रविवार, 22 मई 2011

भारतीय काव्यशास्त्र – 67

भारतीय काव्यशास्त्र – 67

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में विवक्षितववाच्य ध्वनि (अभिधामूलध्वनि) के असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य और संलक्ष्यक्रमव्यंग्य का प्रथम भेद शब्दशक्त्युत्थ ध्वनि के पदद्योत्य (पदगत) दो भेदों- वस्तुध्वनि और अलंकार-ध्वनि पर विचार किया गया था। इस अंक में पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के चार भेदों- वस्तु से वस्तु व्यंग्य, वस्तु से अलंकार व्यंग्य, अलंकार से वस्तु व्यंग्य और अलंकार से अलंकार व्यंग्य- पर चर्चा की जाएगी।

सर्वप्रथम पदद्योत्य वस्तु से वस्तु व्यंग्य का उदाहरण लेते हैं। प्रस्तुत उदाहरण में अपने उपपति के साथ सहवास के उपरान्त उत्पन्न थकान को मिटाने के लिए स्नान करने आयी हुई एक नायिका से उसकी सखी की उक्ति है, जो उसके चोरी से किए रति के रहस्य को समझ चुकी है-

सायं स्नानमुपासितं मलयजेनाङ्गं समालेपितं

यातोSस्ताचलमौलिमम्बरमणिर्विस्रब्धमत्रागतिः।

आश्चर्यं तव सौकुमार्यमभितः क्लान्ताSसि येनाधुना

नेत्रद्वन्द्वममीलनव्यतिकरं शक्नोति ते नासितुम्।।

अर्थात् हे सखि, शाम के समय तुम ठीक से स्नान कर चुकी हो, शरीर पर चन्दन का लेप करवायी हो, सूर्य अस्ताचल के शिखर पर जा चुका है और धीरे-धीरे चलकर यहाँ तक आयी हो, फिर भी तुम इतनी थकी हुई लग रही हो, तुम्हारी आँखें मुदी जा रही हैं। तुम्हारी सुकुमारता पर आश्चर्य हो रहा है।

यहाँ यह व्यंग्य द्रष्टव्य है कि थकानेवाले कोई भी कारण नहीं है। नायिका स्नान कर चुकी है, चन्दन का लेप भी स्वयं नहीं किया, सूर्यातप की तीव्रता भी नहीं है, धीरे-धीरे चलकर आयी है, फिर भी उसकी आँखें मुदी जा रही हैं। कितनी सुकुमार है, सहेली को अच्छी तरह मालूम है कि वह इतनी कोमल नहीं है, इसलिए उसे आश्चर्य है। अर्थात् सहेली पूरी तरह जानती है कि वह किसी परपुरुष के साथ सहवास करने के कारण उसे थकान हुई है। यह वस्तु व्यंग्यार्थ पहले कही हुई वस्तु से अधुना (ऐसे समय में) पद से उद्दीप्त हुआ है। अतएव यहाँ पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि का प्रथम भेद वस्तु से वस्तु व्यंग्य है।

अब पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के दूसरे भेद वस्तु से अलंकार व्यंग्य का उदाहरण लेते हैं। यहाँ उद्धृत दोनों श्लोक विष्णुपुराण से लिए गए हैं।

तदप्राप्तिमहादुःखविलीनावशेषपातका।

तच्चिन्ताविपुलाह्लादक्षीणपुण्यचया तथा।।

चिन्तयन्ती जगत्सूतिं परब्रह्मस्वरूपिणम्।

निरुच्छ्वासतया मुक्तिं गताSन्या गोपकन्यका।।

अर्थात् उस भगवान कृष्ण न मिलने के कारण उत्पन्न महादुख से जिसके सम्पूर्ण पापों का नाश हो गया है तथा उनके (कृष्ण के) चिन्तन से उद्भूत आह्लाद से सम्पूर्ण पुण्य-समूह नष्ट हो गया है। परब्रह्मस्वरूप जगत के सृष्टिकर्त्ता भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए मूर्च्छित हो जाने के कारण कोई गोप कन्या मुक्त हो गयी।

पाप और पुण्य रूप कर्म हमारे अनेक जन्मों के कारण माने गये हैं। लेकिन भगवान कृष्ण के वियोग का दुख हजार जन्मों में भोगे जानेवाले दुख से अधिक था और उनकी चिन्ता (ध्यान) का आनन्द हजार जन्मों में भोगे जानेवाले पुण्य के सुख से अधिक था, जिसका अनुभव गोप कन्या ने किया। यहाँ पहले कहे वस्तु-अर्थ से अतिशयोक्ति अलंकार व्यंग्य है। यह व्यंग्य अशेष और चय पदों के कारण उत्पन्न हुआ है।

इसके बाद अब पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के तीसरे भेद अलंकार से वस्तु ध्वनि का उदाहरण लेते हैं।

क्षणदाSसावक्षणदा वनमवनं व्यसनमव्यसनम्।

बत वीर! तव द्विषतां पराङ्मुखे त्वयि पराङ्मुखं सर्वम्।।

अर्थात् हे वीर (राजन्), तुम्हारे पराङ्मुख (विमुख) हो जाने के कारण सबकुछ तुम्हारे शत्रुओं के विपरीत हो गया है- आनन्ददायी रात उनके लिए दुखदायी हो गयी है, वन उनके लिए अवन (रक्षा स्थल) हो गया है और उनका अव्यसन (गोचारण आदि) ही अब व्यसन बन गया है।

इस श्लोक में अर्थान्तरन्यास अलंकार है- जहाँ सामान्य कथन का विशेष कथन से अथवा विशेष कथन का सामान्य कथन से समर्थन किया जाता है, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। मुख्य व्यक्ति के विरुद्ध हो जानेपर सबकुछ विपरीत हो जाता है, ऐसी लोक-प्रसिद्ध कहावत है। इस उक्ति से वीर राजा के विमुख होने के परिणामों का समर्थन किये जाने के कारण यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार हुआ और इसस अलंकार से विधि भी तुम्हारी इच्छा का अनुसरण करता है, यह वस्तु सर्व पद से व्यंजित होता है।

इस अंक के अन्त में अब पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के अन्तिम भेद अलंकार से अलंकार ध्वनि पर चर्चा के लिए एक प्राकृत श्लोक का उदाहरण लेते हैं। यह एक नव विवाहिता वधू से प्रातःकाल उसकी सहेली द्वारा कही गयी उक्ति है-

तुह वलहस्स मोसम्मि आसि अहरो मिलाणकमलदलो।

इअ णववहुआ सोऊण कुणइ वअणं महिसंमुहम्।।

(तव वल्लभस्य प्रभाते आसीदधरो म्लानकमलदलम्।

इति नववधूः श्रुत्वा करोति वदनं महीसम्मुखम्।। इति संस्कृतच्छाया)

अर्थात् हे सखि, सबेरे अधरोष्ठ रूपी कमलदल मुरझाया था। यह सुनकर नव-वधू अपना मुख नीचा कर ली।

इसमें अधरोष्ठ-कमलदल में रूपक अलंकार है। तुमने अधरोष्ठ का इतना अधिक चुम्बन किया कि वह म्लान हो गया यह व्यंग्य है, जो काव्यलिंग अलंकार की स्थिति बनाता है। जहाँ युक्ति द्वारा कारण बताकर पद या वाक्य का समर्थन किया जाता है, वहाँ काव्यलिंग अलंकार होता है। यहाँ अधरोष्ठ म्लान होने का कारण अधिक बार चुम्बन करना व्यंग्य से आया है। अतएव रूपक अलंकार से यहाँ काव्यलिंग अलंकार की व्यंजना म्लान पद से हई है।

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7 टिप्‍पणियां:

  1. काव्यशास्त्र पर आपके शोधपरक लेख अत्यंत सराहनीय है...

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  2. अत्यंत सारगर्भित एवं जानकारी भरा लेख...

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  3. पदद्योत्य संलक्ष्यक्रम अर्थशक्त्युत्थ स्वतःसम्भवी ध्वनि के चार भेदों- वस्तु से वस्तु व्यंग्य, वस्तु से अलंकार व्यंग्य, अलंकार से वस्तु व्यंग्य और अलंकार से अलंकार व्यंग्य- पर अच्छी और सारगर्भित जानकारी मिली।

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  4. काव्यशास्त्र पर आपका लेख अत्यंत शोधपरक एवं सराहनीय है।

    आभार,

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  5. अत्यंत सारगर्भित एवं जानकारी पूर्ण आलेख।

    आभार,

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