सोमवार, 25 अप्रैल 2011

नवगीत : तुम्हारी याद

clip_image001

Sn Mishraclip_image001[6]

images (14)सारे दिन की

दौड़-धूप के बाद,

           तुम्हारी याद

मन के इस जलते जंगल में

          जैसे नदी बहे।

 

हारा-थका

बिछौने पर हूं

       ऐसे बिछा हुआ।

जैसे

निर्जन घाट किनारे

    किसी युवा लड़की का

आधा आंचल फिंचा हुआ।

यादों की

सीढ़ी पर उतरे

रानी अनबोलन का डोला,

कोई प्राणों में रहस्य के

        मोहन-मंत्र कहे।

 

अपनी छुअन

तुम्हारे कंपन

विजन मुलाक़ातें।

कैसे लिखूं

तुम्हारे आंचल

वह कौतूहल-प्रियता

कच्चे अनुभव की बातें।

एक-एक कर

फेंक रहा है

        विरह नदी में

मन धीरज के

        टुकड़े रहे-सहे।

21 टिप्‍पणियां:

  1. "एक दिन हम पा ही लेंगे आपको
    सिलसिला यूं ही अगर चलता रहा।"

    कल्पना की अप्रतिम उड़ान मन को अस्थिर कर गयी।
    अति सुंदर।धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. विरह नदी में मन धीरज के टुकड़े ...
    बेचैनी को शब्दों ने नए आयाम दिए ...
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति !

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रेम के भाव से परिपूर्ण यह नव गीत अभी गुनगुना रहा हूँ.. खास तौर पर यह पंक्ति...
    "कैसे लिखूं
    तुम्हारे आंचल

    वह कौतूहल-प्रियता

    कच्चे अनुभव की बातें।"

    जवाब देंहटाएं
  4. अहा, पढ़ने का आनन्द कैसे व्यक्त करूँ?

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत प्यारा नवगीत पढ़वाया है आपने.

    जवाब देंहटाएं
  6. शब्द-शब्द कोमल संवेदनाओं से भरा सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी नवगीत के लिए आपको हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  7. कोमल भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति।

    जवाब देंहटाएं
  8. सारे दिन की

    दौड़-धूप के बाद,

    तुम्हारी याद

    मन के इस जलते जंगल में

    जैसे नदी बहे।

    सुन्दर नव गीत !

    आभार !

    जवाब देंहटाएं
  9. फेंक रहा है विरह नदी में मन धीरज के
    टुकड़े रहे-सहे।
    प्यारा नवगीत अति सुंदर,धन्यवाद.....

    जवाब देंहटाएं
  10. इस गीत में मूल भाव अद्भुत शालीनता और सहजता के साथ अभिव्यक्त हुए हैं।

    जवाब देंहटाएं
  11. भावाभिव्यक्ति के लिए गीतकार ने बिम्बों इस तरह चुनाव किया है कि गीत की भाषा एकदम नवीन लग रही है।

    जवाब देंहटाएं
  12. मन के इस जलते जंगल में
    जैसे नदी बहे।

    हारा-थका बिछौने पर हूं
    ऐसे बिछा हुआ।

    कोई प्राणों में रहस्य के
    मोहन-मंत्र कहे।
    अपनी छुअन तुम्हारे कंपन
    विजन मुलाक़ातें।

    कैसे लिखूं तुम्हारे आंचल
    वह कौतूहल-प्रियता
    कच्चे अनुभव की बातें।

    एक-एक कर फेंक रहा है
    विरह नदी में मन धीरज के
    टुकड़े रहे-सहे।

    उक्त सभी बिम्ब बिलकुल नए और बहुत ही मनमोहक हैं साथ ही भाषा में ताजगी भी। लेकिन निम्न पंक्तियों में अवरोध हैं तथा ये मिश्र जी की प्रतिष्ठा के अनुरूप भी नहीं बन पाईं हैं।

    सारे दिन की दौड़-धूप के बाद, तुम्हारी याद
    मन के इस जलते जंगल में
    जैसे नदी बहे।


    जैसे निर्जन घाट किनारे
    किसी युवा लड़की का
    आधा आंचल फिंचा हुआ।
    शायद यह नवगीत मिश्र जी के प्रारम्भिक नवगीतों में से रहा हो और उनकी सूक्ष्म दृष्टि उन पर न पड़ पाई हो तथापि मिश्र जी के गीतों में कुछ न कुछ नयापन अवश्य देखने को मिलता है।

    आभार।

    जवाब देंहटाएं
  13. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  14. बहुत ही अच्छा लगा आपका नवगीत...बधाई...

    जवाब देंहटाएं

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।