-- करण समस्तीपुरी
जय हो ब्रह्म बाबा की। रेवाखंड के पछिमवारी छोड़ पर ही ब्रह्म बाबा का भीत वाला गह्वर है। वर्षों पुराना। झुरुखन बाबा बता कहते हैं कि उ जब होश संभाले तब से ब्रह्म बाबा क गह्वर वैसहि है। और तो और एकहि जड़ से निकला हुआ उ पीपल, वर और गुलर का तीनगच्छा भी वैसे के वैसे ही है।
बूढ़े-पुराने लोग कहते हैं कि ब्रह्म बाबा ही रेवाखंड के डिहवार हैं। एकदम सहाच्छत (साक्षात) हैं। वही पूरा गाँव के रच्छा करते हैं। इसीलिये गाँव के हर परिवार में इस गह्वर के लिये परम श्रद्धा है। क्या हिन्दू क्या मुसलमान ब्रह्म बाबा का गह्वर तो रेवाखंड में सामाजिक समरसता का जीता-जागता सबूत है। अलीजान मियाँ रोज उ गह्वर की देहरी बुहारते थे और लोटकन मिसिर सांझ बत्ती दिखाते थे।
मिसिरजी और अलीजान में जमती भी खूब थी। दोनो एकउमरिये थे। मिसिर जी अलीजान को सिरिफ़ मियाँ बुलाते थे और अलीजान मिसिरजी को लोटुआ कहते थे। अलीजान मियाँ का परिवार भी एक जमाने में नवाबी था। गह्वर से दो लग्गा हटकर अलीजान का बड़का दलान पड़ता था। सुनते हैं कि पटनिया नवाब जब जाने लगा तो पूरा परवत्ता कोठी और काली चौरी अलीजान मियाँ के वालिद मियाँजान के नाम कर गया था। मगर वही... बैठे-बैठे पेट पर हाथ और पेट मांगे दही भात। काम-न-धंधा और नौ-नौ रोटी बंधा...! जमीने बेचकर नवाबी चलता रहा। तीसरी पीढ़ी पहुंचते-पहुंचते सब बाकलम खास। इनरा गांधी क्या जमीनदारी उठायेगी, उससे पहिलहि अलीजान मियाँ सारा जमीने उठा दिये। बोलो ब्रह्म बाबा की जय।
युग बदल गया। समाज बदल गया। सरकार बदल गयी। जमींदारी-तहसीली सब बदल गया। लोग बदल गये लेकिन अलीजान मियाँ का अंदाज़ नहीं बदला। जमींदारी भले चली गयी मगर नवाबी नहीं गयी। काम के नाम पर बस सुबह-शाम ब्रह्म बाबा का गह्वर बुहार देते थे लेकिन तीन वखत नरम दाना, दो वखत चाय और सांझ में कम से कम चुक्का भर सोमरस होना ही चाहिये। हरि बोल।
समय के साथ सबकुछ बदलता गया। वैसे तो अलीजान मियाँ के सात बेटा और पांच बेटियाँ थी। बेटियाँ ससुराल बसती थी। बेटा सब गाँव में ही मजूरी-बेगारी कर के दीन काटता था। लेकिन बूझ लीजिये कि साते बेटा बस नाम का एक भी न काम का। सब बेचारे अलीजान मियाँ को निरस दिया था। साल भर पहिले नसीबन अज्जी भी अलीजान मियाँ को छोड़कर अल्लाह मियाँ के घर चली गयी थी। तब से अलीजान बूढ़ा थोड़े खवीस से होगये थे। बेटे-बहू की ओर से देख-भाल नहिये के बरोबर था। कभी चाय-पानी मिल जाये वही बहुत। हाँ, लोटकन मिसिर यजमानी से आते थे तो एक पत्तल में चिउरा-दही-लड्डु-मिठाई जरूर मिल जाता था।
रवी का फ़सल कट गया था। अरहर झरा गया था। आम में कोसा आ गया था और किशनभोग-बम्बैया तो लला भी गया था। खेतों बस गेहुं की खुटियाँ रह गयी थी। दोपहर में बैसाख का सन्नाटा पसरा रहता था मगर सांझ गुलजार हो जाती थी। खासकर पछियारी टोल में। होरिल महतो पांचो भाई का मौज था। सब अपना अलग-अलग ताड़ीखाना खोल लिया था। बैसाख में अकाशी खूब निकलता था न। एक-एक पेड़ सांझ-विहान एकदम जरसी गाय के तरह लवनी भर-भर के लगता था। उ टाइम में तो जोगिया और झोंटैला जैसा बेगारी भी टल्ली रहता था। बेचारे अलीजान मियाँ तो खानदानिये रईस थे। जब तक नसीबन अज्जी थी, इधर-उधर से मांग-चांग कर भी अलीजान बूढ़ा का तोष रख लेती थी। ई बैसाख में तो बेचारे एकदम बेजार हो गये हैं। एकाध दिन पीरता अकाशी चखा दिया था। सांझ-भिनसार जीभ लपलपाकर उसी टेस्ट को याद करते रहते थे।
बैसाख महिना के चढती गरमी, उपर से नया दाना उ भी बासी-खुसी... पेट जले पर खा तो लिये मगर भोरे से अलीजान बूढ़ा के पेट में विकार शुरु हो गया। दुपहर तीनगच्छा तर ताश खेलने भी नहीं आये। हां बधना लेके बार-बार गाछी दिश जा रहे थे। नकछेदिया के मारफ़त समादो दिये थे मगर घर से कौनो बेटा-पुतोहु टोह लेने भी नहीं आये। बेचारे गाछी से आकर वहीं गह्वर के आगे पीपल की छाँव में बैठ जाते थे।
तीसरा पहर चढ़ गया था। अलीजान मियाँ वही गमछी बिछाकर पसर गये। लोटकन झा कहीं यजमानी से आ रहे थे। हमेशा की तरह अलीजान मियाँ को उनका हिस्सा देने के लिये जगाए। बेचारे पेट पकर के कराहते हुए उठे। मिसिरजी सबकुछ जान समझ के बोले, “अरे तो सुबह से किसी को बताया काहे नहीं...?” बहुत दरद के साथ अलीजान मियाँ जवाब दिये थे, “अब कौन बचा है रे मिसिर... एक बुढिया थी उ भी साथ छोड़ दिहिस... एक तू है अभी सांझ को आया है।” “अरे ऐसन का बात है... तोहरे भरा-पुरा सात बेटा का परिवार है... पतोहु, पोता-पोती। केहु को बोला काहे नहीं, कम से कम नीबू का शरवत तो पी लेते... पेट में ठंडक पहुंचती।” मिसिर जी बोले थे। अलीजान मियाँ का दरद अब आँखों में भी उतर आया था, “नकछेदिया के मारफ़त समाद भेजा था। छोटका का बेटा तरन्नुमा देखकर भी गया मगर फिर.... छोड़ो मिसिर। बोलो यजमानी में का सब मिला है?” दोनो हथों से आँखों का कोर पोछना पड़ा था अलीजान बूढ़ा को। मिसिरजी बोले, “यजमानी को गोली मार अभी हम तोहरे बेटा-पतोहु को बुला के पूछते हैं...।”
मिसिरजी धरफर कर के बढ़े। पांच कदम पर ही तो अलीजान मियाँ का घर है। बेटा सब तो बेगारी-मजूरी में गया हुआ था मगर पतोहिया सबको खूब खड़ी-खोंटी सुनाये। और तो सब बक-बक सुनके आंगन चली गयी मगर बड़की पतोहिया बोले, “मिसिर काका... नीबू केहु के बारी से ले भी लेते मगर शक्कर तो ई महँगी में देखे भी छमासा होजाता है। उ तो नयका गेहुं के कटनी किये हैं तो बाल-बच्चा का पेट पाल रहे हैं। अब्बा को कल दिये तो बोलते हैं पेटे गरम हो गया। हम का करें मिसिर का... पास में कछु औकात हो तो....!”
“अरे बूढ़ा आदमी है... एक कनमा चावल का माँर ही पसा के दे देती... बूढ़े के पेट में कुछ ठंडक पहुंचती... संतोष भी तो होता कि अपनी संतान है देखने के लिये।”
“मझली के घर में चावल बना था। रुकिये पूछते हैं। ए मझली....!” बड़की पतोहिया आवाज लगाई थी। मिसिरजी वहीं खड़े थे। दोनो में दो बातें हुई। बड़की मिसिरजी के पास आके बोली, “मिसिर काका ! भात तो नहीं बचा है, दिन वाला मांर है... आते हैं लेके।”
मिसिरजी आगे बढे। पीछे से अलीजान बूढा की दोनो पतोहिया लोटा भर मांर लिये आयी। मिसिरजी की आवाज पर अलीजान उठ कर बैठ गये। मझली पतोहिया लोटा आगे कर दी तो पूछे का है इसमें? बड़की बोली, “अब्बा ! ठंडा मांर है। पेट में शीतल करेगा।” बाप रे बाप ! अलीजान मियाँ की आंखे तो अलता जैसे लाल हो गया। हाथ से लोटा झपट के फेंक दिये। दोनो के माँ-बाप को दो-चार आशीर्वाद भी दिये। बोले, “हराम की जनी... कंगले की औलाद बासी माँर लेके आई है...। हमरे घर के घी से तोहरा सात खानदान पलाया.... और ई बेशरम हमरे मांर पिलाने आई है। बैसाख महीना है। सेर भर गेहुं में दो लवनी मिल जाता...! दो चुक्का में ही पेट ठंडा कर देता... ! चिंता है तो जाओ ताड़ी लेके आओ नहीं तो मांर अपने बाप को पिलाना।”
हमलोग भी ताश छोड़कर उन्हीं का तमाशा देखने चले गये थे। मिसिरजी बोले, “अरे अलीजान ! पी ले... पेट में ठंडक आयेगी।” अलीजान मियाँ का नवाबी फिर फूटा, “मार भरुवा मिसिर... तू ईका पैरवी करता है। अरे तोहे तो पता है हमरा रहन-सहन। अंगुरी और महुआ पर ई देह पोसाया है... आज ताड़ी भी इनलोगों को भारी हो गया...!”
मिसिरजी तो गुम रह गये मगर बहोरन दास का टिटकारी छूट गया, “हूँ... मिले मियाँ को मांर नहीं, ताड़ी की फरमाईश।” बहोरन जो टिहुंक कर बोला था कि लोटकन मिसिर की भी हंसी फूट गयी। अलीजान मियाँ की दोनो पतोहिया भी अंचरा से मुँह ढाँप के उधर घूम गई थी। अलीजान मियाँ की आँखें तो लगती थी कि गुस्से से बाहर आ जायेंगी मगर हमलोगों की हंसी तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। “हा...हा...हा...हा.... मिले मियाँ को मांर नहीं, ताड़ी की फ़रमाईश... ही...ही...ही...ही.... मिले मियाँ को मांर नही.... खी...खी...खी...खी... हें...हें...हें...हें...!”
टपकु चौधरी बोले, “और नहीं तो का... एकदम सही तो कहा बहोरना...! अरे देख नहीं रहे हो... बूढा दोपहरे से बधना लेके दौड़ रहा है। गमछी बिछा के पेटकुनिया लादे था... सौ बीघा चास साकिन बोल दिया और नवाबी बचा हुआ ही है। दू आना के शक्कर का शरवत का तो औकात नहीं है, बेचारी पतोहिया मांर लेके आयी है तो... नहीं मियाँजी को ताड़ी चाहिये... बैसक्खा...!”
जिसको जो बोलना था बोला मगर अलीजान मियाँ टस-से-मस नहीं हुए। सांझ ढल गयी थी। हमलोग घर लौट रहे थे। अचानक हमरी हंसी फिर से फूट पड़ी। सब पूछा, “आहि रे बा... अपने मने काहे हंसे जा रहा है...?” हंसते हुए ही किसी तरह बोले, “ही...ही...ही...ही... मिले मियाँ को मांर नहीं, ताड़ी की फ़रमाईश...!” पचकौड़िया बोला, “बहोरन दास भी फ़करा गढ़े में ओस्ताद है।” विरंची मास्टर बोले, “सो तो है। बहोरना भले मुरुख हो मगर आज से उसका फ़करा अमर हो जायेगा। अब जौन कोई औकात-सामर्थ्य से बाहर की बात करेगा तो बहोरन दास का फ़करा जुबान पर आ जायेगा, “मिले मियाँ को मांर नहीं ताड़ी की फ़रमाईश।”
eh...karan bhai....matlab je ....ahan
जवाब देंहटाएंt'...ki kahu.....mon hariya dait chi.
mast rahoo bhai....ahina bindas likhait rahoo.....
sadar.
करण जी, आप जिस भाषा में लिखते हैं वो मुझे पढ़ने में बड़ी मज़ेदार लगती है.
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक है...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया . मजेदार रहा
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक देसिल बयना रचा है करण भाई। लगे रहो।
जवाब देंहटाएंशुभकामना सहित,
लोकजीवन का सजीव चित्रण करती कहानी बहुत रोचक लगी | लोकभाषा के शब्दों और लेखन शैली की मिठास ने आनंदित कर दिया |
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक रही यह पोस्ट!
जवाब देंहटाएंआनन्द आ गया!
पात्र लोगन के नाम ही एतना अच्छा लगा कि अब कहने के लिए कुछ भी नही बचा है।मन झंडु बाम हो गया।धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआगत-अनागत सभी पाठकों को कोटिशः धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंकरन बाबू, पढला के बाद इतना जोस आ जाता है कि हमारा बीमारिया हाथ भी की बोर्ड पर बिना हरमुनिया बजाये नहीं मानता है...मिजाज हरियर हो गया..
जवाब देंहटाएंरोचक देसिल बयना !
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