गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

आँच-100 – काव्य की भाषा - 3


आँच-100 काव्य की भाषा -3
हरीश प्रकाश गुप्त

आज आँच स्तम्भ अपनी यात्रा के 100 अंक पूरे कर रहा है। जब इस स्तम्भ को प्रारम्भ किया गया था तब इसका उद्देश्य साहित्य की समीक्षात्मक दृष्टि से उदीयमान साहित्यकारों / रचनाकारों को अवगत कराना था। आज भी हम उसी उद्देश्य को लेकर चल रहे हैं। यह 100 अंकों का निरंतर प्रयास आप सवके प्रोत्साहन से आज इस सोपान पर पहुँच चुका है। यह कितना सफल रहा है, इसका प्रमाण सुधी पाठकों की टिप्पणियाँ व्यक्त करती हैं।

श्री सलिल वर्मा जी ने आँच पर कविता की संरचना (भाषा) पर भूमिका के रूप में अपने विचारों को विगत दो अंकों में प्रस्तुत कर यह चर्चा प्रारम्भ की है। आँच पर चर्चा काव्य की भाषा पर चल निकली है तो सोचा संस्कृत के महाकवि भारवि का स्मरण करके क्यों न उनके श्रीमुख से उच्चरित भाषा संबन्धी विशेषणों को यहाँ प्रस्तुत किया जाए। महाकवि भारवि माँ सरस्वती के वरद पुत्र हैं और अर्थ गौरव के लिए प्रसिद्ध हैं भारवेरर्थगौरवम्। अतः इस सन्दर्भ में उनके विचारों का विशेष महत्व है। उनका जग प्रसिद्ध ग्रंथ है किरातार्जुनीयम्। इसी ग्रंथ में प्रसंगवश उन्होंने भाषा के सौन्दर्य पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। उनके यह विचार भाषा के विशेषण मात्र नहीं हैं बल्कि भाषा का धर्म क्या होना चाहिए, उसे उद्घाटित करते हैं। पाण्डवों के वनगमन प्रकरण में भगवान कृष्ण शान्तिप्रिय युधिष्ठिर को युद्ध के लिए उत्तेजित कर रहे हैं। भीम को उनकी यह बात पसंद आती है और वे युधिष्ठिर की शान्तिप्रियता की आलोचना करते हैं तथा अपने तरीकों से, अपने शब्दों में कृष्ण का समर्थन करते हैं। भीम का यह वक्तव्य इतना सहज, सुगम और भावप्रवण है कि युधिष्ठिर उनकी भाषा से अत्यंत प्रभावित होते हैं और भीम की भाषा की प्रशंसा में कह उठते हैं -

अपवर्जितविप्लवे शुचौ,
     हृदयग्राहिणि मंगलास्पदे।
विमलां तव विस्तरे गिराम्,
मतिरादर्श इवाभिदृश्यते।

युधिष्ठिर कहते हैं कि हे भीम! तुम्हारे भाषण में तुम्हारा मन्तव्य इस प्रकार ज्यों का त्यों स्पष्ट हो रहा है जैसे स्वच्छ दर्पण में कोई वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। इसके साथ ही उन्होंने भाषा के सौन्दर्य सम्बन्धी कुछ विशेषण भी बताए हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा का उद्देश्य तभी फलीभूत होता है जब वक्ता अर्थ के स्तर पर तथा भाव के स्तर पर जो कहना चाहे, श्रोता को यथावत सम्प्रेषित हो। अभीष्ट अर्थ और व्यंजित अर्थ में साम्य हो, अन्तर शून्य हो। अन्यथा वक्ता कहेगा कुछ और श्रोता समझेगा कुछ, तो भाषा उद्देश्य विहीन हो जाती है। उक्त पद्य में भाषा की निम्नवत चार विशेषताएँ बतलाई गई हैं –

1.    अपवर्जितविप्लव

प्रत्येक भाषा की अपनी प्रकृति होती है, विशिष्ट शैली होती है। एक में किसी दूसरी का अधिरोपण सम्भव नहीं हो सकता। भाषा अपनी प्रकृति और प्रवाह के अनुरूप स्वतः अपने पथ का निर्माण करती है। आग्रह और दुराग्रह वाली प्रकृति के आगम भाषा में विप्लव अर्थात अराजकता उत्पन्न करते हैं। भाषा का सौन्दर्य और धर्म इसी में है कि वह इस प्रकार के बलात विप्लवों से अपवर्जित हो। जैसे, तथ्य है कि हिन्दी भाषा का घनिष्ट सम्बन्ध संस्कृत से है। लेकिन हिन्दी का विकास खाँटी देशज विधि से सहज प्रयोजनीयता के धरातल पर हआ है, सो दोनो में घालमेल करना संगत नहीं हो सकता। जहाँ तक हिन्दी के प्राकृतिक स्वभाव में संस्कृत या किसी अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग अतिक्रमण सा न लगे, वहाँ तक मेल सुसंगत है, शेष के लिए उसने अपने मानक तय किये हैं, अपनी राह बनाई है। भाषा जिसे स्वीकार करती है, वही ग्राह्य है। जैसे संस्कृत की दुर्बोध संधियाँ हिन्दी में चलन से बाहर हो गईं हैं। संस्कृत व्याकरण की समस्त रीतियाँ और सिद्धान्त हिन्दी ने स्वीकार नहीं किए हैं। अतः उनका जबरन प्रयोग निरर्थक है। सुसंगत शब्दों के प्रयोग की ओर आदरणीय सलिल वर्मा जी ने भी आँच के गत अंकों में संकेत किया था। यह उनके उद्देश्य का शास्त्रीय आधार है।

भाषा में यह अतिक्रमण ही विप्लव की तरह है। वैसे ही, आजकल अंग्रेजी से अनूदित हिन्दी का चलन बढ़ गया है और अनुवाद यदि हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल है तो ठीक है। प्रायः अनूदित अवतरण में वाक्य-विन्यास अंग्रेजी की प्रकृति के अनुरूप ही गढ़ दिया जाता है। यह तो हुई अनुवाद की समस्या। लेकिन हिन्दी में मौलिक लेखन में भी इसी प्रकार के वाक्य बहुतायत देखने को मिल जाते हैं। तब, यह अनजाने में अतिक्रमण हुआ। यह समस्या उत्पन्न हुई है अंग्रेजी के रास्ते से हिन्दी को जानने और हिन्दी की प्रकृति को अच्छी तरह जाने-समझे बगैर ही लेखन के क्षेत्र में कूद पड़ने से। हिन्दी मातृभाषा है, अतः भाषा ज्ञान के मामले में स्वतः परिपक्व होने का भ्रम भी एक कारण हो सकता है। संकर अर्थात दो भाषाओं के शब्दों के संयोजन से बने शब्दों में बहुत सुन्दर प्रयोग हुए हैं और स्वीकार्य भी हो गए हैं। अरबी और फारसी के कुछ शब्द तो हिन्दी में इस कदर घुल-मिल गए हैं कि उन्हें पहचानना तक कठिन होता है। वे हिन्दी की तरह अपने रूप भी परिवर्तित करते रहते हैं। समझदार, जिलाधीश गरमाहट, कमीनापन आदि इसी तरह के शब्दयुग्म हैं। हिन्दी-अंग्रेजी के संकर शब्दों में भी प्रयोग हो रहे हैं। कम्प्यूटरीकरण इसी तरह का शब्द है जो चलन में आ चुका है, लेकिन इसी तर्ज पर बना स्टैण्डर्डीकरण अलग-थलग सा पड़ा रहने वाला शब्द बनकर रह गया है। हालॉकि चलन में इस तरह के जबरन प्रयोग देखे जा सकते हैं जो न केवल कर्णकटु ध्वनियों के युग्म होते हैं, बल्कि कभी-कभी   विपरीत वर्गीय शब्दों के संयोजन से भी बने होते हैं। पर, है यह भी भाषा में अतिक्रमण। बहुतायत देखी जाने वाली एक और स्थिति है जब प्रत्यय प्रयोग द्वारा विशेषण से भाववाचक संज्ञा बनाई जाती है और फिर उस भाववाचक संज्ञा को विशेषण मानते हुए उसमें एक और प्रत्यय लगाकर उसकी पुनः भाववाचक संज्ञा बनाने का बलात प्रयास किया जाता है। जैसे स्वस्थ से स्वास्थ्य बना है लेकिन कहीं कहीं स्वास्थ्यता प्रयोग कर दिया जाता है, इसी प्रकार वैमनस्यता, दैन्यता, सभ्यीकरण और अज्ञानता आदि। प्रयोग में इसी प्रकार के अन्य अतिक्रमण भी देखे जाते हैं। भाषा में इस प्रकार के प्रयोग वर्जित हैं और महाकवि भारवि का कथन है कि ऐसे विप्लव से बचा जाना चाहिए।  

क्रमशः

16 टिप्‍पणियां:

  1. फुर्सत के दो क्षण मिले, लो मन को बहलाय |

    घूमें चर्चा मंच पर, रविकर रहा बुलाय ||

    शुक्रवारीय चर्चा-मंच

    charchamanch.blogspot.com

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  2. आंच से समीक्षा का पहला पाठ सीख रहा हूं....खास तौर पर गुप्त जी से..... कविता लिखने में भी मदद मिल रही है.... आंच के शतक पर हार्दिक शुभकामना...

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  3. आंच के सौंवें अंक पर बधाई . .. इस श्रृंखला से बहुत कुछ सीखने और जानने को मिला .

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  4. आंच के सौंवें अंक पर हार्दिक बधाई .

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  5. आंच के सौवें अंक पर हार्दिक बधाई !

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  6. हरीश जी यह ब्लॉग और इसकी टीम आपका सदैव ऋणी रहेगा, जो इस कन्सेप्ट को आप अकेले दम खींच लाए सौ अंकों तक।

    आज का अंक बेहद ज़रूरी आलेख लेकर आया है। राय जी की बहुत इच्छा थी कि इस विषय से आंच के पाठकों परिचित कराया जाए। मुझे मालूम है कि उन्होंने लगभग धकेल कर सलिल जी को आंच में कुदाया। पर सलिल जी ने भी इसे तैर कर पार किया और पाठकों को उससे काफ़ी फ़ायदा हुअ।

    आज आपने उस सिलसिले को आगे बढ़ाय़ा है। जो बहुत ही ज्ञानवर्धक है। हम अगले अंक की प्रतिक्षा में हैं।

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  7. श्रद्धेय हरीश जी!
    यह स्तंभ, यह कोंसेप्ट और यह विधा मुझे बहुत पसंद है.. सच पूछिए तो अपनी अज्ञानता का बोध सबसे अधिक तभी होता था जब मैं किसी रचना को पढकर मन में सोचता था कि यह कैसी है, मगर कह पाने का साहस नहीं हो पाता था.. इस स्तंभ के माध्यम से यह जाना की समीक्षा किसे कहते हैं... और कुछ लिखने का साहस कर पाया..
    आज यह स्तंभ सेंचुरी के आंकड़े पर पहुँच चुका है और इसकी आँच मुझे व्यक्तिगत रूप से अंतस तक ऊष्मा प्रदान कर रही है..
    हरीश जी, आचार्य परशुराम राय जी तथा मनोज जी जैसे व्यक्तियों का प्रयास सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय है... इससे जुडकर, भले ही अतिथि के तौर पर, मुझे गर्व का अनुभव प्राप्त हो रहा है!!
    आभार एवं शुभकामनाएं!!

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  8. maaf kijiyega...ek baat kahna chahungi...


    एक में किसी दूसरी का अधिरोपण सम्भव नहीं हो सकता। भाषा अपनी प्रकृति और प्रवाह के अनुरूप स्वतः अपने पथ का निर्माण करती है। आग्रह और दुराग्रह वाली प्रकृति के आगम भाषा में विप्लव अर्थात अराजकता उत्पन्न करते हैं। भाषा का सौन्दर्य और धर्म इसी में है कि वह इस प्रकार के बलात विप्लवों से अपवर्जित हो।

    uprokt panktiyon me aap swayam hi itni klisht hindi ka prayog kar rahe hain aur tis par likh rahe hain ki....

    कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा का उद्देश्य तभी फलीभूत होता है जब वक्ता अर्थ के स्तर पर तथा भाव के स्तर पर जो कहना चाहे, श्रोता को यथावत सम्प्रेषित हो।

    aage to me padh hi nahi paa rahi hun....
    kripya bhasha ke uddeshy ko falibhoot karen.

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  9. इस विषय पर यदि आदरणीय श्री सलिल वर्मा के लेख भूमिका के रूप में हैं, हरीश जी का यह लेख विषय में प्रवेश है। यह बहुत ही सार्थक शृंखला होगी सिद्ध होगी। इस विषय पर पूरा का पूरा काव्यशास्त्र पड़ा हुआ है। लेकिन आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता बहुत दिनों से अनुभव कर रहा था। आदरणीय सलिल जी से अनुरोध किया और मैं उनका बड़ा आभारी हूँ कि उन्होंने इसका श्रीगणेश किया और हरीश जी के आज के इस उपयोगी लेख ने इस विषय की दिशा तय कर दी है।

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  10. सलिल भाई, आपको अतिथि के रूप में नहीं, इस शृंखला में आगे भी आपको कई अंक लिखने हैं। कृपया शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्णतया कमर कस लें।

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  11. मनोज जी आपका आभारी हूँ जो आपने मुझे ब्लाग से परिचित करवाया अन्यथा अभी तक मैं शायद ब्लाग से दूर ही रहता। आँच की इस शृंखला को अनवरत बनाए रखने में पूरा श्रेय आदरणीय राय जी का है। एक-दो अवसर आए जब इस शृंखला के प्रति मेरे मन में अरुचि और अन्यमनस्कता उपजने लगी थी तब उन्होंने मुझे आँच दी।

    आँच को इस सोपान तक पहुँचाने में सभी सदस्यों का सामूहिक योगदान रहा है तथापि यह सुखद संयोग है कि आँच के 100वें अँक का श्रेय मेरे हिस्से में आया। यह अनुभूति टीम की रन संख्या में शतकीय चौका ठोंकने वाले खिलाड़ी जैसी ही है।

    इस आलेख की भूमिका काफी पहले मेरे मस्तिष्क में बनी थी जब अच्छी हिन्दी पर एक पोस्ट लिखी थी, पर साहस नहीं हो पा रहा था। अभी प्रकाशित सलिल भाई के लेखों से ऊर्जा मिली और विश्वास भी बढ़ा। मैं समझता हूँ कि राय जी का अभीष्ट यह नहीं है। उनका संकेत भी समझ रहा हूँ। यह मन में था इसलिए बाहर आने दिया। आगे, आप सबकी अपेक्षाओं को पूरा करने का प्रयास करूँगा।

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  12. काव्य-भाषा के माध्यम से भाषा में अतिक्रमण के अच्छे उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इस अतिक्रमण से बचा जाना चाहिए। भाषा के व्याकरण में मन की मर्जी या प्रयोग नहीं चलते।

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