फ़ुरसत में ... 121
निराशा ही निराशा
मनोज कुमार
कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है कि मैं निराशावादी होता जा रहा हूं। मुझे पता है कि निराशा बड़ी ख़तरनाक़ चीज़ है। फिर भी, मैं समाज, देश, परिवार के लिए कतई ख़तरनाक़ नहीं हूं। यह बात मुझे संतोष प्रदान करती है। जो आशावादी होते हैं, वे भी तो कभी-कभार ख़तरनाक़ मंसूबे पाल लेते हैं। दरसल उनकी महात्वाकांक्षा विशाल होती है। नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी आदि भी तो, आशावादी रहे होंगे। उनकी महात्वाकांक्षा ने क्या गुल खिलाया, यह किसी से छिपा है क्या? हां, मेरी निराशा, राष्ट्रीय या मानवीय मूल्यों में कुछ योगदान करने से मुझे वंचित किए दे रही है। जो भी हो मेरी विचारधारा तो ख़तरनाक़ होने से रही। ख़तरनाक़ होने के लिए साहसी होना ज़रूरी है और मेरी निराशा मुझे कुछ करने का साहस ही नहीं प्रदान करती।
यह कोई आज का रोग नहीं है। इसके लक्षण तो शायद शैशवकाल से ही मुझमें रहे होंगे। प्राथमिक कक्षाओं में किसी असाधारण क्षमता रहित मेरा प्रदर्शन घर-समाज के लोगों को यह चिंता करने पर विवश किया करता था कि ‘यह लड़का कैसा होता जा रहा है? हमारे ज़माने में तो ऐसा नहीं था।’ न जाने क्यूँ मैं किसी भी विषय पर अपना स्पष्ट मत नहीं रख पाता जो प्राय: मेरी कमज़ोरी मान ली जाती थी। दूसरी ओर जो बहस करता, वह उसकी विशेषता होती थी। मैं पिता, माता, गुरु, श्रेष्ठ की बातों को मानने में, जिसे लोग आमतौर पर हां-में-हां मिलाने की संज्ञा देते, विश्वास रखता था। समय के साथ यह मेरे व्यक्तित्व का निगेटिव फीचर बन गया। ... और आलोचक की निगाहों में मैं दब्बू! मेरा यही दब्बूपना मेरी निराशा का कारण बनता गया।
जो बहस करता, किसी की बात नहीं मानता, अपनी मनवाता, - वह एक्स्ट्रोवर्ट कहलाता और समाज में उसकी पूछ होती। मैं तो किसी बात पर प्रतिवाद करता ही नहीं। मुझे हर पल यही लगता कि मेरी जानकारी ही क्या है, जो मैं इस विषय पर कुछ बोलूं? मैं अख़बार पढ़ता नहीं था, घर में आता ही नहीं था। रेडियो सुनता था, पर फ़िल्मी गीत भर। विविध भारती का पंचरंगी प्रोग्राम मेरा फेवरिट था। अब उससे मेरा सामान्य ज्ञान तो बढ़ने से रहा। विशेष जयमाला फ़ौजी भाइयों के लिए होता था। उसे सुनते हुए हमेशा यह बोध होता कि देश की रक्षा के लिए सब कुछ त्याग देना ही सर्वोत्कृष्ट है। आज के छोटे-छोटे बच्चों को देखता हूं – वे अखबार पढ़ते हैं (अंग्रेज़ी के) टीवी देखते हैं – इंगलिश चैनल भी, रेडियो तो सुनते ही नहीं हैं, वह आउट ऑफ फैशन है, सुनते भी हों तो रेडियो मिर्ची। वीडियो गेम्स खेलते हैं, मोबाइल पर न जाने क्या-क्या करते रहते हैं, नेट और लैपटॉप उनकी आवश्यक आवश्यकताओं में शुमार हैं। यह सब देख कर मुझे लगता है कि मैंने अपना बचपन तो ढंग से जिया ही नहीं। मिट्टी में कबड्डी खेलना, डोलपात, गुल्ली-डंडा खेलना, .. यह जीना भी कोई जीना था लल्लू!! इन सब को याद करते ही मेरी निराशा और बढ़ जाती है। आज के बच्चे कौन बेटर पीएम होगा, जो ओबामा को सटीक (मुंह तोड़) जवाब देगा – पर बहस कर लेते हैं। मैंने तो मुखिया और सरपंच पर भी अपना मत कभी नहीं रखा। कितनी निराशाजनक स्थिति रही है मेरी।
घर का वातावरण भी वैसा ही था कि मेरी निराशा की लताएं पुष्पित-पल्लवित होती रहें। खेलने तक पर पाबंदी थी। ‘पढ़ो नहीं तो जीवन भर खेलते रह जाओगे’ का मंत्र हर वक़्त पढ़ाया जाता। यह बताया जाता कि चरित्र-निर्माण हमारी सबसे बड़ी पूंजी है। इन सब मंत्रों के चक्कर में हमने उसे ही अपना जीवन-लक्ष्य बना लिया। हालाँकि पढ़-लिखकर भी बस और बस पैसा कमाना कभी उद्देश्य ही नहीं रहा। आज के बच्चों का लक्ष्य बहुत स्पष्ट है – ऊंचा वेतन, ऐश-ओ-आराम का सामान, रुतबा, स्टेटस ... न जाने क्या-क्या! सूचना और जानकारी के इतने माध्यम उनकी मुट्ठी में हैं कि वे हर क़दम पर हमसे दो क़दम आगे हैं। आदर्श, सिद्धांत, नैतिकता गए ज़माने की बात हो गई है जबकि उनसे चिपक कर घोर निराशा में डूब गया हूं मैं।
निराशा के कारण अंधकार और असुरक्षा की भावना मुझमें कूट-कूट कर भर गई है। कई बार तो देखता हूं, जितना मैं कमाते हुए ख़र्च करता हूं, उससे ज़्यादा यह पीढ़ी बेरोज़गारी में फूँक देती है। वे क्रांति की, परिवर्तन की और अधुनिकीकरण की पहल ही नहीं करते, उसमें विश्वास भी रखते हैं। यह देख मुझे आजकल सिद्धांतों की व्यर्थता दिखने लगी है। स्वच्छ प्रशासन मांगने से मुझे डर लगता है। आजकल मैं आदर्शवादी के साथ-साथ त्यागवादी भी बन गया हूं। पर, आजतक मैं निराशा का त्याग नहीं कर पाया हूं।
मेरी निराशाओं ने मुझमें ढेर सारी कुंठाएं भर दी हैं। .. और इन कुंठाओं के सहारे मैं अपना जीवन जी रहा हूं। कुंठा सहित जीवन जीना भी एक कला है। लगता है इस कला में मैं पारंगत हो गया हूं। देश की महंगाई बढ़ती है – मैं निराश हो जाता हूं। अब कुछ नहीं होगा। हालात सुधर ही नहीं सकते। स्वच्छता अभियान से कुछ नहीं होगा। सब दिखावा है। गंदगी यूं ही फलती-फूलती रहेगी, बिखरी पड़ी रहेगी। मैं हाथ-पे-हाथ धरे बैठे हुए अपनी निराशा में जीता रहता हूं।
मॉल कल्चर के युग में भी मैं बीते युग को जी रहा हूं। इस कल्चर का अपना एक अलग आकर्षण है वहीं गांव की संस्कृति की भी अलग महँक है। संक्रमण का एक काल है यह। मैं बदलती परिस्थिति को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहा। त्याग तो कई किए पर इस निराशा का त्याग नहीं कर पा रहा। यह उस पूरी पीढ़ी की निराशा है या सिर्फ़ मेरी, कह नहीं सकता। कहने सुनने को बचा भी क्या है? आजकल तो बस मुकेश का यह गीत मैं अकसर गुनगुनाता रहता हूं,
तुम्हें ज़िन्दगी के उजाले मुबारक़
अंधेरे हमें आज रास आ गये हैं।
नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में फ़र्क़ तो है। पर इस फ़र्क़ का किसी को कोई मलाल नहीं। हमारी ज़िन्दगी तो सिर्फ़ पछताने में बीत गई। उस पछतावे से उपजी निराशा को सीने से लगाए मैं यह शे’र दुहराता रहता हूं,
अब ये भी नहीं ठीक के हर दर्द मिटा दें,
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं।