गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

आंच-107 : रमपतिया की याद में गिरिजा जी की असाधारण कविता


आंच-107
-    मनोज कुमार

 रमपतिया की याद में गिरिजा जी की असाधारण कविता 
गिरिजा कुलश्रेष्ठ की एक कविता पर आज नज़र पड़ी। गिरिजा जी का ब्लॉग Yeh Mera Jahaan है। इस ब्लॉग पर अपने परिचय में गिरिजा जी कहती हैं - जीवन के पाँच दशक पार करने के बाद भी खुद को पहली कक्षा में पाती हूँ। अनुभूतियों को आज तक सही अभिव्यक्ति न मिल पाने की व्यग्रता है। दिमाग की बजाय दिल से सोचने व करने की आदत के कारण प्रायः हाशिये पर ही रहती आई हूँ । फिर भी अपनी सार्थकता की तलाश जारी है । इसी तलाश में उनकी भेंट एक ग्रामीण महिला रमपतिया से होती है और होता है सृजन रमपतिया की याद में कविता का।
स्त्री पर स्तरीय कविताएँ कम ही मिलती हैं। गिरिजा जी ने एक साधारण स्त्री पर असाधारण कविता रची है। कविता में नारी चरित्र और उसके जीवन से जुड़ी समस्त घटनाओं को उसके तीन भावों हँसनारोना और प्रतिकार करना के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। कवयित्री ने हँसी और रुदन का इतना बारीकी से चित्रण किया है कि स्त्री को उसकी हँसी भी उतना ही सशक्त बनाती हैजितना उसका रुदन। कविता के अंतिम भाग में, जहाँ आम स्त्रियाँ (रमपतिया के परिवेश की) आँसू बहाती हैंवहाँ रमपतिया नारी चरित्र को सशक्त रूप से मुखरित करते हुए चीत्कार करती है, विरोध जताती है और अपने रुदन को अपनी असमर्थता और लाचारी नहीं बनने देती। एक साधारण सी स्त्री रमपतिया के माध्यम से गिरिजा जी ने जहाँ नारीजनित स्वाभाविक ईर्ष्या को जित्रित किया है वहीं उसके स्वाभाविक गुण प्रेम को भी उद्घाटित किया है और अपने सम्मान, स्वाभिमान और अधिकार के लिए संकोच छोड़ मजबूती के साथ सामना करने के लिए उठ खड़े होने वाले  चरित्र के साथ नारीत्व को शक्ति दी भी है।
इस कविता में माटी की गंध और गँवई मिज़ाज पैहम है। वह एक ऐसी स्त्री है जो जीवन के हर पल का आनंद उठाती है। उसकी हँसी निश्छल है, वह  भोली हैसरल है और जीवट वाली स्त्री है। वह जीवन के हर छोटे-बड़े पल को हँसकर जीना जानती है और उनका खुलकर आनन्द भी लेती है।
रमपतिया तुम हँसती थी
दिल खोल कर
एक बडी बुलन्द हँसी ।
छोटी-छोटी बातों पर ही
कविता के प्रारम्भ में इस ग्रामीणनिरक्षर स्‍त्री कीगली-नुक्कड़ तक गूँजती हँसी से हमारा परिचय होता है. किन्तु इस साधारण सी घटना के मध्य कवयित्री ने हौले से जीवन की उन दुरूह परिस्थितियों को भी पाठक के समक्ष रखा जिनके बीच आम आदमी हँसी की कल्पना भी नहीं कर सकता और यही उस नारी की विजय हैक्योंकि उसकी हँसी से
हो जाते थे शर्मसार
सारे अभाव और दुख ,चिन्ता कि
शाम को कैसे जलेगा चूल्हा
या कैसे चुकेगा रामधन बौहरे का कर्जा
बढते गर्भ की तरह चढते ब्याज के साथ ।
हम पाते हैं कि इन संघर्षों के बावज़ूद भी उसके चरित्र में संकोच का भावएक ग़रीबी का गर्वएक गंवईपन का स्वाभिमान है। गिरिजा जी ने अपनी कविता के लिए कोई भारी-भरकम विषय नहीं उठाया हैफिर भी उनकी इस कविता की यात्रा करते हुए हम पाते हैं कि उन्होंने कुछ ऐसा अवश्‍य कहा हैंजिसे नया न कहते हुए भी हल्‍का नहीं कहा जा सकता।
सरल, सहज रमपतिया इतनी हँस-मुख है कि कोई भी अभाव उसकी हँसी को म्लान नहीं कर पायाकारण अगर दिल को आघात पहुँचाने वाला हो तो वह रोती भी है। अपने किसी नजदीकी की मौत पर या फसल, जो गरीब के जीवन यापन का एक मात्र आधार है, या भले ही अपने पति द्वारा दिल को दुखाए जाने पर। हर बार रमपतिया ने अपने दुख को मुखर अभिव्यक्त करके अपने से पूरी तरह बाहर कर दिया और फिर पहले की तरह ही सहज हो गई। यहाँ नाली में फँसी पॉलीथीन बिम्ब बहुत स्वाभाविक प्रयोग है। जिस प्रकार नाली में जब पॉलीथीन फँस जाती है तो कचरा अन्दर ही जमा होने लगता है और जब तेज बहाव में वही पॉलीथीन एक झटके में निकलती है तो बहाव बहुत सहज हो जाता है। गहन दुख की भी स्थिति कुछ-कुछ वैसी ही है। वर्णन कवयित्री के शब्दों में ही देखें
तुम रोती थीं गला फाड कर
रुदन को आसमान तक पहुँचाने
तुम्हारे साथ रोतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत , गली मोहल्ला और पूरा..गाँव
उफनती थी आँसुओं की बाढ
नाली में फंसी पालीथिन की तरह
रुके हुए दर्द बह जाते थे
तेज धार में ।

ऐसा लगता है रमपतिया अचानक व्यक्तिवाचक संज्ञा से जातिवाचक संज्ञा हो जाती है और हर उस स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है जिसके आँसू दिल दुखने पर आसमान के परमात्मा तक पहुँचने की शक्ति रखते हों.
तीसरे भाग में नारी को प्रताड़ित करने वालों और उपेक्षिता समझने वालों को रमपतिया के माध्यम से दिखाया है कि वह हंसती है मगर हंसते हुए जुल्मअन्यायउपेक्षा और चरित्र पर आक्रमण नहीं सह सकती। वह रोती हैमगर आँचल में छिपकर आँसू नहीं बहाती.
चीख-चीख कर जगा देती थी
सोया आसमान ।
भर देती थी चूल्हे में पानी
जेंव लो रोटी|
मारलो
काट कर डाल दो
रमपतिया नही सहेगी
कोई भी मनमानी ।
और यही कविता की ऊंचाई है जो उस स्त्री के साथ परवान चढी है जिसका चरित्र एक कोमल ह्रदय नारी का भी है और अन्याय का विरोध करती चंडिका का भी!
रमपतिया,
ओ अनपढ देहाती स्त्री
काला अक्षर भैंस बराबर
पर मुझे लगता है कि उस हर स्त्री को
तुम्हारी ही जरूरत है जिसने
तुम्हारी तरह
नही जाना -समझा
अपने आपको आज तक
इस कविता की जो बात मुझे अच्छी लगी वह यह कि वह न तो ज़्यादा क्रांति की बात करती हैंन चटपट मज़ेदार कविता की रचना ही। स्त्री और उसका संघर्ष ही इसका बुनियादी लय है। परिवर्तन की बात है तो वह सिर्फ़ रस्मी जोश तक सीमित नहीं है। ये सब कुछ इनकी रचना में बुनियादी सवालों से टकराते हुए है। इनकी लेखनी से जो निकला है वह दिल और दिमाग के बीच खींचतान पैदा करता है। क्योंकि इन्होंने घिसते जाने के बीच अपने को सिरजने की और शोषण के प्रति उसके विरोध को उस स्त्री की जद्दोजहद को परिचित बिंबों से उतारा है।
इस कविता में एक ओर जहाँ उत्पीडनशोषणअनाचार और अत्याचार जैसी सामाजिक विसंगतियों के प्रति ध्यान आकृष्ट किया गया है तो दूसरी ओर मानवीय संवेदनाममत्व, दयाकारुण्य भाव एवं विद्रोह की भावना अत्यधिक प्रखर है। नारी मन की गहराईउसका अन्तर्द्वन्द्वनारी उत्पीड़नमान-अपमान में समान भावुक मन की उमंगे, संवेदनशीलतासहिष्णुता आदि पर काव्य में अभिव्यक्ति दी गई हैजो कि वस्तुतः सुलझी हुई वैचारिकता की प्रतीक है।
कविता में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी है। गिरिजा जी ने ग्रामीण स्त्री के जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। उनकी भा्षा काव्यात्मक हैलेकिन उसमें उलझाव नहीं है। कविता में प्रयोग किये गए परिवेश ग्रामीण हैं किन्तु दो जगह बड़ी सुंदरता से उन्होंने जिन बिम्बों का प्रयोग किया है वह उल्लेखनीय है. बढते गर्भ की तरह चढते ब्याज के साथ” तथा नाली में फंसी पालीथिन की तरह रुके हुए दर्द बह जाते थे” अपने आप में एक बेहतरीन प्रयोग है और अपना एक अलग मुहावरा रचती हैं। इस रचना की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं। इस कविता की स्थानिकता या ग्रामीण वातावरण इसकी सीमा नहीं हैइसकी ताक़त है। स्त्री जीवन के सामान्य घटनाक्रम के द्वारा इन्होंने जीवन के बड़े अर्थों को सम्प्रेषित करने की सच्ची कोशिश की है।
इस बदलते समय में सभ्‍यता की ऊपरी चमक-दमक के भीतर उजड़ती सभ्‍यतासूखती और सिकुड़ती संस्‍कृति की इस त्रासद स्थिति में कवि का कर्त्तव्‍य होता है कि वह उदात्त को नहींसाधारण को भी अपनी कविता में ग्रहण करे। यही आमजन सभ्‍यता और संस्‍कृति की नींव मजबूत रखते हैं । इसीलिए इस कविता में संवेदना का विस्तार व्‍यापक रूप से देखा जा सकता है।






33 टिप्‍पणियां:

  1. इतनी सशक्त रचनाकार से परिचय कराने का शुक्रिया.. वाकई हम तथाकथित सोफ्टिकेशन में घुटते रहते हैं और रमपतिया जैसी स्त्रियां अभाव में भी हमसे कहीं बेहतर स्थिति में होती हैं जो खुल कर हंस लेती हैं, रो लेती हैं, चीख चिल्ला लेती हैं.. यह नहीं सोचती कि हम ऐसा करें तो फलां क्या कहेगा.. लोग क्या कहेंगे। वाकई जबरदस्त और बहुत ही सहज, मन में उतरती कविता..

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  2. एक गंभीर रचना को एक गंभीर और संवदेनशील समीक्षक नए आयाम देता है। रचना की सफलता इसी बात में हैं कि वह विमर्श के नए दरवाजे खोलती है।

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  3. राजेश जी की बात ऐ सहमत हूँ,की ''एक गंभीर रचना को एक गंभीर और संवदेनशील समीक्षक नए आयाम देता है'' सुन्दर प्रस्तुति

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  4. जिस तरह सोने को परखने के एक अच्छे पारखी की नजर चाहिए,उसी तरह किसी रचना को परखने के लिए एक अच्छे समीक्षक की नजर से गुजरना जरूरी होता है,तभी वो रचना पुर्ण रूप खरी उतरती है,
    हरीश जी आपने इस रचना की समीक्षा कर पूरी तरह से इसाफ किया है....बधाई

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति,

    MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...

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    1. आदरणीय धीरेन्द्र जी!
      शायद आपने आलेख के प्रारम्भ में मनोज जी का चित्र तथा उनका नाम लिखा नहीं देखा.. यह समीक्षा मनोज जी ने की है हरीश जी ने नहीं.. वैसे हरीश जी स्वयं विद्वान व्यक्ति हैं.. आप जैसे वरिष्ठ और सजग पाठक से यह अपेक्षित नहीं है!!

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  5. कल सलिल जी की मार्फ़त इस कविता को पढ़ने का मौक़ा मिला. और पढकर वाकई लेखिका को नमन करने का दिल किया.
    एक बेहद सशक्त संवेदनशील और सटीक रचना के साथ वैसी ही समीक्षा करके आपने पूर्ण न्याय किया है.

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  6. kavita kee gahraaiyon tak phunchaya..aap jaise sahitykaron ke is tarah ke bishleshan se sahitya ke prati hamari soch ko naye aayam milte hain..samay samay par is tarak kee sammekshayein hame padhne ko milti rahengi..sadar pranam ke sath

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  7. kavita kee gahraaiyon tak phunchaya..aap jaise sahitykaron ke is tarah ke bishleshan se sahitya ke prati hamari soch ko naye aayam milte hain..samay samay par is tarak kee sammekshayein hame padhne ko milti rahengi..sadar pranam ke sath

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  8. पंक्ति दर पंक्ति आपने भावों को बड़ी ही सशक्‍तता के साथ व्‍यक्‍त किया है आपने इस समीक्षा में ..आभार ।

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  9. सार्थक समीक्षा!
    एक सशक्त रचना की आत्मा तक पहुँचाने हेतु आंच का आभार!

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  10. सच में झकझोरती उत्कृष्ट कविता और उम्दा समीक्षा . आभार .

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  11. गिरिजा जी के ब्लॉग पर पढ़ी ये कविता..............

    बेहद सशक्त लेखन.....
    आपकी समीक्षा आपका नजरिया इसकी ऊर्जा को और बढ़ा गया....

    बहुत बहुत शुक्रिया मनोज जी.

    सादर
    अनु

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  12. गिरिजा जी के ब्लॉग पर पढ़ी ये कविता..............

    बेहद सशक्त लेखन.....
    आपकी समीक्षा आपका नजरिया इसकी ऊर्जा को और बढ़ा गया....

    बहुत बहुत शुक्रिया मनोज जी.

    सादर
    अनु

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  13. गिरिजा जी को बहुत दिनों से पढ़ रहा हूँ.. इनकी कवितायें, कहानियां, लघु कथाएं और व्यक्तिगत संस्मरण बहुत संवेदनशील होते हैं.. लेकिन संवेदनाओं को अभिव्यक्त करते हुए इन्होने कभी भी अतिशयोक्ति का सहारा नहीं लिया.. वैसा ही कुछ इनकी इस कविता के भी साथ है.. जिस विषय पर शोर मचाते हुए बहुत कुछ कहा जा रहा हो वहाँ शांत भाव से, तार्किकता पूर्ण ढंग से इन्होने एक ग्रामीण स्त्री के माध्यम से पूर्ण सशक्तिकरण की बात कही है... अपनी जुबान में कहूँ तो यह कविता जितने बड़े मसले को छू रही है उस मुकाबले ज़रा भी 'लाउड' नहीं है. और यही इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता है..!!
    गिरिजा जी को धन्यवाद.. मनोज जी ने जो काम किया है वो भी इतने कम समय में (कल रात मैंने उनसे बहुत देर से कहा और आंच के लिये इस कविता पर उन्होंने तुरत हामी भर दी, यह कहते हुए कि मेरा आदेश नहीं टाल सकते..) उनकी समीक्षा ने इस कविता को चारचांद लगा दिए हैं.. कविता का निखार और भी खुलकर दमक रहा है!!
    बहुत दिनों बाद आंच में गर्मी आयी है!! बनाए रखें!!

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  14. यह एक शानदार कविता है जिसमें एक स्त्री और उसका ग्राम्य संसार अपनी पूर्णता के साथ मौजूद है। न कुछ उघारने का प्रयास,न ढंकने का। इसी सहजता के कारण रमपतिया उस स्त्री-समाज का प्रतिनिधित्व करती है जिसे जैसा होना चाहिए,वैसा वह नहीं है।

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  15. wakayee.....is baar sameekcha bahut achchi hui hai,kavita to achchi hai hi.

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  16. सच मे समीक्षा के लायक है कविता और स्त्री भाव और चरित्र की दृढता तथा स्त्री संसार का प्रतिनिधित्व करती रमपतिया के माध्यम से सच मे कवयित्री ने एक नया आयाम गढा है।

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  17. बढियां समीक्षा और इसके बहाने रचनाकार से भी साक्षात्कार!

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  18. यह कविता वास्तव में स्त्रीविमर्श को नया आयाम दे रही है... जहाँ स्त्री को बेहंद कमजोर दिखाने की प्रवृत्ति है वहीँ यह कविता हजारो स्त्रियों का प्रतिनिधित्व है जो समय के सभी झंझावातो का मुकाबला करती हैं... एक नई दिशा देती कविता... आंच की शोभा बढाती हुई...

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  19. बेहद संवेदनशील रचना ...!
    रचना तो सुंदर है ही किन्तु आपकी समीक्षा उसे और निखार देती है ,मनोज जी ...!बहुत बारीकी से आप गहन अर्थ समझ लेते हैं |जिस प्रकार एक अच्छी पेंटिंग को एक अच्छा फ्रेम मिल जाने से उसकी शोभा बढ़ जाती है उसी प्रकार एक अच्छी समीक्षा से कविता भी निखर जाती है ...!!
    कवि एवं समीक्षक दोनों को ही हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें .

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  20. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  21. बहुतदिनों बाद आंच सुलगी है .... एक बेहतरीन कविता की समीक्षा ले कर आई है ... सशक्त कविता और उतनी ही सुंदर समीक्षा ... बधाई ....और आभार इस रचना तक पहुंचाने के लिए

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  22. आनंद आ गया प्रभु...बहुत ही ज़ोरदार प्रस्तुति...

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  23. रमपतिया,एक ऐसा चरित्र जो घुट-घुट कर जीने के बजाय खुल कर अकुण्ठित जीवन जीता है.एक संदेश देती हुई कविता !
    परिचित कराने हेतु आभार १

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  24. बेहतरीन समीक्षा के बहाने रचनाकार से भी परिचय प्राप्त हुआ !
    आभार !

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  25. गिरिजा जी की कविता बहुत अच्छी लगी। मनोज जी की दृष्टि बहुत पैनी है। बेहतरीन कविता का चयन और उस पर विस्तृत एवं चर्चा के लिए आभार।

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  26. बचपन में कहीं पढा था कि कवि करोति कव्यान् रसं जानाति पंडितः-- इस उक्ति को यहाँ प्रत्यक्ष देख रही हूँ और यह भी कि मनोज जी ने कैसे एक साधारण रचना को असाधारण बना दिया है । वास्तव में कुछ लिखना तो आसान है पर उसका इतना सूक्ष्म विश्लेषण समीक्षक की गहन दृष्टि व व्यापक ज्ञान के बिना संभव नही । अपनी प्रशंसा पर मुझे आमतौर पर कभी विश्वास नही होता लेकिन यहाँ करने का मन हो रहा है ।वास्तव में मैंने लिखते समय इतना कुछ कहाँ सोचा था । हाँ टुकडों-टुकडों में कई स्त्रियाँ मेरे दिमाग में थीं जो समग्रतः रमपतिया के रूप में अचानक आईँ हैं । निश्चित ही किसी तथ्य का सोद्देश्य निष्कर्ष तक आना ही सबसे कठिन लगता है मुझे । मनोज जी ने समीक्षा द्वारा रमपतिया को जो जगह दी है ,उसके लिये धन्यवाद या आभार जैसे शब्द बहुत ही छोटे हैं ।यह तो मेरे लिये प्रेरणा है और उत्साह भी । इसी कारण कविता को और भी नए व सुधी पाठक मिल गए है । इसका पहला श्रेय सलिल जी को जाता है । यही नही उन्होंने स्वयं मुझे सूचित भी किया । उस समय में ग्वालियर में नही थी इसलिये यह समीक्षा पढ सकी हूँ ।

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    1. आभार गिरिजा जी।
      रचना इतनी अच्छी लगी कि हम अपने को रोक न पाए। आपने जो मान दिया है, उसके लिए दिल से शुक्रगुज़ार हूं।

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  27. मैं सभी प्रबुद्ध पाठकों की आभारी हूँ ।

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