बुधवार, 17 मार्च 2010

देसिल बयना 22 : दिहैं तो कपाल....

-- करण समस्तीपुरी
जय राम जी की !
सोचते-सोचते बुध का सांझ हो गया और हम अभी तक सोचिये रहे हैं कि देसिल बयना में आज आप लोगों के सामने का लेके हाज़िर होएं.... काहे कि आप तो पाठक लोग राजा हैं और कहावत है, "राजा-जोगी-पेखना (मेला) ! खाली हाथ न देखना !!" सो हाथ डोलाते कैसे सामने आयें इहे उधेरबुन में पड़े थे कि एगो और कहावत याद आ गया। हमरी दादी हमेशा कहती थी, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' आईये आपको इके पीछे की कहानी बताते हैं। हमको दादी कही रही आपको हमहि कहे देते हैं।
हमरे गाँव की बात है। एक घर में दुइये भाई बचे थे। खदेरन और रगेदन। दुन्नु निछच्छ (निहायत) गरीब। घर में पूंजी के नाम पर एगो चूल्हा रह गया था उहो सांझ-के सांझ उपासे (उपवास) रहता था। मांग-चांग कर कितना दिन चले। एक दिन खदेरन बोला, "ए भाई रगेदन ! रेवाखंड के राजा बड़ी दानी हैं। साच्छात दानवीर कर्ण। चल उन्ही से कुछ मांग लेते हैं। रोज-रोज कहाँ हाथ फैलाएं ? चल न... राजाजी कुछो दे देंगे तो जिनगी निमह (बीत) जाएगा।
रगेदन सब कुछ सुन कर एक बार होंठ को गोलिया के इधर-उधर नचाया और फिर बोला, "भाई ! 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' मिले के होगा तो घरो मे मिल जाएगा नहीं तो राजा का करेगा ?" वैसे ई कौनो पहिले बार की बात नहीं थी। जब भी खदेरन राजा से कुछ मांगने की बात करता रगेदन वही कहावत कह देता था।
कुछ दिन बीते। दुन्नु का हालत और पतला होने लगा। एक-दिन खदेरन गरमा गया। कहिस, 'आखिर तुमको राजा के पास चलने में क्या लगता है। गाँव-जंवार में सब उनके दरबार में शीश नवा कर कितना हंसी-खुशी आता है। राजा बटुआ भर-भर मोहर लुटाते हैं। आज तक कोई खाली हाथ नहीं लौटा.... ! हम अब कुछो नहीं सुनेंगे। चलना है तो चलना है।' रगेदन बेचारा मन-मसोस के कहा ठीक है। चलते हैं मगर हमरा बात याद रखना।
दोनों राज-दरबार में पहुचे। राजा उनकी व्यथा-कथा सुन के बहुत द्रवित हुए। बोले, "आ..हा...हा... ! तुमलोग इतना दुखी-दुर्बल हो गए.... कितना कष्ट उठाया.... पहले काहे नहीं आया हमरे पास ?"
राजा की बात खतमो नहीं हुई कि खदेरन आँख में गोल-गोल आंसू भर के फट से बोला, "माई-बाप ! हम तो कबे से कह रहे थे कि चलो अपना राजा सच्छात दानवीर कर्ण है। उहें गए हमारा कल्याण होगा। राजाजी के आँख फेरे के देरी है फिर कौनो कष्ट नहीं रह जाएगा। मगर देखते नहीं हैं.... ई हमरा भाई जो है मुँहचुप्पा ! अभी कैसे ठोर (होंठ) सी के खड़ा है। और जब भी हम कहते थे आपके पास चलने के लिए तो कहता था, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!'
राजा ने बात की तहकीकात किया। रगेदन से पूछा, "का जी तुम ई बात बोलता था।" रगेदन लाख गरीब था मगर अपनी बात से नहीं डिगने वाला था। एकदम राजा के मुंहे पर खरे-खरे कह दिहिस, "हाँ, सरकार !! कौनो झूठ नहीं कहते हैं। 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' मिलना होगा तो मिलेगा। नहीं तो नहीं। आप राजा हैं तो का... जो किस्मत में लिखा होगा उ थोड़े बाँट लीजियेगा।"
लेकिन राजा बड़ा दयालु था, सच्चे में। रगेदना मुंहे पर खरे-खरे कह दिया फिर भी वह दोनों को कुछ-कुछ उपहार दिया। रगेदन को थोड़ा चावल-दाल दिया और खदेरन को एक कद्दू और फिर कल दरबार में आने को कहा। दुन्नु भाई चला आया वापस। रस्ते भर खदेरन मने-मन सोच रहा था, 'धुर्र ! ई कद्दू लेके का करेंगे ? रगेदना तो आराम से आज भात-दाल खायेगा।'
घर पहुँचते ही उसने तरकीब लगाई। रगेदन से कहा, "ए भाई रगेदन ! राजाजी तो दुन्नु आदमी को उपहार दिए। दुन्नु वस्तु एक्कहि है। सो चलो न हम दुन्नु भाई आपस में तोहफा बदल लेते हैं।' रगेदन तैयार हो गया। कहिस, 'कौनो बात नहीं है। लाओ कद्दू। लेलो चावल-दाल।'
खदेरन गया आँगन में आराम से बहुत दिन के बाद चावल-दाल बना के खाया और राजा का गुणगान करते हुए खटिया पर पसर गया। उधर रगेदनो अपना कद्दू लेके गया आँगन में। सोचा आज इसी को उबाल के खाया जाए। लेकिन ई का....? जैसे ही उ कद्दू काटा..... उ में से भरभरा के सोना-असरफी, हीरा-जवाहिरात निकला। रगेदन बात समझ गया। उ आधा गो कद्दू को अभिये गमछी में बाँध कर रल्ख लिया।
अगले दिन फिर दुन्नु पहुंचा राजा के पास। राजा खदेरन को देख कर मुस्किया रहे थे। खदेरन के चेहरे पर भी रात के भात-दाल की रौनक अभी तक कायम थी। फिर राजा ने रगेदन से पूछा, "का रे रगेदन ! तुम्हारा विचार कुछ बदला कि अभियो वही सोचते हो.....?"
रगेदन जवाब कुछ नहीं दिया। चुपचाप गमछी में से आधा कद्दू निकाल के राजा के सामने रख दिया। अब तो अचरज के मारे राजा के आँख भी फटा से फटले रह गया। फिर पूछा ई कद्दू तुमको कैसे मिला ? रगेदन खदेरन का मुँह देखने लगा। फिर खदेरन बोला, "मालिक ! उ का है कि हम सोचे खाली कद्दू ले के का करेंगे ? चावल-दाल मिल गया तो आराम से भात-दाल पका के खायेंगे.... इसीलिये इससे बदल लिया। मगर हम का जाने........!" हाय ! कह के खदेरन ठप से अपना माथा पर एक चाटी लगा लिया।
राजा बेचारा कद्दू को हाथ में उठा कर बोला, " सच कहता है रगेदन। 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' हम तो तुमको ई सोना-असरफी दिए रहे। लेकिन हमरे दिए का हुआ? कपाल (किस्मत) में था रगेदन के ई हीरा-मोती तो तुमको कहाँ से मिलता।" इतना कह के राजा रगेदन को और इनाम दिए और खदेरन को खाने-पीने का समान दिए।
किस्सा तो ख़तम हुआ। मगर कहे का मतलब यही था कि 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' अर्थात किस्मत में जो लिखा होगा वही मिलेगा। व्यक्ति चाहे जितना भी शक्तिशाली-प्रभावशाली क्यों नहीं हो.... कपाल के लेख को नहीं बदल सकता। देवेच्छा सबसे प्रबल होती है। लेकिन ई का मतलब ई नहीं है कि अपना प्रयास (कर्म) छोड़ देना चाहिए। अरे किस्मतो का लिखा तो कर्मे करने से मिलेगा न.....! खदेरन और रगेदन राजा के पास नहीं जाते तो जो भी मिला उ मिलता का.... ? नहीं ना... ! लेकिन एक बात है, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' किस्मत को तो राजो नहीं बदल सकता है। तो यही था आज का देसिल बयना..... फिर मिलेंगे अगले बुध को। राम-राम !!

7 टिप्‍पणियां:

  1. सदा की तरह आज का भी देसिल बयना बहुत अच्छा लगा। आपकी शैली की जितनी तारीफ़ की जाए कम है।

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  2. बहुत बढ़िया कथा के साथ बता दिया कि जो नसीब में है वही मिलता है....बहुत खूब

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  3. हमेशा की तरह इस बार भी देसिल बयना अच्छा लगा.

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  4. बहुत सुंदर कहानी .. इतने दिनों के अनुभव के उपरांत ही ऐसी कहावतें कही गयी हैं .. लोगों ने अवश्‍य अनुभव किया होगा कि सिर्फ मेहनत या दूसरों की मदद करने से कुछ नहीं होता .. नसीब सबसे बडी चीज है !!

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  5. देसिल बयना अच्छा लगा .मनोज जी कि बातों से सहमत.

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  6. Ram Ram Karan Ji..kahawat sahiye hai...apka bato sahi hai...ab ka hai na ki baithe baithe to kucho milne se raha to karam to karna he chiye baki jitna fruit milna hoga mil he jayega...lakn ego bat hai, apke gaon me log kahawat bahete acha bolte hai ....
    dhanyawaad..mast raha desil bayna...

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  7. सदा की तरह आज का भी देसिल बयना बहुत अच्छा लगा। आपकी शैली की जितनी तारीफ़ की जाए कम है।
    manoj jeeke vicharon se sahmat hooisee se unke shavdo ka prayog bhee kar liya......

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