सोमवार, 29 अक्टूबर 2012
तस्वीर
रविवार, 28 अक्टूबर 2012
भारतीय काव्यशास्त्र – 128
सोमवार, 22 अक्टूबर 2012
वह प्राचीन क़िला
वह प्राचीन क़िला
श्यामनारायण मिश्र
आसमान से बातें करता,
वह प्राचीन क़िला।
हमको मरे हुए कछुए-सा,
औंधा पड़ा मिला।
गुंबद गले, छत्र टूटे,जल के सपनों-सा टूटा,
दीवारों में बीवांई।
भव्य बावली में है
जल की जगह, सड़ी काई।
पत्थर में कमल खिला।
फानूसों की जगह हो गया,तोत मैना नहीं
जालों का अनुबंध।
इत्र-सुगंधों की वारिस
सीलन औ’ दुर्गन्ध।
चहकते उल्लू मूड़ हिला
राजकुमारी झांड़ू देती,दादा से दिल्ली कंपती थी,
बर्तन मलती रानी।
राजकुमार बावला,
कुल की, अंतिम एक निशानी।
पोतों को दूभर है,
अपना ही तहसील, ज़िला।
(चित्र : आभार गूगल सर्च)
रविवार, 21 अक्टूबर 2012
भारतीय काव्यशास्त्र – 127
गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012
आंच-121 : माँ और भादो
आंच-121
माँ और भादो
मनोज कुमार
अरुण चन्द्र रॉय की ताज़ी कविता “मां और भादो” को पढ़ते ही लगा कि इसे आंच पर लिया जाए। मां को केन्द्रीत इस कविता में कवि ने जहां यह दर्शाने की कोशिश की है कि भादो के मास में जहां एक ओर वर्षा नहीं वहीं दूसरी ओर सरकार ने कई ऐसे निर्णय ले डाले हैं, जिससे आम जन को कोई खास राहत नहीं मिलने वाली है। एक ओर एफ़.डी.आई. आदि जैसे निर्णय हैं, जो बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों को प्रतयक्ष रूप से लाभ पहुंचाएगा वहीं ग्रामीण कृषक और निर्धन वर्ग अभाव और संत्रास को झेल रहा है। इन सब के बीच मां है जो जिस देवता को पूजती है, इस बार उसे ही कोस रही है, कि तेरी चमक ने हर ओर आग लगा दी है और लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। इस कविता में कवि ने मां के रूप में ऐसा बिम्ब लिया है जिसे जितने रूपों में सोचा जाए साकार हो जाता है। इस कविता को पढ़ते हुए जो भाव अनायास मन में उपजे उन्हें टिप्पणी के रूप में मैं कुछ इस प्रकार लिख गया :
ये एक ऐसा भादो है
जिसमें सिर्फ़ कादो-ही-कादो है
सत्ता की बेरुख़ी है
मां दुखी है
जग, समाज, निज-का संताप लिए
जल रहा सूरज
चमक और ताप लिए
अब हमें बाज़ार जाना नहीं है
घुस आया है बाज़ार हमारे घर में
और
मुस्कुरा रहा सूरज
नीले अम्बर में!
आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया 1991 में शुरू हुई थी। उस समय सुधार-समर्थकों ने कहा था कि इसका एक मानवीय चेहरा भी होगा। जिन लोगों ने इसकी आलोचना तब की थी, आज भी कर रहे हैं। उन्होंने तब कहा था कि इनके मार्फ़त सांस्कृतिक हमले भी किए जाएंगे। आज दो दशक के बाद कम-से-कम यह तो पक्का हो ही गया है कि इनमें मानवीय चेहरे लापता हैं। ... और जो सांस्कृतिक हमले हो रहे हैं उसका तो कहना ही क्या!
ऊंचे पदों पर हो रहे भ्रष्टाचार में कहीं न कहीं इन तथाकथित आर्थिक सुधारों का बहुत बड़ा हाथ है। हर बड़े घोटाले के तथाकथित लाभ पाने वाले पर अगर नज़र डालें तो पाएंगे कि इन सुधारों का सबसे ज़्यादा फ़ायदा इन्हें ही पहुंचता रहा है। क्या आज ग़रीब आत्मसम्मान से सिर ऊंचा रख पा रहा है? सुधारों के द्वारा सौंपी जा रही जीवनशैली ने कितना भला किया है – हमारे आपसी संबंधों का? क्या बाज़ार की डोर हमारे आपसी संबंधों की पतंग को नहीं काटे दे रही है? दरसल मुनाफ़ा कमाने का सिलसिला हमारे घरों के भीतर ही नहीं हमारे मन के दरवाज़े से दिल के भीतर भी घुस आया है और बाहर से ताला जड़ दिया गया है। आम आदमी मैंगो पिपल बना दिया गया है जो अपने रोटी, कपड़ा और मकान की फ़िकर में ही दिन-रात घुला जा रहे हैं।
अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने के नाम पर पिछले दिनों खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मंज़ूरी दी गई। और फिर कंपनी बिल और पेंशन बिल को भी आगामी संसद सत्र में पेश करने का ऐलान कर दिया गया है। आर्थिक सुधारों के नाम पर इन फैसलों के तहत किन क्षेत्रों पर निगाहें हैं, वह कवि (अरुण चन्द्र रॉय) की नज़रों से छिपा नहीं है। कंपनी बिल के नाम पर लिया जाने वाला फैसला कंपनियों, निवेशकों और अन्य साझीदारों के हितों को बेहतर तरीक़े से रक्षा करने के उद्देश्य से लिया गया है। गांव का गवर्नेन्स भले रसातल में जा रहा हो, कॉर्पोरेट जगत के गवर्नेन्स में कोई कमी नहीं आनी चाहिए!
अरुण चन्द्र रॉय की आलोच्य कविता “माँ” पर केन्द्रीत है। माँ – मातृभूमि भी हो सकती है, देश भी, वह गांव भी है, गांव की धरती भी, ज़मीन और खेत भी। माँ – जिसने हमें अस्तित्व में लाया, उसी के अस्तित्व को हम समाप्त करने पर तुले हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो अपने मूल को ही नष्ट कर रहे हैं हम। ज़मीन है, तो हम हैं। उस ज़मीन से कटे और उखड़े लोगों की पीड़ा को, उन्हें विस्थापित करने की प्रक्रिया को इस कविता में स्वर दिया गया है। मां की चिंताओं के बहाने एक दिन में आर्थिक सुधार के नाम पर लिए गए फैसले की ओर इशारा करते हुए कवि कहता है –
न जाने माँ की
कैसी कैसी चिंताएं हैं
जो इस शोर में
दब कर रह जाती हैं
और इस बीच सरकार
एक दिन में ले लेती है
कई जरुरी निर्णय
जिसमे भादो के नहीं बरसने का
जिक्र नहीं होता
भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास विधेयक, वस्तु एवं सेवा कर विधेयक, खाद्य सुरक्षा विधेयक, खान और खनिज (विकास और विनियमन) विधेयक, प्रतिस्पर्धा (संशोधन) विधेयक, और बीमा क़ानून विधेयक – ही वे विधेयक हैं, जिन पर एक दिन में निर्णय लिया गया। खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को अनुमति देने के बाद कैबिनेट ने बीमा क्षेत्र में भी विदेशी निवेश की मंज़ूरी दे दी है। चिंता जताने वाले यह चिंता जता रहे हैं कि विदेशी कंपनियां लोगों के निवेश पर रिटर्न की गारंटी नहीं देंगी। उनकी नीतियाँ भारत की तमाम बचत को अपनी तरफ़ खींच लेंगी। इससे भारत के बैंकों और वित्तीय संस्थानों के लिए पूंजी की कमी हो जाएगी और आम निवेशक के लिए असुरक्षा बढ़ जाएगी। संभवतः कवि की मां की यही चिंता का कारण है।
फ़िल्म एक काल्पनिक दुनिया है और कवि की कविता में मां वास्तविक संसार में रहती है। उसके इस संसार में भादो ही भादो है, लेकिन इस भादो को भी सूखा का ग्रहण लग गया है, सावन तो फ़िल्मी परदों पर ही बरस रहा है, या यूं कहें कि कुछ खास लोगों की दुनियां में उसकी रिमझिम फुहार की नज़रे इनायत है।
बिजली क्षेत्र सरकार की भ्रामक नीतियों के कारण घुप अंधेरे में फंसा हुआ है और सुधार के नाम पर हर बार बिजली दरों में इजाफ़ा किया जाता रहा है। ‘सुरुज देव’ की आराधना करती मां भादों के बरसने का इंतज़ार ही करती रह गई है, उन किसानों की तरह जो सरकार की तरफ़ से किसी राहत पैकेज का इंतज़ार करते-करते गले में फांसी का फंदा लगाने को विवश हो गए हैं। हो भी क्यों नहीं यह पैकेज कुछ घंटे के लिए उजाले का दीदार करने वाले लोगों को अंधेरे में डुबोने का इंतजाम करता है। गांव का खेतिहर ऋण के बोझ तले दबा है, ग़रीबी के दुष्चक्र में इस कदर फंसा है, कि आत्महत्या तक की नौबत आ जाती है। बिजली नहीं, तो पानी नहीं, पानी नहीं तो धान नहीं, धान नहीं तो भुखमरी और आत्महत्या, यानी जीवन नहीं। ऐसे में मां का ‘सुरुज देव’ से नाराज़ होना जायज़ ही है। रोशनी का वितरण ऐसा कि जो रोशन हैं, रोशनी वहीं है, और जो अंधेरे में हैं वे घुप अंधेरे में घिरते जा रहे हैं, और आर्थिक सुधार के नाम पर उनके लिए सिर्फ उजाले का सपना लगातार बेचा जा रहा है। यह मुक्त अर्थव्यवस्था, मुक्त बाजार के कारण है क्योंकि उनकी योजना के केंद्र में है सिर्फ मुनाफा। अपनी विशाल प्रतिद्वन्द्विता और मुनाफे की होड़ में इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के यहां इन भूखे बेबस लोगों के लिए कोई जगह नहीं बन पाती।
मां का ‘सुरुज देव’ को कोसने में मुझे भूमिहीन मज़दूरों और आदिवासियों के सड़क पर उतर आने के सत्याग्रह आंदोलन की झलक दीखती है। यह इस बात का परिचायक है कि केन्द्रीय सत्ता ने उनकी समस्याओं का समाधान की ओर कोई पहल नहीं की है। इस आंदोलन ने लोगों के सामने यह सत्य उजागर किया है कि शोषित-वंचित तबके के हितों के ऊपर सरकार का कोई खास ध्यान नहीं है और वे जीवनयापन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं।
अरूण जी की कविताएं अकसर हाशिए पर पड़े लोगों की न सिर्फ़ सुधि लेती है बल्कि उनके सरोकारों को हमारे सामने लाती हैं। इनकी कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी रहती है। वे जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देते हैं। प्रस्तुत कविता भी इसी की एक कड़ी है और इस कविता के ज़रिए अरुण जी ने एक बार फिर अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों को समेट बाज़ारवादी आहटों और मनुष्य विरोधी ताकतों के विरुद्ध एक आवाज़ उठाई है। आसन्न संकटों की भयावहता से हमें परिचित कराती यह कविता बताती है कि इंडिया और भारत की खाई इन आर्थिक सुधारों के नाम पर, जहां यह उम्मीद की गई थी कि समय के साथ समृद्ध वर्ग और शोषित-वंचितों के बीच की खाई कम होगी, वहीं दो दशकों का हमारा अनुभव यही कहता है कि इन प्रयोगों और नीतियों के द्वारा कितनी चौड़ी और गहरी कर दी गई है। समय के बदलते इस दौर में आज एक अलग तरह की भूख पैदा हो गई है। समृद्ध वर्ग के लोग निम्नवर्ग के लोगों का शोषण कर अपनी क्षुधा तृप्त करते हैं। इसलिए इनकी स्थिति सुधरती नहीं। विकास के जयघोष के पीछे इन्हें आश्वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। इनकी किस्मत की फटी चादर का आज कोई रफुगर नहीं। किसानों के इस देश में किसानों की दुर्दशा किसी भी छिपी नहीं है।
अर्थव्यवस्था की चुनौतियों और आर्थिक सुधारों के नाम पर उठाए जा रहे कदमों के बीच विसंगति को उजागर करती अरुण जी की कविता हमें यह बताती है कि सरकार के सुधार एजेंडे की ताजा कोशिशें आर्थिक चुनौतियों से कोई तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं और नेतृत्व की नाकामी की ओर इशारा करती है। तभी तो आर्थिक विषमता भारत में समृद्धि की नई पहचान है। इस कविता की आख़िरी पंक्तियों में आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता से उत्पन्न वर्गों के आंतरिक संसार के द्वंद्व रेखांकित होते हैं। इन वर्गों के अस्तित्व रक्षा की बेचैनी और असहाय चिंता के विवरण मां के चेहरे की झुर्रियों की तरह स्पष्ट हैं और कवि के ही शब्दों में ‘कोई मेकप नहीं बना / जिसे छुपाने के लिए’।
अरुण जी आप एक ज़रूरी कवि हैं – अपने समय व परिवेश का नया पाठ बनाने, समकालीन मनुष्य के संकटों को पहचानने तथा संवेदना की बची हुई धरती को तलाशने के कारण। आपकी यह कविता मौजूदा यथार्थ का सामना करने की कोशिश का नतीजा है। इस कविता में आप अपना ही पुराना प्रतिमान (कील पर टँगी बाबूजी की कमीज़) तोड़ते नजर आते हैं। आज की इस कवितागिरी के दौर में, जहां कविता-लेखन मात्र एक नारा या फैशन बनकर रह गया है, अरुण जी की कविता में कथ्य और शिल्प की सादगी मन को छू लेने वाली है और आज की ‘आंच’ का अंत अमृता जी की टिप्पणी के द्वारा अरुण जी को कहना चाहूंगा, कि अरुण जी “कितनी सहजता से आप गंभीर बात को कह देते हैं जो कि भीतर तक हाहाकार मचा देती है।” गद्य में विचारों को विस्तार देने की स्वतंत्रता होती है, इसलिए वह तनावों को कम करने में अधिक सक्षम होता है। लेकिन अरुण जी ने इस कविता में एक नहीं देश की कई ज्वलंत समस्याओं को घनीभूत कर दिया है। आठ-दस पन्ने में रंगा गद्य पहले मस्तिष्क को झकझोरता है फिर यदि सक्षम हुआ तो हृदय को। अरुण जी की यह कविता पहले हमारे हृदय में प्रवेश करती है, और फिर हृदय से मस्तिष्क की ओर जाती है। इस कविता में विडम्बनाओं का मारक और मर्मस्पर्शी प्रयोग है, इसलिए कविता काफ़ी बेधक हो गई है। यह पाठक को गुदगुदाती नहीं, झकझोरती है, तिलमिलाती है, आक्रोश भर देती है।
बधाई अरुण जी!!
सोमवार, 8 अक्टूबर 2012
ऐसा ही बचा हुआ गांव है
आमों के बाग कटे
कमलों के ताल पटे
भटक रहे ढोरों के ढांचे
दूर-दूर तक बंजर फैलाव है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है
पेड़ पर गिलहरी से चढ़ते
अध नंगे बालक
छड़ियों सी क्षीणकाय
पीली पनिहारियां
पत्तों की चुंगी में
बची-खुची तंबाखू
सुलगाते बूढ़े
सहलाते झुर्रियां
द्वार पर पगार लिए
कामगार बेटे का
हफ़्तों से ठंडा उरगाव है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है
मेड़ों पर उगी
बेर की कटीली
कास की गठीली
खेतों तक फैल गई झाड़ियां
जोहड़े से कस्बे तक
लाद-लाद ईंटें
बैल हुए बूढ़े टूट चुकी गाड़ियां
मिट्टी की फटी-फटी
कच्ची दीवारों पर
झुके हुए छप्पर की
आड़ी सी छांव है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है
कुत्तों के रोने सा साइरन बजातीं
बल विवेक खाती
फैल रही भट्टियां
देखते ही देखते
मोची के छातों सी
तन गई हैं झोपड़ पट्टियां
हाथ नहीं
हिंसक ये पंजा
गर्दन में ज़ोर का कसाव है
ऐसा ही बचा हुआ गांव है
रविवार, 7 अक्टूबर 2012
भारतीय काव्यशास्त्र – 126
मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012
कविता - श्रद्धा-सुमन
सोमवार, 1 अक्टूबर 2012
चर्खी हुई चाकरी
चर्खी हुई चाकरी
श्यामनारायण मिश्र
छूटे खेत खाद
सावन के मेह
चर्खी हुई चाकरी निचुड़ी गन्ने जैसी देह।
लापरवाही वाले लमहे
ओसारे की खाट
पर्वों के मेले
कस्बे की हफ़्तेवारी हाट
दूर छोड़ आई है गाड़ी अपने ग्यौंड़े गेह।
अपने मस्तक और हाथ हैं
नाम दफ़्तरों के
हम तो बकरी भेड़
चढ़े हैं नाम अफ़सरों के
उबर नहीं पाता अपने ही बच्चों को स्नेह।