323. नमक सत्याग्रह, दांडी मार्च-5
राष्ट्रीय नमक सत्याग्रह स्मारक
1930 का सर्वश्रेष्ठ मानव
नमक यात्रा की प्रगति को एक और बात से भी समझा जा सकता है। अमेरिकी
समाचार पत्रिका टाइम को गाँधी जी की कद काठी पर हँसी आती थी। पत्रिका ने उनके तकुए
जैसे शरीर और मकड़ी जैसे पैरो का खूब मजाक उड़ाया था। इस यात्रा के बारे में अपनी
पहली रिपोर्ट में ही टाइम ने नमक यात्रा के मंजिल तक पहुँचने पर अपनी गहरी शंका
व्यक्त कर दी थी। उसने दावा किया कि दूसरे दिन पैदल चलने के बाद गाँधी जी जमीन पर
पसर गए थे। पत्रिका को इस बात पर विश्वास नहीं था कि इस मरियल साधु के शरीर में और
आगे जाने की ताकत बची है। लेकिन एक रात में ही पत्रिका की सोच बदल गई। टाइम ने
लिखा कि इस यात्रा को जो भारी जनसमर्थन मिल रहा है उसने अंग्रेज शासकों को बेचैन
कर दिया है। अब वे भी गाँधी जी को ऐसा साधु और जननेता कह कर सलामी देने लगे हैं जो
ईसाई धर्मावलंबियों के खिलाफ़ ईसाई तरीकों का ही हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा
है।
उसी टाइम पत्रिका ने गांधी जो को 1930 का सर्वश्रेष्ठ मानव घोषित किया और आज उनके उस आंदोलन को दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाले सर्वाधिक प्रभावशाली दस आंदोलनों में की सूची में दूसरे स्थान पर रखा है। 10 प्रभावशाली आंदोलनों की सूची इस प्रकार है :
1. अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन में निर्णायक भूमिका निभाने वाली ‘बोस्टन
चाय पार्टी’।
2. 1930 गांधी जी द्वारा किया गया ‘नमक सत्याग्रह’।
3. 1963 में वाशिंगटन में निकाले गए ‘सिविल राइट मार्च’।
4. 1969 में समलैंगिक अधिकारों को लेकर न्यूयार्क में चलने वाला
स्टोनवाल आंदोलन।
5. वियतनाम युद्ध के खिलाफ़ वाशिंगटन में हुआ विशाल प्रदर्शन।
6. 1978 में ईरान में हुआ मोहर्रम विरोध प्रदर्शन।
7. 1986 में हुआ पीपुल पॉवर विरोध प्रदर्शन।
8. चीन में थियानमन चौराहे का विरोध प्रदर्शन।
9. दक्षिण अफ़्रीका के केपटाउन का पर्पल रेन प्रोटेस्ट।
10.
मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक
के ख़िलाफ़ जनवरी 2011 में हुआ विशाल प्रदर्शन।
नमक यात्रा की
विशेषता
नमक यात्रा कम से कम तीन कारणों से उल्लेखनीय थी। पहला, यही वह
घटना थी जिसके चलते महात्मा गाँधी दुनिया की नजर में आए। इस यात्रा को यूरोप और
अमेरिकी प्रेस ने व्यापक कवरेज दी। दूसरे, यह पहली राष्ट्रवादी गतिविधि थी जिसमें औरतों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा
लिया। समाजवादी कार्यकर्ता कमलादेवी चटोपाध्याय ने गाँधी जी को समझाया कि वे अपने
आंदोलनों को पुरुषों तक ही सीमित न रखें। कमलादेवी खुद उन असंख्य औरतों में से एक
थीं जिन्होंने नमक या शराब कानूनों का उल्लंघन करते हुए सामूहिक गिरफ़्तारी दी थी।
तीसरा और संभवतः सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि नमक यात्रा के कारण ही अंग्रेजों
को यह अहसास हुआ था कि अब उनका राज बहुत दिन नहीं टिक सकेगा और उन्हें भारतीयों को
भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा।
आने वाली घटनाओं ने दिखा दिया कि नमक और स्वराज्य के
पारस्परिक सम्बन्ध को ठीक से न समझ सकने के कारण जिन लोगों ने नमक-सत्याग्रह का
उपहास किया था, उन्हें भारतीय जनता को सामूहिक आन्दोलन के लिए
संगठित करने की गांधीजी की कुशलता का सही ज्ञान नहीं था। गांधीजी ने नमक के द्वारा
जहां एक तरफ़ ग्रामीण लोगों को स्वराज्य के मुद्दे से जोड़ा वहीं दूसरी तरफ़ शहरी
लोगों का भी इसके प्रति समर्थन प्राप्त किया। नमक के मुद्दे ने स्वराज्य के आदर्श
को गांवों के ग़रीबों की एक ठोस और व्यापक शिकायत से जोड़ दिया। इसने किसानों को एक
अवसर दिया कि वे अपनी सहायता ख़ुद करते हुए कुछ अतिरिक्त आय कर सकें। गांधीजी के
नगरीय समर्थकों को इसका मौक़ा मिला कि वे प्रतीक के रूप में जनता के व्यापक कष्टों
से स्वयं को एकाकार कर सकें।
संघर्ष-कार्यक्रम व्यापक हुआ
कांग्रेस ने संघर्ष-कार्यक्रम को
व्यापक बना दिया। इसमें नमक-कानून के अतिरिक्त वन-कानूनों को तोड़ना, करों का देना बन्द करना और विदेशी वस्त्रों, बैंकों
तथा नौपरिवहन का बहिष्कार सम्मिलित कर लिया गया। सरकार ने इसके जवाब में अध्यादेश
निकाल कर कांग्रेस कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने और उन पर मुकदमा चलाने के
असाधारण अधिकार दे दिए।
कांग्रेस की कार्यकारी समिति
की बैठक
जून में कांग्रेस की कार्यकारी समिति की बैठक इलाहाबाद
में हुई, जिसमें न
सिर्फ़ सविनय अवज्ञा के ज़ारी रखने का प्रस्ताव पारित हुआ बल्कि इसके क्षेत्र को
थोड़ा और विस्तारित कर दिया गया। नमक का मुद्दा उत्प्रेरक तो रहा, लेकिन बरसात के
मौसम में इसे चलाये रखना कठिन था। वैसे भी नमक आंदोलन तटीय क्षेत्रों में ही चलाया
जा सकता था। इसलिए नमक सत्याग्रह के साथ ही जंगल सत्याग्रह, विदेशी वस्त्रों,
बैंकों, जहाजी और बीमा कंपनियों का बहिष्कार, रैयतवाड़ी इलाके में लगानबंदी, प्रति
सप्ताह नमक क़ानून भंग करने तथा शराब की दूकानों पर धरना देने को भी समाविष्ट कर
लिया गया। शराब की दूकानों पर और एक्साइज लाइसेंस की नीलामी के समय धरना देना
गांवों और छोटे कस्बों, दोनों ही में आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया। अनेक
स्थानों पर किसानों ने चौकीदारी कर देने से दृढतापूर्वक इंकार कर दिया। ग्राम
अधिकारियों ने बड़े पैमाने पर अपने पदों से त्यागपत्र देकर ग्रामीण प्रशासन को ठप्प
कर दिया। बड़े नियंत्रित ढंग से वन-क़ानूनों को लेकर किसानों और आदिवासियों के
आक्रोश का उपयोग किया गया। शिविर लगाकर ‘वन-सत्याग्रिहियों’ को प्रशिक्षण दिया
गया। वन-विभाग की नीलामियों का बहिष्कार किया गया। चराई और लकड़ी संबंधी नियमों का
शांतिपूर्वक उल्लंघन किया गया। वनों से अवैध रूप से प्राप्त उपज की सार्वजनिक
बिक्री की गई।
अंग्रेज़ों द्वारा
दमन ज़ारी रहा
वायसराय ने इस
गतिविधियों को प्रभावहीन करने के लिए कठोर अध्यादेश ज़ारी किए। उसने दमन का खुला
परवाना दे दिया था। लेकिन आंदोलन धीमा नहीं पड़ा। 30 जून को सरकार ने
मोतीलाल नेहरू को गिरफ़्तार कर लिया। कांग्रेस की कार्यकारी समिति को अवैध संस्था
घोषित कर दिया गया। हज़ारों लोगों को जेल में ठूंस दिया गया। प्रेस अध्यादेश के तहत
67 समाचारपत्र और 55 छापाखानों
को बंद कर दिया गया। नवजीवन प्रेस को ज़ब्त कर लिया गया। ‘बांटो और राज करो’ की
नीति को सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति के द्वारा और अधिक व्यापक करने की कोशिश की
गई। इसके विरोध करने के ज़ुर्म में मालवीय और एनी बेसेन्ट को जेल में डाल दिया गया।
अक्तूबर से दमन को और तेज़ कर दिया गया। पश्चिमोत्तर प्रांत में लाल कुर्ता और
फ़्रंटीयर यूथ लीग को क्रूर दमन का सामना करना पड़ा। स्थानीय जनता ने पुलिस की
गाड़ियों पर हमला बोल दिया। गढ़वाल राइफल्स के दो प्लाटूनों ने भीड़ पर गोली चलाने से
इंकार कर दिया। उनका कोर्ट मार्शल हुआ।
प्रांत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। निहत्थे लोगों की जान ली गई। कई
जगहों पर बम भी गिराए गए।
चटगांव, पेशावर और शोलापुर में हिंसक घटनाएं हुईं। इसके बावज़ूद गांधीजी ने आंदोलन वापस लेने की बात नहीं की। वस्तुतः नमक सत्याग्रह शुरू करने के पहले ही उन्होंने एक लेख में कहा था, “अब मैं रास्ता जान गया हूं, जो बारदोली की भांति पीछे हटने का रास्ता नहीं है, बल्कि अहिंसक मुख्य धारा को लेकर आगे बढ़ते जाने का रास्ता है।” इस बार गांधीजी में अधिक जुझारूपन दिखाई दे रहा था, “इस बार जो सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ है, उसे रोका नहीं जा सकता और रोका नहीं जाना चाहिए ...।” इस बार घोषित लक्ष्य था – पूर्ण स्वाधीनता, न कि भूलों का परिमार्जन। इसमें विदेशी शासन के साथ केवल असहयोग ही नहीं था, बल्कि क़ानून का सायास उल्लंघन भी था। इसलिए छिटपुट हिंसक घटनाएं होना स्वाभाविक था और कांग्रेस में उन्हें व्यावहारिक रूप से कमोबेश अपरिहार्य स्वीकार कर लिया गया था। क़ानून के उल्लंघन करने के कारण जेल जाने वालों की संख्या में तीन गुना अधिक बढोत्तरी हुई। सरकार डरी हुई थी। उसने गांधीजी की गिरफ़्तारी के बाद पूरी तरह से शांत सत्याग्रहियों पर भी नृशंस अत्याचार करना शुरू कर दिया था।
आंदोलन अब अपनी दिशा बदल रहा था। सितंबर 1930 के बाद शहरी व्यापारियों के उत्साह और समर्थन में कमी आई। हड़ताल आदि से परेशान व्यापारी समूह समझौते की मांग कर रहे थे। राष्ट्रीय नेताओं की प्रतिक्रिया उनके हक़ में नहीं थी। बार-बार की हड़ताल व्यापार और उद्योग को अस्त-व्यस्त कर देती थी। इससे अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। व्यापारियों ने मांग की थी कि गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार न किया जाए। ठाकुरदास ने मोतीलाल को आगाह किया था, व्यापारी समुदाय की सहनशक्ति सीमा पार करने वाली है। गांवों में आंदोलन के शुद्ध गांधीवादी रुख देखने को मिल रहे थे। ये आंदोलन अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध किसानों पर आधारित थे। ब्रिटिश अधिकारी उनके ख़िलाफ़ कुर्की की नीति अपनाए हुए थे। निर्ममता से किए गए ज़मीन-जायदाद की कुर्की ने उनकी शक्ति को क्षीण करना शुरू कर दिया था। उधर लगान की ना-अदायगी के रूप में जगह-जगह आदिवासी विद्रोह देखने को मिल रहा था। ये विद्रोह अनियंत्रित हो गए थे और ख़तरनाक रूप धारण करते जा रहे थे। पश्चिमी घाट के कोल और मध्यप्रांत के गोंड द्वारा किया गया वन-सत्याग्रह अब गांधीवादी सीमाओं से बहुत बाहर जा चुका था। वे पुलिस चौकियों पर आक्रमण कर रहे थे। अनिधिकृत रूप से वे बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई कर रहे थे। जगह-जगह किसान अपने नेताओं की गिरफ़्तारी और अपनी संपत्ति की ज़ब्ती का विरोध शंख बजाकर करते तथा अन्य गांवों के लोगों को इकट्ठा कर पुलिस दलों पर आक्रमण करते।
मध्यस्थता के प्रयत्नसरकारी कार्यालयों में अधिकांश भारतीयों द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण काम ठप्प पडा था। राजस्व बड़ी तेज़ी से घटता जा रहा था। जेलें भरी पडी थीं। चूंकि सिर्फ़ दमनात्मक कार्रवाई से वास्तविक समस्या का हल नहीं हो सकता था, इसलिए बातचीत का मार्ग प्रशस्त हुआ। 9 जुलाई को वायसराय ने राज्य परिषद और विधान मंडल के संयुक्त अधिवेशन में कहा, हमारे लिए यह संभव होना चाहिए कि हम ऐसे मान्य हल तक पहुंचे जहां दोनों देशों तथा सभी पार्टियों के हितों का पर्याप्त ध्यान रखा गया हो! डोमिनियन स्टेटस देने का हमारा वादा पहले की तरह क़ायम है। जुलाई-अगस्त 1930 में सप्रू और एम.आर. जयकर को कांग्रेस व सरकार के बीच शांति समझौते के लिए बातचीत करने के लिए अधिकृत किया गया। वायसराय ने गांधीजी, मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू के साथ जेल में ‘डेली हेराल्ड’ के संवाददाता जार्ज स्लोकोंब, माडरेट नेता सप्रू और जयकर द्वारा बातचीत करना न सिर्फ़ स्वीकार कर लिया। सरकारी दमन के कारण उस समय भारत की जो स्थिति थी उसने जार्ज स्लोकोंब को इतनी पीड़ा पहुंचाई थी कि वह समझौते के प्रयत्नों में लग गया था।
सबसे पहले इस दल ने मोतीलाल नेहरू से बात की। बातचीत से
उन्हें ऐसा आभास मिला कि कुछ शर्तों पर कांग्रेस सविनय अवज्ञा को वापस लेने पर
राज़ी हो सकती है। लेकिन मोतीलाल शीघ्र ही गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हें नैनी जेल
में जवाहरलाल नेहरू के पास भेज दिया गया। 27 जुलाई को नैनी जेल में मोतीलाल और
जवाहरलाल नेहरू के साथ बातचीत हुई। गांधीजी से सलाह किए बिना पिता-पुत्र दोनों ने
कुछ कहने में असमर्थता प्रकट की। उन्हें एक स्पेशल ट्रेन के द्वारा पूना लाया गया
और वहां से मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू को यरवदा जेल लाया गया। वहां 13 से 15 अगस्त तक इनकी गांधीजी से बातचीत हुई।
इसके बाद गांधीजी और नेहरू पिता-पुत्र के द्वारा संयुक्त हस्ताक्षरित पत्र द्वारा
कहा गया, हम इस स्थिति में नहीं हैं कि कांग्रेस की कार्यकारी समिति की समुचित रूप
से हुई बैठक के बिना कुछ भी अधिकृत रूप से कहें, लेकिन व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए
कोई भी हल तब तक संतोषप्रद नहीं होगा जब तक कि, यह भारत का ब्रिटिश साम्राज्य से
अपनी इच्छा से अलग होने के अधिकार को स्पष्ट शब्दों में मान्यता नहीं देता, दूसरे पूर्ण
राष्ट्रीय सरकार, जो अपनी जनता के प्रति उत्तरदायी हो और सुरक्षा बलों व आर्थिक
तंत्र पर उसका पूर्ण अधिकार हो तथा इसके साथ ही इसमें गांधीजी द्वारा वायसराय के
साथ उठाए गए ग्यारह बिंदु भी शामिल हों, को यह पूर्ण मान्यता नहीं देता, और तीसरे यह
भारत के उस अधिकार को मान्य नहीं कर लेता जिसके तहत वह उन मुद्दों को लेकर एक
स्वतंत्र न्यायाधिकरण तक जा सके जो ब्रिटिश सरकार पर थोपे गए हों, जैसे तथाकथित
सार्वजनिक क़र्ज़, जिन्हें राष्ट्रीय सरकार अन्यायपूर्ण अथवा, भारतीय लोगों के अहित
में समझती हो।
समझौते के प्रयत्नों पर कांग्रेस की जो प्रतिक्रिया हुई उससे यह बात बिल्कुल साफ हो गई कि कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार के बीच की खाई बहुत चौड़ी हो चुकी है। वायसराय ने जवाब दिया, “मैं पत्र में उल्लिखित प्रस्तावों के आधार पर विचार-विमर्श को असंभव मानता हूं।” इंग्लैंड में विन्स्टन चर्चिल ने कहा, “भारत को वकीलों, राजनीतिज्ञों, हठधर्मियों और लोभी व्यापारियों के अल्पतंत्र के हवाले नहीं किया जा सकता। हमारा इरादा लाफी लंबे और अनिश्चित काल तक भारत पर हुमूमत करने का है। अराजकता और राजद्रोह कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।” रैमजे मैकडोनाल्ड की मज़दूर सरकार लिबरलों के समर्थन पर टिकी थी। इसलिए कोई अलग कदम वह उठा नहीं सकती थी। इसलिए यह निश्चय किया गया कि गांधीजी के आंदोलन को कुचल दिया जाएगा और सरकारी दमन-चक्र को और तेज़ किया जाएगा।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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