जितेन्द्र त्रिवेदी
विवेकानन्द के उस सवाल का उत्तर उस समय गांधी जी ने अपने सत्य के प्रयोगों द्वारा दुनियां को देने की धृष्टता की थी और विवेकानन्द द्वारा बताये उसी सनातन आदर्श को अपना जीवन लक्ष्य बना कर इस धरती पर 125 वर्ष जीने की लालसा संजोयी थी। किन्तु, वह एक लालसा ही सिद्ध हुई और आज हम उसी सवाल से फिर घिर गए हैं और जवाब भी हमें ही देना है कि हम अभी भी उस सनातन आदर्श सहिष्णुता को चुने या फिर पश्चिम के विचार को, जिसकी व्याख्या हमने पीछे कर दी है और जिसे हमने अपनी जीवन पद्धित बना ली है, के आधार पर आगे बढ़ते जाएं। यहां इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि सहिष्णुता को हम भारतीयों ने अब तक जरूरत से ज्यादा महत्व तो नहीं दिया है और हमारी हमारी भौतिक तरक्की में यह तत्व अवरोध पैदा करता आया है।
इस अध्ययन का उद्देश्य यह भी है कि कहीं सहिष्णुता के कारण ही जरूरत के उन सोपानों को भारत नहीं छू पाया, जिन्हें अन्य राष्ट्र चाहे वह पश्चिम, पड़ोसी चीन अथवा जापान ने प्राप्त किया है। इन बातों को इस सिरे से भी देखना होगा कि क्या यही गुण ही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी तो नहीं बना और भारतीयों में दब्बूपने की प्रवृत्ति डालने का कारक बन गया। क्या इस तत्व के कारण सब कुछ सहते जाने की हमारी प्रवृत्ति विकसित हॊती गयी और उसी के कारण ही भारतीयों की धर्म भीरूता या संस्कारगत समझौतावादी प्रवृत्ति तो विकसित नहीं हो गयी; अन्याय और बल के प्रतिकार की भावना मर गई?
क्या हिन्दू धर्म ही भारत में सहिष्णुता का विकास करने का एकमेव घटक था और इसी के उक्त तत्व ने विदेशी आक्रमण, अत्याचार और दमन के प्रतिकार की मानव सहज प्रवृत्ति का क्षय कर दिया और बाद में अन्य धर्म भी इसकी छूत का हिस्सा बनते चले गये?
क्या जिस तथाकथित सहिष्णुता की बात हमारे पूर्वज हजारों वर्ष पूर्व के ऋषियों से लेकर 19वीं सदी के पुनर्जागरण के महापुरूष करते रहे हैं, वह एक ‘कम्फ़र्ट जोन’ के आस-पास मण्डराते रहने की मनौवैज्ञानिक प्रवृत्ति भर है जो कभी-कभी अवसरवादिता या खतरा देख लेने पर अपने ''खोल में सिमट'' जाने की डिफेन्सिव अपील भर है और इसे भारतीयों ने तब-तब इस्तेमाल किया जब-जब वे मुकाबला करने में नाकामयाब हो गये?
बहुत पुराने इतिहास की घटनाओं को अगर छोड़ भी दें तो पाकिस्तान के साथ, नेपाल के साथ, बांगलादेश के साथ तो हमारी यह सहिष्णुता चमकदार दिखती है क्योंकि यहां हम शक्तिशाली है किन्तु चीन के प्ररिप्रेक्ष्य में जब हम इस तथ्य को समझने लगते हैं तो यह भारतीय की “निर्बल के बल राम”, वाली उक्ति के अनुरूप एक “ढाल” जैसा कुछ तो नहीं है जिसकी आड़ में भारतीय अपनी कायरता को साफ छुपा जाता है तथा इस बहाने से अपनी हुंकार नहीं भरने का दंभ करता रहता है और अपनी स्वभावजनित आक्रमणविहिनता को हम सहिष्णुता कहने लग गये क्योंकि सन् 1962 के युद्ध के बाद भारतीय साहित्यकारों, विचारको और पत्रकारों ने नेहरू की विदेशी नीति की जो धज्जियां उड़ाई और घनघोर आलोचना की(1) उसमें सबसे बड़ा तथ्य जो आज तक भारतीय मानस को उहापोह में रखे हुये है वह यही है कि क्षमा करना हमारा जातीय स्वभाव है या शक्तिशाली के सामने झुक जाने की, सर्मपण कर देने की, घुटने टेक देने की सहज मानव कमजोरी है और जब-जब 3000 से भी अधिक वर्षों के इतिहास में हमें अपनी उस कमजोरी को छिपाने की जरूरत लगी हमने “सहिष्णुता” का महिमा मंडन और सार्वभौमिकता का झुनझुना बजाना शुरू कर दिया - “सर्वेभंवतु - - ”
हमारा मकसद “व्यवहारिकता” और “सिद्धान्त” को धरातल पर रखकर “भारत में सहिष्णुता” को समझने का विनम्र प्रयास रहेगा जिसे विशेषकर 1962 में चीन से युद्ध के बाद हजारों वर्षो के इतिहास में भारतीयों को अब तक सबसे अधिक झकझोरा है। हिन्दी के एक मूर्धन्य कवि जिन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि प्राप्त है, हिन्दुस्तान की हजारों वर्षों की सहनशीलता को नये नजरियें से देखने के लिये अनेक तल्ख कविताएं रच डाली जिसमें “हुंकार” और “परशुराम की प्रतीक्षा” संकलन उल्लेखनीय हैं, में से किसी एक में उन्होंने बहुत बड़ी बात कह कर हमें पुनः सोचने को विवश किया हैः- “क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो।"
(1)
घातक है, जो देवता सदृश दिखता है
लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है
उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक् है
यह मूक सत्यहंता कम नहीं बधिक है
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है
भारत अपने घर में ही हार गया है
जो चरम पाप है, हम उसी की लत हैं
दैहिक बल को कहता यह देश गलत है
तलवारें सोती जहां बंद म्यानों में
किस्मतें वहां सड़ती हैं तहखानों में
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है
मां के किरीट पर ही यह वार हुआ है
हम मान गए वे धीर नहीं उद्धत थे
वे सही और हम विनयी बहुत गलत थे
साधना स्वयं शोणित कर धार रही है
सतलज को साबरमती पुकार रही है
दानवी रक्त से सभी पाप धुलते हैं
उंची मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं
सच पूछों तो अब भी सच यही वचन है
सभ्यता क्षीण बलवान हिंस्र कानन है
जब शांतिवादियों ने कपोत छोड़े थे
किसने आशा से नहीं हाथ जोड़े थे
पर हाय धर्म यह भी धोखा है, छल है
उजले कबूतरों में भी छिपा अनल है
जो पुण्य-पुण्य बक रह उन्हें बकने दो
जैसे सदियां थक चुकी, उन्हें थकने दो
वे देश शांति के सबसे शत्रु प्रबल हैं
जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं। .
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
उपयोगी पोस्ट!
जवाब देंहटाएंजितेन्द्र त्रिवेदी जी को ब्लॉगिस्तान से परिचित करवाने के लिए आपका आभार!
निसंदेह सहिष्णुता थोडा दब्बू भी बनाती है।
जवाब देंहटाएंसहिष्णुता पर उपयोगी तथा धैर्य बढ़ाने का मन्त्र देने वाली अच्छी चर्चा..
जवाब देंहटाएंसहिष्णुता पर विचारोत्तेजक लेख !
जवाब देंहटाएंआभार !
“क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो।"
जवाब देंहटाएंयह पंक्तियाँ रामधारी सिंह " दिनकर " की " कुरुक्षेत्र " से हैं |
लेख बहुत अच्छा और जागरूक करने वाला है
सहिष्णुता एक ऐसा गुण है जिसपर लिखा होता है "Handlewith care" ज़रा सी असावधानी उसे कायरता की श्रेणी में ले जाती है..
जवाब देंहटाएंसहिष्णुता संबंधी लेख के लिए साधुवाद! आपकी चिंता स्वाभाविक है। इस समस्या का मूल कारण अशिक्षा है। भारत में सदियों तक शिक्षा के दरवाजे आम आदमी के खुले न थे। अत: "मैं जो चाहूँ सो करूँ....मेरी मर्ज़ी" वाला सिद्धांत यहाँ प्रभावी रहा। यह सिद्धांत ताकत का परिचायक रहा है। आप इसे जंगलराज वाला सिद्धांत कह सकते हैं। ऋषियों ने इस सिद्धांत की व्याख्या "वीर भोग्या वसुंधरा" रूप में की है। वीरों ने पुरूषों को दास और स्त्रियों को दासी समझा। दास और दासियाँ उनके लिए भोग की वस्तु थे, धन थे। जातिवाद, पर्दा-प्रथा, सती-प्रथा, बाल-विवाह, देवदासी-प्रथा जैसी अनेक प्रथाओं में उसे जकड़ा गया। आम जनता ने उनकी बातों को अपना आदर्श समझ कर अपना लिया। गैर-बराबरी वाली धार्मिक व्यस्था ने आम जनता का मनोबल तोड़ कर रख दिया और वह बाहरी हमलों का प्रतिकार न कर सकी। उसी मानसिकता के लक्षण हैं-’कन्या को कन्या नहीं दान की वस्तु समझा जाता है। जिस माँ-बाप जन्म देते हैं वे उसे पराया धन मानने लगते हैं। अत्याचार, अत्याचार है। दलितों और पिछड़ों की भाँति समाज के कमजोर वर्ग में नारियाँ भी आती हैं। जब दास और दासी भारी संख्या में प्रताणित किए जाते हैं, जलाए जाते हैं तो उसे दंगा कहा जाता है। जब केवल दासी (नारी) प्रताणित की जाती है, जलाई जाती है तो उसे दहेज-हत्या कह दिया जाता है। दहेज-हत्या शोषण का घिनौना रूप है। आज भी बर्बर युग की बहुत गहरी जड़ें हमारे समाज में विद्यमान हैं। जिस देश का समाज जितना सभ्य होगा उस देश में लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली उतनी ही कामियाब होगी। सहिष्णुता वहीं चिर स्थायी रहती है जहाँ जाति, धर्म, भाषा तथा लिंग के आधार पर भेदभाव का कोई स्थान नहीं होता है।
जवाब देंहटाएं=======================
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
uttam lekh
जवाब देंहटाएंउंची मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं
जवाब देंहटाएंसच पूछों तो अब भी सच यही वचन है
सभ्यता क्षीण बलवान हिंस्र कानन है
जब शांतिवादियों ने कपोत छोड़े थे
किसने आशा से नहीं हाथ जोड़े थे..
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! शानदार लेख!
भारतीय जन-मानस के कवि क्यूँ थे दिनकर जी, इस कविता से साबित हो जाता है|
जवाब देंहटाएंआज जबकि युद्ध नायक ओबामा को शांति पुरस्कार दिया जा सकता है तो खास कर ऐसे वक्त में भारतीय सहिष्णुता को नये आयामों के साथ पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता भी महसूस होने लगी है|
सुन्दर आलेख, सटीक कविता का संदर्भ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता और बहुत उपयोगी पोस्ट
जवाब देंहटाएंबुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनायें!
आजकल जब हम आइडेण्टिटी क्राइसिस से गुजर रहे हैं, सहिष्णुता की एक मिसाल जो समझ नहीं आती सामान्य बुद्धि से, कायरता ही लगती है।
जवाब देंहटाएंआधुनिक संदर्भों के कारण यह आलेख बहुत प्रासंगिक बन गया है और विश्व राजनीति के प्रति नवदृष्टि विकसित हो रही है।
जवाब देंहटाएंश्री त्रिवेदी जी ने इस लेख शृंखला में सहिष्नाणुता के सनातन मूल्यों का विविध मौलिक दृष्टिकोणों से वर्तमान सन्दर्भ में मूल्यांकन करने का सफल प्रयास किया है। कुछ पाठकों ने कायरता और सहिष्साणुता में अन्तर की ओर संकेत किया है। लेखक से अनुरोध है कि वह इन दोनों तत्त्वों की विभाजक रेखा कहीं प्रसंगानुसार अवश्य खींचे। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन,
जवाब देंहटाएंत्रिवेदी जी को आभार