मंगलवार, 31 जुलाई 2012
आज के दौर में
सोमवार, 30 जुलाई 2012
चल बेटे चल
रविवार, 29 जुलाई 2012
भारतीय काव्यशास्त्र – 120
बुधवार, 25 जुलाई 2012
स्मृति शिखर से – 18 : सावन
नाटक का सनातन काल से संबंध रहा है मेरे गाँव से। शायद इसीलिए हमारे नानीगाँव वाले हमें ’नटकिया गाँव का’ कह कर चिढ़ाते थे। पहले रामलीला, कृष्ण्लीला, स्वांग, फ़ारस, विदेसिया, बिहुला, आल्हा वगैरह होता रहा होगा। फिर अनेक आध्यात्मिक-ऐतिहासिक आख्यान नाट्य-शैली में मंचित होने लगे। राजा भ्रतृहरि, राजा हरिश्चंद्र, श्रवणकुमार, सम्राट जलंधर, संयोगिता-स्वयंवर’, नल-दमयंति, छत्रपति शिवाजी, अर्थपिशाच, भक्त प्रहलाद, इत्याति। बाद में समकालीन नाटक आए। सुल्ताना डाकू, चंबलघाटी का लुटेरा, कच्चे धागे आदि-आदि। फिर फ़िल्मों पर आधारित नाटकों के मंचन भी हुए। नागिन, धूल का फूल, अनारकली, लैला-मजनू इत्यादि। गाँव के बिहुला नाच से लेकर बनारस की नौटंकी... ठकुरवारी पर सब की परीक्षा हो जाती थी। युगों से नाट्यानंद का रसपान कर रहे भोले ग्रामीण नाटकों के चतुर समीक्षक हो गए थे।
सोमवार, 23 जुलाई 2012
प्रणय के स्रोत का अनवरत कल-कल
रविवार, 22 जुलाई 2012
भारतीय काव्यशास्त्र-119
बुधवार, 18 जुलाई 2012
स्मृति शिखर से – 17 : वे लोग : भाग - 6
-- करण समस्तीपुरी
बड़ा भारी कलाकार था वह। जब से मैंने देखा हट्ठा-कट्ठा व्यस्क। नीचे लुंगी अक्सर घुटने से उपर और उपर बनियान। जाड़े में फ़टा-पुराना स्वेटर बनियान के उपर आ जाता था या एक कंबलनुमा चादर। बरसात से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। भींगता हुआ चलता था। चलते-चलते सूख भी जाता था। हमारे गाँव के पास या यूँ कहें कि हमारे गाँव के ही दूसरे हिस्से ‘रामपुर समथु’ में उसके पूर्वजों का घर था। मगर वह अजब यायावर था। हमेशा घूमता ही रहता था। कहीं एक जगह घंटा – दो घंटा टिक कर रहना मना था उसके लिए।
बोली तुतली थी। लेकिन कला उसके रग-रग में था। वह वैरागी था और अयाची भी। भूख-प्यास भी उसे नहीं लगती थी शायद। अगर किसी ने श्रद्धावश कुछ दे दिया तो ग्रहण कर लिया वरना उसका काम तो पानी से ही चल जाता था जिस पर गाँव में कोई पावंदी नहीं होती है। दो बड़े शौक थे उसके। एक गंगा स्नान और दूसरा नाटक देखना। किसी की शव-यात्रा हो यदि उसने देख लिया तो अवश्य शामिल होता था गंगा-स्नान के लोभ में। गंगा पहुँचे तो ठीक अन्यथा एक-आध घंटे में श्मसान से अपने रास्ते। वैसे उसके लिए हर नदी गंगा ही होती थी लेकिन सिमरिया-घाट और राजेन्द्र पूल उसे कुछ अधिक प्रिय थे।
नाटकों से उसे कुछ अधिक ही लगाव था। आस-पास दस मील के अंदर नाटक या विदेसिया नाच की खबर होनी चाहिए। नंदकिशोर वहाँ पहुँच ही जाएगा। इस आदत ने बेचारे को कई बार झूठी सूचना का शिकार भी बना दिया था पुनश्च उसकी आदत नहीं बदली। उसका जीवन भी तो एक जीवंत नाटक था। वैसे तो हम सब का जीवन ही एक नाटक है किन्तु उसके जीवन में नाटकों के कई चरित्र, कई रंग, कई साज सजीव थे। तुतली बोली में ही वह हर किरदार की शानदार नकल कर सकता था। किरदार ही क्यों वह तो संगीत के कई साजों के आवाज भी मुँह से निकाल लेता था। विश्वास कीजिए, उसके मुँह में सरस्वती बसती थी। उसका मुँह नहीं मल्टी-म्युजिकल-इंस्ट्रूमेंट था। तबला, हारमोनियम, सारंगी, शहनाई, बाँसुरी उसके मुँह और हाथ की कलाकारी से मुखर हो जाते थे।
आज छोटे-बड़े पर्दे पर आने वाले अनेक स्टैंड-अप कामेडियन से वह हजार-गुणा अधिक प्रभावशाली था। गजब का कैरीकेचर करता था। अनेक जानवरों के आवाज निकालने में भी माहिर। कुत्ते का छोटा पिल्ला दूध के लिए कैसे कूँ-कूँ करता है। थोड़ा बड़ा होने पर कैसे भौंकता है, बड़े और बलशाली कुत्ते कैसे आपस में लड़ते हैं। मतलब कि कुत्तों की अवस्थावार बोली का तो वह स्पेसलिस्ट था। बिल्लियाँ कैसे बोलती और लड़ती हैं, पंडीतजी की भैंस कैसे रंभाती है, घोड़ा कैसे हिनहिनाता है और तांगा चलने पर कैसी आवाज होती है। गाँव के खेतों में गीदर कैसे बोलते हैं और सिमरिया-घाट शमसान में गीदर की आवाज कैसी होती है। छोटी-लाइन की रेलगाड़ी कैसे आवाज करती है और बड़ी लाइन की रेलगाड़ी कैसे। डीजल-इंजन और कोयला-इंजन दोनों की आवाज। बारिश कैसे होती है, कबूतर कैसे उड़ते हैं वगैरह-वगैरह.... सब कुछ उसकी जिह्वा पर था।
इनके अतिरिक्त कुछ ऐसी कलाकारी थी जो मैंने सिर्फ़ नंदकिशोर में ही देखी है। वह डगरा-नचाने में भी मास्टर था। डगरा बोलते हैं बाँस का बना बड़ा सा गोल पात्र होता है जिससे अन्न को झटकने का काम किया जाता है। अगर डगरा उपलब्ध नहीं हो तो थाली या परात भी नचा देता अपनी अंगुलियों पर। घंटो-घंटा सुदर्शन चक्र की तरह नचाता रहता था। तर्जनी पर नचाते-नचाते उछाल कर मध्यमा पर ले लेता था। इसी प्रकार पाँचों अंगुलियों पर बारी-बारी से नचाता और वह भी बिना रुके। एक बार बाबू जानकी-शरण तो उसके पैर ही पड़ गए। साक्षात कृष्ण भगवान लगते हैं।
उसमें देशभक्ती की बयार भी कूट-कूट कर भरी है। हर पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को वह बड़ा सा तीरंगा एक लंबी लाठी में लहराता हुआ हर प्रभात-फेरी में शामिल हो जाता था। अंततः हमारे विद्यालय पर अवश्य आता था। खुद भीड़ में रहेगा लेकिन झंडा न छोड़ सकता था न झुका सकता था। दोनों हाथों से सर के उपर पकड़ कर रखता था तिरंगे को। गाँव में भी पार्टी-पालिटिक्स आ गया था। रैली और जुलुस भी निकलते थे। लेकिन नंदकिशोर के लिए सभी जुलुस-रैली पंद्रह अगस्त की प्रभात-फेरी जैसे ही थे। कोई पार्टी, कोई झंडा, कोई नारा....। नंदकिशोर तिरंगा लेकर ही जाता था और वही नारा लगाता था जो उसने बचपन से सीखा था, “बंदे-मातरम ! महात्मा गाँधी अमर रहें। वीर भगत सिंह जिंदावाद। भारत माता की जय।”
उसे माइक पर बोलने का भी बड़ा शौक था। एक दल-विशेष के जुलुस में मौका मिलने पर जोड़-जोड़ से नारे लगाने लगा, “हमारा नेता कैसा हो.... सुभाषचन्द्र वोस जैसा हो। महात्मा गाँधी जिंदावाद...!” आयोजकों का कोपभाजन बनना पड़ा उस निस्पृह व्यक्ति को। मार-पिटाई हुई उपर से। देशभक्ति से मोहभंग हो गया। आज-कल ईश्वरभक्ति में जुट पड़ा है। पिछली बार गाँव गया तो भेंट हुई थी, बाबा नंदकिशोरजी महाराज से। अब लुँगी नहीं धोती पहनते हैं। दाढ़ी बढ़ा रखी है। सारा कैरीकेचर भूल चुके हैं। तीन वाक्य ही बोलते हैं, “जय महादेव। ओम नमः शिवाय । हर-हर महादेव।“ समथू चौक के पास शिवजी का मंदिर बनाने का निश्चय किया है उन्होंने। अब कहीं नहीं आते-जाते हैं। उसी चौक पर रहते हैं। हर आने-जाने वाले को चंदन-टीका लगा कर मिसरी-इलायची दाना बाँटते हैं। अयाची से याचक हो गए हैं। कठोर दृढ़निश्चयी जीव हैं। पर्याप्त ईंट इकट्ठी हो चुकी है। लोग अब उनका मजाक भी नहीं उड़ाते हैं। सबको विश्वास हो गया है कि बाबा नंदकिशोर शिव-मंदिर बनाकर ही रहेंगे।