शनिवार, 22 नवंबर 2014

फ़ुरसत में ... 121 निराशा ही निराशा

फ़ुरसत में ... 121

निराशा ही निराशा

मनोज कुमार

कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है कि मैं निराशावादी होता जा रहा हूं। मुझे पता है कि निराशा बड़ी ख़तरनाक़ चीज़ है। फिर भी, मैं समाज, देश, परिवार के लिए कतई ख़तरनाक़ नहीं हूं। यह बात मुझे संतोष प्रदान करती है। जो आशावादी होते हैं, वे भी तो कभी-कभार ख़तरनाक़ मंसूबे पाल लेते हैं। दरसल उनकी महात्वाकांक्षा विशाल होती है। नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी आदि भी तो, आशावादी रहे होंगे। उनकी महात्वाकांक्षा ने क्या गुल खिलाया, यह किसी से छिपा है क्या? हां, मेरी निराशा, राष्ट्रीय या मानवीय मूल्यों में कुछ योगदान करने से मुझे वंचित किए दे रही है। जो भी हो मेरी विचारधारा तो ख़तरनाक़ होने से रही। ख़तरनाक़ होने के लिए साहसी होना ज़रूरी है और मेरी निराशा मुझे कुछ करने का साहस ही नहीं प्रदान करती।

यह कोई आज का रोग नहीं है। इसके लक्षण तो शायद शैशवकाल से ही मुझमें रहे होंगे। प्राथमिक कक्षाओं में किसी असाधारण क्षमता रहित मेरा प्रदर्शन घर-समाज के लोगों को यह चिंता करने पर विवश किया करता था कि ‘यह लड़का कैसा होता जा रहा है? हमारे ज़माने में तो ऐसा नहीं था।’ न जाने क्यूँ मैं किसी भी विषय पर अपना स्पष्ट मत नहीं रख पाता जो प्राय: मेरी कमज़ोरी मान ली जाती थी। दूसरी ओर जो बहस करता, वह उसकी विशेषता होती थी। मैं पिता, माता, गुरु, श्रेष्ठ की बातों को मानने में, जिसे लोग आमतौर पर हां-में-हां मिलाने की संज्ञा देते, विश्वास रखता था। समय के साथ यह मेरे व्यक्तित्व का निगेटिव फीचर बन गया। ... और आलोचक की निगाहों में मैं दब्बू! मेरा यही दब्बूपना मेरी निराशा का कारण बनता गया।

जो बहस करता, किसी की बात नहीं मानता, अपनी मनवाता, - वह एक्स्ट्रोवर्ट कहलाता और समाज में उसकी पूछ होती। मैं तो किसी बात पर प्रतिवाद करता ही नहीं। मुझे हर पल यही लगता कि मेरी जानकारी ही क्या है, जो मैं इस विषय पर कुछ बोलूं? मैं अख़बार पढ़ता नहीं था, घर में आता ही नहीं था। रेडियो सुनता था, पर फ़िल्मी गीत भर। विविध भारती का पंचरंगी प्रोग्राम मेरा फेवरिट था। अब उससे मेरा सामान्य ज्ञान तो बढ़ने से रहा। विशेष जयमाला फ़ौजी भाइयों के लिए होता था। उसे सुनते हुए हमेशा यह बोध होता कि देश की रक्षा के लिए सब कुछ त्याग देना ही सर्वोत्कृष्ट है। आज के छोटे-छोटे बच्चों को देखता हूं – वे अखबार पढ़ते हैं (अंग्रेज़ी के) टीवी देखते हैं – इंगलिश चैनल भी, रेडियो तो सुनते ही नहीं हैं, वह आउट ऑफ फैशन है, सुनते भी हों तो रेडियो मिर्ची। वीडियो गेम्स खेलते हैं, मोबाइल पर न जाने क्या-क्या करते रहते हैं, नेट और लैपटॉप उनकी आवश्यक आवश्यकताओं में शुमार हैं। यह सब देख कर मुझे लगता है कि मैंने अपना बचपन तो ढंग से जिया ही नहीं। मिट्टी में कबड्डी खेलना, डोलपात, गुल्ली-डंडा खेलना, .. यह जीना भी कोई जीना था लल्लू!! इन सब को याद करते ही मेरी निराशा और बढ़ जाती है। आज के बच्चे कौन बेटर पीएम होगा, जो ओबामा को सटीक (मुंह तोड़) जवाब देगा – पर बहस कर लेते हैं। मैंने तो मुखिया और सरपंच पर भी अपना मत कभी नहीं रखा। कितनी निराशाजनक स्थिति रही है मेरी।

घर का वातावरण भी वैसा ही था कि मेरी निराशा की लताएं पुष्पित-पल्लवित होती रहें। खेलने तक पर पाबंदी थी। ‘पढ़ो नहीं तो जीवन भर खेलते रह जाओगे’ का मंत्र हर वक़्त पढ़ाया जाता। यह बताया जाता कि चरित्र-निर्माण हमारी सबसे बड़ी पूंजी है। इन सब मंत्रों के चक्कर में हमने उसे ही अपना जीवन-लक्ष्य बना लिया। हालाँकि पढ़-लिखकर भी बस और बस पैसा कमाना कभी उद्देश्य ही नहीं रहा। आज के बच्चों का लक्ष्य बहुत स्पष्ट है – ऊंचा वेतन, ऐश-ओ-आराम का सामान, रुतबा, स्टेटस ... न जाने क्या-क्या! सूचना और जानकारी के इतने माध्यम उनकी मुट्ठी में हैं कि वे हर क़दम पर हमसे दो क़दम आगे हैं। आदर्श, सिद्धांत, नैतिकता गए ज़माने की बात हो गई है जबकि उनसे चिपक कर घोर निराशा में डूब गया हूं मैं।

निराशा के कारण अंधकार और असुरक्षा की भावना मुझमें कूट-कूट कर भर गई है। कई बार तो देखता हूं, जितना मैं कमाते हुए ख़र्च करता हूं, उससे ज़्यादा यह पीढ़ी बेरोज़गारी में फूँक देती है। वे क्रांति की, परिवर्तन की और अधुनिकीकरण की पहल ही नहीं करते, उसमें विश्वास भी रखते हैं। यह देख मुझे आजकल सिद्धांतों की व्यर्थता दिखने लगी है। स्वच्छ प्रशासन मांगने से मुझे डर लगता है। आजकल मैं आदर्शवादी के साथ-साथ त्यागवादी भी बन गया हूं। पर, आजतक मैं निराशा का त्याग नहीं कर पाया हूं।

मेरी निराशाओं ने मुझमें ढेर सारी कुंठाएं भर दी हैं। .. और इन कुंठाओं के सहारे मैं अपना जीवन जी रहा हूं। कुंठा सहित जीवन जीना भी एक कला है। लगता है इस कला में मैं पारंगत हो गया हूं। देश की महंगाई बढ़ती है – मैं निराश हो जाता हूं। अब कुछ नहीं होगा। हालात सुधर ही नहीं सकते। स्वच्छता अभियान से कुछ नहीं होगा। सब दिखावा है। गंदगी यूं ही फलती-फूलती रहेगी, बिखरी पड़ी रहेगी। मैं हाथ-पे-हाथ धरे बैठे हुए अपनी निराशा में जीता रहता हूं।

मॉल कल्चर के युग में भी मैं बीते युग को जी रहा हूं। इस कल्चर का अपना एक अलग आकर्षण है वहीं गांव की संस्कृति की भी अलग महँक है। संक्रमण का एक काल है यह। मैं बदलती परिस्थिति को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहा। त्याग तो कई किए पर इस निराशा का त्याग नहीं कर पा रहा। यह उस पूरी पीढ़ी की निराशा है या सिर्फ़ मेरी, कह नहीं सकता। कहने सुनने को बचा भी क्या है? आजकल तो बस मुकेश का यह गीत मैं अकसर गुनगुनाता रहता हूं,

तुम्हें ज़िन्दगी के उजाले मुबारक़

अंधेरे हमें आज रास आ गये हैं।

नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में फ़र्क़ तो है। पर इस फ़र्क़ का किसी को कोई मलाल नहीं। हमारी ज़िन्दगी तो सिर्फ़ पछताने में बीत गई। उस पछतावे से उपजी निराशा को सीने से लगाए मैं यह शे’र दुहराता रहता हूं,

अब ये भी नहीं ठीक के हर दर्द मिटा दें,

कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं।

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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

गांधी जयंती और स्वच्छता अभियान

गांधी जयंती और स्वच्छता अभियान 

1886

गांधी जी तब सत्ताइस वर्ष के थे। उन्हें पता लगा कि बम्बई (मुंबई) में ब्यूबोनिक प्लेग की महामारी फूट पड़ी। चारों तरफ़ घबराहट फैल गई। पूरे पश्चिम भारत में आतंक छा गया। जब बम्बई में प्लेग फैला तो राजकोट में भी खलबली मच गई। यह आवश्यक हो गया कि राजकोट में निवारक उपाय किए जाएं। गांधी जी ने हर बार की तरह इस बार भी सरकार को आरोग्य विभाग में अपनी सेवाएं अर्पित करने की इच्छा, पत्र द्वारा जता दीं। सार्वजनिक सेवा गांधी जी की राजनीति का मुख्य अंग थी। वे जनसेवा और देवाराधना में कोई व्यवधान न देखते थे। उनकी ईश्वरभक्ति जनता जनार्दन की सेवा थी।

उन्हें सनिटरी विजिटर्स कमिटी का सदस्य बना दिया गया। वे सार्वजनिक सेवा कार्य में जुट गए। सफ़ाई की सुचारु व्यवस्था में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। राजकोट नगर की आरोग्य रक्षा के लिए उन्होंने घर-घर और घर-बाहर की सफ़ाई का कार्यक्रम अपनाया। यह उन्हें काफ़ी रुचिकर काम लगा। गांधी जी ने शौचालय की सफ़ाई पर ज़ोर दियाउन्होंने कहा कि यही वह जगह जो इस बीमारी के फैलने का घर है।

शौचालयों का निरीक्षण

कमेटी ने निश्चय किया कि गली-गली जाकर शौचालयों का निरीक्षण किया जाए। पहली बार उन्हें भारतीय घरों में शौचालयों और सफ़ाई व्यवस्था को देखने का मौक़ा मिला था। अपने दौरों में उन्हें पता चला कि समृद्ध लोगों के घर, अत्यंत ग़रीब लोगों और विशेषकर अछूतों के घरों की तुलना में, कम साफ़ थे। उन दिनों अछूत माने जाने वाले लोगों को पहली बार उन्होंने उनके घरों में देखा। ग़रीब लोगों ने अपने शौचालय का निरीक्षण करने देने में बिल्कुल आनाकानी नहीं की। कुछ धनाढ़्य लोगों के शौचालयों और मूत्रालयों के बारे में उन्होंने लिखा है कि उच्चतम वर्ण के हिन्दू, ऐसी स्थायी सड़ांध में रह, खा और सो सकते होंगे, ऐसा सोचा न था। कई लोगों ने तो घरों का मुआयना करने की इज़ाज़त तक न दी। उनके शौचालय अधिक गन्दे थे, उनमें अंधेरा था, कुड्डी पर कीड़े बिलबिलाते थे। जीते-जी रोज़ नरक में प्रवेश करने जैसी स्थिति थी।

भारतीय समाज के अपने सुधार कार्य में उन्हें भविष्य में भी कई बड़े लोगों के कम सहयोग और अधिक प्रतिरोध का अनुभव होना था। बाद के दिनों में जब उन्होंने सुधार कार्यक्रमों को हाथ में लिया तो अपने सहकर्मियों से मल-मूत्र की टंकियों को साफ़ करने को कहते। उनका मानना था कि यह जातिप्रथा की जकड़न से हमे आज़ाद करेगा। उनका यह भी मानना था कि कोई काम खराब नहीं होता।

भंगी की बस्ती में

कमेटी भंगी की बस्ती में भी गई। गांधी जी के साथ सिर्फ़ एक सदस्य गया, अन्य कोई गण्यमान्य व्यक्ति नहीं गया। अन्य सदस्यों को लगा कि वहां जाना अनर्थक है। पर गांधी जी को भंगियों की बस्ती देखकर सानन्द आश्चर्य हुआ। भंगी लोगों को भी गांधी जी को वहां देख कर अचम्भा हुआ। जब गांधी जी ने शौचालय देखने की इच्छा ज़ाहिर की तो उनमें से एक ने कहा, “हमारे यहां शौचालय कैसे? हमारे शौचालय तो जंगल में हैं। शौचालय तो आप बड़े आदमियों के यहां होते हैं।”

गांधी जी ने पूछा, “तो क्या आप अपने घर हमें देखने देंगे?”

“आइए न भाई साहब! जहां भी आपकी इच्छा हो, जाइये। ये ही हमारे घर हैं।”

जब वे अन्दर गए और घर तथा आंगन की सफ़ाई देखा तो ख़ुश हो गए। घर के अन्दर सब लिपा-पुता देखा। आंगन झाड़ा-बुहारा था। बरतन चमचमा रहे थे। गांधी जी को उस बस्ती में बीमारी फैलने का डर नहीं दिखाई दिया।

वैष्णव मंदिर में

वे उस वैष्णव मंदिर भी गए, जहां उनकी मां पुतली बाई देव-दर्शन के लिए नित्य-नियम से जाती थीं। वहां गए बिना मां अन्न ग्रहण नहीं करती थीं। मंदिर के पुजारी ने उनका स्वागत किया। मंदिर के अहाते का कोना-कोना उन्होंने देखा। उन्हें देख कर दुख हुआ कि एक कोने में जूठी पत्तलों के ढ़ेर थे। वह भाग कौऔं और चीलों का अड्डा बन गया था। देव भूमि के आंचल में ही कूड़ाघर बन गया था। इस तरह के पवित्र स्थल पर तो आरोग्य के नियमों का अधिक से अधिक पालान होने की आशा रखी जाती है। गांधी जी को यह देखकर दुख हुआ कि जिस देश की सदियों से प्रथा रही हो अपना अंदर-बाहर को स्वच्छ रखने की वहां के लोग इस विषय में इतने असावधान और उदासीन हो गए हैं।

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शौचालय एवं मूत्रालय की सफाई

1901

जब गांधी जी दक्षिण अफ़्रीका से भारत पहुंचे, उसी समय देश की राजधानी कलकत्ते में उस साल (1901, दिसम्बर) दिनशॉ एदलजी वाच्छा की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस महासभा का 17वां वार्षिक अधिवेशन हो रहा था। गांधी जी को लगा कि चूंकि कलकत्ते में सारे दिग्गजों का जमावड़ा होगा इसलिए शायद वहां भारत की नब्ज़ पकड़ में आ जाए। इसी सोच के साथ गांधी जी ने उस अधिवेशन में जाना तय किया। वहां आए प्रतिनिधि भी कुछ कम नहीं थे। उन्हें भी तो इतने ही दिन मिलते थे कुछ सीखने को। कांग्रेस के कामकाज के ढ़ंग ने गांधीजी को प्रभावित नहीं किया। उन्हें प्रतिनिधियों के बीच एकता की कमी का एहसास हुआ। वे अंग्रेजी में वार्तालाप कर रहे थे। उनके हावभाव एवं बातचीत में पाश्‍चात्य शैली टपक रही थी। वे अपने हाथ से कोई काम नहीं करते। सब बातों में उनके हुक्म निकलते, “स्वयंसेवक यह लाओ; स्वयं सेवक वह लाओ”। ऊपर से डेलिगेट की छुआछूत और खानपान की लंबी-चौड़ी व्यवस्था, दकियानुसी रंग-ढंग देख कर गांधी जी को बड़ा आश्चर्य हुआ, साथ ही दुख भी। छुआ-छूत को मानने वाले वहां बहुत से लोग उपस्थित थे। द्राविड़ी रसोई बिल्कुल अलग थी। उन प्रतिनिधियों को तो ‘दृष्टिदोष’ भी लगता था। उनके लिए कॉलेज के अहाते में चटाइयों का रसोईघर बनाया गया था। उसमें धुआं इतना रहता था कि आदमी का दम घुट जाए। खाना-पीना सब उसी के अन्दर। वह रसोईघर क्या था, एक तिजोरी थी। वह कहीं से भी खुला न था।

यह सब गांधी जी को चिंता में डाल रहा था। कांग्रेस में आनेवाले प्रतिनिधि जब इतनी छुआछूत मानते थे, तो उन्हें भेजने वाले लोग कितनी रखते होंगे? ऊपर से गंदगी की हद नहीं थी। कैम्प की अनिवार्य ज़रूरतों, जैसे साफ-सफाई आदि की तरफ किसी का जरा भी ध्यान नहीं था। शौचालय जाम था और चारों तरफ़ मल और पानी ही पानी फैल रहा था। शौचालयों की संख्य़ा ज़रूरत से कम थी। दुर्गन्ध चारों तरफ़ फैल रही थी। एक स्वयंसेवक को गांधी जी ने गन्दगी दिखाई। उसने कहा यह काम तो भंगी का काम है। गांधीजी उन्हें सबक सिखाना चाहते थे। उनसे गंदगी और बदबू सहन नहीं हुई। बहुत परिश्रम से उन्होंने एक झाड़ू खोज निकाला। चुपचाप उन्होंने शौचालय एवं मूत्रालय की सफाई शुरु कर दी। पर यह साफ़-सफ़ाई तो उनकी अपनी सुविधा के लिए हुई थी। भीड़ इतनी अधिक थी और शौचालय इतने कम कि हर बार के उपयोग के बाद उनकी सफ़ाई होनी ज़रूरी थी। वह काम गांधी जी अकेले तो कर नहीं पाते। यदि उनका वश चलता तो शौचालयों की सफ़ाई वे स्वयं ही करते, लेकिन उन्हें उसी शौचालय की सफ़ाई पर ही संतोष करना पड़ा, जिसे वे स्वयं इस्तेमाल कर रहे थे। गांधी जी ने अपने लिए तो वह काम कर लिया और उन्होंने यह पाया कि वहां आए लोगों को वह गन्दगी ज़्यादा अखरती भी नहीं थी।

लोगों की सफ़ाई का स्तर इतना गिरा हुआ था कि कि प्रतिनिधिगण रात में कमरे के बाहर सामने वाले बरामदे में ही टट्टी-पेशाब कर देते थे। उठने-बैठने, चलने-फिरने की जगह पर ऐसी गंदगी और बदबू थी की वहां रहना असह्य था। सवेरे गांधी जी ने स्वयंसेवकों को मैला दिखाया, पर कोई उसे साफ़ करने को तैयार न था। गंधी जी उसे साफ़ करने लगे।

लोगों ने उनसे पूछा, आप क्यों अछूतों का काम कर रहें हैं?”

गांधीजी का जवाब था क्योंकि सवर्ण लोगों ने इस जगह को अछूत बना दिया है

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शनिवार, 27 सितंबर 2014

फ़ुरसत में - शब्द

फ़ुरसत में – 120

सिर्फ-एक-शब्द2शब्द

निर्मित्तं किंचिदाश्रित्य खलु शब्दः प्रवर्तते।

यतो वाचो निवर्तन्ते निमित्तानामभावतः॥

निर्विशेषे परानन्दे कथं शब्दः प्रवर्तते।

(कठरुद्रोपनिषद्‌)

  • अर्थात्‌ शब्द की प्रवृत्ति किसी निमित्त को लेकर होती है। परम तत्त्व में निमित्त का अभाव होने से वाणी वहां से लौट आती है। जो निर्विशेष, परम आनन्दस्वरूप ब्रह्म है, वहां शब्द की प्रवृत्ति कैसे हो?
  • कहते हैं इस सृष्टि की रचना शब्द से हुई। कोई ब्रह्मनाद इस ब्रह्मांड में गूंजा, फिर उसने रूप धरना शुरु किया।
  • शब्दों में बड़ी शक्ति होती है। शब्द बहुत गहरा प्रभाव उत्पन्न करते हैं। जहां एक ओर एकाग्र-चिन्तन वांछित फल देता है, वही दूसरी ओर शब्द पाकर दिमाग उडने लगता है । इसलिए हम जब भी कुछ कहें, यह समझ कर कहें कि वे हमारे बोले गए शब्द क्या प्रभाव पैदा करेंगे। प्रेम से बोला गया एक शब्‍द भी अनेक दु:खी आत्‍माओं को शान्ति प्रदान कर सकता है।
  • शब्द विचारों के वाहक हैं। ये हमारे व्यक्तित्व और विचार दोनों बनाते हैं। हमारे बाहर ही नहीं, हमारे भीतर भी शब्द गूंजते हैं। हमारे भीतर क्या गूंज रहा है, हमारा व्यक्तित्व इसी पर निर्भर करता है।
  • महात्मा गांधी ने कहा था, “शब्दों में चमत्कार भरा होता है। शब्द भावना को देह देता है और भावना शब्द के सहारे साकार बनती है।”
  • हमें याद रखना चाहिए, अच्छे कर्मों से शरीर संवरता है और अच्छे विचारों से मन। अप्रिय शब्द पशुओं को भी नहीं सुहाते हैं, जबकि नरम शब्दों से सख्त दिलों को जीता जा सकता है। आखिर कोमल शब्द कठोर तर्क जो होते हैं (Soft words are hard arguments)।
  • महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य में कहा है, ‘एकः शब्दः सम्यग्‌ ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग्‌ भवति।’ अर्थात्‌ एक भी शब्द यदि सम्यक्‌ रीति से ज्ञात हो तथा सुप्रयुक्त हो तो वह इस लोक में और स्वर्ग में मनोरथ पूर्ण करने वाला होता है।
  • शब्द नामक ज्योति सारे संसार को प्रकाशित करती है। गुरुनानक देव जी ने कहा है,

शब्दे धरती, शब्द आकास,

शब्द-शब्द भया परगास।

सगली सृस्ट शब्द के पाछे,

नानक शब्द घटे घट आछे।

  • शब्द ने पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा सारी दुनिया पैदा की है। यही शब्द सबके भीतर अपनी धुनकारें दे रहा है। गोरखनाथ ने कहा है,

सबदहिं ताला सबदहिं कूंचि, सबदहिं सबद जगाया।

सबदहिं सबद परचा हूआ, सबदहिं सबद समाया॥

  • सारे साधु-संतों ने आध्यात्म को समझने के लिए अपने-अपने शब्द दिए हैं। गुरु नानक देव जी ने कहा है, ‘सबदु बीचारि भउसागरु तरै’ – शब्द को विचारने से भवसागर को पार किया जा सकता है।
  • जो जबान से निकलता है सिर्फ़ वही शब्द नहीं हैं। यह तो एहसास का मामला है। रज्जब ने कहा है,

वेद सूं बाणी कूप जल दुख सूं प्रापत्ति होई।

सबद साखि सरवर सलिल सुख पीबै सब कोई॥

  • हम हमारे शरीर के भीतर भी शब्द की अनुभूति करते हैं। जब हम ध्यान करते हैं तो मंत्र (शब्द) गूंज बनकर नाद उत्पन्न करते हैं। यही भीतरी अनुगूंज हमारे ध्यान में उतरती है।
  • धरनीदास की बानी में कहा गया है,

सब्दु सकल घट ऊचरे, धरनी बहुत प्रकार।

जो जाने निज सब्द को, तासु सब्द टकसार॥

  • जैसा शब्द हमारे भीतर गूंजता है, हम वैसे ही हो जाते हैं। जिसे परमात्मा की तलाश होती है उसके मन में परमात्मा के शब्द गूंजते हैं। जिसे भौतिक और दैहिक सुख की तलाश रहती है उसके मन में भौतिक इच्छाओं की गूंज रहती है।
  • आपके मुख से उच्‍चारित सभी शब्‍दों में से कितने शब्‍द परमात्‍मा के प्रति होते हैं? परमात्मा को पाने के लिए हम जब व्याकुल होते हैं और उस व्याकुलता में, उस छटपटाहट में जो शब्द उच्चरित होते हैं, वे नाम जप बन जाते हैं। इसकी पुनरावृत्ति से, निरंतरता से, साधना से एक दिन परमात्मा उपलब्ध हो जाते हैं।
  • जैनेन्द्र जी की मानें तो, “शब्द बड़ी साधना से उठ पाते हैं; उन्हें गिराने की चेष्टा नहीं होनी चाहिए”।

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मंगलवार, 23 सितंबर 2014

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की 106वीं जयंती पर

images (2)रामधारी सिंह ‘दिनकर’

जन्म : रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार के मुंगेर (अब बेगूसराय) ज़िले के सिमरिया गांव में बाबू रवि सिंह के घर 23 सितम्बर 1908 को हुआ था।

शिक्षा और कार्यक्षेत्र : ढाई वर्ष की उम्र में पिता जी का देहांत हो गया। गांव से लोअर प्राइमरी कर मोकामा से मैट्रिक किया। 1932 में पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज से इतिहास में बी.ए. (प्रतिष्ठा) की परीक्षा पास करने के बाद वे कुछ दिनों के लिए बरबीघा उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक का काम किए। उसके बाद सरकारी नौकरी में चले आए और निबन्धन विभाग के अवर-निबंधक के रूप में 1934 से 1942 तक रहे। 1943 से 1945 तक सांग पब्लिसिटी ऑफीसर, फिर जनसम्पर्क विभाग के उपनिदेशक पद पर 1947 से 1950 तक रहे। उसके बाद उन्होंने 1950 से 1952 तक लंगट सिंह महाविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर के हिन्दी प्रध्यापक के अध्यक्ष पद को संभाला।

स्वंत्रता मिली और पहली संसद गठित होने लगी तो वे कांग्रेस की ओर से भारतीय संसद के सदस्य निर्वाचित हुए और राज्यसभा के सदस्य के रूप में 1952 से 1963 तक रहे। 1963 से 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। अंततः 1965 से 1972 तक भारत सरकार के गृह-विभाग में हिन्दी सलाहकार के रूप में हिन्दी के संवर्धन और प्रचार-प्रसार के लिए काफ़ी काम किया।

पुरस्कार व सम्मान :

१. कुरूक्षेत्र के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार सम्मान मिला

२. ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया।

३. 1959 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें पद्म विभूषण से किया विभूषित किया।

४. भागलपुर विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने इन्हें डी. लिट. की मानद उपाधि प्रदान की।

५. 1972 में ‘उर्वशी’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

मृत्यु : 24 अप्रैल 1974 को हृदय गति रुक जाने से उनका देहांत हो गया।

:: प्रमुख रचनाएं ::

:: काव्य रचनाएँ :: चक्रवाल, रेणुका , हुंकार, द्वन्द्वगीत, रसवंती, सामधेनी, कुरुक्षेत्र, बापू, धूप और धुआं, रश्मिरथी, नील कुसुम, नये सुभाषित, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार,आत्मा की आंख, हारे को हरिनाम, संचयिता तथा रश्मि लोक।

:: गद्य रचनाएं :: मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर, भारतीय संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध कविता की खोज, रेती के फूल, उजली आग, काव्य की भूमिका, प्रसाद, पंत और मैथिली शरण गुप्त, लोकदेव नेहरू, हे राम, देश-विदेश, साहित्यमुखी।

:: साहित्यिक योगदान ::

‘दिनकर’ जी के मानस पर तुलसीदास जी के ‘रामचरितमानस’ और मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं का काफ़ी प्रभाव पड़ा। देश का स्वतंत्रता संग्राम, विश्व-स्तर पर स्वातन्त्र्य-कामियों के संघर्ष, गांधी जी के कार्य और विचार, लेनिन के नायकत्व में निष्पादित क्रान्ति, भगत सिंह की और गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादतें, स्वामी सहजानन्द सरस्वती का किसान आन्दोलन, स्वामी विवेकानन्द, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, द्वितीय विश्वयुद्ध, आदि ने उनके मन पर गहरी छाप छोप छोड़ा।

‘दिनकर’ जी का मुख्य आधार है कविता। बारदोली सत्याग्रह के दौरान उनकी सर्वप्रथम प्रकाशित रचना ‘बारदोली विजय’ रीवां (मध्य प्रदेश) की ‘छात्र-सहोदर’ नामक पत्रिका में छपी थी, जिसमें राष्ट्रीयता के गीत थे।

1929 में पुस्तक रूप में ‘प्रणभंग’ नामक पहला खण्ड-काव्य प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने लिखा था,

तोड़ी प्रतिज्ञा कृष्ण ने, विजयी बनाने पार्थ को

अघ ने क्या, नय छोड़ना लखकर स्वजन के स्वार्थ को।

‘रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर,

पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।’

पंक्तियों के रचयिता राष्ट्रकवि के रूप में प्रसिद्ध दिनकर जी को राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रान्ति का उद्गाता माना जाता है। उन्होंने आज़ादी के आंदोलन के दौतान लिखना शुरु किया था। ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘सामधेनी’ आदि की कविताएं स्वतंत्रता सेनानियों के लिए बड़ी प्रेरक साबित हुईं।

श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,

मां की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।

युवती के लज्जा-वसन बेच जब व्याज चुकाये जाते हैं,

मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं,

पापी महलों का अहंकार तब देता मुझको आमंत्रण,

झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

1935 में प्रकाशित ‘रेणुका’ में ‘दिनकर’ जी के राष्ट्रीय चेतना के प्रखर स्वर के साथ ही रोमांटिकता और कोमल भावनाओं की क्षीण धारा भी प्रकट हुई है।

फूलों की क्या बात? बांस की हरियाली पर मरता हूं।

अरी दूब, तेरे चलते, जगती का आदर करता हूं।

वह कोमल भावना ‘रसवन्ती’ में सुविकसित होती है। यह इनकी वैयक्तिक भावनाओं से युक्त श्रृंगार परक काव्य-संग्रह है।

पड़ जाता चस्का जब मोहक, प्रेम-सुधा पीने का,

सारा स्वाद बदल जाता है, दुनिया में जीने का।

मंगलमय हो पंथ सुहागिनी, यह मेरा वरदान,

हरसिंगार की टहनी-से, फूलें तेरे अरमान।

वही कोमल भावना ‘उर्वशी’ के रूप में मनमोहिनी सिद्ध हुई। ‘उर्वशी’ हिन्दी साहित्य का गौरव-ग्रन्थ है। यह कामाध्यात्म संबंधी महाकाव्य है, जिसमें प्रेम या काम भाव को आध्यात्मिक भूमि पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है।

जब से हम-तुम मिले, न जानें कितने अभिसारों में

रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है,

जानें, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से,

अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आयी है।

राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय स्वाभिमान का सबसे ज्वलन्त रूप प्रकट हुआ है उनकी सुविख्यात लम्बी कविता ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में। इसमें कवि ने राष्ट्रीय गौरव की रक्षा के लिए भारतीय जनता के शौर्यभाव को जगाने के लिए अत्यंत ओजभाव से युक्त वाणी का प्रयोग किया है।

वे देश शांति के सबसे शत्रु प्रबल हैं,

जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं,

हैं जिनके उदर विशाल, बांह छोटी है,

भोथरे दांत, पर जीभ बहुत मोटी है।

औरों के पाले जो अलज्ज पलते हैं,

अथवा शेरों पर लदे हुए चलते हैं।

युद्ध और शान्ति की समस्या का द्वन्द्व ‘कुरुक्षेत्र’ में व्यक्त हुआ है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो

उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो

गद्य में भी वे अप्रतिम रहे हैं। उनका गहन अध्ययन और सुगम्भीर चिन्तन गद्य में मार्मिक अभिव्यक्ति पाता है। उनके गद्यों में विषयों की विविधता और शैली की प्रांजलता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। उनका गद्य साहित्य काव्य की भांति ही अत्यंत सजीव और स्फ़ूर्तिमय है तथा भाषा ओज से ओत-प्रोत। उन्होंने अनेकों अनमोल ग्रंथ लिखकर हिन्दी साहित्य की वृद्धि की। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ‘संस्कृति के चार अध्याय’ एक महान ग्रंथ है। इसमें उनकी गहन गवेषणा, सूक्ष्म अन्वेषण, भारतीय संस्कृति से उद्दाम प्रेम प्रकट हुआ है।

मानवता के प्रति प्रतिबद्धता, दलितों की दुर्दशा पर उत्साहपूर्ण रोष, गहन भारत-प्रेम और भारत-धर्म के परिपूर्णतम अभिव्यक्ति उनके साहित्य के सुन्दरतम लक्षण हैं।

दलित हुए निर्बल सबलों से, मिटे राष्ट्र उजड़े दरिद्र जन,

आह! सभ्यता आज कर रही असहायों का शोणित शोषण।

क्रान्ति-धात्रि कविते! जाग उठ, आडम्बर में आग लगा दे;

पतन, पाप, पाखण्ड जलें, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।

उन्होंने काव्य, संस्कृति, समाज, जीवन आदि विषयों पर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं।

ऋण-शोधन के लिए दूध-घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे,

बूंद-बूंद बेचेंगे, अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे।

शिशु मचलेंगे, दूध देख, जननी उनको बहलाएगी,

मैं फाड़ूंगा हृदय, लाज से आंख नहीं रो पायेगी।

इतने पर भी धनपतियों की उनपर होगी मार,

तब मैं बरसूंगी बन बेबस के आंसू सुकुमार।

उनका अन्तिम कविता-संग्रह ‘हारे को हरि नाम’ 1971 में प्रकाशित हुआ।

आधुनिक हिन्दी काव्य के पुरोधा, मिट्टी की सुगंध के अमर गायक, प्राची के आलोकधन्वा और युगधर्म की हुंकार राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की रचनाओं का स्वर युगधर्म की हुंकार माना जा सकता है। छायावाद की कुहेलिका को चीरकर आधुनिक हिन्दी काव्य कमल को जीवन की वास्तविकता एवं मिट्टी की गंध से परिपूरित करने वाले मानवतावादी ‘दिनकर’ ने दलितों, पीड़ितों के उद्धार का आदर्श भी प्रस्तुत किया है। वस्तुतः यही वह मूल प्रयोजन है जो आधुनिक युग जीवन को गौरव और अर्थकत्ता प्रदान करता है। साथ ही आर्थिक विषमता, रंगभेद, नीति, जाति, कुल सम्प्रदाय एवं साम्राज्यवाद से पीड़ित विश्व-मानव से रिश्ता जोड़ता है।

सोमवार, 22 सितंबर 2014

सत्याग्रह का आंदोलन फिर से …

गांधी और गांधीवाद-159

सत्याग्रह का आंदोलन फिर से …

1913

शादियां अवैध घोषित कर दी गई

उधर जनरल स्मट्स के धोखे से भारतवासियों का रोष बढ़ रहा था। इस बीच उच्चतम न्यायालय के बाई मरियम के एक मुकदमे के फैसले ने आग में घी का काम किया। इस घटना ने स्त्रियों को भी लड़ाई में शामिल कर लेने का मौका दे दिया। तीन पौंड के कर को हटा लिए जाने के गोखले को दिए गए वादे को निभाने के विपरीत, भारतीय वहां के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से और भड़क उठे, जिसके अनुसार हिंदू, मुस्लिम और पारसी रीति-रिवाज़ से सम्पन्न दक्षिण अफ्रीका में गैर-ईसाइयों की शादियां अवैध घोषित कर दी गई। भारत के अधिकांश विवाहित लोग दक्षिण अफ़्रीका गए थे और उनमें से कुछ ने वहीं विवाह किया था। भारत में सामान्य विवाहों की रजिस्ट्री कराने का क़ानून तो था नहीं। धार्मिक क्रिया ही काफ़ी समझी जाती थी। दक्षिण अफ़्रीका में भी भारतीयों के लिए यही प्रथा होनी चाहिए थी।

हुआ यह कि केपटाउन के एक मुसलमान व्यापारी हसन ईसप की पत्नी बाई मरियम भारत से आई थी। इमीग्रेशन वालों ने उसे अफ़्रीका की धरती पर उतरने नहीं दिया। उसके परिजनों ने कोर्ट में न्याय की गुहार लगाई। हाई कोर्ट के जज सरले ने फैसला दिया कि पत्नी को पति के साथ रहने का पूरा हक़ है। लेकिन यह सवाल भी उठाया कि यह महिला वास्तव में पत्नी है कि नहीं यह तभी माना जाएगा जब उसके विवाह का क़ानूनी सबूत न पेश किया जाए। दक्षिण अफ़्रीका के क़ानून में वही विवाह जायज माना जाएगा जो ईसाई धर्म की रीति से सम्पन्न हुआ हो और जिसकी रजिस्ट्री विवाह के अधिकारी के यहां करा ली गई हो। हिंदू, मुसलमान, पारसी शादियां तो धार्मिक रीति से होती है। इसका कोई क़ानूनी दस्तावेज़ नहीं होता। कोई लिखित सबूत नहीं होता। इसलिए कोई क़ानूनी सबूत न होने के कारण उस महिला को दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने वापस भारत भेज दिया।

सत्याग्रह का आंदोलन को फिर से प्रज्ज्वलित

इस फैसले ने भारतवासियों को जड़मूल से अफ़्रीका से निकाल देने की स्थिति खड़ी कर दी। इस फैसले का अर्थ यह था कि जो शादियां सरकारी क़ाग़ज़ातों में दर्ज़ हों, वही मान्य होंगी। बाक़ी शादिया अवैध मानी जाएंगी। अर्थात विवाहित पत्नी का दर्ज़ा एक रखैल के बराबर हो गया था। ऊपर से उनके बच्चों को नाजायज़ होने के नाते पिता की संपत्ति का भी कोई अधिकार नहीं रहेगा। भारतीयों की मृत्यु के उपरांत उनकी संपत्ति सरकार हड़प सकती थी। यह एक ऐसी स्थिति थी, जिसे स्त्री-पुरुष दोनों नहीं सह सकते थे। यह भारतीयों के अपमान की पराकाष्ठा थी। इस फैसले से पूरे देश में भारतीय भड़क गए। इतना तो किसी अन्य बात ने भारतीयों को आहत नहीं किया था। इस फैसले ने लगभग बंद पड़े सत्याग्रह के आंदोलन को एक बार फिर से प्रज्ज्वलित कर दिया। उक्त निर्णय के विरुद्ध अपील की जाए या नहीं, इस पर विचार करने के लिए सत्याग्रह-मंडल की बैठक हुई। सभी ने निश्चय किया कि ऐसे मामले में अपील हो ही नहीं सकती। गांधी जी ने पत्र आदि लिख कर यह प्रयास किए कि सरकार अपनी भूल सुधार ले। लेकिन मदांध सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। 10 मई 1913 को गांधी जी ने सरकार के साथ हुए पत्र-व्यवहार को ‘इंडियन ओपिनियन’ में प्रकाशित कर दिया। इस पत्र के प्रकाशन से सत्याग्रह की अनिवार्यता लोगों की समझ में आ गई।

महिलाएं भी सत्याग्रह में

गांधी जी ने भारतीय समुदाय के बंधुआ मज़दूरों कुछ वीर स्त्रियां सत्याग्रह में शामिल होने की मांग पहले भी कर चुकी थीं। जब बिना परवाना दिखाए फेरी करके जेल जाना शुरू हुआ था, तब फेरी करने वालों की स्त्रियों ने भी जेल जाने की इच्छा प्रकट की थी। पर उस वक़्त परदेश में स्त्रीवर्ग को जेल भेजना गांधी जी को अयोग्य जान पड़ा था। इसके साथ-साथ यह भी दिखाई दिया था कि जो क़ानून खास तौर पर मर्दों पर लागू होता हो उसको रद्द कराने में स्त्रियों को शामिल करना उचित नहीं है। इतने वर्षों से चल रहे सत्याग्रह आंदोलन में सत्याग्रहियों की ओर से नैतिक आचार-विचार का बड़ा ऊंचा स्तर रखा गया था। उन्होंने कभी सरकार को तंग करके अनुचित लाभ नहीं लिया। हर कदम पर सरकार को मौक़ा दिया, ताकि वह अत्याचारी नीति बदल सके। इसीलिए गांधी जी ने महिलाओं को सत्याग्रह आंदोलन में शामिल नहीं होने दिया था। उनकी आड़ लेकर वे विपक्ष के साथ अन्याय नहीं करना चाहते थे। वे सरकार को बदनाम नहीं करना चाहते थे कि उसने महिलाओं को भी कष्ट दिया। लेकिन इस बार तो स्त्रियां, जिनका खास तौर से अपमान होता था, उन्हें लगा कि इस अपमान को दूर करने के लिए वे भी बलिदान हो जाएं तो अनुचित न होगा। हुआ भी यही, अब स्त्रियों को रोकना संभव नहीं था। इस बार तो, घर-घर की महिलाएं, जो अब तक आंदोलन में सक्रिय नहीं थीं, भी आंदोलन में कूद पड़ीं। उनमें बलिदान की मशाल जल उठी। इस अन्याय को सह पाना असंभव हो गया था। लोग स्वाभिमान की रक्षा में मर-मिटने को तैयार थे। अब सत्याग्रह को विशाल मंच मिल गया था।

सबसे पहले टॉल्सटॉय फार्म की महिलाओं ने अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए सत्याग्रह करने का निश्चय किया। गांधी जी ने तय किया कि महिलाओं का एक जत्था बिना अनुमति के ट्रांसवाल से नेटाल जाएगा। इनमें से कई महिलाओं की गोद में बच्चे थे, लेकिन अपनी इज़्ज़त की रक्षा के लिए वे सारे कष्ट सहने को तैयार थीं। ग्यारह महिलाओं का एक जत्था क़ानून भंग करने के आशय से ट्रांसवाल की सरहद से बिना परमिट नेटाल प्रांत में प्रवेश किया। लेकिन सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार नहीं किया। अपराध करके जेल जाना आसान है। निर्दोष होते हुए अपने-आपको गिरफ़्तार करना कठिन है। जो अपनी ख़ुशी से और निरपराध होते हुए जेल जाना चाहता है उसको पुलिस तभी पकड़ती है जब वह इसके लिए लाचार हो जाती है। उन बहनों का पहला यत्न विफल हुआ। अब उन महिलाओं के सामने यह सवाल खड़ा हो गया कि वह किस तरह अपने-आपको गिरफ़्तार कराएं।

अब गांधी जी ने सोचा कि फीनिक्स के अपने साथियों को इस आंदोलन में लगाएंगे। फिनिक्स में रहनेवाले गांधी जी के अंतरंग सहयोगी और संबंधी थे। यह सोचा गया कि अख़बार चलाने के लिए जितने आदमी चाहिए उतने आदमियों और सोलह बरस से नीचे के लड़के-लड़कियों को छोड़कर बाक़ी सबको जेल-यात्रा के भेज दिया जाए। इस सोलह आदमियों की मंडली को सरहद लांघकर ट्रांसवाल में बिना परवाने के प्रवेश करने के अपराध में गिरफ़्तार कराना था। इस कदम की बात किसी को नहीं बताई गई, नहीं तो पुलिस को पता चल जाने का ख़तरा था। यह भी तय किया गया कि पुलिस को नाम-पता भी नहीं बताना था, नहीं तो यदि वे जान जाते तो शायद उन्हें पता चल जाता कि वे सभी गांधी जी के सहयोगी हैं। इसके साथ-साथ यह भी तय किया गया कि उन बहनों को भी नेटाल में दाखिल होना है जो ट्रांसवाल में दाखिल होने का विफल प्रयत्न कर रही थीं। तय हुआ कि पुलिस इन बहनों को पकड़ें तो ये अपने-आपको नेटाल में गिरफ़्तार करा दें और यदि ना पकड़ें तो नेटाल के कोयले खानों के केन्द्र न्यूकैसल में जाकर वहां के गिरमिटिया मज़दूरों से खानों से निकल आने का अनुरोध करें। मज़दूर यदि इन बहनों की बात सुनकर काम छोड़ दें तो सरकार मज़दूरों के साथ-साथ उन्हें भी गिरफ़्तार किए बिना नहीं रहती। यह सब योजना बनाकर गांधी जी फिनिक्स गए।

कस्तूरबाई ने सत्याग्रहियों के जत्थे का नेतृत्व किया

फिनिक्स में गांधी जी ने सबके साथ बातें की। उन्होंने वहां रहनेवाली महिलाओं के साथ जेल जाने के संबंध में मशवारा किया। उन्हें डर था कि कसौटी के समय डरकर या जेल में जाने के बाद वहां के कष्ट से घबराकर माफ़ी न मांग लें। कस्तूरबा के बारे में तो उन्होंने निश्चय कर लिया था कि उनको जेल जाने के बारे में कभी नहीं कहेंगे। दूसरी महिलाओं से तो उन्होंने बात की पर इस विषय में कस्तूरबा से उन्होंने कोई बात नहीं की। महिलाओं ने तुरंत ही जेल जाने के लिए हामी भर दी और गांधी जी को विश्वास दिलाया कि कैसे भी कष्ट क्यों न सहने पड़े, वे अपनी सज़ा की मुद्दत पूरी करेंगीं। जब कस्तूरबा ने फीनिक्स आश्रम में गांधी जी को कुछ भारतीय महिलाओं के साथ उनके सत्याग्रह में शामिल होने की बात करते सुना, तो उन्होंने गांधी जी से पूछा, “मुझे दुख है कि आप मुझसे इस जेल जाने के संबंध में कुछ नहीं कह रहे। मुझमें क्या खराबी है कि मैं जेल नहीं जा सकती? जिस रास्ते पर चलने की सलाह आप औरों को दे रहे हैं उस पर मैं भी चलना चाहती हूं।”

गांधी जी यह नहीं चाहते थे कि कोई उनके कहने से जेल जाए। उनका मानना था कि सत्याग्रह तो स्व-प्रेरणा से ही टिक सकता है। भारतीय पत्नी तो पति की सब इच्छाओं को आज्ञा समझ कर पालन करती हैं। लेकिन ऐसी आज्ञाकारिता हृदय, बुद्धि से उद्भावित न हो, तो ऐन मौक़े पर हिम्मत और आस्था टूट जाएगी. तब और भी दुख की बात हो जाएगी। इसलिए गांधी जी कस्तूरबाई से कुछ भी कहने से हिचकिचाते थे। गांधी जी कस्तूरबाई के स्वास्थ्य के बारे में चिंतित थे, और उनके प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा, “तू अभी कमज़ोर है। अनाज नहीं खाती है। ऐसी हालत में तू कारावास कैसे सहेगी?”

कस्तूरबा ने कहा, “लेकिन ऐसे अधम क़ानून के सामने लड़ना ही चाहिए न।”

गांधी जी बोले, “जेल में बड़े दुख सहने पड़ते हैं। यह बच्चों से पूछ कर देख।”

कस्तूरबा ने कहा, “मगर इससे क्या? जेल में जो यातना पड़ेगी मैं सह लूंगी। सत्याग्रहियों की लिस्ट में मेरा नाम प्रथम लिखना।”

गांधी जी ने बा को इसकी इजाज़त दे दी। कस्तूरबाई ने सत्याग्रहियों के पहले जत्थे का नेतृत्व किया। गिरफ़्तारी देने के लिए जत्थे में कस्तूरबा, रामदास गांधी, छगनलाल और जेकी के अलावा बारह और शामिल थे, का एक दल बनाया गया। 16 सितम्बर 1913 को फीनिक्स से फोक्सरस्ट रवाना होने की पूर्व संध्या को सत्याग्रह के यात्रियों को गांधी जी ने अपने हाथ का पका सुस्वादु भोजन कराया। उसमें चपातियां, सब्जियां, टमाटर के चटनी और खजूर के साथ बनाया गया मीठा चावल शामिल था।

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

बादल








बादल
- करण समस्तीपुरी

१.
भर अंबर में
रोर मचाए
प्यासी वसुधा
को तरसाए
चमक-दमक के
आश जगाए
ना बरसाए जल
ओ छलिया बादल। 

२.
गई जेठ की
तप्त दुपहरी
सावन रीता
बिन हरियरी
काना, हस्ती
गए स्वाती
चले न अब तक हल
ओ बेसुध बादल।

३.
भादों भद्रा
गई किसानी
का वर्षा जब
कृषी सुखानी
फटा कलेजा
रोए धरती
खेत रहे हैं जल
आफ़त-1ओ निर्मम बादल।

४.
पूरबा डोले
पछुआ डोले
चमके बिजुरी
बदरा बोले
झिर-झिर झीसी
छम-छम बारिस
अवनी हुई सजल
ओ प्यारे बादल।
५.
बजी बैल के
गले में घंटी
कजरी गाए
रहीं कलकंठी
दादुर मोर
पपीहा बोले
विहँस पड़े शतदल
मतवाले बादल।

६.
ताल तलैय्या
भर गया पानी
भयी धरा की
आँचल धानी
अन्न-धन-जीवन
आएगा घर
आँगन रहा मचल
सुखदायी बादल।
७.
दामिनि दमक
रही नभ माहीं
घर में फूटी
कौड़ी नाहीं
सोच-सोच
बाबा के माथे
पड़े हुए हैं बल
बौराए बादल।

८.
थोड़े-बहुत
बचे हैं दाने
ढक आँचल
माँ चली भुनाने
गीली लकड़ी
फ़ू-फ़ू करके
आँख रही है मल
ओ निष्ठुर बादल।

९.
मूसलाधार
बरसता गर-गर
बिजली काँप
रही है थर-थर
माटी का घर
फूस का छप्पर
जाए कहीं न गल
प्रलयंकर बादल।

१०.
आँगन आँगन
पानी पानी
है कागज़ की
नाव चलानी
बच्चे बोलें
बरखा रानी
आ जाना फिर कल
बलिहारी बादल।
११.
घर-घर गूँजे
राग मल्हार
द्वारे-द्वारे
तीज त्यौहार
बिन प्रीतम
कैसा श्रृंगार
विरही मन घायल
ओ बैरी बादल।

१२.
शूल चुभाए
सावन राती
मैं जलती
दीपक बिन बाती
पहुँचा दो
प्रियतम को पाती
मौसम गया बदल
निर्मोही बादल।

१३.
बिन चंदा के
रात अमावस
बिन मितवा के
कैसा पावस?
वर्षा में वह
कैसे आएँ
रुक जाओ दो पल
हरजाई बादल।

१४.
तुम हो
जीवनदायी बादल
अति हो
आतातायी बादल
जग से तेरी
मिताई बादल
करो न कभी
ढिठाई बादल
इतना बरसो
कि मन हरसे
जीवन रहे सरल
ओ नीले बादल।