फ़ुरसत में ... 107
दिल की उलझन
मनोज कुमार
फ़ुरसत में हूं ... मन में प्रश्न आता है कि यह ज़िंदगी हमेशा सरल और सुंदर-सुंदर ही क्यों नहीं होती? हर रोज़ एक नया बखेड़ा, उसके विरुद्ध जीने की ज़िद, ज़िद से उत्पन्न जद्दो-जहद। एक उबड़-खाबड़ मैदान में लगता है कि सौ मीटर की बाधा दौड़ का हिस्सा बन गया हूं। क्यों? ऐसा क्यों? प्रश्न ख़ुद से जब किया है, तो उत्तर भी तो ख़ुद को ही देना पड़ता है। दिमाग ने यह प्रश्न किया था। दिमाग प्रश्न करता है। इसलिए करता है क्यों कि तर्क, वितर्क और कुतर्क भी तो वही करता होता है। आदत है उसकी। आदत से वह बाज़ आने से रहा। प्रश्न दिमाग करे जवाब दिल से देना पड़ता है। दिल ने इस प्रश्न कि ज़िंदगी हमेशा सरल और सुंदर-सुंदर ही क्यों नहीं होती का जवाब दिया –
“जीवन सरल और सुंदर है, जब तक हम स्वयं इसे उलझा न दें।”
दिल का यह सीधा-सादा सा जवाब नहीं था। इसमें साफ़-साफ़ दिमाग पर आरोप था। दिल हमेशा सरल और सुंदर होता है। हो भी क्यों नहीं? उसमें आख़िर बसते तो हैं ईश्वर ही। एक हम हैं कि दिल के दरवाज़े बंद कर दिमाग को लगा देते हैं पहरेदारी के लिए। जीवन की सारी उलझनें, सारी समस्याएं दिमाग ही पैदा करती रहती हैं। अब इस दिल के अंदर कौन प्रवेश करे, कौन नहीं, यह यदि दिमाग तय करने लगे, तो उलझने और समस्याएं पैदा होंगी ही।
एक कलाकार ने बहुत हसीन दिल बनाया। उसमें उसने छोटा-सा दरवाज़ा भी लगाया। यहां तक तो दिल - दिल था। दिल से था। लेकिन ...? इस ‘लेकिन’ के आते ही दिमाग की ख़ुराफ़ात शुरू हो जाती है। तो अब इस लेकिन को आगे बढ़ाया जाए... लेकिन यह है कि उस हृदय के दरवाज़े पर हैंडल नहीं था। किसी ने पूछा, “क्यों? हैंडल क्यों नहीं?” तो उस कलाकार ने जवाब दिया, “दिल के दरवाज़े अंदर से खुलते हैं।” यही है दिमागी ख़ुराफ़ात। एक सरल सा दिल अब जटिल हो गया। उलझने पैदा होंगी, इसके आसार बढ़ गए। दिल के दरवाज़े को कलाकार ने इस तरह का बना दिया कि उसके दरवाज़े अंदर से खोलने वाला ही खोल सकेगा। अब यहां उसके दिमाग का ज़ोर चलेगा, जिसका दिल है। वह चाहे जिसे आने दे जिसे चाहे न आने दे। इस व्यवस्था में इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि कुछेक अच्छे अवसर के दिल के अंदर प्रवेश की संभावना घट जाए।
दिमागी फ़ितूर का एक ऐसा ही वाकया याद आ रहा है।
एम.एस.सी. की पढ़ाई पूरी करने के बाद हम शोध कर रहे थे। गंगा के प्रदूषण स्तर की जांच करते-करते एक जीव ऐसा मिल गया था, जिसके गंगा की कोख (“फ़्रेश वाटर”) में पलने की सूचना विज्ञान जगत को तब तक नहीं थी। ठीक वैसे ही जैसे उस लैब में मौज़ूद एक अन्य शोधार्थी के दिल में क्या पल रहा था? वह कितना भी बड़ा प्रोजेक्ट क्यों न रहा हो, और उस खारे जल (मेरीन वाटर) में पाए जाने वाले जीव को स्वच्छ जल (फ़्रेश वाटर) में पा लेने की उपलब्धि के बावज़ूद रिसर्च मेरा मुख्य लक्ष्य नहीं था, यह तो जेब ख़र्च चलाए जाने के लिए की जाने वाली विवशता थी। मुख्य उद्देश्य तो हमारा हमने कुछ और ही तय कर रखा था। काश, उस समय भी दिल की सुन कर शोधकार्य को पूरा किया होता तो कहीं विज्ञान की दुनिया में किसी ऐसे जीव के साथ नाम जुड़ा होता, जिसको विज्ञानियों के सामने लाने का श्रेय हमारा होता। किंतु हमने तो मानी दिमाग की।
वह शोधार्थी यदा कदा अपने शोध के जटिल सूत्र हमें थमा, उसके निदान की अपेक्षा हमसे रखती थी। और हमें भी विश्व विद्यालय के माहौल में शिक्षक की भांति व्याख्यान देकर उसे समझाने की आदत-सी हो गई थी। उन दिनों ‘बुनियाद’ धारावाहिक के रूप में घर-घर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा चुका था और ‘मास्टर जी’ – ‘लाजो जी’ लोगों के दिल में घर बना चुके थे। ऐसे ही किसी दिन शोध के जटिल सूत्र की मेरे द्वारा की गई सरल व्याख्या से प्रभावित हो कर उस शोधार्थी ने हमें ‘मास्टर जी’ के ख़िताब से नवाजा, तो हमारे मुंह से ‘लाजो जी’ के रूप में फिसल कर बाहर निकल आया शब्द उन सारे सुलझे सूत्रों को उलझा गया।
लैब के अन्य साथियों को भी कोई-न-कोई सूत्र हाथ लग ही गया था, हमें नई-नई उलझनों में डालने की। उस शोधार्थी के मन में कौन-सा मयूर नाच रहा था, यह तो मैं नहीं जानता था, पर मेरे मस्तिष्क के पटल पर यह साफ़ था कि यह एक साधारण सी घटना थी जिसको दिल पर नहीं लेना है। शाम होते-होते लैब से विदा होने के पहले उस शोधार्थी का प्रस्ताव आया, “मेरे घर आओ न कभी।” आज के संदर्भ में यह कोई बड़ी बात न लगती हो, उन दिनों की जो सामाजिक पाबंदियां थीं, कि हम इस प्रस्ताव को न उतनी आसानी से स्वीकार कर सकते थे और न ही किया। हमने अपने दिमाग के आदेश को मानते हुए उसके प्रस्ताव पर कोई गंभीर प्रतिक्रिया दिए बगैर बात को कल तक के लिए टाल दी।
दूसरे दिन उस शोधार्थी द्वारा दिया गया कोई उलझा सूत्र हाथ न लगा, तो हमारे अंदर का ‘मास्टर जी’ भी फ़ुरसत में ही था। दोपहर के भोजनावकाश के समय एक अन्य शोधार्थी ने मेरे पास आकर कहा, “तुम्हें उसने खाने पर बुलाया था, और तुमने कोई जवाब अभी तक नहीं दिया है। तुम्हें जाना चाहिए। शी इज़ अ गुड कुक! उसने कुकिंग की ट्रेनिंग ले रखी है।” हमने कहा, “हमें खाने से उतना लगाव नहीं है। कभी बाद में सोचेंगे।” तब तक वह भी पास आ चुकी थी। बोली, “कल शाम को आ जाओ। (इस बार निवेदन से ज़्यादा आदेश वाला स्वर था) ... ये सब भी आ रहे हैं।”
मेरे लिए राहत की बात थी कि वे सब भी रहेंगे। लेकिन दिमाग अपनी हरकत से बाज़ नहीं आया और हमने उसके गिरफ़्त में आकर अपनी एक शर्त रख दी – “मुझे वो सब खाना पसंद नहीं है।” उसने स्वर को मुलायम रखने की कोशिश तो की थी, पर रख न सकी थी, कहा, - “अपनी पसंद बताओ।” मैंने अपनी पसंद बता दी – “मुझे मकुनी और बैगन का चोखा अच्छा लगता है।” (मकुनी को सत्तू स्टफ़्ड पराठा कह सकते हैं। वह ख़ुश दिखी। उसके चेहरे पर की प्रसन्नता दिल से निकली लग रही थी। यहां मेरे मन में दिमागी कसरत ज़ारी थी।
अगले दिन हम मिले। भोजन कांड शुरू हुआ। बाक़ी सारे मित्रगण तो देशी-विदेशी (ओरिएंटल-इंटर-कॉन्टिनेन्टल) पर टूट पड़े थे। मैं मकुनी और बैगन का चोखा लिए अपनी उदर-पूर्ति से ज़्यादा उसके धैर्य और पाक-कला की परीक्षा ले रहा था। उन दिनों आज के ज़माने सी बात नहीं थी कि निमंत्रण – फ़िल्म जाने का, या क्लब, पार्टी, या पार्क का हो। यहां तो उस दिन एक पक्ष द्वारा अपनी पाक-कला दिखाने का निमंत्रण था, तो दूसरे पक्ष द्वारा अपनी पाचनशक्ति का।
दिल और दिमाग की इस रस्सा-कसी में हमने कितने अंदर डाले इसका मुझे तब भान हुआ जब अगली की मांग पर जवाब मिला – “थोड़ी देर ठहरो। आंटा गूंथा जा रहा है।” मेरा उद्देश्य पूरा हो चुका था। इस खाने खिलाने का खेल कौन जीता, कौन हारा हारा, निर्णय हो चुका था।
मैंने वहीं विराम दिया।
विराम लगा देना मेरे लिए ‘सरल’ था। उसके लिए शायद और आंटा गूंथ कर मकुनी बनाना ‘सरल’ रहा होगा। मेरा उसे इस आयोजन में आने से इंकार कर देना भी ‘सरल’ था, पर मैं ‘सरल’ दिखने के चक्कर में इंकार नहीं कर पाया। मोरल ऑफ द स्टोरी अगर कहा जाए तो बस इतनी है कि ---
जीना सरल है,
प्यार करना सरल है,
हारना सरल है,
जीतना भी सरल है,
--- तो कठिन क्या है?
“सरल” होना कठिन है।
***
तो कठिन क्या है?
जवाब देंहटाएं“सरल” होना कठिन है।
बिल्कुल सच ... गहन भाव लिए उत्कृष्ट लेखन ...आभार
“सरल” होना कठिन है।
जवाब देंहटाएंsahii kehaa
सच कहा है आपने ... ये सब से बड़ी समस्या है आज की ... जो भी है हम उसमें कुछ और ढूंढना चाहते हैं ... तर्क बस तर्क के लिए करना चाहते हैं ... बात का बतंगड बनाना चाहते हैं ... बिना बात बहस करते हैं ... सरलता खोते जा रहे हैं ... बचपना खो रहे हैं ...
जवाब देंहटाएंआखिर फुर्सत में आप ले ही आए दिल की उलझन ....
जवाब देंहटाएंजब हर जगह से दिल हार जाता है तो दिमाग आधिपत्य जमा ही लेता है .... वैसे यूं परीक्षा लेकर सरल बात को जटिल बना दिया ॥
यह भी सच है कि सरल रहना ही सबसे जटिल प्रक्रिया है ।
चिन्तनपरक लेख....वस्तुतः ज़िन्दगी को उलझाए रखना मानव प्रवृत्ति है....
जवाब देंहटाएंवाह....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर बात....आपने कितनी सरलता से कह डाली.
लाजवाब
सादर
अनु
dil se harne wale log sada dimag ki raah chalte hai....so aap bhi chale aur saral hote hue bhi saral ko kathin bana diya......ye insani pravarti hai jo aasani se milne ko ho uski keemat nahi....jo n mile uske peechhe ulajhta/bhagta rahega. bekar me saral ko kathin banate rahana maanveey swabhaav hai.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर शब्दों मे व्यक्त किया उलझन को ...जब दिल और दिमाग की बहस होगी ...अहम की टकरार होगी उल्झन बढ़ ही जायेगी ...सच मे सरल जीवन को कठिन हम स्वयम ही बनाते हैं ...!!!
जवाब देंहटाएंयहां गयी भैंस पानी में। हम तो बडे मनोयोग पूर्वक पढ़ रहे थे कि कुछ दिल की सुनेंगे और कपाट शायद खुलेंगे लेकिन यहां तो सरल होना ही सिद्ध कर गए आप। बढिया संस्मरण एवं चिंतन।
जवाब देंहटाएंजीना सरल है,
जवाब देंहटाएंप्यार करना सरल है,
हारना सरल है,
जीतना भी सरल है,
--- तो कठिन क्या है?
“सरल” होना कठिन है।.... सरलता में ही हम अकबका जाते हैं
सही बात तो यह है कि हम सरलता में ही सहज होते हैं,पर आजकल के सन्दर्भ में इसमें कठिनता है.आज कृत्रिमता भले सरल लगती है पर उसका भविष्य कठिन होता है.
जवाब देंहटाएं...अच्छा संस्मरण रहा.'भोजन-कांड' ने प्रभावित किया !
पूरी कथा का निचोड़ ही आपके प्रश्न का जवाब बन गया :) वाकई जीवन में सब कुछ सरल है शायद, मगर सरल होना ही सबसे कठिन....
जवाब देंहटाएंमस्त पोस्ट ...
जवाब देंहटाएंअभी बाहर निकलना था मेल देखने के लिए लैपटॉप खोला तो आपका फुर्सत में देखकर पढ़े बिना रहा नहीं गया.सरल जटिल की प्रक्रिया पर अच्छा चिंतन कर डाला है पर इस सरलीकरण में भी कई बार जटिलताएं पैदा हो जाती है :).यूँ सरल होना भी आसान नहीं सही कहा आपने.
जवाब देंहटाएंदिल और दिमाग की बाते तो फुरसत में कमाल करती है . आज भी कर गई कमाल लेकिन हमको आपने मकुनी याद दिला के ठीक नहीं किया ना . वो क्या है बचपन में हमरा सबसे पसंदीदा भोजन था , वो भी बरसात में . औरी उनके घर गए तो उनकी अम्मा से भी मिले होगे? गाना गया का?इसी लिए मम्मी ने उनके मुझे मकुनी पर बुलाया है?
जवाब देंहटाएंजीना सरल है,
जवाब देंहटाएंप्यार करना सरल है,
हारना सरल है,
जीतना भी सरल है,
--- तो कठिन क्या है?
“सरल” होना कठिन है।
सही कहा है सरल होना कठिन है
और बर्दाश्त करना भी,सरल व्यक्ति को लोग पसंद
नहीं करते इसलिए विशेष होने की सारी कसरत करनी
पड़ती है ! सुंदर चिंतन ....
हम सरल हो जांय तो सब सरल हो जायेगा।..हम तो इसी मंत्र को लेकर जा रहे हैं।:)
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक संस्मरण....
जवाब देंहटाएंवैसे मेरे लिये 'सरल' टिप्पणी करना बेहद कठिन है...
सोचता रहता हूँ कि कैसे 'सरलता से कही जाने वाली बात' घुमा-फिराकर कहूँ.
मनोज जी,
'सरोज' विकसने के लिये 'जल'का कुछ पंकिल होना जरूरी है ... किन्तु 'आप' का विकास तो 'सरल' होने में ही है.
मुझे लगा कि उस कलाकार ने ठोकर मार कर खुलने वाला दिल बनाया होगा..ताकि दिमाग बंद हो जाए..चोट खाकर..सरल प्रवाह में सजग करता हुआ सहज आलेख के लिए बधाई ....
जवाब देंहटाएं“जीवन सरल और सुंदर है, जब तक हम स्वयं इसे उलझा न दें।”..सही कहा मनोज जी..बहुत ही रोचक संस्मरण....आभार
जवाब देंहटाएंहमें तो जटिल चीजों को सरल बनाने की लत लगी है..
जवाब देंहटाएं“सरल” होना कठिन है।
जवाब देंहटाएंसत्य!
जीवन सुंदर और सरल है,हम लेते उलझाय,
जवाब देंहटाएंजटिल बनाकर स्वम ही, फिर पीछे पछताय,,,,
बधाई,,,,मनोज जी,,,,,
RECENT POST...: दोहे,,,,
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (08-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
आपने यह लेख जितनी सरलता से लिखा है मनोजजी.. वह भी कठिन है.. अनौपचारिक नोट पर, कहे बिना रहा नहीं जा रहा है कि सत्तू परांठा और बैंगन का चोखा मेरा भी फेवरिट है:)
जवाब देंहटाएंकितना सही कहा आपने ...हम खुद ही अपनी उलझन बढ़ाते है और उसमे उलझ कर निकलने का रास्ता खोजते है क्यों नहीं सादा जीवन जीते दिखावे से दूर
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल रविवार को 08 -07-2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज हलचल में .... आपातकालीन हलचल .
एक पुराना पन्ना खोला बड़े आहिस्ते से ......कुछ-कुछ चूंगा डाला धीरे-धीरे.... लिट्टी-चोखा की दावत उड़ा गये फ़टाफ़ट। और आख़िर में कह गये एक पते की बात। भई वाह वाह! क्या बात! क्या बात!
जवाब देंहटाएंकथा प्रभावित कर गई, मुकुनी रोटी स्वाद |
जवाब देंहटाएंजिभ्या आनंदित हुई, पाया सरल प्रसाद |
पाया सरल प्रसाद, पेट भी भरा-भरा सा |
दिल को भाया साथ, खुला पट किन्तु जरा सा |
जीवन जद्दो-जहद, दिमागी खुराफात ने |
दिया अडंगा डाल, सरल सी मुलाक़ात में ||
अब लाजो जी कहाँ हैं? अब भी देर नहीं हुयी है -सुबह जब हो जाय तभी सवेरा
जवाब देंहटाएंबाकी जब दिल पर दिमाग की खुर्चाली शुरू हो जाती है तो वह व्यक्ति अनूप हो जाता है
अच्छा रहा आप अनूप होने से बच गए नहीं तो यह संस्मरण यहाँ न दिखता..
आपके संस्मरण इस अर्थ में संक्रामक होते हैं कि वे पाठकों को उनकी याद करा देते हैं ...
एक सहज निश्छल पोस्ट!
बिना उलझन के बदरंग होने लगती है कई बार जिंदगी.
जवाब देंहटाएंकाश घडी में एक काँटा फुर्सत का भी होता....
जवाब देंहटाएंपढ़ के लगा सबकी जिन्दगी मेरी ही तरह होती है.... हा हा हा.....!!
बहुत सुन्दर..!
जीना सरल है,
जवाब देंहटाएंप्यार करना सरल है,
हारना सरल है,
जीतना भी सरल है,
--- तो कठिन क्या है?
“सरल” होना कठिन है।
अत्यंत आत्मीय संस्मरण.
बहुत ही अच्छी बात कही है आपने...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया,,,
सरल होना कठिन है...
:-)
बहुत सरल और सहज शब्दों में बहुत बड़ी बात कह दी है |आशा
जवाब देंहटाएंजीना सरल है,
जवाब देंहटाएंप्यार करना सरल है,
हारना सरल है,
जीतना भी सरल है,
--- तो कठिन क्या है?
“सरल” होना कठिन है।
..aaj ke haalaton mein sach saral bene rahna bahut hi kathin hai..
bahut sundar prastuti
जीवन के हाशिये पे बैठ
जवाब देंहटाएंसच-झूठ के फैले रंगों में
खोजता हूँ कुछ सहज रंग
जिनमे न हो
सच की भ्रमित सी कर देने वाली ख़ामोशी
न हो झूठ का दिल को रोंदता चित्कार
बस सहजता
झूठ और सच साथ-साथ
झूठ, मानो शरारत को उकसा बचपन
सच, जैसे हर परिस्थिति में उसका संग
न हार में निराशा
न जीत में घमंड
बस एक सहज भाव
मानो दो ओर से बंधी
समर्पण को जाती
नदी का बहाव ..
( एक पुरानी कविता का अंश )
जीवन के हाशिये पे बैठ
जवाब देंहटाएंसच-झूठ के फैले रंगों में
खोजता हूँ कुछ सहज रंग
जिनमे न हो
सच की भ्रमित सी कर देने वाली ख़ामोशी
न हो झूठ का दिल को रोंदता चित्कार
बस सहजता
झूठ और सच साथ-साथ
झूठ, मानो शरारत को उकसा बचपन
सच, जैसे हर परिस्थिति में उसका संग
न हार में निराशा
न जीत में घमंड
बस एक सहज भाव
मानो दो ओर से बंधी
समर्पण को जाती
नदी का बहाव ..
( एक पुरानी कविता का अंश )
“सरल” होना कठिन है।...........सत्य वचन्।
जवाब देंहटाएंसच कहा है अपने जीवन में 'सरल ' होना कठिन है. पर ये बात अगर समझ आ जाये तो फिर कोई कठिन और कटु हो ही नहीं.
जवाब देंहटाएंयूँ ही जी लें वो क्या ज़िन्दगी , थोड़ी सुलझे बाकि उलझ जाये , लगे समय सुलझाने में तब ही लगता है ,ये है ज़िन्दगी ...
जवाब देंहटाएंजिंदगी रोज बखेड़े खड़े नहीं करे तो जीने में मजा कहाँ रह जायेगा....
जवाब देंहटाएंमनोज जी ये खरा सच कहा अपने -
जीना सरल है,
प्यार करना सरल है,
हारना सरल है,
जीतना भी सरल है,
--- तो कठिन क्या है?
“सरल” होना कठिन है।
बढिया संस्मरण !
जवाब देंहटाएं‘मास्टर जी’
जवाब देंहटाएं‘लाजो जी’
जैसी सरलता लाना कठिन है
दिमाग की बात मानना लगता सरल है पर है बहुत कठिन्…:)
जवाब देंहटाएंसरल होना सबसे कठिन है , सरल होने की मुसीबतें भी बहुत है ...ऐसा लगता है कई बार !
जवाब देंहटाएंसरलता का जमाना नहीं रहा?!
जवाब देंहटाएं