और मधुर शब्दावलि से अलंकृत है, लेकिन तीसरे पद की दूसरी पंक्ति में एक मात्रा अधिक है तथा शेष गीत की मात्राओं से असमान हो गई है। तथापि गीत में प्रांजलता आद्योपांत विद्यमान है। गीत के दूसरे पद में ‘अँगूठे को चूस-चूस कर / करते तुम अमृत का पान’ में “अँगूठे” की ‘ठ’ मधुर कम, कठोर अधिक लगती है और उसकी ठोकर ओकार की दहलीज को इस तरह पार करती है जैसे समतल राह में कोई अवरोधक आया हो। यदि यहाँ पर “अँगूठे” के स्थान पर “अँगूठों” कर दिया जाए तो “को” से कुछ सीमा तक लय बन जाती है। चतुर्थ पद “मृदु भावों में जीवन तेरा / क्रूर जगत की जहाँ न धूप / ऊँचे-ऊँचे तूफानों के / बनते नहीं जहाँ स्तूप” में प्रसाद की कामायनी सा नाद है। यह गीत पढ़ते समय मन ने एक बार फिर कामायनी को पलटने को विवश कर दिया। इसके अतिरिक्त दूसरे पद की पंक्तियाँ “अँगूठे को चूस-चूसकर / करते तुम अमृत का पान” तथा तीसरे पद में “दुख में स्वागत करती आँखें / आँसू का जयमाल लिए” सुभद्रा कुमारी चौहान के गीत “बचपन” का स्मरण करा जाती हैं। दुख में कपोलों पर बह आए आँसुओं को आँखों द्वारा आँसुओं की जयमाला लेकर दुख का स्वागत करने की व्यंजना बेहद आकर्षक है और यह पूरे गीत की विशिष्टि भी बन गई है।

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22 टिप्‍पणियां:

  1. baalyavastha ka bahut sunder vishleshan kiya hai.bahut pyaare baal geet ki achchi sameeksha.navraatri ki haardik badhaai.

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  2. बहुत ख़ूबसूरत ! शानदार प्रस्तुती!
    आपको एवं आपके परिवार को नवरात्रि पर्व की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !

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  3. अच्छी समीक्षा. समीक्षक और रचनाकार दोनों को बधाई.

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  4. नवरात्री की ढ़ेरों शुभकामनाएँ..

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  5. इस समीक्षा को पढ़कर कविता पुनः याद आ गई... गुप्त जी की समीक्षा का स्तर भी निरंतर ऊँचा हो रहा है...

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  6. अतिसुन्दर समीक्षा ... और गीत का तो कहना ही क्या...

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  7. उत्कृष्ट गीत की उत्कृष्ट समीक्षा.धन्य हुए .

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  8. इस कविता को लिखने की पृष्ठ-भूमि यहाँ पाठकों को बताना चाहूँगा। यह कविता 1979-80 के सत्र में लिखी गयी। मैं और मेरे एक मित्र की पत्नी बी.एड. कर रहे थे। उन्होंने बी.एड. प्रायोगिक परीक्षा के लिए सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता, जिसका उल्लेख समीक्षक ने किया है, तैयार कर रखी थी। मेरे मित्र ने मुझसे एक समभाव की कविता खोजकर देने के लिए कहा। जो लोग बी.एड. किए हैं और हिन्दी टीचिंग मेथडॉलॉजी जिनका विषय रहा हो, वे जानते हैं कि विद्यार्थियों को कविता पढ़ाने के बाद एक समभाव की कविता प्रस्तुत करनी होती है। मैंने अपनी स्मृति पर बहुत जोर डालने के बाद भी जब कोई कविता नहीं ढूँढ़ पाया, तो यह कविता लिखकर दिया था। इसके बाद फिर कविता की ओर मुड़कर नहीं देखा। चूँकि कविता में प्राञ्जलता में कोई कमी नहीं थी, जिससे एक स्थान पर समीक्षक ने एक चरण में एक स्थान पर छन्द-भंग की ओर संकेत किया है, उधर ध्यान नहीं गया और वह दोष शेष रह गया। पिछले वर्ष यह कविता बाल-दिवस पर प्रकाशित करने के लिए मनोज कुमार जी से अनुरोध किया था। पर यह यथावत कुछ पहले प्रकाशित हो गयी।
    इस कविता की चर्चा आँच पर करने के लिए
    मैं श्री हरीश जी का हृदय से आभारी हूँ, विशेषकर त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए।

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  9. aadarniy sir
    bahut bahut hi achhi lagi aapki yah samixha.aapke post ki har panktiyon ke har shabd ekdam yatharthta liye hue hain.iasme kinchit matra bhi vahya bato ko nahi joda gaya hai.yahi is samixha ki prabal vishheshhta hai aur yah bhi sach hai ki main ise padhte -padhte puri tarah isme dub si gai.
    sheshav kaal sach me anmol hota hai jise aapne bahut hi badhiya tareeke se abhivyakt kiya hai .
    hardik badhai
    sadar naman sahit
    poonam

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  10. हरीश भाई,
    जहां तक मुझे याद है कि लोहा को हम सामान्य रूप में एक कठिन धातु के रूप में जानते हैं किंतु इसका गलनांक 1500 Degree Celsius के शायद आस-पास .है । मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि आँच पर कितना गर्मी देते है कि कुछ भी कहने और लिखने के लिए नही बचता । समीक्षा प्रशंसनीय है । धन्यवाद । .

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  11. इस कविता के मूल प्रकाशन (ब्लॉग 'मनोज' पर) पर मेरी जो टिप्पणी थी वह यथावत उद्धृत करना चाहूँगा:
    आचार्य जी..काव्य शास्त्र की विवेचना से शिशु गीत तक.. आपका विस्तार अनंत है और शायद यही आपको सही अर्थों में साहित्य स्रष्टा बनाता है... चरण वंदना स्वेकार करें..
    इस कविता को पढने के बाद ठुमक चलत रामचंद्र का आधुनिक स्वरूप या फिर सुभद्रा कुमारी चौहान की बार बार आती है मुझको का स्मरण हो आया.. यह जीवन का वह स्वर्णिम काल है जिसे प्रकृति ने भी हमें दो बार जीने का अवसर प्रदान किया है... बालपन में जिसका आपने वर्णन किया है और वृद्धावस्था में, जब यह पुनः लौटकर आता है..
    एक बहुत ही प्यारी रचना!!

    आज एक समीक्षक, वो भी हरीश जी जैसे साहित्यामना, की नज़र से देखने का अवसर मिला तो एक नया आयाम मिला. जो कमियां हरीश जी ने स्पष्ट कीं उसपर आचार्य जी के टिप्पणी के उपरांत ही लगा कि यह कोई साहित्यिक दोष भी था, वरना मुझे तो यह सम्पूर्ण कविता ही लगी. आभार दोनों मनीषियों का!!

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  12. गीत पर लिखते समय एक बार विचार आया था कि दोष प्रकाशित करने पर आचार्य जी की क्या प्रतिक्रिया हो सकेगी। यह कहीं सूर्य को दीपक दिखाने जैसी स्थिति तो नहीं बन रही है। लेकिन मेरे धर्म ने मुझे सचेत किया। आचार्य जी ने बहुत सहजता से इसे स्वीकार किया तो उनकी प्रतिक्रिया से मुझे हर्ष ही नहीं हुआ बल्कि विश्वास भी सुदृढ़ हुआ कि गुरुता में सदा सदाशयता वास करती है। यह उनका बड़ापन है।

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  13. आप सभी के स्नेह का अत्यंत आभारी हूँ जो मुझ जैसे साहित्य के विद्यार्थी को यह स्थान दे रहे हैं, क्योंकि मैं अभी पारंगत नहीं हूँ, बल्कि आप सबके सान्निध्य में दिन-प्रति-दिन कुछ न कुछ सीख रहा हूँ।

    @प्रेम सरोवर जी,
    क्षमा के साथ कहना चाहूँगा कि यह बहुत अधिक हो गया है। कुछ कम कर लें तो मेरे हित में बेहतर रहेगा।

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  14. सभी जनों को शक्ति स्वरूपा आराध्य देवी माँ के पावन नवरात्रि पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  15. सर्वप्रथम नवरात्रि पर्व पर माँ आदि शक्ति नव-दुर्गा से सबकी खुशहाली की प्रार्थना करते हुए इस पावन पर्व की बहुत बहुत बधाई व हार्दिक शुभकामनायें। सुन्दर गीत की अच्छी समीक्षा .

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