मंगलवार, 31 जुलाई 2012

आज के दौर में

अरुण चंद्र रॉय की कविता ईश्वर पर दी गई टिप्पणी से निकली कविता ...


आज के दौर में 

जिसमें 

बल है 

छल है 

बहाने हैं 

वह ईश्वर है


या फिर ये कहें कि 

जो होता जा रहा है 

निरंकुश 

वह ईश्वर है 


या फिर यह मान लें 

कि 

सुरक्षित है सत्ता 

इसलिए वह अपने को 

ईश्वर 

समझ बैठा है 

सीधा कम 

ज़्यादा ऐंठा है। 


सत्ताधारी ... 

जो लोगों को 

सुख कम 

       अधिक बवाल देता है 

एक न एक दिन 

ईश्वर उसकी 

सब कस बल निकाल देता है।


सोमवार, 30 जुलाई 2012

चल बेटे चल


चल बेटे चल

श्यामनारायण मिश्र

चल बेटे चल
     और किनारे चल।
बड़े बड़ों की राह में,
     देते नहीं दखल।

कर मत अभी,
बहुत लिखने के
नाटक का उद्घाटन।
सीख
छंद की तलवारों का
थोड़ा तू संचालन।
गीत महाभारत है इसमें
     टिकना नहीं सरल।

शब्द सिर्फ़ डग नहीं
उठाकर
बेमतलब मत झूम।
शब्द शब्द के
दांव पैंतरे
पहले कर मालूम।
समझे बिना ब्यूह
मुश्किल है
करना उथल पुथल।

शब्द नहीं रोड़े
इनको तू
फेंक नहीं बेकार।
शब्द संगमरमर
गढ़ते हैं
छंदों की दीवार।
काव्य नगर में
तब गीतों के
बनते ताजमहल।

लोरी तो क्या,
गद्य, मर्सिया तक भी
गा न सकेगा।
ज्वार क्रांति के,
बालू का ये
दरिया ला न सकेगा।
गीत समय के साथ बहेगा
मत कर कोलाहल।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

रविवार, 29 जुलाई 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 120


भारतीय काव्यशास्त्र – 120
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में काव्य में गुण और अलंकार की स्थिति पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में काव्य के गुण के भेदों पर चर्चा अभीष्ट है।
काव्य के गुण-भेदों में भी आचार्यों में वैमत्य है। आचार्य वामन अपने काव्यालङ्कारसूत्र में काव्य के दस शब्दगुण और दस अर्थगुण मानते हैं - ओज, प्रसाद, श्लेष, समता, समाधि, माधुर्य, सौकुमार्य (सुकुमारता), उदारता, अर्थव्यक्ति और कान्ति। शब्दगुणों और अर्थगुणों के नाम तो एक ही हैं, परन्तु परिभाषाएँ अलग-अलग हैं। इन्हें नीचे दिया जा रहा है-
शब्द-गुण
ओज- गाढबन्धत्वमोजः – समासबहुलता ओज है।
प्रसाद- शैथिल्यं प्रसादः – पदों का शिथिल होना अर्थात् समास बहुलता का अभाव।
श्लेष- मसृणत्वं श्लेषः – अनेक पदों का एक पद के समान प्रतीति श्लेष है।
समता- मार्गाभेदः समता – मार्ग अर्थात् कोमल, परुष आदि पदों के प्रयोग में परिवर्तन न करना समता है।
समाधि- आरोहावरोहक्रमः समाधिः – पदों में उतार-चढ़ाव अर्थात् समासरहित और समासयुक्त पदों का क्रम समाधि है।  
माधुर्य- पृथक्पदत्वं माधुर्यम् – पदों का अलग-अलग प्रयोग अर्थात् समास का अभाव माधुर्य है।
सौकुमार्य- अजरठत्वं सौकुमार्यम् – काव्य में कठोर वर्णों का अभाव सौकुमार्य है।
उदारता- विकटत्वमुदारता – विकटता अर्थात् विस्तार उदारता है।
अर्थव्यक्ति- अर्थव्यक्तिहेतुत्वमर्थव्यक्तिः – अर्थ को सरलता से व्यक्त करने वाले पदों का प्रयोग अर्थव्यक्ति है।
कान्ति- औज्ज्वल्यं कान्तिः – ग्राम्य पदों का प्रयोग न करना कान्ति है।
अर्थगुण
ओज- अर्थस्य प्रौढिरोजः – अर्थ की प्रौढि (प्रौढ़ता) ओज है। प्रौढि पाँच प्रकार की बतायी गयी है-
पद के प्रतिपाद्य अर्थबोध में वाक्य की रचना, वाक्य के प्रतिपाद्य अर्थ में पद का कथन, विस्तार करना, संक्षेप करना और अर्थ का साभिप्रायत्व-
पदार्थे वाक्यरचनं  वाक्यार्थे च पदाभिधा।
प्रौढिर्व्याससमासौ च साभिप्रायत्वमस्य च।।
प्रसाद- अर्थवैमत्यं प्रसादः – अर्थ-वैमत्य प्रसाद गुण है।
श्लेष- घटना श्लेषः – अर्थ में एकता श्लेष है।
समता- अवैषम्यं समता – प्रकरण के अनुकूल वर्णन अर्थात् एक विषय के वर्णन में किसी अन्य सन्दर्भहीन वर्णन का अभाव समता है।
समाधि- अर्थदृष्टिः समाधिः – अर्थ का दर्शन समाधि है। आचार्य वामन ने इसके दो भेद किए हैं- अयोनि अर्थात् कवि की कल्पना से उद्भूत और दूसरा अन्यच्छायायोनि से उद्भूत अर्थ।
माधुर्य- उक्तिवैचित्र्यं माधुर्यम् – उक्ति में विचित्रता माधुर्य है।   
सौकुमार्य (सुकुमारता)- अपारुष्यं सौकुमार्यम् – कठोरता का अभाव सौकुमार्य है।
उदारता- अग्राम्यत्वमुदारता – ग्राम्यता का अभाव उदारता है।
अर्थव्यक्ति- वस्तुस्वभावस्फुटत्वमर्थव्यक्तिः
कान्ति- दीप्तरसत्वं कान्तिः
लेकिन परवर्ती आचार्यों ने इस विभाजन को स्वीकार नहीं किया है। क्योंकि उनके मतानुसार गुण रस का धर्म है, न कि शब्द या अर्थ का। इसके अलावा परवर्ती आचार्य दस गुणों के स्थान पर केवल तीन गुण- माधुर्य, ओज और प्रसाद ही मानते हैं। इसके लिए आचार्य मम्मट ने निम्नलिखित तीन कारण बताए हैं-
1.      कुछ गुणों का उक्त तीन गुणों में अन्तर्भाव (समावेश) हो जाता है,
2.      कुछ गुण दोषों के परिहार के परिणाम हैं और
3.      कुछ का अभाव काव्य में दोष हो जाता है।   
आचार्य मम्मट आदि आचार्यों ने आचार्य वामन द्वारा बताए श्लेष, समाधि, उदारता और प्रसाद इन चारो शब्द-गुणों का ओज गुण में अन्तर्भाव किया है। माधुर्य को थोड़ा विस्तार के साथ माधुर्य गुण ही माना है। वामनोक्त अर्थव्यक्ति शब्द गुण को प्रसाद गुण के अन्दर अन्तर्भुक्त किया गया है। समता शब्दगुण कहीं दोष भी हो जाता है, इसलिए इसे काव्य का गुण नहीं माना गया है। वामनोक्त सौकुमार्य और कान्ति शब्दगुण कष्टत्व और ग्राम्यत्व दोष के परिहार के परिणाम स्वरूप होते हैं, अतएव अन्य आचार्य इन्हें गुण नहीं मानते हैं।
आचार्य मम्मट ने आचार्य वामन द्वारा कथित ओज गुण (प्रौढि) को काव्य में वैचित्र्यमात्र माना है। उनके मतानुसार इसके अभाव में भी काव्य-व्यवहार सम्भव है। अतएव आचार्य वामन के साभिप्रायत्वयुक्त ओज, प्रसाद, माधुर्य, सौकुमार्य और उदारता अर्थदोषों को आचार्य मम्मट ने अपुष्टार्थत्व, अधिकपदत्व, अनवीकृतत्व, अश्लीलत्व और ग्रम्यत्व दोषों के परिहार के रूप में माना है। इसी प्रकार अर्थव्यक्ति और कान्ति गुणों को आचार्य मम्मट स्वभावोक्ति अलंकार से और रसध्वनि तथा गुणीभूतव्यंग्य के द्वारा वस्तु के स्वभाव की स्पष्टता (अर्थव्यक्ति) और दीप्तरसत्व (कान्ति) मानते हैं, काव्य का गुण नहीं। आचार्य वामन के अन्य अर्थ दोषों को भी शब्ददोषों की भाँति नकारते हुए आचार्य मम्मट आदि आचार्य काव्य केवल तीन गुण- माधुर्य, ओज और प्रसाद मानते  हैं।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक से उक्त तीनों काव्य-गुणों के स्वरूप पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।  
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बुधवार, 25 जुलाई 2012

स्मृति शिखर से – 18 : सावन

--  करण समस्तीपुरी

“सखी हे सावन आए सुहावन वन में बोलन लागे मोर...!” अब ये गीत स्मृति शिखर पर ही रहेंगे। महानगरों में तो सावन-भादों या फ़ाल्गुन सब एक जैसे ही होते थे और होते हैं। मगर गाँव में भी अब सावन के आगमन का संदेश दादुर, मोर, पपीहा, मेढक, झिंगुर लेकर नहीं आते। वहाँ भी अब आकाशवाणी या दूरदर्शन के समाचार अथवा सूखे तीज-त्योहार से ही सावन की अगवानी होती है। पहले मान‘सून’ आता था। अब मान‘लेट’ हो गया है। झूले पड़ते थे। अब भूले पड़ते हैं। कजरी गूँजती थी। अब सिर्फ़ इतिहास में।

धरती के सजल गोद में कृषि-क्रीड़ा करते बैलों के गले की घंटी के ताल पर कृषक-वृंद का मन-मयूर नाच उठता था। सूखी धरती का सीना चीरते हनहनाते ट्रैक्टरों के शोर से किसानों का हृदय भी विदिर्ण हो जाता है। वर्षा रानी वर्ष-दर-वर्ष रूठती जा रही हैं। दमकल-बोरिंग से खेतों में पटवन कर धान की बुआई-रोपाई करने से किसी प्रकार अन्न तो आ जाता है किन्तु आनंद कहाँ? अब सरैसा की धरती से भी रस उठने लगा है। मैं उसकी झलक देख आया था अब सचल दूरभाष यंत्र पर विस्तृत वर्णन सुनता हूँ।

मेरे गाँव में सावन का अर्थ आज की तरह नहीं था। सकल मास त्योहार। पहली फ़ुहार के साथ ही खरीफ़ फ़सल की तैय्यारी शुरु हो जाती थी। शब्दशः पसर जाती थी हरितिमा। हमारे कुँए का जलस्तर काफ़ी ऊपर आ जाता था। दो हाथ की रस्सी लगाकर डोल से पानी निकाल सकते थे। हम बच्चों के लिए तो कौतुक से कम नहीं था। बाबा की दृष्टि बचाकर उन्हीं के गमछे में लोटा बाँध कर हमलोग कुँए से पानी निकाला करते थे। इस कौतुक में कई लोटे वरुण देव को अंशकालिक भेंट मिल चुके थे जो पुनः ग्रीष्म में कुएँ की उराही में निकलते थे। दो-चार पड़ोसियों के बीच तो लोटे की लड़ाई सुनिश्चित थी।

मेरे गाँव में सावन का एक और अर्थ था। नाटक। सावन के दूसरे अर्थात शुक्ल पक्ष की तृतीया के साथ ही मंदिर पर शुरु होता था तेरह दिनों का नाट्य महोत्सव। क्या ग्रामीण क्या कुटुम्ब। सावन के पहले पक्ष में ही बुआई-रोपाई निपटाकर निश्चिंत हो जाते थे। फिर तेरह दिनों तक रात में गंधर्व-कला का आनंद और दिन के दूसरे पहर तक निद्रासन। तीसरे पहर तास की चौकरी चौथे पहर में शेष कार्य। निशा रानी के आँचल फैलाते ही रात्रीभोज और फिर मंदिर पर। पाहुनों को भी तेरह दिनों तक रेवाखंड-प्रवास खूब भाता था। गाँव की बेटियाँ भैय्या को राखी बाँधने पाहुने के साथ पंद्रह दिन पहले ही आ जाती थी तो बधुओं के भाई राखी बँधाने के लिए। सावन शुक्ल सदा गुलजार रहता था रेवाखंड में। हाँ, घर की स्त्रियों के लिए यह मास बड़ा कठिन हो जाता था। अन्न-जल, साग-सब्जी, दूध-दही तो पर्याप्त मगर इंधन का घोर अभाव। गोबर के गोइठे सूखते नहीं थे और लकड़ियाँ गीली हो जाती थी। अब चूल्हा में लगाकर करते रहो फ़ू-फू...! मैंने तो कई बार देखा था। भर सावन मेरी माँ की आँखें गीली ही रहती थी।


नाटक का सनातन काल से संबंध रहा है मेरे गाँव से। शायद इसीलिए हमारे नानीगाँव वाले हमें ’नटकिया गाँव का’ कह कर चिढ़ाते थे। पहले रामलीला, कृष्ण्लीला, स्वांग, फ़ारस, विदेसिया, बिहुला, आल्हा वगैरह होता रहा होगा। फिर अनेक आध्यात्मिक-ऐतिहासिक आख्यान नाट्य-शैली में मंचित होने लगे। राजा भ्रतृहरि, राजा हरिश्चंद्र, श्रवणकुमार, सम्राट जलंधर, संयोगिता-स्वयंवर’, नल-दमयंति, छत्रपति शिवाजी, अर्थपिशाच, भक्त प्रहलाद, इत्याति। बाद में समकालीन नाटक आए। सुल्ताना डाकू, चंबलघाटी का लुटेरा, कच्चे धागे आदि-आदि। फिर फ़िल्मों पर आधारित नाटकों के मंचन भी हुए। नागिन, धूल का फूल, अनारकली, लैला-मजनू इत्यादि। गाँव के बिहुला नाच से लेकर बनारस की नौटंकी... ठकुरवारी पर सब की परीक्षा हो जाती थी। युगों से नाट्यानंद का रसपान कर रहे भोले ग्रामीण नाटकों के चतुर समीक्षक हो गए थे।

नाटकों के नाम से ही याद आते हैं मस्तराम जी। हमारे ग्रामीण हैं। अब शैय्यासीन। वास्तविक नाम वैद्यनाथ झा। छः फ़ुट से कुछ अधिक लंबाई। इकहरा किन्तु गठा हुआ शरीर। गौर वर्ण। चाकू से खड़े नाक और बोलने को आतुर बड़े-बड़े नेत्र। काँधे को छूते बाल। रंगमंच पर तो उन्हें पहचानना मुश्किल था किन्तु रंगमंच के बाहर मस्तरामजी ऐसे ही दिखते थे।

नाटकों के संवाद बोलने में उनकी आवज में गज़ब का रोब होता था किन्तु गायन में कोकिल-कंठ। बड़ा ही सुमधुर। शास्त्रीय-संगीत की अच्छी समझ और पक्का अभ्यास था। उस समय के सभी वाद्य-यंत्र उनके खिलौने थे। हारमोनियम पर उनकी उंगलियाँ बिजली की तरह थिड़कती थी। बाँसुरी का एक-एक सुर सधा हुआ था। मेरे पिताजी बताते हैं कि बाँसुरीवादन में उनका नाम हमारे गाँव से लेकर वाराणसी तक प्रसिद्ध था। वाराणसी की गलियों में तो वे बँसुरिया बाबा के नाम से ही लोकप्रिय थे। कभी हरिप्रसाद चौरसिया, बिस्मिल्ला ख़ान, बड़े उस्ताद आदि की संगत करते थे। सितार, वीणा, सारंगी सब के तार उनकी उंगलियों के स्पर्श से मचल उठते थे।

हमारे गाँव में वे रंगमंच के पुरोधा थे। युवावस्था में ही अपनी नाटक-मंडली बनाई थी। एक बार शागिर्दों के विद्रोह पर उन्होंने कहा था, “मस्तराम अकेले पूरा नाटक है।” कर भी दिखलाया। नये लड़कों को पात्र बना स्टेज पर खड़ा कर दिया। सभी के संवाद अलग-अलग आवाजों में खुद ही बोले। अलग-अलग दृश्यों में अलग-अलग किरदार भी निभाया...! और बीच-बीच में हारमोनियम भी बजा आते थे। बड़े कद्दावर कलाकार थे। सौ प्रतिशत परफ़ेक्शनिस्ट।

पहली बार उन्हें ‘वनदेवी’ नाटक में देखा था। बड़े आरजू-मिन्नत पर पिताजी ले गए थे नाटक दिखाने। झूले की पाँचवी रात थी। बड़ी भारी भीड़। नाटक शुरु हुआ। मस्तराम जी तांत्रिक के रोल में थे। बाप रे... वो डरावना मेक-अप और क्या अदाकारी थी! किसी तंत्र-सिद्धि के लिए तांत्रिक बाबा को बच्चे का रक्त पीना था। कपड़े के बने गुड्डे-गुड़ियों का गला रेत रहे थे लंबी छूरी से...! पीछे से रोने-चिल्लाने की आवाज़ आती थी और पता नहीं कैसे (अभी समझना मुश्किल नहीं है) उन कपड़ों से रक्त के निकल रहे थे। एक बड़ी थाली में जब कटे हुए मुंडों का रक्त जब थाली में भर गया तो वे उसे उठाकर गटागट पीने (का अभिनय) करने लगे। पीने की आवाज़ साफ़ सुनी जा सकती थी, गट-गट-गूँ-गट...!

रक्तपान के बाद जो हुँकार भर कर खड़े हुए कि मारे डर के मैं पिताजी से लिपट गया था। तांत्रिक बाबा गरज कर बोले, “श्मसान-भैरवी बली माँग रही है...! सात कोस के अंदर जन्मे सभी बच्चों को जा पकड़ के ले आ....!” कहकर एक मुँड को फ़ेंका था सामने की ओर...! भयानक वेश-भूसा, भयंकर अभिनय, डरावनी आवाज़...! मारे डर के मुझे एक साथ मल-मूत्र त्याग की हाजत बन गई। बड़े लोगों के लिए तो वह नाटक का सबसे बेस्ट सीन होता था मगर मेरे रुदन-क्रंदन से विवश पिताजी मुझे गोद में लेकर वापस चल पड़े। कोई पाँच-सात साल का रहा होउंगा मैं।

हलाँकि उस पहली बार डर के बावजूद नाटक देखने का सिलसिला तो चल पड़ा। बाद में मस्तरामजी के कई रंग देखे। वे हर चरित्र में जान भर देते थे। लेकिन इस बार उस चरित्र को खटियासायी देख कर बड़ा दुख हुआ। उम्र तो हो चली थी मगर उस से कहीं अधिक अवस्था। अत्यंत दुर्बल। कृषकाय। एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी। रोग कोई नहीं मगर अत्यंत रुग्ण दीख रहे थे। सिरहाने बाँसुरी रखी थी मगर उसमें फूँक मारने का ताव न रह गया था। बोलने में भी आवाज़ लटपटाती है। विश्वास करना कठिन था कि एक दिन यही कलाकार संगीत के उलझे रागों को भी अपने स्वर-झंकार से ऐसा सुलझा देता था कि श्रोता मंत्रमुग्ध।

उस दिन कोई दो मिनट हरमोनियम बजा पाए थे। अंगुलियों में अभी भी बहुत जान बांकी है। मगर न आवाज़ साथ देता है न शरीर। तुरत लेट गए। मैं मिलने गया था, इससे उन्हें बड़ी खुशी हुई थी। ‘राममिलन का बेरा हो गया...! शायद ये आखिरी भेंट हो...!’ बड़ी फ़ाकमस्ती से उन्होंने कहा था।

बड़ा कष्ट हुआ। एक कलाकार को निरीह देखकर। अतिशय धुम्रपान और बाद के दिनों में नाटक बंद हो जाने के कारण पंजाब, हरियाणा, गुजरात के मीलों में देहतोड़ मेहनत ने उस कलाकार की उम्र काफ़ी कम कर दिया था। चिकित्सकों ने गंगावास की सलाह दे दी थी। फ़ेंफ़ड़े छलनी हो चुके थे। घर बराबर बात तो होती रहती है लेकिन इधर एक महीने से उनका हाल-चाल नहीं पूछ पाया हूँ। पता नहीं....!

सोमवार, 23 जुलाई 2012

प्रणय के स्रोत का अनवरत कल-कल


प्रणय के स्रोत का अनवरत कल-कल

श्यामनारायण मिश्र

गलियों में
रंगों के ताल-नदी-झरने हैं,
     छज्जों पर
     कुंकुम का लहराता बादल है।
आज क्यों?
     तुम्हारी खिड़की पर परदे,
          द्वारे पर सांकल है।

मुंह अंधेरे के उठे हैं
     प्यार के छौने,
          टेसुओं की सुर्ख टहनी
                   टेरती है।
एक नटखट
     शोख आदत छटपटाती
          गली-कूंचों में तुम्हें
              क्यों हेरती है?
बस्तियों से दूर
पर्वत पर प्रणय के स्रोत का
          अनवरत कल कल है।

मुझे,
     ओछे संस्कारों के
     ठहाकों, कीच-कांदो में
          डुबाती एक पागल भीड़।
तुम्हें,
     अंधी मान्यताओं के खते खोखल
          औ विचारों के कटीले नीड़।
फिर वही मन है
     वही यौवन,
          वही टेसू का दहकता
              हुआ जंगल है।

आ सकोगी
     छद्म का रंगीन
          घेरा तोड़कर
     एक आदिम पर्व का निर्वाह करने।
कई जन्मों से
     पड़ी वीरान घाटी में
          चिर प्रणय का
          फिर नया संगीत भरने।
आज पांवों में
     वही गति है
          फिर शिलाओं का
              प्रथम संघात मादल है।
***  ***  ***
चित्र : आभार गूगल सर्च

रविवार, 22 जुलाई 2012

भारतीय काव्यशास्त्र-119


भारतीय काव्यशास्त्र-119
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में काव्यदोषों के परिहार पर चर्चा कर काव्यदोषों का समापन हो गया था। इस अंक से काव्य के गुणों पर चर्चा प्रारम्भ कर रहे हैं। कुछ आचार्य गुण और अलंकारों की सत्ता अलग-अलग न मानकर एक ही मानते हैं, जबकि अधिकांश आचार्य इन दोनों की अलग-अलग सत्ता मानते हैं।
आचार्य भामह के काव्यालंकार पर लिखी अपनी टीका भामहविवरण में आचार्य भट्टोद्भट काव्य के गुण और अलंकार में भेद नहीं मानते। बल्कि इनमें भेद करनेवाले आचार्यों के मत को गड्डलिकाप्रवाह अर्थात् भेड़चाल कहा है। इनका मानना है कि लौकिक गुणों, शौर्य आदि और कटक आदि अलंकारों (आभूषणों) में भेद तो माना जा सकता हैं, पर काव्य में ओज आदि गुणों तथा उपमा आदि अलंकारों में नहीं। इनके मतानुसार मनुष्यों में शौर्य आदि गुणों का आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध होता है, जबकि काव्य में शौर्य आदि गुणों का संयोग सम्बन्ध-
समवायवृत्त्या शौर्यादयः संयोगवृत्त्या तु हारादयः गुणालङ्काराणां भेदः ओज-प्रभृतीनामनुप्रासोपमादीनां चोभयेषामपि समवायवृत्त्या स्थितिरिति गड्डलिकाप्रवाहेणैवैषां भेदः।
किन्तु काव्यालङ्कारसूत्र के प्रणेता आचार्य वामन काव्य में भी काव्य के गुण और अलंकार में भेद मानते हैं। इनके मतानुसार शब्द और अर्थ के प्रसाद, ओज आदि धर्म जो काव्य की शोभा बढ़ाते हैं, वे काव्य के गुण हैं और काव्य के गुणों में वृद्धि या उत्कर्ष के कारक या धर्म अलंकार होते हैं-
ये खलु शब्दार्थयोः धर्माः काव्यशोभां कुर्वन्ति ते गुणाः। ते च ओजप्रसादादयः न यमकोपमादयः।
जिस प्रकार किसी युवक या युवती के सौन्दर्य में अलंकार (आभूषण) वृद्धि करते हैं, उसी प्रकार काव्य में ओज, प्रसाद आदि गुणों में शब्दालंकार और अर्थालंकार वृद्धि करते हैं। अतएव रस काव्य की आत्मा, ओज आदि गुण और अलंकार गुण की वृद्धि के कारक माने जाते हैं।
आचार्य आनन्दवर्धन का भी यही मत है। वे ध्वन्यालोक में लिखते हैं कि रसादिरूपी ध्वनि काव्य की आत्मा है, उसपर आश्रित रहनेवाले धर्म गुण और अलंकार कटक आदि आभूषणों की तरह काव्य के अंग शब्द और अर्थ के धर्म होते हैं -
तमर्थमवलम्बन्ते  येSङ्गिनं ते गुणाः समृताः।
अङ्गाश्रितास्त्वलङ्कारा मन्तव्याः कटकादवत्।।
इसी प्रकार आचार्य मम्मट भी काव्य में गुण और अलङ्कार अलग-अलग स्थिति मानते हैं। उनके शब्दों में - आत्मा के शौर्य आदि धर्मों की तरह रस के अचल रूप से स्थित काव्य के उत्कर्ष के कारक या धर्म गुण कहलाते हैं और काव्य में विद्यमान अङ्गी रस का शब्द तथा अर्थ से उत्कर्ष बढ़ानेवाले अनुप्रास, उपमा आदि हार आदि की भाँति अलंकार कहलाते हैं-
ये रसस्याङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः।
उत्कर्षहेतवस्ते   स्युरचलस्थितयो   गुणाः।।
उपकुर्वन्ति तं सन्तं ये अङ्गद्वारेण जातुचित्।
हारादिवदलङ्कारास्तेSनुप्रासोपमादयः।।
साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ भी काव्य में प्रधानभूत रस के माधुर्य, ओज और प्रसाद धर्मों को गुण मानते हैं-
रसस्याङ्गित्वमानस्य धर्माः शौर्यादयो यथा।  
गुणाः माधुर्यमोजोSथ प्रसाद इति ते त्रिधा।।
आचार्यों के द्वारा दिए उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट होता हैं कि काव्य में गुण और अलंकारों का अस्तित्व अलग-अलग होता है। संक्षेप में कहा जाय, तो इन दोनों में निम्नलिखित अन्तर होते हैं-
1.      गुण काव्य के आभ्यन्तर धर्म होते हैं, जबकि अलंकार बाह्य धर्म।
2.      रस के अभाव में गुण का अस्तित्व नहीं हो सकता, जबकि अलंकार रस के अभाव में भी काव्य में हो सकते हैं।
3.      गुण काव्य के सीधे धर्म होते हैं, जबकि अलंकार पोषक होते हैं।
    इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में गुणों के भेद पर विचार किया जाएगा।
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बुधवार, 18 जुलाई 2012

स्मृति शिखर से – 17 : वे लोग : भाग - 6

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-- करण समस्तीपुरी

बड़ा भारी कलाकार था वह। जब से मैंने देखा हट्ठा-कट्ठा व्यस्क। नीचे लुंगी अक्सर घुटने से उपर और उपर बनियान। जाड़े में फ़टा-पुराना स्वेटर बनियान के उपर आ जाता था या एक कंबलनुमा चादर। बरसात से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। भींगता हुआ चलता था। चलते-चलते सूख भी जाता था। हमारे गाँव के पास या यूँ कहें कि हमारे गाँव के ही दूसरे हिस्से ‘रामपुर समथु’ में उसके पूर्वजों का घर था। मगर वह अजब यायावर था। हमेशा घूमता ही रहता था। कहीं एक जगह घंटा – दो घंटा टिक कर रहना मना था उसके लिए।

बोली तुतली थी। लेकिन कला उसके रग-रग में था। वह वैरागी था और अयाची भी। भूख-प्यास भी उसे नहीं लगती थी शायद। अगर किसी ने श्रद्धावश कुछ दे दिया तो ग्रहण कर लिया वरना उसका काम तो पानी से ही चल जाता था जिस पर गाँव में कोई पावंदी नहीं होती है। दो बड़े शौक थे उसके। एक गंगा स्नान और दूसरा नाटक देखना। किसी की शव-यात्रा हो यदि उसने देख लिया तो अवश्य शामिल होता था गंगा-स्नान के लोभ में। गंगा पहुँचे तो ठीक अन्यथा एक-आध घंटे में श्मसान से अपने रास्ते। वैसे उसके लिए हर नदी गंगा ही होती थी लेकिन सिमरिया-घाट और राजेन्द्र पूल उसे कुछ अधिक प्रिय थे।

नाटकों से उसे कुछ अधिक ही लगाव था। आस-पास दस मील के अंदर नाटक या विदेसिया नाच की खबर होनी चाहिए। नंदकिशोर वहाँ पहुँच ही जाएगा। इस आदत ने बेचारे को कई बार झूठी सूचना का शिकार भी बना दिया था पुनश्च उसकी आदत नहीं बदली। उसका जीवन भी तो एक जीवंत नाटक था। वैसे तो हम सब का जीवन ही एक नाटक है किन्तु उसके जीवन में नाटकों के कई चरित्र, कई रंग, कई साज सजीव थे। तुतली बोली में ही वह हर किरदार की शानदार नकल कर सकता था। किरदार ही क्यों वह तो संगीत के कई साजों के आवाज भी मुँह से निकाल लेता था। विश्वास कीजिए, उसके मुँह में सरस्वती बसती थी। उसका मुँह नहीं मल्टी-म्युजिकल-इंस्ट्रूमेंट था। तबला, हारमोनियम, सारंगी, शहनाई, बाँसुरी उसके मुँह और हाथ की कलाकारी से मुखर हो जाते थे।

आज छोटे-बड़े पर्दे पर आने वाले अनेक स्टैंड-अप कामेडियन से वह हजार-गुणा अधिक प्रभावशाली था। गजब का कैरीकेचर करता था। अनेक जानवरों के आवाज निकालने में भी माहिर। कुत्ते का छोटा पिल्ला दूध के लिए कैसे कूँ-कूँ करता है। थोड़ा बड़ा होने पर कैसे भौंकता है, बड़े और बलशाली कुत्ते कैसे आपस में लड़ते हैं। मतलब कि कुत्तों की अवस्थावार बोली का तो वह स्पेसलिस्ट था। बिल्लियाँ कैसे बोलती और लड़ती हैं, पंडीतजी की भैंस कैसे रंभाती है, घोड़ा कैसे हिनहिनाता है और तांगा चलने पर कैसी आवाज होती है। गाँव के खेतों में गीदर कैसे बोलते हैं और सिमरिया-घाट शमसान में गीदर की आवाज कैसी होती है। छोटी-लाइन की रेलगाड़ी कैसे आवाज करती है और बड़ी लाइन की रेलगाड़ी कैसे। डीजल-इंजन और कोयला-इंजन दोनों की आवाज। बारिश कैसे होती है, कबूतर कैसे उड़ते हैं वगैरह-वगैरह.... सब कुछ उसकी जिह्वा पर था।

इनके अतिरिक्त कुछ ऐसी कलाकारी थी जो मैंने सिर्फ़ नंदकिशोर में ही देखी है। वह डगरा-नचाने में भी मास्टर था। डगरा बोलते हैं बाँस का बना बड़ा सा गोल पात्र होता है जिससे अन्न को झटकने का काम किया जाता है। अगर डगरा उपलब्ध नहीं हो तो थाली या परात भी नचा देता अपनी अंगुलियों पर। घंटो-घंटा सुदर्शन चक्र की तरह नचाता रहता था। तर्जनी पर नचाते-नचाते उछाल कर मध्यमा पर ले लेता था। इसी प्रकार पाँचों अंगुलियों पर बारी-बारी से नचाता और वह भी बिना रुके। एक बार बाबू जानकी-शरण तो उसके पैर ही पड़ गए। साक्षात कृष्ण भगवान लगते हैं।

उसमें देशभक्ती की बयार भी कूट-कूट कर भरी है। हर पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को वह बड़ा सा तीरंगा एक लंबी लाठी में लहराता हुआ हर प्रभात-फेरी में शामिल हो जाता था। अंततः हमारे विद्यालय पर अवश्य आता था। खुद भीड़ में रहेगा लेकिन झंडा न छोड़ सकता था न झुका सकता था। दोनों हाथों से सर के उपर पकड़ कर रखता था तिरंगे को। गाँव में भी पार्टी-पालिटिक्स आ गया था। रैली और जुलुस भी निकलते थे। लेकिन नंदकिशोर के लिए सभी जुलुस-रैली पंद्रह अगस्त की प्रभात-फेरी जैसे ही थे। कोई पार्टी, कोई झंडा, कोई नारा....। नंदकिशोर तिरंगा लेकर ही जाता था और वही नारा लगाता था जो उसने बचपन से सीखा था, “बंदे-मातरम ! महात्मा गाँधी अमर रहें। वीर भगत सिंह जिंदावाद। भारत माता की जय।”

उसे माइक पर बोलने का भी बड़ा शौक था। एक दल-विशेष के जुलुस में मौका मिलने पर जोड़-जोड़ से नारे लगाने लगा, “हमारा नेता कैसा हो.... सुभाषचन्द्र वोस जैसा हो। महात्मा गाँधी जिंदावाद...!” आयोजकों का कोपभाजन बनना पड़ा उस निस्पृह व्यक्ति को। मार-पिटाई हुई उपर से। देशभक्ति से मोहभंग हो गया। आज-कल ईश्वरभक्ति में जुट पड़ा है। पिछली बार गाँव गया तो भेंट हुई थी, बाबा नंदकिशोरजी महाराज से। अब लुँगी नहीं धोती पहनते हैं। दाढ़ी बढ़ा रखी है। सारा कैरीकेचर भूल चुके हैं। तीन वाक्य ही बोलते हैं, “जय महादेव। ओम नमः शिवाय । हर-हर महादेव।“ समथू चौक के पास शिवजी का मंदिर बनाने का निश्चय किया है उन्होंने। अब कहीं नहीं आते-जाते हैं। उसी चौक पर रहते हैं। हर आने-जाने वाले को चंदन-टीका लगा कर मिसरी-इलायची दाना बाँटते हैं। अयाची से याचक हो गए हैं। कठोर दृढ़निश्चयी जीव हैं। पर्याप्त ईंट इकट्ठी हो चुकी है। लोग अब उनका मजाक भी नहीं उड़ाते हैं। सबको विश्वास हो गया है कि बाबा नंदकिशोर शिव-मंदिर बनाकर ही रहेंगे।