राष्ट्रीय आन्दोलन
300. बेलगाम
कांग्रेस
1924
उपवास समाप्त होने के बाद गांधीजी अपने मुस्लिम साथियों के
साथ कोहाट जाने और वहाँ के निवासियों से हिंदू-मुस्लिम मतभेदों का कारण जानने तथा
दोनों समुदायों के बीच शांति स्थापित करने के लिए उत्सुक थे। लेकिन सरकार ने
उन्हें कोहाट जाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। बंगाल में स्वराज विरोधी
अभियान तेज़ हो गया और
दास और उनके अनुयायियों को
देश का दुश्मन घोषित कर दिया गया। बंगाल में अंधाधुंध गिरफ्तारियों और घरों की
तलाशी का दौर शुरू हो गया। कलकत्ता निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और दास के
दाहिने हाथ सुभाष चंद्र बोस और प्रमुख कांग्रेसियों और स्वराजवादियों सहित करीब
चालीस अन्य लोगों को गिरफ्तार किया गया। पूरे भारत में गुस्से और विरोध की लहर
दौड़ गई। सैकड़ों बैठकें हुईं और अध्यादेश की निंदा करते हुए प्रस्ताव पारित किए
गए। शास्त्री, जिन्ना और अन्य लोग जो स्वराजवादी नीति के पूरी
तरह विरोधी थे, वे सरकार की कार्रवाई की निंदा करने में एकमत
थे। "हिंसा के अध्यादेश" की सबसे कड़ी निंदा गांधीजी ने की। अपने कमज़ोर
स्वास्थ्य के बावजूद गांधीजी कलकत्ता पहुंचे। उनकी उपस्थिति ने हज़ारों की संख्या
में जनसभाओं में उमड़े लोगों को हिम्मत और सांत्वना दी। गांधीजी ने कहा, "जबकि हिंसा का हर रूप मेरे लिए घृणित है, सरकारी अराजकता और पुलिस की धमकी और भी ज़्यादा
घृणित है।"
कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में मोहम्मद अली ने 21 नवंबर को
बंबई में एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें
गांधीजी, दास और मोतीलाल नेहरू के हस्ताक्षरों से
प्रकाशित सिफारिशों पर विचार किया गया, ताकि
सभी दलों को एकजुट किया जा सके और 1920 में कांग्रेस से सेवानिवृत्त होने वाले
लोगों को कांग्रेस में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जा सके और दमन के
पुनरुत्थान का सामना किया जा सके, जिसका
उद्देश्य स्पष्ट रूप से बंगाल की स्वराज पार्टी पर था। सम्मेलन ने बंगाल में दमन
की निंदा की और कांग्रेस में सभी राजनीतिक दलों को फिर से एकजुट करने के सर्वोत्तम
तरीके पर विचार करने और सांप्रदायिक समझौते सहित स्वराज की एक योजना तैयार करने के
लिए एक समिति नियुक्त की। बाद में गांधीजी ने पं. मोतीलाल नेहरू और सी. आर. दास के
साथ मिलकर एक संयुक्त वक्तव्य प्रकाशित किया, जिसमें कहा गया था कि विदेशी कपडों की पिकेटिंग
को छोडकर असहयोग के शेष सभी कार्यक्रमों को स्थगित कर
देना चाहिए और स्वराज्य पाटी को कांग्रेस का अभिन्न अंग मानकर अपने लिए अलग से चंदा जमा
करने और उसको खर्च करने का अधिकार दे देना चाहिए। गांधीजी की यह नई नीति स्वराज्य पाटी की जीत
थी।
असहयोग के इतिहास में बेलगाम कांग्रेस खास महत्त्व रखती है।
कांग्रेस का चालीसवां अधिवेशन 26 दिसंबर 1924 को बेलगाम में हुआ, जिसके अध्यक्ष
गांधीजी थे। इस अधिवेशन में देश के सभी राजनीतिक दलों को एक साथ लाने की कोशिश की
गई थी। नेहरू जी लिखते हैं, “गांधी जी का अध्यक्ष बनना एक प्रकार से उच्चतम
स्तर पर पहुंचकर नीचे उतरना था, क्योंकि वे तो स्थाई रूप से उसके महाध्यक्ष थे।” कांग्रेस के एजेंडे पर सबसे महत्वपूर्ण
राजनीतिक प्रश्न,
नवम्बर में कलकत्ता में
गांधीजी और स्वराजवादियों के बीच हुए समझौते का अनुसमर्थन था। इस समय कांग्रेस ऐसे
तिराहे पर खड़ी थी, जहां से दो रास्ते दो तरफ़ जाते थे। या तो वह दो भागों में बंटती
या सही रास्ते पर लौट आती। और उसे सही रास्ते पर आना था, तो गांधीजी से बेहतर
मार्गदर्शक और कौन हो सकता था! उस समय अकेले गांधीजी ही ऐसे व्यक्ति थे, जो एक ओर सत्याग्रह
कार्यक्रम वापस लेकर भी अपरिवर्तनकारियों को शांत रख सकते थे तो दूसरी ओर काउंसिल
प्रवेश का सामना करके भी स्वराजियों को संतुष्ट कर सकते थे। गांधीजी ने स्वराज्य
पार्टी और कांग्रेस के बीच की फूट को रोकने के लिए दोनों गुटों के नेताओं से बात
की। अपनी कार्यसमिति में उन्होंने कट्टर ‘अपरिवर्तनवादी’ राजाजी और सरदार पटेल को
शामिल नहीं किया। कुछ लोगों ने प्रतिक्रिया दी कि गांधीजी स्वराजियों के आगे झुक
गए हैं। वायसराय ने तो यहां तक कह डाला, गांधीजी अब दास और नेहरू का पुछल्ला बन गए
हैं। लेकिन गांधीजी के प्रयासों से दोनों गुटों के मतभेद दूर हुआ और बेलगाम के
अधिवेशन में कांग्रेस ने गांधी-नेहरू-दास समझौते पर मुहर लगा दी।
उन्होंने चरखे, हिंदू-मुस्लिम
एकता और अस्पृश्यता निवारण में अपने विश्वास की पुष्टि की। उन्होंने राजनीतिक दलों
के एकीकरण पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने बताया कि अलगाव और कमज़ोरी के इस समय
में असहयोग आंदोलन क्यों रुकना ज़रूरी था। लेकिन सविनय अवज्ञा में उनका अपना
विश्वास अभी भी कायम था: "मैं सविनय अवज्ञा की शपथ लेता हूँ। लेकिन स्वराज की
प्राप्ति के लिए सविनय अवज्ञा तब तक असंभव है जब तक कि हम विदेशी कपड़ों के
बहिष्कार को प्राप्त करने की शक्ति प्राप्त नहीं कर लेते।"
अपने अध्यक्षीय भाषण में गांधीजी ने कहा था, “स्वराज्य तो हमारा लक्ष्य है। परन्तु चरखा,
हिंदू-मुस्लिम एकता और अस्पृश्यता निवारण उसके साधन हैं। मेरे लिए तो साधनों का
जानना ही काफ़ी है। मेरे जीवन सिद्धांत में साधन और साध्य पर्यायवाची हैं। ... मैं साम्राज्य
के भीतर ही स्वराज्य पाने की चेष्टा करूंगा। लेकिन यदि स्वयं ब्रिटेन के दोष से
उससे सारे नाते तोड़ना आवश्यक हुआ तो मैं तोड़ने में संकोच नहीं करूंगा।”
“एक कांग्रेसी के रूप में, मैं असहयोग को स्थगित करने की सलाह देता हूं, क्योंकि मैं देखता हूं कि राष्ट्र इसके लिए
तैयार नहीं है। लेकिन एक व्यक्ति के रूप में, मैं ऐसा नहीं कर सकता और न ही करूंगा। यह मेरे लिए केवल
नीति नहीं है, यह विश्वास का प्रश्न है। सत्याग्रह सत्य की
खोज है; और ईश्वर सत्य है। अहिंसा वह प्रकाश है जो मुझे
उस सत्य को प्रकट करता है। मेरे लिए स्वराज सत्य का हिस्सा है। सत्याग्रह कभी विफल
नहीं होता और सत्य को सही साबित करने के लिए एक पूर्ण सत्याग्रही ही काफी है। आइए
हम सभी पूर्ण सत्याग्रही बनने का प्रयास करें। इस प्रयास के लिए किसी ऐसे गुण की
आवश्यकता नहीं है जो हमारे बीच सबसे निचले स्तर के व्यक्ति के लिए अप्राप्य हो।
क्योंकि, सत्याग्रह हमारे भीतर की आत्मा का गुण है। यह
हम में से हर एक में निहित है। स्वराज की तरह यह भी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
हमें इसे पहचानना चाहिए।"
बेलगाम कांग्रेस के समापन के तुरंत बाद गांधीजी एक व्यस्त
दौरे पर निकल पड़े,
और खादी, हिंदू-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता उन्मूलन और राष्ट्रीय शिक्षा का प्रचार-प्रसार
किया।
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मनोज कुमार
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