रविवार, 6 मार्च 2011

भारतीय काव्यशास्त्र-57

भारतीय काव्यशास्त्र-57

- आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में भक्ति रस और वात्सल्य रस पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में रस सम्बन्धी कुछ अन्य शेष विषयों पर चर्चा की जाएगी।

कभी-कभी करुण और विप्रलम्भ शृंगार के विषय में भ्रम उत्पन्न हो जाता है। वियोग दो प्रकार का होता है- स्थायी वियोग और अस्थायी वियोग। जब दो प्रेमियों में से एक की मृत्यु हो जाय या किसी अन्य कारण से पुनर्मिलन की सम्भावना शेष न बचे, तो वह स्थायी वियोग कहलाता है। क्योंकि मृत्यु के कारण या किसी अन्य कारण से संयोग की सम्भावना का अंत हो जाता है। इस लिए इसमें संयोग के प्रति पूर्ण निराशा होती है। जैसे भगवान राम ने माता सीता का वनवास के बाद पुनः परित्याग भी स्थायी वियोग की श्रेणी में आता है। अतएव काव्यशास्त्री स्थायी वियोग को विप्रलम्भ शृंगार न मानकर करुण रस की श्रेणी में रखते हैं। किन्तु जब किसी अन्य कारण- ईर्ष्या, विरह, प्रवास या शाप आदि- से वियोग हो, तो वह अस्थायी वियोग कहलाता है और इसे विप्रलम्भ शृंगार की श्रेणी रखते हैं। क्योंकि पुनर्मिलन की संभावना और आशा शेष रहती है।

यही कारण है दूसरी बार भगवान राम द्वारा माता सीता के परित्याग पर आधारित महाकवि भवभूति द्वारा विरचित उत्तररामचरितम् नाटक को करुण रस प्रधान नाटक कहा जाता है। क्योंकि भगवान राम ने ऐसा अनुमान कर लिया था कि माता सीता को जंगली जानवर खा गए होंगे। उनके विलाप का वर्णन करते हुए महाकवि भवभूति लिखते हैं – अपि ग्रावा रोदित्यपि दलति वज्रस्य हृदयम्। वहीं वनवास के समय माता सीता के अपहरण के कारण उत्पन्न वियोग विप्रलम्भ की श्रेणी में आएगा। क्योंकि इसमें संयोग की आशा जीवित थी।

इसका आधार दोनों रसों के स्थायिभाव का अन्तर है। करुण रस का स्थायिभाव शोक है और विप्रलम्भ शृंगार का रति। अस्थायी वियोग में पुनर्मिलन की आशा जीवित रहती है, जबकि स्थायी वियोग में निरपेक्ष भाव अर्थात निराशा का भाव होता है। किन्तु स्थायी वियोग के बाद किन्हीं कारणों से यदि पुनर्मिलन होता है, तो वहाँ अद्भुत रस होता है। इस स्थिति का निरूपण उत्तररामचरित में इस प्रकार किया है-

उपायानां भावादविरलविनोदव्यतिकरैः

विमर्दैर्वीराणां जनितजगदत्यद्भुतरसः।

वियोगो मुग्धाक्ष्याः स खलु रिपुघातावधिरभूत्

कटुस्तूष्णीं सह्यो निरवधिरयं तु प्रविलयः।।

भरतमुनि ने विप्रलम्भ शृंगार को सापेक्ष और करुण रस को निरपेक्ष कहा है। यहाँ सापेक्ष का अर्थ आशामय और निरपेक्ष का अर्थ निराशामय है।

इसी प्रकार शान्त रस और भक्ति रस में वैराग्य और अनुराग की सीमा रेखाएँ हैं, अर्थात शान्त रस में जगत के प्रति वैराग्य और भक्ति रस में ईश्वर के प्रति अनुराग होता है।

रस परस्पर विरोधी भी होते हैं, जैसे शृंगार रस करुण, बीभत्स, रौद्र, वीर और भयानक रस का विरोधी रस है; हास्य रस का भयानक और करुण रस के साथ विरोध है; भयानक का रौद्र के साथ; भयानक और शान्त के साथ वीर, शृंगार और रौद्र का विरोध होता है।

अब यहाँ रसों के देवता, वर्ण, स्थायिभाव, विभाव, अनुभावों और संचारिभावों को एक सारिणी में सूचीबद्ध किया जा रहा है, जिससे आवश्यकता पड़ने पर विद्यार्थियों के काम आ सके-

रस

देवता

वर्ण(रंग)

स्था.भाव

विभाव

अनुभाव

संचारिभाव

शृंगार

विष्णु

श्याम

रति

आलम्बन-

परस्त्री और अनुराग शून्यवेश्या

को छोड़कर अन्य नायिकाएँ तथा दक्षिण आदि नायक।

उद्दीपन-

चन्द्रमा, चन्दन, भ्रमर आदि।

स्मित वदन, मधुर कथन, भ्रूक्षेप, कटाक्ष आदि

उग्रता, मरण, आलस्य और जुगुप्सा को छोड़कर अन् निर्वेद आदि सभी संचारिभाव।

हास्य

प्रमथ

(शिव-

गण)

शुक्ल

हास

आलम्बन-विकृत आकार, वाणी, वेष आदि।

उद्दीपन-ऐसे व्यक्ति की

चेष्टा आदि।

नयनों का मुकुलित होना, मुख का विकसित होना आदि।

निद्रा,आलस्य,

अवहित्था आदि।

करुण

यमराज

कपोत

शोक

आलम्बन-

आत्मीय की मृत्यु, विनाश आदि।

उद्दीपन-

दाहकर्म आदि।

प्रारब्ध निन्दा, भूमि पतन, रोदन, विलाप, विवर्णता, उच्छ्वास, निश्वास,

स्तम्भ, आदि।

निर्वेद, मोह, अपस्मार, व्याधि, ग्लानि, स्मृति, श्रम, विषाद, जड़ता, उन्माद, चिन्ता आदि।

रौद्र

रुद्र

लाल

क्रोध

आलम्बन- शत्रु। उद्दीपन- शत्रु की चेष्टाएँ।

भृकुटि-भंग, ओठ चबाना, ताल ठोकना, आत्म-प्रशंसा, शस्त्र घुमाना, उग्रता, आवेग, रोमांच, स्वेद, वेपथु, मद।

आक्षेप करना, क्रूरता से देखना, मोह, अमर्ष आदि।

वीर

महेन्द्र

स्वर्ण

उत्साह

आलम्बन-विपक्षी।

उद्दीपन- विपक्षी की चेष्टाएँ।

अस्त्र-शस्त्र, सेना आदि को जुटाने आदि का प्रयास आदि।

धैर्य, मति, गर्व, स्मृति, तर्क, रोमांच आदि।

भयानक

काल

कृष्ण

भय

आलम्बन-भय उत्पन्न करने वाले व्यक्ति, जानवर आदि। उद्दीपन- भय उत्पन्न करनेवाले व्यक्तियों, जानवरों आदि की चेष्टाएँ।

विवर्णता, गद्गद वाणी, मूर्छा, स्वेद, रोमांच, कम्प, इधर-उधर भागना और ताकना आदि।

जुगुप्सा, आवेग, मोह, त्रास, ग्लानि, दीनता, शंका, अपस्मार, सम्भ्रम, मृत्यु आदि।

बीभत्स

महाकाल

नील

जुगुप्सा

आलम्बन- दुर्गन्धित मांस, रुधिर, चर्बी आदि।

उद्दीपन- उपर्युक्त में कीड़े पड़ना।

थूकना, मुँह फेर लेना, आँख मीचना आदि

मोह, अपस्मार, आवेग, व्याधि, मरण आदि।

अद्भुत

गन्धर्व

पीला

विस्मय

आलम्बन-अलौकिक वस्तु आदि। उद्दीपन- अलौकिक गुणों का वर्णन।

स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, गद्गद स्वर, आँखों का फैलना आदि।

वितर्क, भ्रान्ति, आवेग, हर्ष आदि।

शांत

लक्ष्मीनारायण

कुन्द पुष्प

के समान

श्वेत

शम या

निर्वेद

आलम्बन- संसार में दुख, अनित्यता आदि के कारण असारता का ज्ञान, परमात्मा का स्वरूप। उद्दीपन- ऋषियों का पवित्र आश्रम, पवित्र तीर्थ, रमणीय एकान्त वन, सत्संग आदि

रोमांच आदि।

निर्वेद, हर्ष, स्मरण, मति, प्राणियों पर दया आदि।

भक्ति

साक्षात् ईश्वर

श्याम

ईश्वर

विषयक

रति

आलम्बन-साक्षात् ईश्वर।

उद्दीपन-

भक्तों का समागम, तीर्थ, एकान्त पवित्र स्थल आदि।

भगवान के नाम-संकीर्तन, लीला आदि का कीर्तन, रोमांच, गद्गद होना, अश्रु-प्रवाह, भाव-विभोर होकर नृत्य करना आदि।

मति, ईर्ष्या, वितर्क, हर्ष, दैन्य आदि

वात्सल्य

ब्राह्मी आदि

माताएँ

कमलगर्भ

वत्सलता,

स्नेह

आलम्बन-

पुत्र आदि।

उद्दीपन-

उनकी चेष्टाएँ, विद्या, शूरता, दया, ख्याति आदि।

आलिंगन, अंगस्पर्श, सिर-चुम्बन, देखना, रोमांच, आनन्दाश्रु आदि।

अनिष्ट की आशंका, हर्ष, गर्व आदि।

अगले अंक में रसाभास, भावाभास, भावसंधि, भावशबलता, भावशान्ति आदि पर चर्चा की जाएगी।

15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उपयोगी पोस्ट!
    आचार्य परशुराम जी की विद्वता के आगे नतमस्तक हूँ!

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  2. साहित्य में अभिरुचि रखने वाले भद्रजनों के लिए बहुत ही उपयोगी शृंखला है। यह निरंतर जारी रहे।
    आभार,

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  3. बहुत सुंदर। आज का अध्याय बहुत ही उपयोगी और महीन विश्लेषन भरा है। टेबल में आप ने विभिन्न रस और उसकी सामग्री परोस कर जिग्यासु पाठकों का मार्ग सुगमतर कर दिया है। कोटि-कोटि धन्यवाद!

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  4. निश्चय ही साहित्य नेट पर उतर रहा है... यह ब्लॉग बहुत से जिज्ञासु पाठकों का पथ प्रशस्त करेगा

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  5. बड़े वैज्ञानिक तरह से ,चार्ट की मदद से विस्तृत समझाते हुए काव्य रसों पर चर्चा आसानी से ग्राह्य और ज्ञानवर्धक बन पड़ी है.

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  6. आजकी पोस्ट तो बहुत सामिग्री समेटे हुए है और वो भी तुलनात्मक चार्ट के माध्यम से उदहारण के साथ. बहुत आभार आचार्य जी का. बहुत ही उपयोगी शृंखला रही है यह और अन्य भी.

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  7. एक और उम्दा, ज्ञानवर्धक प्रस्तुति।

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  8. .

    आचार्य वर, प्रणाम.
    शृंगार के अंतर्गत वियोग की दस दशाएँ मानी जाती हैं – अभिलाषा, चिंता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, उन्माद, प्रलाप, व्याधि, जड़ता और मरण.
    जबकि आप 'मरण' दशा को संचारी भावों में नहीं गिन रहे.
    क्या 'दशा' रूप में और भाव रूप में अंतर है? जो शब्द 'दशा' रूप में शृंगार परिवार में शामिल है वही भाव रूप में क्यों नहीं है?

    महाकवि 'देव' का वियोग शृंगार को पुष्ट करने के लिये 'मरण' अवस्था का एक उदाहरण मेरी पंजिका में संग्रहित है :
    साँसन ही सों समीर गयो अरु
    आँसुन ही सब नीर गयो ढ़रि.
    तेज गयो गुन लै अपनों अरु
    भूमि गई तनु की तनुजा करि.
    'देव' जियै मिलिबेई की आस कि
    आसहु पास आकास रह्यो भरि.
    जा दिन ते मुख फेरि हरे हँसि
    हेरि हियो जू लियो हरि जू हरि.

    .... आचार्य जी, कृपया स्पष्ट करें.

    मैं अब तक जानता था कि जो व्यभिचारी भाव हास के होते हैं वे सभी शृंगार में शामिल हो ही जाते हैं जबकि आप 'आलस्य' को शृंगार से छूट दे रहे हैं. क्या कारण है?

    .

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  9. .

    तनुजा को 'तनुता' पढ़ें .... अभी ध्यान गया.
    क्या पाठशाला में आचार्य जी विलम्ब से आयेंगे?

    .

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  10. प्रतुल जी, क्लास समय से लगता है। अपने प्रश्न पर विशेष चर्चा अगले अंक में देखें। आभार।

    जवाब देंहटाएं
  11. .

    अहा !! आनंदवर्षा हो गयी.
    गुरुदेव ने दर्शन दिये!!

    .

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  12. सभी रसों पर सारगर्भित जानकारी...
    बहुत ज्ञानवर्धक ...

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