मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

भगवान परशुराम-7


भगवान परशुराम-7
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में भगवान परशुराम के शिष्य आचार्य सुमेधा (हरितायन) द्वारा विरचित त्रिपुरारहस्यम् पर चर्चा की गई थी। इस अंक में स्वयं भगवान परशुराम द्वारा विरचित श्रीपरशुरामकल्पसूत्रम् की विषय-वस्तु पर चर्चा की जाएगी।
कहा जाता है कि श्रीपरशुरामकल्पसूत्र में कुल छः हजार सूत्र थे और यह पचास खण्डों में विभक्त था। यह दत्तसंहिता का संक्षिप्त रूप माना जाता है। लेकिन यह तर्कसंगत नहीं लगता। क्योंकि वैदिक संहिताओं से सम्बन्धित कल्पसूत्र उनके संक्षिप्त रूप नहीं हैं। उसी प्रकार इस ग्रंथ को दत्तसंहिता का संक्षिप्त रूप कहना उचित नहीं है। उपलब्ध विवरणों के अनुसार श्रीविद्या उपासना का आधारभूत ग्रंथ दत्तसंहिता में 18000 श्लोक हैं। यह ग्रंथ उपलब्ध है अथवा नहीं कहना कठिन है। वैसे श्रीविद्या का प्रवर्तन महर्षि अत्रि परिवार से उद्भूत माना जाता है। कहा जाता है कि उनके पुत्र महर्षि दुर्वासा और चन्द्रमा ने इस महान विद्या का प्रवर्तन किया। दत्तात्रेय भी उन्हीं की संतान हैं और कुछ लोगों का मानना है कि भगवान शिव के बाद भगवान दत्तात्रेय का नाम आता है। जबकि कुछ का मानना है कि भगवान परशुराम इसके प्रवर्तक हैं। इस ऐतिहासिक विवाद पर कभी अलग से चर्चा उचित होगी। आज की चर्चा श्रीपरशुरामकल्पसूत्र तक सीमित रखी जा रही है।
वर्तमान में उपलब्ध यह ग्रंथ दो भागों में मिलता है। प्रथम भाग में दस खण्ड और दूसरे में आठ हैं। कुल 460 सूत्र उपलब्ध हैं। आचार्य रामेश्वर ने, जो भास्करराय के प्रशिष्य थे और जिनका दीक्षानाम अपराजितानन्दनाथ था, सौभाग्योदय नामक टीका लिखी है। यह टीका केवल प्रथम खण्ड पर ही मिलती है। इसके दूसरे टीकाकार श्री साकर लाल शास्त्री हैं। ये बड़ोदरा के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापक थे और सवाजी राव गायकवाड़ के अनुरोध पर उन्होंने इस ग्रंथ पर टीका लिखी। इन्होंने अपनी टीका को दो खण्डों में विभक्त किया है। प्रथम भाग में दस खण्डों पर ही टीका लिखी है और आठ खण्डों को परिशिष्ट के अन्तर्गत दूसरे भाग में लिया है। बांग्ला लिपि में डॉ. परमहंस मिश्र द्वारा विरचित नीरक्षीरविवेकभाषाभाष्यसंवलित टीका का उल्लेख श्री हेमेन्द्रनाथ चक्रबर्ती ने किया है। यह टीका भी दस खण्डों पर ही है। आधुनिक काल में पं. गोपीनाथ कविराज द्वारा भी इस ग्रंथ का संमपादन किया गया है। इस आधार पर कुछ लोगों का मानना है कि मूल ग्रंथ सम्भवतः दस खण्डों में ही लिखा गया होगा। इस विवाद से हटकर अब इस ग्रंथ के उपलब्ध रूप पर चर्चा करते हैं।
प्रथम भाग के दस खण्डों में विषय की दृष्टि से दो क्रम देखने को मिलते हैं- सर्वसाधारणक्रम और ललितार्चनक्रम। सर्वसाधारणक्रम में दीक्षाविधि, होमविधि और सर्वसाधारणक्रम हैं। ललितार्चनक्रम श्रीगणनायकपद्धति, श्रीक्रम, ललिताक्रम, ललितानवावरण पूजा, श्यामाक्रम, वाराहीक्रम और पराक्रम हैं।
इन दस खण्डों को देखने पर लगता है कि इस उपासना पद्धति के सैद्धांतिक पक्ष की दृष्टि से यह ग्रंथ यहाँ पूर्ण हो जाता है। क्योंकि दसवेँ खण्ड में वर्णित सर्वसाधारणक्रम उपसंहारात्मक ही लगता है।
दूसरे भाग के आठ खण्डों में विभिन्न यंत्रों, मंत्रों आदि का निरूपण किया गया है। जैसे- ग्यारहवें खण्ड में विभिन्न यंत्रों का विधान किया गया है, बारहवें में मंत्र विधान है, तेरहवें में प्रस्तारक्रम, चौदहवें में नष्टोदिष्ट का कथन, पन्द्रहवें में कृतनष्टनिरूपण, सोलहवें में योनिलिंग यंत्र और मंत्र के रचना का विधान, सत्रहवें में अंगविज्ञान (विद्या) तथा अन्तिम खण्ड में मंत्र महत्त्व, ललितामंत्र, हल्लेखामंत्र आदि का निरूपण किया गया है।
यह ग्रंथ इतना गूढ़ है कि जनसामान्य की समझ से परे है। जबतक इस परम्परा के किसी सक्षम गुरु के सान्निध्य में साधना करने के साथ-साथ इसका अध्यवसाय न किया जाय, इसके गूढ़ रहस्य को नहीं समझा जा सकता। मैं इसे पढ़कर इतना ही कह सकता हूँ कि भगवान परशुराम की कठिनतम तपश्चर्या की अनुभूतियों का नवनीत है यह ग्रंथ। आज हम उन्हें जिस रूप में जानते हैं, वह भले ही विश्वास से परे हो। लेकिन इतनी बात तो है कि एक उपासक अपनी उपासना की उस पराकाष्ठा पर पहुँचा, जहाँ वह स्वयं उपास्य हो गया। श्रीतत्तवनिधि में उनका ध्यान निम्नलिखित रूप में दिया है-
परशूज्ज्वलहस्ताब्जो जटामण्डलमण्डितः।
ददातु चिरञ्जीवित्वं प्रसन्नात्मा भृगूद्वहः।।        
      इस शृंखला को यहीं विराम दिया जा रहा है। आभार।
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6 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक एवं ज्ञानवर्धक श्रृंखला... आशा है यह मात्र विराम ही होगा..!!

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  2. इस ज्ञानवर्धक श्रृंखला की प्रस्तुति के लिए आपका आभार।

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  3. भगवान परशुराम के बारे में रोचक तथ्य। आभार

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  4. रोचक तथ्य... ज्ञानवर्धक श्रृंखला.....

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