-- करण समस्तीपुरी
नाटक का सनातन काल से संबंध रहा है मेरे गाँव से। शायद इसीलिए हमारे नानीगाँव वाले हमें ’नटकिया गाँव का’ कह कर चिढ़ाते थे। पहले रामलीला, कृष्ण्लीला, स्वांग, फ़ारस, विदेसिया, बिहुला, आल्हा वगैरह होता रहा होगा। फिर अनेक आध्यात्मिक-ऐतिहासिक आख्यान नाट्य-शैली में मंचित होने लगे। राजा भ्रतृहरि, राजा हरिश्चंद्र, श्रवणकुमार, सम्राट जलंधर, संयोगिता-स्वयंवर’, नल-दमयंति, छत्रपति शिवाजी, अर्थपिशाच, भक्त प्रहलाद, इत्याति। बाद में समकालीन नाटक आए। सुल्ताना डाकू, चंबलघाटी का लुटेरा, कच्चे धागे आदि-आदि। फिर फ़िल्मों पर आधारित नाटकों के मंचन भी हुए। नागिन, धूल का फूल, अनारकली, लैला-मजनू इत्यादि। गाँव के बिहुला नाच से लेकर बनारस की नौटंकी... ठकुरवारी पर सब की परीक्षा हो जाती थी। युगों से नाट्यानंद का रसपान कर रहे भोले ग्रामीण नाटकों के चतुर समीक्षक हो गए थे।
“सखी हे सावन आए सुहावन वन में बोलन लागे मोर...!” अब ये गीत स्मृति शिखर पर
ही रहेंगे। महानगरों में तो सावन-भादों या फ़ाल्गुन सब एक जैसे ही होते थे और होते
हैं। मगर गाँव में भी अब सावन के आगमन का संदेश दादुर, मोर, पपीहा, मेढक, झिंगुर
लेकर नहीं आते। वहाँ भी अब आकाशवाणी या दूरदर्शन के समाचार अथवा सूखे तीज-त्योहार
से ही सावन की अगवानी होती है। पहले मान‘सून’ आता था। अब मान‘लेट’
हो गया है। झूले पड़ते थे। अब भूले पड़ते हैं। कजरी गूँजती थी। अब सिर्फ़ इतिहास
में।
धरती के सजल गोद में कृषि-क्रीड़ा करते बैलों के गले की घंटी के ताल पर
कृषक-वृंद का मन-मयूर नाच उठता था। सूखी धरती का सीना चीरते हनहनाते ट्रैक्टरों के
शोर से किसानों का हृदय भी विदिर्ण हो जाता है। वर्षा रानी वर्ष-दर-वर्ष रूठती जा
रही हैं। दमकल-बोरिंग से खेतों में पटवन कर धान की बुआई-रोपाई करने से किसी प्रकार
अन्न तो आ जाता है किन्तु आनंद कहाँ? अब सरैसा की धरती से भी रस उठने लगा है। मैं
उसकी झलक देख आया था अब सचल दूरभाष यंत्र पर विस्तृत वर्णन सुनता हूँ।
मेरे गाँव में सावन का अर्थ आज की तरह नहीं था। सकल मास त्योहार। पहली फ़ुहार
के साथ ही खरीफ़ फ़सल की तैय्यारी शुरु हो जाती थी। शब्दशः पसर जाती थी हरितिमा।
हमारे कुँए का जलस्तर काफ़ी ऊपर आ जाता था। दो हाथ की रस्सी लगाकर डोल से पानी
निकाल सकते थे। हम बच्चों के लिए तो कौतुक से कम नहीं था। बाबा की दृष्टि बचाकर
उन्हीं के गमछे में लोटा बाँध कर हमलोग कुँए से पानी निकाला करते थे। इस कौतुक में
कई लोटे वरुण देव को अंशकालिक भेंट मिल चुके थे जो पुनः ग्रीष्म में कुएँ की उराही
में निकलते थे। दो-चार पड़ोसियों के बीच तो लोटे की लड़ाई सुनिश्चित थी।
मेरे गाँव में सावन का एक और अर्थ था। नाटक। सावन के दूसरे अर्थात शुक्ल पक्ष
की तृतीया के साथ ही मंदिर पर शुरु होता था तेरह दिनों का नाट्य महोत्सव। क्या
ग्रामीण क्या कुटुम्ब। सावन के पहले पक्ष में ही बुआई-रोपाई निपटाकर निश्चिंत हो
जाते थे। फिर तेरह दिनों तक रात में गंधर्व-कला का आनंद और दिन के दूसरे पहर तक
निद्रासन। तीसरे पहर तास की चौकरी चौथे पहर में शेष कार्य। निशा रानी के आँचल
फैलाते ही रात्रीभोज और फिर मंदिर पर। पाहुनों को भी तेरह दिनों तक रेवाखंड-प्रवास
खूब भाता था। गाँव की बेटियाँ भैय्या को राखी बाँधने पाहुने के साथ पंद्रह दिन
पहले ही आ जाती थी तो बधुओं के भाई राखी बँधाने के लिए। सावन शुक्ल सदा गुलजार
रहता था रेवाखंड में। हाँ, घर की स्त्रियों के लिए यह मास बड़ा कठिन हो जाता था।
अन्न-जल, साग-सब्जी, दूध-दही तो पर्याप्त मगर इंधन का घोर अभाव। गोबर के गोइठे
सूखते नहीं थे और लकड़ियाँ गीली हो जाती थी। अब चूल्हा में लगाकर करते रहो
फ़ू-फू...! मैंने तो कई बार देखा था। भर सावन मेरी माँ की आँखें गीली ही रहती थी।
नाटक का सनातन काल से संबंध रहा है मेरे गाँव से। शायद इसीलिए हमारे नानीगाँव वाले हमें ’नटकिया गाँव का’ कह कर चिढ़ाते थे। पहले रामलीला, कृष्ण्लीला, स्वांग, फ़ारस, विदेसिया, बिहुला, आल्हा वगैरह होता रहा होगा। फिर अनेक आध्यात्मिक-ऐतिहासिक आख्यान नाट्य-शैली में मंचित होने लगे। राजा भ्रतृहरि, राजा हरिश्चंद्र, श्रवणकुमार, सम्राट जलंधर, संयोगिता-स्वयंवर’, नल-दमयंति, छत्रपति शिवाजी, अर्थपिशाच, भक्त प्रहलाद, इत्याति। बाद में समकालीन नाटक आए। सुल्ताना डाकू, चंबलघाटी का लुटेरा, कच्चे धागे आदि-आदि। फिर फ़िल्मों पर आधारित नाटकों के मंचन भी हुए। नागिन, धूल का फूल, अनारकली, लैला-मजनू इत्यादि। गाँव के बिहुला नाच से लेकर बनारस की नौटंकी... ठकुरवारी पर सब की परीक्षा हो जाती थी। युगों से नाट्यानंद का रसपान कर रहे भोले ग्रामीण नाटकों के चतुर समीक्षक हो गए थे।
नाटकों के नाम से ही याद आते हैं मस्तराम जी। हमारे ग्रामीण हैं। अब
शैय्यासीन। वास्तविक नाम वैद्यनाथ झा। छः फ़ुट से कुछ अधिक लंबाई। इकहरा किन्तु गठा
हुआ शरीर। गौर वर्ण। चाकू से खड़े नाक और बोलने को आतुर बड़े-बड़े नेत्र। काँधे को
छूते बाल। रंगमंच पर तो उन्हें पहचानना मुश्किल था किन्तु रंगमंच के बाहर
मस्तरामजी ऐसे ही दिखते थे।
नाटकों के संवाद बोलने में उनकी आवज में गज़ब का रोब होता था किन्तु गायन में
कोकिल-कंठ। बड़ा ही सुमधुर। शास्त्रीय-संगीत की अच्छी समझ और पक्का अभ्यास था। उस
समय के सभी वाद्य-यंत्र उनके खिलौने थे। हारमोनियम पर उनकी उंगलियाँ बिजली की तरह
थिड़कती थी। बाँसुरी का एक-एक सुर सधा हुआ था। मेरे पिताजी बताते हैं कि
बाँसुरीवादन में उनका नाम हमारे गाँव से लेकर वाराणसी तक प्रसिद्ध था। वाराणसी की
गलियों में तो वे बँसुरिया बाबा के नाम से ही लोकप्रिय थे। कभी हरिप्रसाद चौरसिया,
बिस्मिल्ला ख़ान, बड़े उस्ताद आदि की संगत करते थे। सितार, वीणा, सारंगी सब के तार
उनकी उंगलियों के स्पर्श से मचल उठते थे।
हमारे गाँव में वे रंगमंच के पुरोधा थे। युवावस्था में ही अपनी नाटक-मंडली
बनाई थी। एक बार शागिर्दों के विद्रोह पर उन्होंने कहा था, “मस्तराम अकेले पूरा नाटक
है।” कर भी दिखलाया। नये लड़कों को पात्र बना स्टेज पर खड़ा कर दिया। सभी के संवाद
अलग-अलग आवाजों में खुद ही बोले। अलग-अलग दृश्यों में अलग-अलग किरदार भी
निभाया...! और बीच-बीच में हारमोनियम भी बजा आते थे। बड़े कद्दावर कलाकार थे। सौ
प्रतिशत परफ़ेक्शनिस्ट।
पहली बार उन्हें ‘वनदेवी’ नाटक में देखा था। बड़े आरजू-मिन्नत पर पिताजी ले गए
थे नाटक दिखाने। झूले की पाँचवी रात थी। बड़ी भारी भीड़। नाटक शुरु हुआ। मस्तराम जी
तांत्रिक के रोल में थे। बाप रे... वो डरावना मेक-अप और क्या अदाकारी थी! किसी
तंत्र-सिद्धि के लिए तांत्रिक बाबा को बच्चे का रक्त पीना था। कपड़े के बने
गुड्डे-गुड़ियों का गला रेत रहे थे लंबी छूरी से...! पीछे से रोने-चिल्लाने की आवाज़
आती थी और पता नहीं कैसे (अभी समझना मुश्किल नहीं है) उन कपड़ों से रक्त के निकल
रहे थे। एक बड़ी थाली में जब कटे हुए मुंडों का रक्त जब थाली में भर गया तो वे उसे
उठाकर गटागट पीने (का अभिनय) करने लगे। पीने की आवाज़ साफ़ सुनी जा सकती थी,
गट-गट-गूँ-गट...!
रक्तपान के बाद जो हुँकार भर कर खड़े हुए कि मारे डर के मैं पिताजी से लिपट गया
था। तांत्रिक बाबा गरज कर बोले, “श्मसान-भैरवी बली माँग रही है...! सात कोस के
अंदर जन्मे सभी बच्चों को जा पकड़ के ले आ....!” कहकर एक मुँड को फ़ेंका था सामने की
ओर...! भयानक वेश-भूसा, भयंकर अभिनय, डरावनी आवाज़...! मारे डर के मुझे एक साथ
मल-मूत्र त्याग की हाजत बन गई। बड़े लोगों के लिए तो वह नाटक का सबसे बेस्ट सीन
होता था मगर मेरे रुदन-क्रंदन से विवश पिताजी मुझे गोद में लेकर वापस चल पड़े। कोई
पाँच-सात साल का रहा होउंगा मैं।
हलाँकि उस पहली बार डर के बावजूद नाटक देखने का सिलसिला तो चल पड़ा। बाद में
मस्तरामजी के कई रंग देखे। वे हर चरित्र में जान भर देते थे। लेकिन इस बार उस
चरित्र को खटियासायी देख कर बड़ा दुख हुआ। उम्र तो हो चली थी मगर उस से कहीं अधिक
अवस्था। अत्यंत दुर्बल। कृषकाय। एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। रोग कोई नहीं मगर
अत्यंत रुग्ण दीख रहे थे। सिरहाने बाँसुरी रखी थी मगर उसमें फूँक मारने का ताव न
रह गया था। बोलने में भी आवाज़ लटपटाती है। विश्वास करना कठिन था कि एक दिन यही कलाकार
संगीत के उलझे रागों को भी अपने स्वर-झंकार से ऐसा सुलझा देता था कि श्रोता
मंत्रमुग्ध।
उस दिन कोई दो मिनट हरमोनियम बजा पाए थे। अंगुलियों में अभी भी बहुत जान बांकी
है। मगर न आवाज़ साथ देता है न शरीर। तुरत लेट गए। मैं मिलने गया था, इससे उन्हें
बड़ी खुशी हुई थी। ‘राममिलन का बेरा हो गया...! शायद ये आखिरी भेंट हो...!’ बड़ी
फ़ाकमस्ती से उन्होंने कहा था।
बड़ा कष्ट हुआ। एक कलाकार को निरीह देखकर। अतिशय धुम्रपान और बाद के दिनों में
नाटक बंद हो जाने के कारण पंजाब, हरियाणा, गुजरात के मीलों में देहतोड़ मेहनत ने उस
कलाकार की उम्र काफ़ी कम कर दिया था। चिकित्सकों ने गंगावास की सलाह दे दी थी।
फ़ेंफ़ड़े छलनी हो चुके थे। घर बराबर बात तो होती रहती है लेकिन इधर एक महीने से उनका
हाल-चाल नहीं पूछ पाया हूँ। पता नहीं....!
पहले मान‘सून’ आता था। अब मान‘लेट’ हो गया है। झूले पड़ते थे। अब भूले पड़ते हैं। कजरी गूँजती थी। अब सिर्फ़ इतिहास में।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सच कहा आपने ... आभार
बचपन में बहुत नाटक देखे हैं..बार बार याद आते हैं..
जवाब देंहटाएंविवरण मनभावन लगा, सावन दगा अबूझ |
जवाब देंहटाएंनाटक नौटंकी ख़तम, ख़तम पुरानी सूझ |
ख़तम पुरानी सूझ, उलझ कर जिए जिंदगी |
अपने घर सब कैद, ख़तम अब दुआ बंदगी |
गुड़िया झूला ख़त्म, बची है राखी बहना |
मेंहदी भी बस रस्म, अभी तक गर्मी सहना ||
गज़ब का विवरण.. जैसे आंखों के सामने गुज़र रहा हो सब कुछ। जितनी सुंदर शैली है आपकी, उतना ही तीव्र भावनाओं का ज्वार। बधाई।
जवाब देंहटाएंवाह: बहुत ही ओज पूर्ण शैली मे सुन्दर विवरण किया है बहुत सी यादें ताजा़ होगई...
जवाब देंहटाएंलोक-मंच पर खेले जानेवाले नाटक जितना सरस आनन्द मन में भरते हैं उतना तो मँहगी फिल्में भी नहीं कर पातीं ,करिश्मा सारा उन अभिनेताओं का !
जवाब देंहटाएंनाटक लीला का मंचन और पात्रों का सुन्दर वर्णन ने बचपन की याद दिला दी जब हम बोरा बिछाकर घंटों परदा उठाने का इंतजार करते थे .
जवाब देंहटाएंबहुत प्रबल भाव ...सावन हृदय की माटी नम कर देता है ...आती ही हैं बहुत सारी बातें याद ...!!
जवाब देंहटाएंमाटी से जुड़े हुए जो रस लोकसंगीत और लोक मंच पर खेले जाने वले इन नाटकों मे है ...वो और कहीं नहीं ...!!
रोचक शैली में आपने अपनी स्मृति को शिखर पर चढ़ाया है। अब तो रेवाखंड में न नाटक होता और न ही कोई लीला। छठ पर पिछले दो सालों से सिर्फ़ आपके अभिनित दृष्य ही याद आते रहे हैं। मंच आपके अभिनय में जो ताज़गी देखी है वही इस आलेख में पाया है। शायद इस बार छठ में मिलना हो तो कुछ देखना भी हो जाए।
जवाब देंहटाएंइतिहास को दुलार गई यह पोस्ट रेवा खंड के .
जवाब देंहटाएंनाटक आपके विवरण के साथ कल्पना करके देख लिया और कुछ बचपन की यादें
जवाब देंहटाएं'' अन्न-जल, साग-सब्जी, दूध-दही तो पर्याप्त मगर इंधन का घोर अभाव। गोबर के गोइठे सूखते नहीं थे और लकड़ियाँ गीली हो जाती थी। अब चूल्हा में लगाकर करते रहो फ़ू-फू...! मैंने तो कई बार देखा था। भर सावन मेरी माँ की आँखें गीली ही रहती थी।
ताजा हो गईं .
आपके इस पोस्ट पर जब भी आता हूं न जाने क्यूं मेरा मन इस ढलती वय में भी नन्हा सा हो जाता है। शहर की घुटन भरी जिंदगी में गांव की मधुर स्मृतियां कुछ पल के लिए ही सही एक सुखद एहसास की अनुभूति से पुलकित करा जाती है। एक महनगरीय परिवेश में होने के कारण हम अपने मूल से जुड़ नही पाते हैं लेकिन जब भी गांव में मनाए जाने वाले पर्व, त्योहार एवं सामयिक उत्सव को अपने से जोड़ कर देखता हूं तो मन अनायास ही वीते वासर में खिंचा चला जाता है। चाहे इसे राग कहा जाए या विराग। मैं समझता हूं कि राग और विराग भले ही विपरीत दिशाओं चलते हैं पर चलते साथ-साथ ही हैं। इसी क्रम में विलुप्त प्राय होते जा रहे ग्रामीण सामयिक उत्सवों एवं त्योहारों की याद मन को तनाव से भर देती है। जिन चीजों को आपने इस पोस्ट में तरजीह दिया है, उन सबका मैं भी कभी प्रत्यक्षदर्शी गवाह रहा हूं एवं शायद इसी कारण इन अविस्मरणीय यादों को मन में सहेजे रखने के सिवाय अब कोई दूसरा रास्ता नही सूझता। रोचक एवं संवेदनशील प्रस्तुति के लिए करण जी, आपका विशेष आभार।
जवाब देंहटाएंसावन आया झूम के, पड़ती सुखद फुहार।
जवाब देंहटाएंतन-मन को शीतल करे, बहती हुई बयार।।
प्रस्तुति जानदार है
जवाब देंहटाएंअब किकेटवा होता तो कुछ होता
बाँसुरी की तान में का रखा है?
hamesha ki tarah......adbhud varnan.....
जवाब देंहटाएंकेशव जी लगता है कि हमही लिखे हैं ये लेख... हम भी गाँव हो आये एक दिन के लिए... लगा ही नहीं कि सावन है... खेत पथार सब बदल गए हैं... मधुबनी है प्रसिद्द इन्द्र पूजा भी सूना है कि बंद हो गया है... सरसों पाहि में बड़े नाटक हुआ करते थे.. अब नहीं होते.... मेरे गाँव का नाटक तो मेरे गाँव छोड़ने के बाद ही बंद हो गया था... मन उदास हो जाता है आपको पढ़कर...
जवाब देंहटाएंक्या क्या नहीं रीतता जा रहा है... ?
जवाब देंहटाएंगज़ब की शैली और विवरण....
सादर।
shukriyaa bhaai saahab blog dastak kaa .
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर संस्मरण ...बहाकर ले चलता है
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय संस्मरण।
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण ... मान लेट नया शब्द पता चला :):)
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