रविवार, 18 दिसंबर 2011


 भारतीय काव्यशास्त्र – 95
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में भग्नप्रक्रम वाक्य दोष के विभिन्न स्वरूपों- प्रकृति, प्रत्यय, सर्वनाम और पर्याय जन्य दोषों की चर्चा की गयी थी। इस अंक में भग्नप्रक्रम वाक्य दोष के उपसर्ग, वचन, कारक और क्रम-भग्नता जनित दोषों पर चर्चा की जाएगी।
निम्नलिखित श्लोक में उपसर्ग-भग्नप्रक्रमता दोष है और साथ ही पर्याय-भग्नप्रक्रमता दोष भी-
विपदोSभिभवन्त्यविक्रमं रहयत्यापदुपेतमायतिः।
नियता लघुता निरायतेरगरीयान्न पदं नृपश्रियः।।
अर्थात् पराक्रमहीन व्यक्ति को विपत्तियाँ पराभूत कर देती हैं, विपत्ति से ग्रस्त व्यक्ति का भविष्य उसका साथ छोड़ देता है, जिसका भविष्य अंधकारमय हो जाता है, उसका सम्मान चला जाता है और जिसका सम्मान चला जाता है, उसे राजश्री नहीं मिलती।
यहाँ विपद् और आपद् पदों में उपसर्ग की भग्नप्रक्रमता है। विपद् पद के स्थान पर दूसरे वाक्य में आपद् पद का प्रयोग उपसर्ग के साथ किया गया है। इसलिए इसमें उपसर्ग जनित भग्नप्रक्रमता है। इसी प्रकार तीसरे वाक्य में लघुता और चौथे वाक्य में इसका पर्यायवाची पद अगरीयान् पद का प्रयोग किया गया है, जिसके कारण पर्याय जनित भग्नप्रक्रमता दोष भी इसमें है। यदि दूसरे वाक्य को तदभिभवः कुरुते निरायतिम् के रूप में रखा गया होता. उपसर्ग जनित भग्नप्रक्रता दोष का  और श्लोक के उत्तरार्द्ध को लघुतां भजते निरायतिर्लघुतावान्न पदं नृपश्रियः किया गया होता, तो पर्यायजनित भग्नप्रक्रमता दोष का निराकरण हो जाता।
निम्नलिखित श्लोक महाकवि माघ द्वारा विरचित शिशुपालवध से लिया गया है।  युद्ध के लिए शिशुपाल पक्ष के राजाओं के प्रस्थान के समय उनकी रानियों की भावी अमंगल सूचक चेष्टाओं का वर्णन किया है-   
काचित्कीर्णा  रजोभिर्दिवमनुविदधौ  मन्दवक्त्रेन्दुलक्ष्मी-
रश्रीकाः काश्चिदन्तर्दिश इव दधिरे दाहमुद्भ्रान्तसत्त्वाः।
भ्रेमुर्वात्या  इवान्याः  प्रतिपदमपरा  भूमिवत्कम्पमानाः
प्रस्थाने पार्थिवानामशिवमिति पुरो भावि  नार्यः शशंसुः।।
अर्थात् कुछ रानियाँ रजस्वला होने के कारण अपने मन्दकान्तियुक्त मुख से वातावरण को धूमिल कर रही थी, जैसे धूल से आच्छादित आकाश में निस्तेज चन्द्रमा, शोभारहित और उद्भ्रान्त चित्तवाली कुछ रानियों का हृदय दिग्दाह के कारण घबराए हुए प्राणियों से युक्त दिशाओं के समान सन्तप्त हो रहा था, कुछ चक्रवात की तरह चक्कर काट रही थीं, तो कुछ पृथ्वी पर पैर रखते समय काँप रही थी, जैसे भूकम्प आने पर होता है। इस प्रकार युद्ध के लिए प्रस्थान करते समय उनकी स्त्रियाँ भावी अनिष्ट की सूचना दे रही थीं।
इस श्लोक में वचन भग्नप्रक्रमता है। क्योंकि पहले वाक्य में कर्ता एक वचन में आया है, बाद के दो वाक्यों में बहुवचन में और पुनः अन्तिम वाक्य एक वचन में रखा गया है। यदि श्लोक के प्रथम चरण को काश्चित् कीर्णा  रजोभिर्दिवमनुविदधौ  मन्दवक्त्रेन्दुशोभा निःश्रीकाः और कम्पमानाः के स्थान पर कम्पमापुः कर दिया जाय, तो इस दोष का निराकरण हो जायगा।
निम्नलिखित श्लोक महाकवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल से लिया गया है और इसमें कारक-भग्नप्रक्रमता दोष है। शकुन्तला पर आशक्त होने के कारण आखेट आदि में महाराज दुष्यन्त का मन नहीं लग रहा है। अतएव वे अपने सेनापति को आखेट का कार्यक्रम स्थगित करने की सूचना देते हुए कहते हैं-      
गाहन्तां  महिषा  निपानसलिलं  शृंगैर्मुहुस्ताडितं
छायाबद्धकदम्बकं  मृगकुलं  रोमन्थमभ्यस्यताम्।
विश्रब्धैः  क्रियतां  वराहपतिभिर्मुस्ताक्षतिः पल्वले
विश्रान्तिं लभतामिदं च शिथिलज्याबन्धमस्मद्धनुः।।
अर्थात् आज भैंसे सींगों से बार-बार खोदे जानेवाले तालाबों में अवगाहन करें, वृक्षों की छाया में मृगों का समूह जुगाली करे, सूअर निश्चिन्त होकर तालाबों के किनारे उगे नागरमोथा खोद-खोदकर खायें और शिथिल प्रत्यंचावाला मेरा यह धनुष भी विश्राम करे।
इस श्लोक में कारक की भग्नप्रक्रमता है। इसमें प्रथम और दितीय चरणों में महिषाः और मृगकिलम् कर्तृवाचक पद कर्ता कारक में प्रयुक्त हुए हैं, जबकि तृतीय चरण में कर्ता वराहपतिभिः (सूअरों द्वारा) कर्मवाचक पद के रूप में तृतीया विभक्ति में प्रयोग किया गया है। यदि विश्रब्धैः  क्रियतां  वराहपतिभिर्मुस्ताक्षतिः के स्थान पर विश्रब्धा रचयन्तु शूकरवरा मुस्ताक्षतिम् कर दिया जाय, तो यह श्लोक इस दोष से मुक्त हो जाएगा।
निम्नलिखित श्लोक में क्रम-भग्नता के कारण भग्नप्रक्रमता दोष है। भगवान शिव का धनुष टूटने के बाद भगवान परशुराम को आते हुए देखकर भगवान राम की यह उक्ति है-
अकलिततपस्तेजोवीर्यप्रथिम्नि यशोनिधाववितथमदाध्माते रोषान्मुनावभिगच्छति।
अभिनवधनुर्विद्यादर्पक्षमाय च कर्मणे स्फुरति रभसात्पाणिः पादोपसंग्रहणाय च।।
     अर्थात् अपरिमेय तप, तेज और यश के धनी दर्प से भरे क्रोधित मुनि के आने पर अभिनव धनुर्विद्या के लिए उपयुक्त युद्ध के लिए और साथ ही श्रद्धावश उनके चरण पकड़ने के लिए मेरा हाथ फड़क रहा है।
     यहाँ द्रष्टव्य है कि पहले भगवान परशुराम के तपोमय तेज आदि का वर्णन किया गया है, फिर उनके क्रोध आदि का। अतएव चरण-स्पर्श करने की बात पहले और युद्ध करने की बात बाद में आनी चाहिए थी। ऐसा न होने के कारण यहाँ क्रम-भग्नता के कारण भग्नप्रक्रमता दोष है।
     क्रम-भग्नता दोष हिन्दी के निम्नलिखित दोहे में देखा जा सकता है-
सचिव, बैद, गुरु तीनि जौ, प्रिय बोलहिं भय-आस।
राज, धर्म, तन तीनि कर, होइ  बेगि  हीं   नास।।
     इसमें सचिव, बैद और गुरु के क्रम में राज, तनु और धर्म कहना चाहिए था।

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8 टिप्‍पणियां:

  1. काव्य-शास्त्र के अनुसार कविता के दोषों की इतनी गहन विवेचना जिस प्रकार आपने वर्णित की है, वह सर्वथा नवीन है मेरे लिए. बहुत कुछ सीखने को मिलता है तथा और जानने की इच्छा भी बलवती होती है... स्कूल-कॉलेज के समय एक फ़िल्मी गीत पर बड़ी हँसी आती थी:
    झिलमिल सितारों का आँगन होगा,
    रिमझिम बरसता सावन होगा!

    गाना बड़ा मधुर और लोकप्रिय था.. किन्तु इस बात को बुद्धि अस्वीकार करती थी कि जब झिलमिल सितारे चमक रहे हों तो सावन कैसे बरसता होगा.. क्योंकि मेघाच्छादित आकाश के साथ ही वृष्टि की कल्पना की जा सकती है!!
    आज आपकी इस श्रृंखला को पढकर लगता है कि साहित्यिक रचनाओं में भी दोष पाए जाते हैं..

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  2. काव्य-दोषों पर अच्छा आलेख!!!संस्कृत काव्य-शास्त्र को हिंदी काव्य-शास्त्र में किस तरह से लागू किया जा सकता है या इसका हिंदी कवियों ने किस तरह प्रयोग किया है। इस पर भी आपके आलेख-शृंखला की जरूरत महसूस हो रही है।

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  3. सलिल भाई, संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य के विभिन्न अवयवों की इतनी सूक्ष्मता से विवेचन मिलता है कि उन्हें याद रखना कठिन हो जाता है। जिस प्रकार भाषा में भाषा का जन्म पहले हुआ, फिर व्याकरण का। उसी प्रकार काव्य-लेखन पहले हुआ और बाद में उसके गुण-दोष आदि का विवेचन। आपलोगों ने देखा कि कालिदास, माघ, भारवि आदि जैसे महाकवियों की रचनाओं में भी काव्य-दोष पाए जाते हैं। जिनके विषय में कहा गया है कि-
    उपमा कालिदासस्य भारवेर्थगौरवम्।
    दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः।।
    अर्थात् कालिदास की उपमा, भारवि का अर्थ-गौरव और दण्डी का पद-लालित्य गुण की अधिकता हैं। किन्तु महाकवि माघ में ये तीनों गुण पाए जाते हैं।
    साहित्यशास्त्र की दिशा में विकास की लगभग दो हजार वर्षों की महत्त्वपूर्ण यात्रा है, जिसमें कई सम्प्रदायों ने जन्म लिया और इसके भंडार में उत्कर्ष करते रहे।
    मनोज भारती जी का सुझाव अच्छा है। इस दिशा में कार्य भी हुआ है। सर्वप्रथम डॉ. बलदेव उपाध्याय जी का भारतीय काव्यशास्त्र दो खण्डों में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी की काव्यांग कौमुदी तीन-चार कलाओं में प्रकाशित हुई थी। पर ये ग्रंथ फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं। डॉ. भगीरथ मिश्र का काव्यशास्त्र काफी अच्छा है। लेकिन उसमें काव्य-दोषों पर चर्चा नहीं की गयी है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी ने भी सभी दोषों को नहीं लिया है। इस कार्य के लिए संस्कृत साहित्य और हिन्दी साहित्य दोनों के धुरन्धर ज्ञाता मिलें तभी यह कार्य सम्भव हो सकता है। आचार्य शुक्ल इस दिशा में कुछ काम किए। लेकिन वे काव्यशास्त्र के कुछ पहलुओं पर कुछ निबंध ही लिख पाए। बाद के आलोचकों ने इस प्रकार की चिन्तन-धारा को व्यर्थ करार दिया। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य के लिए आलोचना के सर्वमान्य मानक नहीं बन पाए।

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  4. आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा आज दिनांक 19-12-2011 को सोमवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  5. मैं तो बस पढ़ रहा हूँ और कुछ समझने का प्रयास कर रहा हूँ

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