मंगलवार, 7 जून 2011

भारत और सहिष्णुता-5

clip_image002रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी  रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।

    जितेन्द्र त्रिवेदी

लिंक पहले के

१. भारत में सहिष्णुता  २. भारत और सहिष्णुता –2  ३. भारत और सहिष्णुता-3 :: भारत-निर्माणभारत और सहिष्णुता-4 :: भारत निर्माण

भारत का निर्माण, इसके भूगोल के सामान्य ज्ञान के बिना नहीं समझा जा सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप की विशालता इतनी है कि इसमें रूस को छोड़ कर समूचा यूरोपीय महाद्वीप समा सकता है। इस उपमहाद्वीप की भौगोलिक इकाई में कमोबेश आगे-पीछे जो निर्माण और विकास की प्रक्रिया चली, वह वर्तमान में सम्पूर्ण भारत, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान और वर्मा क्षेत्र तक विस्तृत थी। इस पूरे भूभाग का कुल क्षेत्रफल 4,202,500 वर्ग किलोमीटर है। भारतीय उपमहाद्वीप एक स्पष्ट भौगोलिक ईकाई है और इसका अधिकांश भाग उष्ण कटिबंध में होने के कारण कमोबेश पूरे क्षेत्र को विशालता के बावजूद यह एक जैसी जलवायु में बांध देता है। भूगोल का यही तत्व हमारे लिए विलक्षण बन गया है तथा इसी ने इन पसरे हुये इलाकों को अनजाने में ही सही एक सूत्र में पिरो दिया है। इसी घटक ने इतने बड़े भू क्षेत्र को समेकित ईकाई बनने की ओर बरबस धकेला है जिसका नाम कई चरणों से गुजरते हुये भारत पडा़ है। इस तरह जलवायु का यह घटक, भारत निर्माण की प्रक्रिया का सबसे पहला सूत्र है, जिसे पकड़ कर मैं आगे बढ़ने का प्रयास करूंगा। इसी एक घटक ने इस 3200 किमी. से भी बड़े इस भू-भाग में रहने वाले व्यक्तियों को चाहे या अनचाहे बरबस एक जैसा अवसर प्रदान किया है। अगर हम जानबूझकर इस जलवायु को और मानसून की महत्वपूर्ण भूमिका को झुठला दे और अपने को क्षेत्रीय सीमा में रखना चाहें तो बात अलग है। दक्षिण-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी मानसून पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को यह एहसास दिला जाता है कि इस भूगोल में कोई भेद नहीं करते हुए वह इसे एकल इकाई मानता है।

मानसून और जलवायु रूपी कारकों के आधार पर मेरा निष्कर्ष अति सरलीकरण करके बताना नहीं है। इसके बावजूद भारतीय उपमहाद्वीप में सब जगह मानव जीवन का व्यवहार एक जैसा नहीं था और न ही किसी काल में सभी जगह एक जैसे क्रिया-कलाप थे। भौतिक और जलवायु रूपी कारक व्यवहार की समानता को कुछ हद तक ही स्पष्ट कर सकते हैं किन्तु उन्हें दिल की उदारता दिखाकर व्याख्या करके अपना लेना तो उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के ही ऊपर होता है। सामाजिक विकास के प्रारंभिक स्तर पर इतिहास का स्वरूप इस पर ज्यादा निर्भर था कि किस तरह मानव समुदाय अपने पर्यावरण के साथ परस्पर संपर्क करते थे और इस सम्बन्ध की प्रकृति के आधार पर ही विविध क्षेत्रों का स्वरूप विकसित हुआ जो हजारों साल के अनवरत विकास क्रम में भी समेकित होता रहा और इसी ने भौगोलिक इकाई के रूप में हमारी साझी पहचान को जन्म दिया। जब सिन्धु घाटी सभ्यता, जो हजारो साल पुरानी है, के वासिंदे व्यापार के लिये हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से बाहर निकलते तो देखते थे कि दूसरी जगह का मौसम और रहन-सहन उन्हीं के जैसा था और उनकी शक्ल-सूरत भी वैसी ही थी तो अनायास ही सही, पर इन समानताओं को नजर अंदाज करना उनके लिए आसान नहीं रहा होगा। उन लोगों ने जरूर देखा होगा कि क्षेत्रीय असमानताओं के बावजूद सिंधु घाटी से बाहर के लोग किस कदर उनके जैसे ही थे। विकास के उपरोक्त विविध चरण दिखलाते हैं कि जलवायु तथा मनुष्य के परिवेश में परिवर्तन होता गया और इस भूभाग के लोगों ने इन परिवर्तनों के अनुसार जीवन में ढलने की अद्भुत क्षमता दिखायी। सभ्यता के विकास में एक महान परिवर्तन तब आया जब इन समुदायों ने कृषि तथा पशुपालन को अपनाते हुये संगठित होकर रहना आरम्भ किया। इसे परिपक्व स्वरूप में आने में बहुत समय लगा लेकिन इसी के कारण प्राचीन गाँवों का निर्माण हुआ। यद्यपि कृषि तथा पशुपालन का प्रारम्भ सामान्य रूप से नव पाषाण युग (लगभग 7000 ई.पू. से 2500 ई.पू.) से जोड़ा जाता है तथापि महत्वपूर्ण बात यह है कि दूसरे स्थानों की तरह भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न क्षेत्रों और विभिन्न कालों में शिकार तथा भोजन संग्रह की व्यवस्था से कृषि तथा पशुपालन की ओर परिवर्तन भारतीय समाज के विकास के एक नये युग के प्रवर्तन को दर्शाता है। भारतीय उपमहाद्वीप की पहली सभ्यता का विकास सिंधु के मैदान में हुआ, जबकि गंगा के मैदान में ईसा पूर्व पहली सहस्त्राब्दी से नगर जीवन, राज्य, समाज और साम्राज्य सम्बन्धी ढांचे का पोषण हुआ। गंगा घाटी में पूर्ण रूप से नियोजित कृषि, खेतीहर गांव तथा अन्य संशोधित कार्य जैसे नगरों का उदय, व्यापार तथा राज्य प्रणाली 1500 से 1000 ई.पू. के मध्य में ही दिखायी देने लगे थे और ये तत्व बढ़ते हुये क्रमश: समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गये। अन्तिम वेद की रचना तक ये कार्य पूर्व और दक्षिण में भी पहुँच गये थे क्योंकि वेदों में चक्रवर्ती की जो संकल्पना की गयी है उसमें समुद्र तट तक के क्षेत्र को चक्रवर्ती सम्राट का क्षेत्र कहा गया है। रूचिकर तथ्य यह है कि यह क्षेत्र उतना ही है जितना भारतीय उपमहाद्वीप है। चक्रवर्ती की इस अवधारणा ने भी इस क्षेत्र को समरूप करना आरम्भ कर दिया था। यद्यपि ये क्षेत्र अपने आप में साधारणतया समरूपी इकाई थे फिर भी क्षेत्रों के अंतर्गत उपक्षेत्रों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। प्राचीन तमिलाकम (तमिलनाडू) के अंतर्गत पर्यावरणीय भिन्नताएं भी और आंध्र एवं उड़ीसा को भी उसी नजरिए से देखा जा सकता है। नृजातीय भिन्नता जो भी रही हो उसके बावजूद वेदों ने आर्यावर्त की संकल्पना में इन क्षेत्रों को शामिल कर लिया था और आर्यों ने जिनके जीवन में घोड़े का सबसे अधिक महत्व था। सुदूर के क्षेत्रों तक यात्रा कर ली थी। घोडे़ की तेज रफ्तार के कारण आर्यों ने 2000 ई.पू. के बाद इस भू क्षेत्र में चहल-कदमी शुरूकर दी। आर्यों के विषय में जानकारी लिखित रूप में सबसे पहले ऋग्वेद में मिलती है और इसकी अनेक बातें ''अवेस्ता'' मे पायी जाती हैं जो ईरानी भाषा का सबसे पुराना ग्रंथ है और इस तरह इन दो अलग-अलग क्षेत्रों की सभ्यताओं की ऐसी समानता कोई आधुनिक घटना नहीं है अपितु हजारो वर्ष पहले से ही ऐसे तत्व हमें समान आचरण में (similar ethics) बांधे हुये हैं और इन्हीं से भारत का निर्माण और विकास होता गया है। इस तरह से भारत के निर्माण की प्रक्रिया में आदिम सभ्यता के बाद तीन महत्वपूर्ण परिवर्तन रेखांकित किये जा सकते है –

· नव पाषाण संस्कृति से बाहर निकलना।

· पहली बार हड़प्पा क्षेत्र में सभ्यता का उदय जिसके तत्व उपमहाद्वीप के अन्य क्षेत्रों में व्यापार, वाणिज्य और आदान-प्रदान की प्रक्रिया के फलस्वरूप पहुंच गये और कमोबेश आधुनिक भारत में भी झलक मार जाते है. जैसे लिंग पूजा, मातृ देवियों की पूजा इत्यादि।

· लोहे की खोज एवं आर्यों का आगमन।

इसके साथ ही इस क्षेत्र में तथाकथित बाहरी तत्वों का आगमन, संस्कृत भाषा, वेशभूषा और जलपान इत्यादि का प्रचलन तेजी से शुरू हुआ जो आज तक जारी है और कैसे इस क्षेत्र में रहने वाले मूल निवासियों ने बड़ी खुशी से इन सब चीजों को अपना लिया जिन्हें उन्होंने अब तक देखा-सुना भी नही था। ऋग्वेद में यह उल्लेख बार-बार मिलता है कि उन्होंने कैसे दस्युओं को पराजित किया और उनके ''पुरों'' का नाश करने के कारण उनका एक राजा पुरंदर कहलाया लेकिन दस्युओं को, जो इस क्षेत्र के रहने वाले आदिवासी लोग थे, को हराने के बाद उन्हें उन क्षेत्रों से एक दम निष्कासित नहीं कर दिया था अपितु उन्हीं के सहयोग से वे गंगाघाटी में टिक कर रहने को लालायित हुये और उन्होंने घूमन्तू और कबीलाई जीवन को शनैः शनैः त्यागना आरम्भ कर दिया। ग्राम आदि की संकल्पनाए इस तथ्य को साबित करती हैं और ऋग्वैदिक युग के बारे में सभी इतिहासकार कम से कम इन तीन तथ्यों से तो कोई मतभेद अब नहीं रखते हैं:

1. अगर आर्यों या आर्य भाषाओं को बोलने वाले समूहों का आगमन इस उपमहाद्वीप में हुआ तो विस्थापन विशाल स्तर पर नहीं हुआ और न ही उनकी विजय के कारण स्थानीय आबादी दूसरी जगहों पर गई।

2. ऋग्वेद में आर्यों द्वारा रचित प्रथम ग्रंथ में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि इस समाज की अपनी प्रारंम्भिक अवस्था के आधार पर प्रमुख कार्य पशुचारण था न कि कृषि पर आधारित जीवन।

3. ऋग्वेद मे जिन कबीलाई जीवन का वर्णन है वह घुमंतू जातियों जैसा नहीं है अपितु अब वे टिककर रहने लगे और उनका पूरा समूह अब विचरण करने की जगह चुनी हुई टुकडि़याँ उर्वर क्षेत्रों की खोज में आगे बढ़ती थी और वे गांवों की संरचना करते हुये परस्पर आगे बढ़ते जाते थे और ये टोलियाँ कहीं रूकी नहीं। इस प्रकार भारत निर्माण की प्रक्रिया बाकायदा स्वरूप लेती गई और उत्तर वैदिक काल तक आते-आते वे इन क्षेत्रों के साथ अपनेपन की भावना (sense of belongingness) स्थापित कर चुके थे। उस स्थान की ऋतुओं के वनस्पतियों एवं नदियों के साथ उन्होंने अपनापन जोड़ना शुरू कर दिया जिससे प्रकारांतर में व्यापक 'आर्यावर्त' की संकल्पना प्रबल होती गई। इस प्रकार 2000 से 1500 ई.पू. के मध्य उन सरोकारों का पैदा होना प्रारम्भ हो गया था जिनसे हम आज भी बंधे हुये हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वैदिक युग में सब कुछ समेटने की भावना प्रधान थी इसीलिए आर्य या तो अपनत्व की भावना से अथवा विस्तार की लालसा से ही सही दूर-दूर के क्षेत्रों को अपने में समेट रहे थे और वर्तमान में ठीक इसके विपरीत स्वरूप जन्म ले रहा है - सिर्फ अपने आस-पास को अपना समझना और थोड़े भी दूर को एक दम पराया घोषित कर देना। इसे ही सजातीय और विजातीय अवधारणा कहते हैं।

8 टिप्‍पणियां:

  1. ये एक महत्वपूर्ण पोस्ट है|

    मनोज भाई आप भविष्य के संदर्भ के लिए बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं

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  2. वाह अतिसुन्दर विवेचना....

    आभार इस अद्वितीय पोस्ट के लिए..

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  3. बहुत ही जानकारी भरी पोस्ट,
    बहुत बहुत आभार,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  4. वैचारिक धरातल पर पठनीय आलेख.

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