आंच-115
“शोर” का मतलब कुछ कह देना नहीं है
मनोज कुमार
दार्जीलिंग जिले में हिमालय की तराई में स्थित एक अनजानी सी जगह पैनी कुमारी जोत में जन्मी दीपिका रानी एक संवेदनशील व्यक्तित्व की धनी हैं। पैनी या पाइनी नेपाली शब्द है जिसका अर्थ होता है, जल का छोटा स्रोत जो वहां पहले बहुतायत में थे और अब लगभग विलुप्त हो चुके हैं। हरे भरे चाय बागानों से घिरी यह जगह एक छोटा सा स्वर्ग है। चाय की गुणवता भरी पत्तियों से शायद प्रभावित हो उन्होंने अपने ब्लॉग का नाम “एक कली दो पत्तियां” रखा हो। इन पत्तियों का फलक इतना विस्तृत है कि इस ब्लॉग की कविताओं को पढ़ने पर लू में शीतल छाया जैसी सुखद अनुभूति मिलती है क्योंकि उनकी कविताएं एक संवेदनशील मन की निश्छल अभिव्यक्तियों से भरी-पूरी होती हैं। दावे के साथ कह सकता हूं कि दीपिका उन विरल कवयित्रियों में से हैं जिनकी कविता एक अलग राह अपनाने को प्रतिश्रुत दिखती हैं।
इसका ताज़ा उदाहरण उनकी कविता शोर है जो आज की “आंच” का विषय-वस्तु है। बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में अधुनिकता और प्रगतिशीलता की नकल, चकाचौंध और शोर शॆ किस तरह हमारी ज़िन्दगी घुट रही है, प्रभावित हो रही है, उसे दीपिका ने इस कविता में दक्षता के साथ रेखांकित किया है। उन्होंने बिल्कुल नई सोच और नए बिम्बों के साथ समाज की मौज़ूदा जटिलता को न सिर्फ़ उजागर किया है, बल्कि अपनी उदासीनताओं के साथ सोते संसार की नींद में खलल भी डाला है। आज का दौर विचलनों का दौर है। विचलनों के इस दौर में कविताओं में धरती दिखाई नहीं देती। लेकिन यह दिलचस्प है कि इनकी रचना में धरती और आकाश का दुर्लभ संयोग दिखता है।
हल्के सिंदूरी आसमान में
उनींदा सा सूरज
जब पहली अंगड़ाई लेता है,
मेरी खिड़की के छज्जे पर
मैना का एक जोड़ा
अपने तीखे प्रेमालाप से
मेरे सपनों को झिंझोड़ डालता है।
दीपिका की कविता “शोर” के सरोकार केवल पहाड़ नदी से नहीं, कहीं न कहीं पूरे भूमंडल से जुड़े हैं। ज़रूरी नहीं कि इस कठिन समय को रूपायित करने के लिए कविता अपने विन्यास और बोधगम्यता में कठिन हो जाए। कम-से-कम उनकी यह कविता इस तर्क को नकारती है।
चाय में रात की रोटी भिगोती अधीर उंगलियां
एक और लंबे दिन के लिए तैयार हैं।
दीपिका ने अपनी कविताओं में समय के बदलते हालात को लेकर हमेशा जरूरी सवाल खड़े किए हैं। विगत कुछेक दशकों में हमारा समय जितना बदला है उसकी चिंता उनकी कविता में बहुत ही प्रमुख रूप में दिखाई देती है। हमने इस बदले समय में जिस तरह से अपनी पुरानी समृतियों को पोंछ डाला है, वह उनकी आलोच्य कविता “शोर” में चिंता का विषय है
बर्फीले पानी में
नंगे बच्चों की छपाक-छई से
पसीज गए हैं मेरी आंखों में
कुछ ठिठुरे हुए लम्हे।
छलकते पानी के साथ
हवाओं में बिखर गई है
कुछ मासूम खिलखिलाहटें।
मन करता है
अंजुरी अंजुरी उलीच लाउं
फिर उसी झरने से
कुछ खोई हुई खिलखिलाहटें।
दीपिका की यह कविता इस बात का सबूत है कि कवयित्री की निगहबान आंखों में न तो जीवन के उत्सव और उल्लास (नंगे बच्चों की छपाक-छई) ओझल हैं और न ही जीवन के खुरदुरे यथार्थ (टीन के छप्पर पर शोर मचाता)। जिंदगी के कई शेड्स इस कविता में ऐसी काव्यभाषा में संभव हुए हैं, जो आज लगभग विरल हो चुकी है। ‘टू फॉर ज्वॉय बोल’, ‘बच्चों की मासूम खिलखिलाहटें’, ‘घरों में हलचल’, ‘वफादारी दिखाने को व्यग्र’, ‘नए पैरों से लड़खड़ाते हुए’, ‘बिन बुलाए मेहमान सा’, ‘भीड़ भरे शहर का सन्नाटा’ आदि प्रयोग के द्वारा कवयित्री जीवन के उन शेड्स को उजागर करती हैं।
“शोर” शीर्षक इस कविता को पढने से ऐसा लगता है कि दीपिका यह मानती हैं कि काव्य का मतलब कुछ कह देना नहीं होता है, यानी कविताओं में वाचालता उन्हें मंज़ूर नहीं है। वह ख़ामोशी की कायल हैं। उनकी कविता में खामोशी जो है वह कई अर्थ और रंग लिए हुए है। अपनी धारणाओं और मान्यता के बल पर ही उन्होंने अपनी रचना को इन रंग में ढाला है। बदली हुई आवाज़ों के बरक्स अपनी आवाज़ के जादू के साथ ‘भोर का एकांत’, ‘ठिठुरे हुए लम्हे’, ‘चरमराते पत्तों की आवाज़’, ‘सन्नाटा अब चिढ़ाता’, आदि के रूप में सन्नाटों के कई रंग इस कविता में मौज़ूद हैं। यह कविता किसी तरह का बौद्धिक राग नहीं अलापती, बल्कि अपनी गंध में बिल्कुल निजी हैं, जिसमें जीवन की विविधता की अंतरवस्तु सांस ले रही है।
दीपिका ने “शोर” के द्वारा सृष्टि को एक नई प्रविधि से देखने की तरक़ीब की है जिसमें प्रकृति के सामान्य उपकरणों जैसे ‘हल्के सिंदूरी आसमान’, ‘उनींदा सा सूरज’, ‘मंद हवाओं की ताल’, ‘भोर का एकांत’, ‘बर्फीले पानी’, ‘मेघ का टुकड़ा’, आदि के द्वारा उन्होंने जीवन के बड़े अर्थों को सम्प्रेषित करने की सच्ची कोशिश की है। “शोर” संघर्ष की जमीन से फूटती आवाज़ है। इसको पढ़ने से ऐसा लगता है कि कवयित्री की सपनों को देखने वाली आंखों की चमक और तपिश भी बनी हुई है। क्रूर और आततायी समय में उनके सच्चे मन की आवाज़ है यह कविता। कविता में जीवन की सुगंध, पेड़, पशु, पक्षी प्रकृति के रूप में प्रकट हुए हैं, और ऐसा लग रहा है कि विचार इस रूप में हैं, जिनमें गुथी जीवन की कडि़यां कानों में स्वर लहरियों की तरह घुलने लगती है । जो चित्र हमारे सामने बना है वह रमणिक और शांतिप्रिय भविष्य को देखने वाली आंखों का है ।
चाय में रात की रोटी भिगोती अधीर उंगलियां
एक और लंबे दिन के लिए तैयार हैं।
वफादारी दिखाने को व्यग्र कुत्ता
चरमराते पत्तों की आवाज़ पर भी भौंकता है
नए नए पैरों से लड़खड़ाते हुए दौड़ता बछड़ा
रंभाती मां की आवाज़ सुन
चुपचाप उसके जीभ तले गर्दन रख देता है।
कविता भाषा शिल्प और भंगिमा के स्तर पर समय के प्रवाह में मनुष्य की नियति को संवेदना के समांतर, दार्शनिक धरातल पर अनुभव करती और तोलती है। ताज़ा बिम्बों-प्रतीकों-संकेतों से युक्त कविता की भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं, जीवन की तहों में झांकने वाली आंख है। इस कविता का काव्य-शिल्प हमें सहज ही कवयित्री की भाव-भूमि के साथ जोड़ लेता है। चित्रात्मक वर्णन कई जगह बांधता है। शब्दों का चयन अपनी भिन्न अर्थ छटाओं से कविता को ग्राह्य बनाए रखता है। और अंत में प्रयुक्त “चिढ़ाता” शब्द अलग से ध्यान खींचता है । इसका अपना विशिष्ट महत्व है । यह एक ऐसी बौद्धिक अवस्था है, जहां एक दूसरे का विरोध करने वाली और परस्पर विपरीत स्थितियां मुकाबले में खड़ी होती हैं। एक चीज़ जो है, और जो पसंद भी नहीं है, पर अपनी उपस्थिति के द्वारा कवयित्री के मन में चिढ़ उत्पन्न कर रही है।
दीपिका की इस कविता में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी है। उन्होंने जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। उनकी भा्षा में बिम्बात्मक शैली का प्रयोग है लेकिन कहीं कोई उलझाव नहीं है। कविता पाठक को न सिर्फ़ कवयित्री के मंतव्य तक पहुंचाती है बल्कि अपना एक अलग मुहावरा रचती है। प्रकृति की आहटों को कवयित्री बहुत तीव्रता से सुनती हैं और कविता में दर्ज करती हैं। उनकी कविता में कथ्य और संवेदना का सहकार है जिसका मकसद इस संसार को व्यवस्थित और शांतिमय देखने की आकांक्षा है। यह कविता तरल संवेदनाओं से रची गई है, जो दिल से पढ़ने की अपेक्षा रखती है। चित्रात्मकता इसकी खास विशेषता है। अंदाज़ेबयां सर्वथा अनूठा और नया है, लोगों को भाव-विभोर करने की क्षमता से तर-ब-तर यह कविता इनके काव्य-सामर्थ्य को दर्शाती है। सुंदर और कुरूप के विरोधाभास से चित्र का उभार अधिक हुआ है, संप्रेषणीयता में कहीं अटकाव नहीं है। टुकड़ों-टुकड़ों में बहुत कुछ बोलती है यह कविता। इसके लिए कवयित्री को साधुवाद!
दीपिका को हाल में ही पढ़ना शुरू किया है.उनकी अभिव्यक्ति प्रभावित करती है.
जवाब देंहटाएंआपने बेहतरीन समीक्षा की है.
बहुत अच्छा लगा पढ़ना....
जवाब देंहटाएं"शोर" पढ़ चुकी थी....दीपिका जी को नियमित रूप से पढ़ती हूँ...उत्कृष्ट लेखन है उनका.
आप दोनों बधाई के पात्र हैं.
आभार इस पोस्ट के लिए.
सादर
अनु
कविता की भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम भर नहीं, जीवन की तहों में झांकने वाली आंख है… बहुत सच्ची बात कही सर.... सुंदर रचना ‘शोर’ की बहुत सुंदर चर्चा....
जवाब देंहटाएंसादर आभार।
वाह मनोज जी क्या बात है बहुत ही बढ़िया समीक्षा की है आपने दीपिका रानी जी की कविताओं की उनकी काव्य प्रतिभा की और हम तो आपके द्वारा की गई समीक्षा के पहले से ही कायल है। आज आपके माध्यम से दीपिका जी की कविताओं और उनके व्यक्तित्व के बारे में काफी कुछ जाने को मिला आभार...
जवाब देंहटाएंकविता को एक आलोचक की तीक्ष्ण दृष्टि से बाखूबी देखा है आपने ...
जवाब देंहटाएंआओ दोनों को साधुवाद ...
दीपिका जी की ये कविता बेशक काबिल-ए-तारीफ़ है और अब आँच की कसौटी पर तप कर तो और भी खरी हो गयी है।
जवाब देंहटाएंदीपिका रानी का परिचय अच्छा लगा ..
जवाब देंहटाएंविविधता भरी उनकी रचनाएं सचमुच अच्छी हैं ..
भविष्य में सफलता के लिए उनको शुभकामनाएं !!
बहुत अच्छा लगा पढ़ना...
जवाब देंहटाएंबढ़िया कविता है। आँच पर चढ़ी पर रंग जरा भी फिका न पड़ा! वाह!! दीपिका जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंदीप्ती रानी जी की कविताओं से परिचित हूँ.. आज आंच के माध्यम से और गंभीरता से समझा उनके बारे में... बहुत सुन्दर समीक्षा
जवाब देंहटाएंदीपिका जी की ये कविता काबिल-ए-तारीफ़ है
जवाब देंहटाएंकाफी अच्छी समीक्षा की है आपने .
जवाब देंहटाएंमैं दीपिका जी की कविताएँ पढता रहता हूँ , काफी अच्छा लिखती हैं और उनकी हाल की कविता "शोर" तो वाकई काफी अच्छी है .
आप दोनों को साधुवाद !
दीपिका जी की रचनाओं की लाजबाब समीक्षा की आपके लिखने का अंदाज काबिले तारीफ़ है,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST...: राजनीति,तेरे रूप अनेक,...
kavita aur sameekcha dono hi lajabab.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मनोजजी, मेरी साधारण सी कविता की असाधारण समीक्षा के लिए। बहुत गहराई और सूक्ष्मता से परखा है आपने इसे, मेरी भावनाओं को अपनी समीक्षा की नज़र से महसूस किया है। पसंद करने के लिए सभी पाठकों का धन्यवाद! आप लोगों के स्नेह से अभिभूत हूं।
जवाब देंहटाएंaaj pahli baar dipika ji ko padha. unke lekhan ki pratibha k sath sath aapka sameeksha star bhi koi kam pratibha waan nahi hai. aabhar is kavita aur lekhika se jankari karane k liye.
जवाब देंहटाएंदीपिका प्रतिभाशाली हैं,समीक्षा में आपका जवाब नहीं मनोज भाई !
जवाब देंहटाएंदीपिका रानी की कविताओं की सुन्दर समीक्षा
जवाब देंहटाएंकितना कुछ कर लेते हैं आप !!
जवाब देंहटाएंसाधुवाद !
दीपिका रानी का अच्छा परिचय दिया अपने... अभी जाकर मिलते हैं उनके ब्लॉग पर....
जवाब देंहटाएंपढ़ी हैं दीपिका की रचनाएँ..... बढ़िया परिचय .....
जवाब देंहटाएंदीपिका जी को अभी कुछ समय पहले ही पढ़ना शुरू किया है ... शोर कविता सच ही बहुत सुंदर है ... सहजता से कई दृश्य प्रस्तुत करती है .... और जो हम नहीं देख पाये उन्हें आपने अपनी समीक्षा से दिखावा दिया ... उत्कृष्ट समीक्षा
जवाब देंहटाएंकविता सुन्दर है और समीक्षक की नज़र पारखी !
जवाब देंहटाएंदीपिका की शोर कविता को बहुत ही अच्छे से विश्लेषित किया है आपने...इसमें कविता के कथ्य के साथ-साथ उसके विभिन्न शेड्स और उसके प्रभावों की भी आपने खूब बात की है। कवयित्री की संवेदना के धरातल पर भी आपने सुंदर टिप्पणी की है। धन्यवाद उनसे और उनकी कविता से परिचय करवाने हेतु।
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट के माध्यम से दीपिका जी को पढ़ना अच्छा लगा... आभार
जवाब देंहटाएंचाय में रात की रोटी भिगोती अधीर उंगलियां
जवाब देंहटाएंएक और लंबे दिन के लिए तैयार हैं।... कितनी गहराई समेट ली
आपने कविता की भावनाओं को बहुत ही गहराई से विश्लेषित किया है. सुन्दर कविता की उत्कृष्ट समीक्षा.
जवाब देंहटाएंKAVITAAON KEE SMEEKSHA NE PRABHAAVIT KIYA HAI .
जवाब देंहटाएंअच्छी रचनाएँ.
जवाब देंहटाएंसमीक्षा भी अच्छी.
दीपिका रानी जी के देखे हुए, जिए हुए,अनुभवों पर आधारित "शोर" कविता में भावों की अनुपम छटा को आँच पर आपकी पैनी समीक्षा धारावाहिक रूप से शब्द-सरिता की तरह प्रवाहित होती दिखी। उनकी रचना "शोर" ज़िन्दगी के ताने-बनों से बुनी हुई है। इस कविता में प्रतीकों एवं बिंबों का प्रयोग अच्छा लगा। प्रतिभाशाली काव्यात्मक रचना एक संवेदनशील ह्रदय की उपज होती है, जिसमें शामिल है संसार में जिया गया अनुभव,साफ़-सुथरी बोलचाल की भाषा में बात कहने की निपुणता। जैसे भवन के अंदर की भव्यता बाहर से दिखाई देती है,जहाँ करीने से सजाई ईंट पर ईंट अपने आप में कुशलता का प्रमाण देती है, ठीक वैसे ही आपकी समीक्षा में अदभूत दृश्यात्मकता परिलक्षित होती है। मानवीय संवेदना के धरातल पर रचित दीपिका रानी जी की कविता "शोर" एवं इसके साथ-साथ "आंच" पर आपकी समीक्षा अच्छी लगी। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसुन्दर परिचय करवाया है दीपिका रानी जी से..सुन्दर समीक्षा के लिए बधाई..
जवाब देंहटाएंदेर से आने के लिये क्षमा ...सुंदर कविता की उमदा समीक्षा ...दीपिका को पहले नहीं पढ़ा पर अब ज़रूर पढ़ूंगी ...!!आभार मनोज जी ..!!
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