रक्षा मंत्रालय में कार्यरत जितेन्द्र त्रिवेदी रंगमंच से भी जुड़े हैं, और कई प्रतिष्ठित, ख्यातिप्राप्त नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन कर चुके हैं। खुद भी नाटक लिखा है। न सिर्फ़ साहित्य की गहरी पैठ है बल्कि समसामयिक घटनाओं पर उनके विचार काफ़ी सारगर्भित होते हैं। वो एक पुस्तक लिख रहे हैं भारतीय संस्कृति और सहिष्णुता पर। हमारे अनुरोध पर वे इस ब्लॉग को आपने आलेख देने को राज़ी हुए। उन्हों लेखों की श्रृंखला हम हर मंगलवार को पेश कर रहे हैं।
जितेन्द्र त्रिवेदी
अंक – 3
यहाँ इस विषय पर लिखने का उद्देश्य भारतीय इतिहास का वर्णन करना नहीं, अपितु भारत जिन तत्वों से बना है, उनका सहारा लेकर अपनी बात को कहना प्रधान उद्देश्य है। भारत निर्माण की प्रक्रिया को दिखाते वक्त मैं अपने मूल उदृदेश्य से कितना भटका हूँ, इसका निर्णय तो इन अध्यायों के पाठक के ही सर्वाधिकार में है। विचलन की गुंजाइश होते हुए भी मेरी दृढ़ निष्ठा है कि मैं मूल विषय से कम से कम भटक पाऊँ।
भारत-निर्माण का अध्ययन और विवेचन केवल इसलिए नहीं किया जा रहा है कि मुझे अपने विचार रखने के लिये पुरातन घटनाओं में जाने की जरूरत पड़ रही है। उतना तो है ही अपितु भारत के निर्माण का अध्ययन इसलिये भी जरूरी है कि आधुनिक भारत में हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उनके संदर्भ में प्राचीन भारत की घटनाओं, महापुरूषों के उदय, विभिन्न धर्मों की स्थापना और प्रसार, संस्कृति के विकास के माध्यम से समकालीन भारतीयों की सोच में आ रहे अंतर को हम देख पाएंगे। भारत के अतीत में घुसने का मेरा एक ही मकसद है कि किसी भी प्रकार से मैं यह सत्य दिखाने में विनम्र कामयाबी हासिल कर लूँ कि वर्तमान में हम जिस देश अथवा जिन विचारों, क्षेत्र, धर्म, जाति, भाषा विशेष को अपना और सिर्फ अपना समझ बैठे हैं, वैसा कुछ भी नहीं है। ये सब तो हमारे सामूहिक विकास का प्रतिफल है और एक बहुत बड़े भौगोलिक क्षेत्र में रहने के कारण परस्पर आदान-प्रदान से हमारे अपने-अपने धर्मो का, अपने-अपने क्षेत्र का, अपनी-अपनी भाषा का एक पुख्ता स्वरूप निर्मित हुआ है, कम से कम यह एक बपौती जैसा तो कुछ भी नहीं है कि मैंने इस जाति में, इस क्षेत्र में, इस धर्म में जन्म लिया है, इसलिए मैं महान हूँ।
यह ऐसा ही है कि किसी पेड़ पर पैदा हुआ पक्षी उस पेड़ के विकास को ध्यान में रख कर की जाने वाली टिप्पणी से नाराज होकर पेड़ पर रहने वाले सभी पक्षियों को यह बताए कि हम जिस पेड़ पर पैदा हुए हैं, उसके बारे में भला कोई अन्य, जो दूसरे पेड़ पर पैदा हुआ है, कोई टिप्पणी कैसे कर सकता है। इससे उन पक्षियों को कोई फायदा मिले या न मिले, किन्तु उस पेड़ का नुकसान अवश्यसंभावी है, क्योंकि पेड़ का विकास रुक जायेगा और निश्चय ही वह एक दिन मुरझा जायेगा।
अपने-अपने धर्म, जाति और क्षेत्र में बपौती की यह भावना वे क्यों रखे हुये हैं? भारत निर्माण की प्रक्रिया का अध्ययन करने पर सत्य नारायण के वे दर्शन कर लेंगे कि किसी भी धर्म, जाति तथा क्षेत्र विशेष पर उनकी वास्तव में तो कोई बपौती है ही नहीं। किसी जाति, धर्म, क्षेत्र में पैदा होना यदि कोई विलक्षणता है तो वह केवल दैवीय या ईश्वरीय मर्जी से अधिक तो नही है। ईश्वर आपको कहाँ पैदा करेगा, इस पर आपका या आपके माता-पिता का क्या योगदान हो सकता है, तो ऐसी ईश्वरीय मर्जी पर जिसमें हम किसी भी जाति, धर्म या क्षेत्र में पैदा हो उस पर इतराना और उसे अपनी बपौती मानना कितना खतरनाक हो सकता है, यह तो आज हम समकालीन भारत में जी रहे लोग देख सकते हैं। जिस संकीर्णता को लेकर आज का व्यक्ति आगे बढ़ना चाहता है उससे वह व्यक्तिगत रूप से बहुत आगे बढ़ भी जाएं और शायद कुछ महत्वपूर्ण पद पा ले, धन, यश, सत्ता प्राप्त कर लें और कभी तुक्का लगे तो देश के प्रधानमंत्री या भारत में सबसे अधिक चर्चा में बने रहने वाली हस्ती भी बन जाएं, किन्तु इस व्यक्तिगत उपलब्धि की भूल-भूलैया में भारत बहुत पिछड़ जायेगा और जिन तत्वों से हिन्द की शान हैं, उन्हे गिरने में 50 सालों से ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा।
भारत-निर्माण की प्रक्रिया को दिखाने का एक मकसद यह भी है कि हम उन तत्वों को पहचानें, जिन्होंने कई बार सत्य को 'हाइजैक' किया और आज भी करने की जुगाड़ में लगे हुये हैं।
विवेकानन्द का साहित्य जिसने नहीं पढ़ा है वह विवेकानन्द के चित्र को किन्ही संस्था विशेष के कार्यक्रमों में देखने पर सामान्य धारणा बना लेगा कि ये महापुरूष अमुक धर्म के अन्य धर्मों पर प्रमुखता के हिमायती हैं, जबकि विवेकानन्द के साहित्य का अध्ययन, विवेचन और विश्लेषण करके हमारा यह सत्य उद्घाटित करने का प्रयास रहेगा कि वे किसी विशेष धर्म की स्थापना की बात नहीं करते थे और वे हिन्दुओं के हिमायती तो कतई नहीं थे। वे तो कुछ ऐसे विचार रखते थे -
''यह कितने गौरव की बात है कि यहाँ इतने अधिक मार्ग हैं, क्योंकि यदि केवल एक ही मार्ग होता तो शायद वह केवल एक ही व्यक्ति के अनुकूल होता। इतने अधिक मार्ग होने से हर एक व्यक्ति को सत्य तक पहुँच सकने के अधिक से अधिक अवसर सुलभ हैं। यदि मैं एक भाषा के माध्यम से नहीं सीख सकता तो मुझे दूसरी भाषा आजमानी चाहिये और हम सबने बैठ कर यह निश्चय किया है कि हमें इस आदर्श का प्रसार करना है और चल पडे़ हम लोग - न केवल उस आदर्श का प्रसार करने के लिये बल्कि उसे और भी व्यावहारिक रूप देने के लिये। तात्पर्य यह कि हमें दिखलाना था हिन्दुओं की आध्यात्मिकता, बौद्धों की जीव-दया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बंधुत्व आदि। हमने अपने व्यावाहरिक जीवन के माध्यम द्वारा निश्चय किया - ''हम एक सार्वभौमिक धर्म का निर्माण करेंगे - अभी और यहाँ ही और हम रूकेंगे नहीं ..............'' (विवेकानन्द द्वारा दिये प्रसिद्ध भाषण - मेरा जीवन तथा ध्येय से).
वर्तमान भारत में विवेकानन्द की हिन्दू छवि के साथ सन् 1900 की उनकी सर्वधर्मवादी मौलिक सोच (जो अभी तक हाइजैक नहीं हुई है) के साथ किसी संस्था विशेष के कार्यक्रम में लगे उनके चित्र को देखिए तो अनायास लगेगा कि या तो उक्त चित्र (विवेकानन्द की) को उस संस्था विशेष के कार्यक्रम में नहीं होना चाहिये था या फिर उसे दुनियाँ के सभी धर्मो और संस्थाओं के कार्यक्रम में हर हालत में होना चाहिये था।
मैं, ऊपर के इस उदाहरण के द्वारा यह दर्शाना चाहता हूँ कि ''बपौती की अवधारणा'' भ्रामक एवं नितांत झूठी होती है। वैसे ही जैसे कोई सम्प्रदाय, संस्था या धर्म विशेष विवेकानन्द या अन्य किसी महापुरुष को, चाहे वे हेडगेवार हों या अम्बेडकर; गांधी हों या (गनीमत है कि उन्हें आज कोई भी अपनी बपौती नहीं मानता सिवाय उनका नाम भुनाने के), मोहम्मद साहेब, ईसा हों या बुद्ध, महावीर या गुरुनानक हों अथवा रजनीश, उनको अपनी बपौती मान कर उन्हें लोगों तक पहुंचने से रोक देते हैं और कोई एक-दो साल तक नहीं वरन सदियों तक और इस आड़ में क्षुद्र हितों की वे पूर्ति करते रहते हैं। इन महापुरूषों की आड़ में अपने घृणित कार्यों को साफ छिपा जाना चाहते हैं।
उपरोक्त महापुरूषों के हवाले से मैं कुछ ज्वलन्त प्रश्न करने की विन्रम अनुमति चाहता हूँ कि क्या पैगम्बर मोहम्मद साहेब पर सिर्फ मुसलमानों का ही अधिकार है? क्या जिहाद सिर्फ मुसलमान ही कर सकते हैं? क्या जिहाद को इतने तंग दायरे में रखा जा सकता है जो आज तालिबान ने या अन्य आंतकी संगठनों ने रख दिया है?
क्या ईसा किसी क्रिश्चिचयन के ही बेटे थे? नहीं, वे यहूदी के बेटे थे और पैदा होते समय क्रिश्चिचयन नहीं अपितु यहूदी ही जन्मे थे ठीक वैसे ही जैसे पैदा होते समय हम सब बच्चे ही पैदा होते हैं, और भेद बाद में परिवार वाले करते हैं, फिर दुनियां वाले और फिर हम खुद। क्या बुद्ध पर सिर्फ बौद्धों का ही स्वामित्व है? क्या उनकी आड़ में किसी के द्वारा किये जाने वाले सभी उल्टे-सीधे काम स्वीकार किये जाने चाहिये? क्या बुद्ध की मूर्ति लगाने भर से कोई बौद्ध बनने का दंभ कर सकता है? नहीं, बौद्ध बनने के लिये सबसे बड़ी निशानी है – शील, मैत्री, त्याग, करुणा और अपरिग्रह। जबकि आज के उनके मूर्ति-निर्माता धड़ल्ले से धन संग्रहण करके अपने आपको बुद्ध भक्त साबित करने में लगे हैं। क्या महावीर धनी जैनियों के पिता जी की वसीयत हैं और ‘नवकार मंत्र’ एवं ''जियो और जीने दो का नारा'' सिर्फ उन्हीं के लिये है।
बात जिहाद की करें तो, जैसे बुराई के या अनाचर-अत्याचार के दम घोंटू वातावरण से उकताकर कोई भी मुसलमान जिहाद करने को स्वतन्त्र है, वैसे ही अन्य कोई भी चाहे वह किसी भी धर्म का हो पूरी तरह स्वतन्त्र है। जिहाद का अर्थ है - ''जद्दो-जहद’’ और जद्दो-जहद का मतलब है अथक प्रयास जिसमें जान भी देनी पड़े तो दे दी जाएगी लेकिन उस समय तक नहीं, जब तक अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध करने के अन्य सब रास्ते बंद न हो जायें। उससे पहले अल्लाह किसी भी कीमत पर जिहाद कबूल ही नहीं करेगा (कुराने पाक)। अगर सुलह-सफाई, विरोध, प्रतिरोध का एक भी रास्ता बाकी है तो पहले उसे ट्राई करना पड़ेगा तभी जिहाद के हकदार हम बनेंगे, उससे पहले कतई नहीं।
(ज़ारी ….)
आपने बेहतरीन मुद्दा उठाया है, बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि जो लोग इन महापुरुषों के नामलेवा बने हुए हैं, उनमे से अक्सर लोग तो केवल दिखावा ही करते हैं... जिहाद का जो मतलब आतंकवादी आम जनता को समझाने में लगे हुए हैं, अपनी नासमझी और अशिक्षा के कारण आम लोग इनके फेरों में फंसते जा रहे हैं. आज ज्यादा से ज्यादा लोगो तक सही शिक्षाओं को लाने की ज़रूरत है.
जवाब देंहटाएंइस विषय पर मेरा लिखा निम्नलिखित लेख काफी विस्तार से रौशनी डालता है.
गैर-मुसलमानों के साथ सम्बन्ध कैसे होने चाहिए
त्रिवेदी जी ! आपका विश्लेषण यथार्थ है ...किन्तु मुश्किल यह है कि धर्मों के ठेकेदार इस यथार्थ को समझने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं हैं. कितनी विडम्बना है कि हम अभी तक यह संस्कार विकसित नहीं कर पाए कि सनातन , इस्लाम, क्रिश्चियनिटी आदि में जो भी अपने लिए अनुकूल हो उसे मिलाकर ग्रहण किया जाय. सबके अलग-अलग विभाग बन गए हैं जैसे कांग्रेस का अधिकार गांधी और नेहरू पर और भा.ज.पा. का अधिकार राम और स्वामीविवेकानंद पर हो गया है ...किसी को एक- दूसरे का हस्तक्षेप अपने विभाग में स्वीकार नहीं. यही बात धर्म और ईश्वर के बारे में है. धर्म को आतंकवाद का पर्याय बना देने पर तुल गए हैं लोग. अभी पाकिस्तान की एक मस्जिद में विस्फोट करके बेगुनाहों की जान ले ली गयी .......इबादतगाह में धर्म के नाम पर यह कैसा जिहाद ? अमन पसंद मुसलामानों को इसके खिलाफ खुल कर आने की ज़रुरत है.
जवाब देंहटाएंइन सारी समस्यायों की जड़ में संकुचित विचारधारा है वरना एक धर्म दूसरे धर्म के लोगों पर अत्याचार करने की अनुमति कहाँ देता है !
जवाब देंहटाएंजाति और धर्म के प्रति स्वार्थपूर्ण नज़रिया और संकुचित दृष्टिकोण ही इस देश की उन्नति में बाधक है !
लगा अपने ही मन की बात लिखित रूप में यहाँ मैं पढ़ रही हूँ...
जवाब देंहटाएंअपार सुखानुभूति हुई....
अद्वितीय विवेचना है...कृपया शेष अंश भी पढवाएं...आपके आभारी रहेंगे...
मनुष्य को बस यही ज्ञात हो जाये कि किस पर अधिकार जताना है, किस पर नहीं, तो सारी समस्यायें मिट जायें। सार्थक चिन्तन।
जवाब देंहटाएंइससे उन पक्षियों को कोई फायदा मिले या न मिले, किन्तु उस पेड़ का नुकसान अवश्यसंभावी है, क्योंकि पेड़ का विकास रुक जायेगा और निश्चय ही वह एक दिन मुरझा जायेगा।
जवाब देंहटाएंbahut achchha udaharan diya hai ,gyanchand ji ki baate bhi sahi hai .
एक विचारोत्तेजक आलेख।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और सार्थक आलेख!
जवाब देंहटाएंविचार करने योग्य लेख ..अच्छी बातें कहीं से भी और कोई भी ग्रहण कर सकता है
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