सोमवार, 16 सितंबर 2024

77. गांधीजी का खोया हुआ धन

गांधी और गांधीवाद

77. गांधीजी का खोया हुआ धन

प्रवेश

गांधीजी का राजनीतिक दर्शन इस विश्वास पर आधारित था कि समाज के लिए अगर आप भलाई चाहते हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति को त्याग करना होगा। जब परिवार दक्षिण अफ्रीका में रहता था, तो उनके बेटों को घर पर ही पढ़ाया जाता था। वह खुद को भारतीय समुदाय से अलग किए बिना लड़कों को निजी यूरोपीय स्कूलों में नहीं भेज सकते थे, लेकिन अपने सिद्धांतों के प्रति सच्चा रहते हुए, उन्होंने अपने बच्चों को नाराज़ कर दिया। बच्चों की नाराज़गी सही हो सकती है। बच्चे जब अन्य युवाओं से मिलते थे, तो वे पूछते थे कि वे किस स्कूल में पढ़ते हैं। किसी भी नेता की पहचान यह है कि वे परिवार की अवधारणा को पूरे राष्ट्र तक विस्तारित करते हैं और इसलिए गांधीजी ने अपने बच्चों के लिए कुछ खास नहीं किया।

गांधीजी का खोया हुआ धन  हरिलाल गांधी


गांधीजी के बड़े पुत्र हरिलाल गांधीजी की बड़ी पुत्री रामी बहन की पुत्री नीलम पारीख ने एक पुस्तक लिखी है, गांधीजी का खोया हुआ धन  हरिलाल गांधी। सच में, हरिलाल गांधीजी का खोया हुआ धन ही थे।

पिछले अध्याय (76. बच्चों की पढ़ाई) को थोड़ा और आगे बढ़ाया जाए। कुछ लोगों ने बच्चों की शिक्षा के प्रति गांधीजी के विचार की आलोचना करते हुए लिखा कि ‘वह गांधीजी का मूर्च्छाकाल था’, ‘उनके विचार मोहजन्य थे’, ‘यह उनके अभिमान और अज्ञान की निशानी था’, ‘यदि लड़के बैरिस्टर आदि की पदवी पाते तो क्या बुरा होता’, ‘उन्हें बच्चों के पंख काट देने का क्या अधिकार था’, ‘उन्होंने बच्चों को ऐसी स्थिति में रखा कि वे उपाधियां प्राप्त करके मनचाहा जीवन-मार्ग नहीं चुन सके’, आदि-आदि। कोई कह सकता है कि गाँधीजी को अपने विचार, अपने आदर्श अपने बेटों पर थोपने का कोई अधिकार नहीं था। हर व्यक्ति का एक स्वतंत्र अस्तित्व है और जब हरिलाल पारंपरिक स्कूली शिक्षा पाना चाहते थे या लंदन जाकर बैरिस्टरी पढ़ना चाहते थे तो उनको एक मौक़ा मिलना चाहिए था। यह भी कहा जा सकता है कि गाँधीजी ने अपने आदर्श हरिलाल पर थोपकर उनको कहीं का नहीं रखा। मगर गाँधीजी अपने किसी भी बच्चे को वह काम करने की अनुमति कैसे दे सकते थे जिसके ख़िलाफ़ वह ख़ुद दुनिया भर में प्रचार करते थे। गांधीजी स्वयं अपनी आत्मकथा’ में लिखते हैंयद्यपि मैं उन्हें जितना चाहता था उतना अक्षर-ज्ञान नहीं दे सका, तो भी अपने पिछले वर्षों का विचार करते समय मेरे मन में यह ख़्याल नहीं उठता कि उनके प्रति मैंने अपने धर्म का यथाशक्ति पालन नहीं किया और न मुझे उसके लिए पश्चाताप होता है। इसके विपरीत, अपने बड़े लड़के के बारे में मैं जो दुखद परिणाम देखता हूं, वह मेरे अधकचरे पूर्वकाल की प्रतिध्वनि है, ऐसा मुझे सदा लगा है।गाँधीजी मानते हैं कि अपने बेटों की शिक्षा में उनसे कोई कमी रह गई है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है, ‘मैं यदि अपने व्यस्त समय से रोज़ कम-से-कम एक घंटे का नियमित समय निकालकर बेटों को किताबी शिक्षा दे पाता तो उनकी शिक्षा पूर्ण हो जाती लेकिन यह उनके और मेरे लिए भी अफ़सोस का विषय रहा है कि मैं ऐसा नहीं कर पाया। मेरे बड़े बेटे ने तो मुझसे निजी तौर और सार्वजनिक रूप से प्रेस में भी अपनी पीड़ा का इज़हार किया है लेकिन मेरे बाक़ी बच्चों ने इसे अपरिहार्य मानकर मुझे माफ़ कर दिया है।

आगे बढ़ने के पहले आत्मकथा’ में वर्णित उनके इस विचार को भी सामने रखना आवश्यक प्रतीत होता है“... सत्य का पुजारी इस प्रयोग से यह देख सके कि सत्य की आराधना उसे कहां तक ले जाती है और स्वतंत्रता देवी का उपासक देख सके कि वह देवी कैसा बलिदान चाहती है।

अपने सिद्धांतों पर टिके रहे

गांधीजी के चार बेटे थे। सबसे बड़े हरिलाल (1888-1948), दूसरे मणिलाल (1892-1956), तीसरे रामदास (1897-1969) और आखिरी देवदास (1900-1957) थे। हरिलाल और मणिलाल का जन्म उस समय हुआ जब गांधी परिवार भारत में था। अन्य दो का जन्म दक्षिण अफ्रीका में हुआ था। गांधीजी के लिए, उनके बेटे उस नये भारत के आदर्श प्रतीक थे जिसे वे बनाने का प्रयास कर रहे थे। अपने बच्चों को प्राइवेट यूरोपियन स्कूलों में भेजकर गांधीजी भारतीय समुदाय से कट जाते। इसके बदले उन्होंने यह ठीक समझा कि अपने सिद्धांतों पर टिके रहें, भले ही उनके बच्चे इससे नाराज़ हो जाएँ। गांधी वह भावुक पिता नहीं थे, जैसा कि हम आम तौर पर देखते हैं। उनके लिए जिन मूल्यों पर उनका विश्वास था, वे किसी भी चीज़ से ज़्यादा महत्वपूर्ण थे। उनके लिए, जीवन सत्य के साथ एक प्रयोग मात्र है। इस प्रकार, उन्होंने अपने बच्चों को अपने द्वारा अपनाए गए सिद्धांत का पालन करने के लिए पाला, जिसकी उन्होंने दुनिया को सिफारिश की। एक नेता का यही तो लक्षण है कि वह परिवार का दायरा इतना बढ़ा दे कि सारा देश उसमें समा जाए और इसीलिए वे अपने बच्चों के लिए अलग से कुछ नहीं करते।

पिता और पुत्र के बीच में तनाव

लेकिन हरिलाल के लिए यह एक सपने के टूटने के समान था और उन्हें लगा कि गाँधीजी एक आदर्श पिता की भूमिका नहीं निभा रहे हैं। जब गाँधीजी दक्षिण अफ़्रीका गए तो वहाँ उन्होंने बैरिस्टर के रूप में काफ़ी कामयाबी पाई और हरिलाल ने भी लंबे समय तक वे अच्छे दिन देखे। गांधीजी के व्यक्तित्व में क्रांतिकारी परिवर्तन 1903 में ही हुआ। तब तक वे एक उच्च वर्गीय बैरिस्टर के रूप में सफल और शानदार जीवन जी रहे थे। लेकिन अचानक उन्होंने सब कुछ त्यागना शुरू कर दिया। वे सख्त सिद्धांतों के साथ सादा जीवन जीने लगे। लेकिन बाद में जब गाँधीजी राजनीतिक संघर्षों में जुट गए और ब्रह्मचर्य तथा ग़रीबी का जीवन अपना लिया तो हरिलाल के लिए यह एक झटके के समान था।

ऊपर के वर्णन से यह ज़ाहिर होता ही है कि पिता और पुत्र के बीच में तनाव था। हरिलाल का जन्म जून 1888 में हुआ था। नौ साल की उम्र में पिता के साथ दक्षिण अफ़्रीका 1896 में आए। 1902 में जब गांधीजी भारत से पुनः दक्षिण अफ़्रीका गये तो हरिलाल को भारत में ही छोड़ गए क्योंकि वे बम्बई के एक बोर्डिंग स्कूल, एस्प्लेनेड हाई स्कूल, की पांचवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। वह मैट्रिक की परीक्षा पास नहीं कर सके।

हरिलाल की शादी


हरिदास वखतचंद वोरा की तीन पुत्रियां थीं, बड़ी बलि बहन (जीवी बहन), मंझली गुलाब बहन और छोटी कुमुद बहन। गुलाब बहन को पुत्री की तरह गांधीजी ने गोद में खिलाया था। हरिदास भाई के साथ, हरिलाल से गुलाब के ब्याह की बात भी गांधीजी ने की थी। जब गांधीजी दक्षिण अफ़्रीका में थे तो उनके बड़े भाई लक्ष्मी दास ने गुलाब बहन के साथ शादी पक्की कर दी। बा, मणिलाल, रामदास और देवदास दक्षिण अफ़्रीका में थे, बापू के साथ। गांधीजी कम उम्र में शादी के ख़िलाफ़ थे। बा से भी सलाह नहीं ही ली गई थी। एक रूढ़िग्रस्त परिवार में पुत्रवधू से पूछने की ज़रूरत भी नहीं समझी गई। 2 मई 1906 को हरिलाल की शादी हो गई। जब गांधीजी को हरिलाल की शिक्षा में असफलता के बारे में पता चला, तो उन्होंने हरिलाल को फीनिक्स आश्रम में अपने साथ आने और अपने संघर्षों में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया। तीन महीने बाद ही हरिलाल दक्षिण अफ़्रीका चले गये। चाचा खुशालचंद से 10 पौंड की राशि उधार लेकर जोहानिसबर्ग का टिकट कटाया गया।

गांधीजी के साथ काम में जुट गए

वहां पहुंचने के बाद हरिलाल गांधीजी के साथ काम में जुट गए। बाद में वे फीनिक्स आश्रम से भी जुड़े और वहां ‘इंडियन ओपिनियन’ अखबार के दफ़्तर में काम करने लगे। उस समय तक गांधीजी ने सभी सुख-सुविधाओं का त्याग कर दिया था और बहुत ही सादगीपूर्ण जीवन जीना शुरू कर दिया था। उन्होंने अपने और अपने आस-पास के लोगों के लिए सख्त नियम बना रखे थे। अठारह वर्षीय हरिलाल इसे समझ नहीं पाए। आश्रम में गांधीजी हरिलाल के साथ दूसरों जैसा ही व्यवहार करते थे। उन्हें कोई विशेषाधिकार नहीं दिया जाता था। इससे हरिलाल आहत हो गए। हरिलाल के अनुसार, गांधीजी ने उन्हें विलासितापूर्ण जीवन जीने से वंचित कर दिया था। हरिलाल को खेत में काम करना नापसंद था। लेकिन, गांधीजी ने अंत तक इस सिद्धांत को अपनाया कि सभी को शारीरिक श्रम करना चाहिए। उन्होंने खुद को या अपने बेटों को इस नीति से मुक्त नहीं रखा।


10
 अप्रैल 1908 को गुलाब बहन ने पुत्री को जन्म दिया। रामनवमी का दिन था। बच्ची का नाम रामी बहन रखा गया। हरिलाल का विवाहित जीवन सुखद था। बाद में नौजवान दम्पती दक्षिण अफ़्रीका में फीनिक्स आश्रम में बाक़ी परिवार के साथ रहने लगे। उनमें एक सामान्य युवक की आशाएं और आकांक्षाएं भी थीं। व्यवसायिक जीवन उनका असफल रहा था। 1918 में उनका बेटा और पत्नी महामारी में चल बसे। उन्हें गहरा मानसिक आघात लगा। वे साबरमती आश्रम के आश्रम जीवन धारण नहीं कर सकते थे। उनके भाव और आचरण दुनियावी थे। उनकी तीन संतानें थीं, रामी बहन, मनु बहन और कान्ति भाई।

लंदन जाने का वजीफ़ा

हरिलाल और पिता के बीच का मतभेद दक्षिण अफ़्रीका में उपजा और कभी नहीं मिट पाया। एक घटना का वर्णन करते चलें। 1909 में गांधीजी के मित्र प्राण जीवन मेहता ने एक बेटे को वजीफ़ा देने का प्रस्ताव किया। वजीफ़ा पाने वाला लंदन जाकर शिक्षा ग्रहण करता। वह ‘ग़रीबी का व्रत’ लेता और शिक्षा पूरी करने के बाद फीनिक्स में सेवा करता। श्री मेहता ने कहा था, “हरिलाल अब बड़ा हो गया है। उसे मेरे पास लंदन भेज दीजिए। किन्तु, इस सम्मान के लिए छगनलाल गांधी (गांधीजी के काका जीवण चंद्र के पुत्र खुशाल चंद के पुत्र) को चुना गया। गांधीजी ने उन्हें दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय का सबसे योग्य युवा व्यक्ति पाया। वे बीमार पड़ गये और शिक्षा पूरी किए बगैर लौट आए। इस वजीफ़े के लिए अगले विद्यार्थी के तौर पर सोराबजी शापुरजी अडाजानिया को चुना गया। हरिलाल को इस बार भी छोड़ दिया गया। यही उनकी कटुता का कारण बना। यह कटुता ता-उम्र बनी रही। हरिलाल को शिक्षा की लालसा थी और उससे उन्हें वंचित कर दिया जाना जीवन भर सालता रहा। हरिलाल ने प्रतिक्रिया में दक्षिण अफ़्रीका छोड़ दिया। घटना से विचलित होकर बा ने कहा, “क्या वह अपने बेटों को अशिक्षित रखना चाहते हैं? क्या वह चाहते हैं कि वे लंगोटी पहन कर ज़िंदगी गुज़ारें?” पर गांधीजी के लिए, उनके बेटे उस नये भारत के आदर्श प्रतीक थे जिसे वे बनाने का प्रयास कर रहे थे।

एक सत्याग्रही के रूप में

बुद्धिमान, संवेदनशील और होनहार हरिलाल ने व्यस्क जीवन एक सत्याग्रही के रूप में आरंभ किया। गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन में भी हरिलाल ने ज़ोर-शोर से भाग लिया। वहां उन्हें सब ‘नाना गांधी’ या ‘छोटे गांधी’ के रूप में पहचानते थे। नवंबर 1908 में उनकी गिरफ़्तारी भी हुई। छह महीने जेल में रहे। 1908 से 1910 के बीच छह बार दक्षिण अफ़्रीका में जेल गए और एक बार भारत में जेल गये। गांधीजी की पहली जेलयात्रा 10 जनवरी 1908 को ‘काला क़ानून’ भंग करने के जुर्म में हुई थी। हरिलाल 27 जुलाई 1908 को जेल गये। गांधीजी ने उन्हें आदर्श सत्याग्रही कहा था। उनके अनासक्त रहने की प्रशंसा भी की थी। फिर भी दोनों में मतभेद था। हरिलाल कहते हैंहमारे वर्षों के इस मतभेद का मुख्य कारण हमारे शिक्षा संबंधी विचार हैं।

गांधीजी हरिलाल और अपने अन्य तीनों पुत्रों की परवरिश सामान्य पिता की तरह कर सकते थे। लेकिन प्रश्न है कि वे क्या ‘हिन्द स्वराज’, ‘सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा’ और ‘अनासक्तियोग’ गांधी हो सकते थे? क्या वे हमारे ‘राष्ट्रपिता’ हो सकते थे? सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन और हितों के बीच एक अपरिहार्य अंतर्विरोध है। (डॉ. योगेन्द्र पाल आनन्द, निदेशक, राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय)

प्रारब्ध के आगे सारी कोशिशें बेकार

गांधीजी चाहते थे कि हरिलाल उनकी विरासत संभालें। हरिलाल के विकास के लिए उन्होंने काफ़ी कोशिशें की। वे चाहते थे कि हरिलाल उनके सेक्रेटरी बनें। लेकिन प्रारब्ध के आगे सारी कोशिशें बेकार हो जाती हैं। हरिलाल की नतनी नीलम पारीख लिखती हैंलेकिन ईश्वर का दिया धन (हरिलाल) गांधीजी ने एक हाथ से खो दिया तो उसी ईश्वर ने दूसरे हाथ में अनेक युवकों को  पुत्रों को दे दिया।

हरिलाल के मन में असंतोष


हरिलाल के मन में असंतोष था। जब शादी हुई तो गांधीजी ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। दक्षिण अफ़्रीका में पढ़ाई के लिए उदासीनता दिखाई। गुलाब बहन जब भारत जातीं तो पहुंचाने के लिए साथ जाना चाहते थे। गांधीजी आर्थिक दृष्टि से स्वीकार नहीं कर पाते। तंग आकर पिता का घर छोड़कर चले जाने का निश्चय किया। पर मूल कारण तो पढ़ाई की उत्कंठा ही थी। हरिलाल ब्रिटेन जाकर बैरिस्टर बनना चाहते थे। उन्होंने गांधीजी से आर्थिक सहायता मांगी। हरिलाल के पास इसके लिए आवश्यक बुनियादी शिक्षा नहीं थी - उन्होंने मैट्रिकुलेशन परीक्षा कभी पास नहीं की। 1910 तक गांधीजी ने अपनी भौतिक आवश्यकताओं के लिए काम करना पूरी तरह से बंद कर दिया था। उन्होंने एक तपस्वी का जीवन जीना शुरू कर दिया था। वे नेटाल इंडियन कांग्रेस के लिए काम करते थे, जहाँ उन्हें बहुत कम वेतन मिलता था। इसलिए वे हरिलाल की कोई आर्थिक मदद नहीं कर सकते थे। इसलिए, हरिलाल ने सभी पारिवारिक संबंध तोड़ दिए। 10 फरवरी 1911 को भारत में पुत्र कान्तिभाई का जन्म हुआ। वे भारत जाने को उत्सुक हो गये थे। 8 मई 1911 को कुछ चीज़ें बटोरकर, जिसमें गांधीजी की एक तस्वीर भी थी, चुपके से बिना किसी को बताए जोहानिसबर्ग से निकल गये। 17 मई को रेलवे स्टेशन पर विदा देते हुए गांधीजी ने कहाबाप ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा हो, ऐसा लगे तो उसे माफ़ करना।


वातावरण ग़मगीन था। गाड़ी चल पड़ी थी। बोझिल मन से पिता-पुत्र अलग हुए थे। 1911 में इस भावना के अधीन कि गांधीजी उनकी पढ़ाई और भविष्य का ध्यान नहीं कर रहे, हरिलाल भारत चले आए। इस तरह 1911 में 23 साल की उम्र में हरिलाल ने परिवार से नाता तोड़ लिया। पाँच साल पहले उन्होंने पिता की इच्छा के विरुद्ध शादी कर ली थी और उनके पाँच बच्चे थे। इनमें से दो बच्चों की कम उम्र में ही मौत हो गई। घरबार चलाने के लिए उन्होंने कई काम किए, बिज़नेस भी किया लेकिन कहीं भी कामयाब नहीं हुए। नौकरी की तो वहाँ ग़बन का मामला पकड़ा गया, बिज़नेस किया तो कंपनी ही डूब गई और साथ ही कई लोगों का पैसा भी डूब गया। 

साबरमती आश्रम के दिनों में हरिलाल ने स्वीकार किया था कि उनसे ग़लतियां हुईं। भविष्य में वे अपने पिता की इच्छा के अनुसार व्यवहार करेंगे। उन्होंने एक गांव में रहकर शेष जीवन उनकी सेवा में बिता देने का संकल्प लिया। गांधीजी यह जानकर काफ़ी ख़ुश हुए और बोलेतब तो मैं तुम्हारी गोद में दम तोड़ूंगा। लेकिन ऐसी स्थिति ज़्यादा दिनों तक नहीं बनी रही। (यह किस्सा फिर कभी)

उस दिन को याद करती नीलम पारीख लिखती हैं,

देश सेवा की तपश्चर्या के अंश के रूप में गांधीजी ने पुत्र की आहुति दी!

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 


रविवार, 15 सितंबर 2024

76. बच्चों की पढ़ाई

 गांधी और गांधीवाद

76. बच्चों की पढ़ाई

बीच ग्रोव विला में रहने आ गये

गांधीजी, कस्तूरबाई, उनके साथ दस साल के उनके भांजे गोकुलदास, नौ साल के उनके बड़े बेटे हरिदास और पांच साल के दूसरे बेटे मणिदास सब बीच ग्रोव विला में रहने आ गये थे। यह मकान शहर से बाहर अच्छे मध्यवर्गीय लोगों के मोहल्ले में था। दोमंज़िला घर था, जिसमें कुल आठ कमरे थे। सामने लोहे का गेट था। जिसके सामने एक छोटा बगीचा था और पीछे एक बड़ा बगीचा था। एक बड़ा सा बरामदा था और बालकनी का रुख समुद्र की तरफ़ था। ऊपर से नीचे जाने के लिए यूरोपीय पद्धति की सीढ़ी थी। पहली मंजिल तक जाने वाली बाहरी सीढ़ियाँ भी थीं। व्यापारियों के लिए एक साइड प्रवेश द्वार था एक मात्र बाथरूम नीचे की मंजिल पर था, और तदनुसार ऊपर के प्रत्येक बेडरूम में चैंबर पॉट्स प्रदान किए गए थे। कालीन लगे मेहमान कक्ष में सोफ़े लगे हुए थे। बड़ी-सी आराम कुर्सी भी थी। पुस्तक रखने की आलमारी में तरह-तरह की पुस्तकें थीं। टॉल्स्टॉय, बाइबल, क़ुरान, शाकाहार की पुस्तकें और न जाने क्या-क्या? भोजन कक्ष में आयताकार टेबुल था जिसके चारों ओर आठ कुर्सियां लगी थीं। लेकिन राजकोट की तरह आंगन नहीं था। तुलसी का पेड़ नहीं था। रसोई घर में बैठकर खाना बनाने की सुविधा नहीं थी। खड़े-खड़े खाना बनाने में कस्तूरबाई को काफ़ी दिक़्कतों का सामना करना पड़ता था। महीनों से बन्द कमरों में धूल गर्द भर गये थे। उन्हें ठीक करने में बा की तो जान ही निकल गई। कोई पूजा घर नहीं था। उन्होंने उसका भी इंतज़ाम किया। सब कुछ कर लेने के बाद भी एक कमी तो सताती ही थी। आराम के समय राजकोट की तरह गप-शप करने के लिए लोग नहीं थे।

गांधीजी का दैनिक कार्यक्रम

गांधीजी ने बीच ग्रोव विला में रहना जारी रखा, लेकिन उनका कानूनी कार्य अब 14, मर्करी लेन में चल रहा था, जो नेटाल मर्करी कार्यालय और मुद्रण कारखाने के सामने था, जहां उन्होंने 1897 में प्रदर्शन के बाद अपना कार्यालय स्थानांतरित कर दिया था। बीच ग्रोव विला में जीवन सरल था। दिन की शुरुआत जल्दी होती थी। स्नान और प्रार्थना के बाद, गांधीजी पिछवाड़े में क्षैतिज सलाखों (horizontal bars) पर थोड़ा व्यायाम करते थे। नाश्ते के बाद वे ड्राइंग रूम में बैठते थे। पौने नौ बजे, विंसेंट लॉरेंस के साथ, वे सेंट्रल पुलिस स्टेशन के सामने वेस्ट स्ट्रीट में कानून की अदालतों के लिए निकल जाते थे। शाम को 5 बजे घर लौटते, स्नान और जलपान के बाद वे कुछ देर के लिए दैनिक समाचार पत्रों का अवलोकन करते और फिर कस्तूरबाई के साथ शाम की सैर पर निकल जाते। विंसेंट लॉरेंस बच्चों, गोकुलदास, हरिलाल और मणिलाल को शाम की सैर के लिए बाहर ले जाते थे। प्रमुख भारतीय व्यापारी और कुछ यूरोपीय लोग शाम को यहां आते थे और कभी-कभी रात के खाने के लिए रुकते थे। क्लर्कों सहित सभी लोग आयताकार डाइनिंग टेबल पर एक साथ खाना खाते थे, सिवाय कस्तूरबाई के, जो अक्सर अलग खाना खाती थीं। टेबल पर सेवा पश्चिमी शैली में थी। औपचारिक अवसरों पर कस्तूरबाई, पारसी शैली में बेदाग कपड़े पहनती थीं, और खाना परोसती थीं। बच्चे अंग्रेजी कपड़े पहनते थे। एक गुजराती हिंदू रसोइया रसोई का प्रभारी था। मेनू पूरी तरह से शाकाहारी होता था।

बच्चों को कहां पढ़ाया जाए

गांधीजी कभी भी इस सिद्धांत से सहमत नहीं हुए, जिसे वे एक प्रकार का अंधविश्वास मानते थे, कि बच्चे को अपने जीवन के पहले पांच वर्षों में सीखने के लिए कुछ नहीं होता। इसके विपरीत, तथ्य यह है कि बच्चा अपने जीवन के बाद कभी भी वह नहीं सीख पाता जो वह अपने पहले पाँच वर्षों में सीखता है। बच्चे की शिक्षा गर्भाधान से शुरू होती है। बाद के जीवन में उनके इस विश्वास को ‘बेसिक एजुकेशन’ की उनकी योजना में अभिव्यक्ति मिली, जो एक व्यक्ति के जीवन के पूरे दायरे को कवर करती है - ‘गर्भाधान से लेकर अंतिम संस्कार तक’। बचपन से ही गांधीजी अपने माता-पिता के बहुत बड़े प्रशंसक थे। वे उनके पवित्रतम विचारों के केंद्र थे, उनकी गहरी प्रेरणा के स्रोत थे, उनके सबसे ऊंचे प्रयासों का उद्देश्य थे। उनके प्रति अपने ऋण को चुकाने का एकमात्र तरीका यह था कि वे अपने बच्चों के लिए एक आदर्श माता-पिता बनें। गांधीजी ने बच्चों की शिक्षा के लिए कई प्रयोग किए जिनकी शुरुआत अपने घर से ही की। जब व्यवस्थित हुए तो सबसे बड़ी समस्या थी कि बच्चों को कहां पढ़ाया जाए। उन दिनों डरबन में हिंदी बच्चों के लिए शिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं थी। नेटाल में लगभग पच्चीस स्कूल थे, जिनमें लगभग 2,000 विद्यार्थी पढ़ते थे, और ये स्कूल विशेष रूप से गिरमिटिया भारतीयों के बच्चों की शिक्षा के लिए थे। ये इमारतें बहुत ही आदिम किस्म की झुग्गियाँ थीं, जिन्हें कुछ नालीदार चादरों और कुछ तख्तों से बनाया गया था, और इनमें फर्श नहीं था। विद्यार्थी, सबसे गरीब भारतीय वर्ग से थे, इसलिए वे खराब कपड़े पहने रहते थे। परिणामस्वरूप, भारतीय समुदाय का समृद्ध वर्ग जैसे क्लर्क, दुभाषिए और दुकानदार अपने बच्चों को इन स्कूलों में नहीं भेजते थे। गांधीजी के सामने बच्चों की शिक्षा के लिए दो विकल्प थे। एक वे बच्चों को गोरों के लिए चलाये जा रहे स्कूल में भेज तो सकते थे, पर यह मेहरबानी होती, जो उन्हें पसंद नहीं थी। वह नेटाल बार के एक प्रमुख सदस्य और भारतीय समुदाय के नेता थे। वहां तो कोई भारतीय बालक पढ़ सकते नहीं थे। कौम के आम बच्चे जिस सुविधा से वंचित रहे, वहां अपने बच्चों के लिए विशेष व्यवस्था का उपयोग करना गांधीजी को अनुचित लगा। दूसरा भारतीय बालकों के लिए ईसाई मिशन के स्कूल थे। पर उन्हें वहां भेजने को गांधीजी तैयार नहीं थे। वहां दी जाने वाली शिक्षा गांधीजी को पसंद नहीं थी। मिशनरी स्कूल में प्रवेश तो आसान था लेकिन वहाँ हिंदी और गुजराती में पढ़ाई ठीक से नहीं हो सकती थी। उन्होंने शिद्दत के साथ यह महसूस किया कि भारतीय बच्चों और विशेष रूप से ग्रामीण बच्चों के लिए अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजों द्वारा प्रायोजित शिक्षा सही नहीं है। उनका दृढ़ विश्वास था कि ईसाई मिशनरी स्कूलों में पढ़े बच्चों में राष्ट्र-प्रेम या समाज-सेवा की भावना की कमी होती है। गुजराती माध्यम से पढ़ाई तो वहां मिलने से रही। माध्यम तो अँग्रेज़ी ही थी। गांधीजी ने अपने बच्चों को यूरोपीय स्कूल में नहीं पढ़ाया। इसलिए गांधीजी ने बच्चों की पढ़ाई घर पर रहकर अपनी तरह से कराने का तीसरा विकल्प चुना। वे खुद ही बच्चों को पढ़ाने की कोशिश करते। बच्चों को अपने साथ दफ़्तर ले जाते और रास्ते में उनसे बातें करते और शिक्षा देते जाते। उनके विचार में बच्चों के लिए यही अच्छी शिक्षा थी। लेकिन अपनी अन्य व्यस्तताओं के चलते वह भी नियमित रूप से न हो पाता।

बच्चे कभी स्कूल नहीं गये

वह चाहते थे एक अच्छा गुजराती शिक्षक जो घर में रहकर उनके निर्देशों के अनुसार उन्हें पढ़ाए, लेकिन ऐसा कोई गुजराती शिक्षक उपलब्ध नहीं था। ऐसे में तो काम चलने वाला नहीं था। गांधीजी ने एक अँग्रेज़ी शिक्षक का विज्ञापन दिया। एक अंग्रेज़ महिला मिली। 7 पौण्ड प्रति माह पर उसने पढ़ाना शुरु किया। गांधीजी स्वयं बच्चों से गुजराती में ही बातचीत किया करते थे। आसपास अंग्रेज़ी का माहौल था, अतः बच्चे खेल-कूद में ही अंग्रेज़ी सीख गये। गांधीजी का मानना था कि छोटे बच्चों को मां-बाप के साथ ही रहना चाहिए, इसलिए उन्हें भारत भेजने का तो सवाल ही नहीं था। बाद के दिनों में हरिदास व्यस्क होने पर, अपनी इच्छा से अहमदाबाद के हाई स्कूल में पढ़ने के लिए दक्षिण अफ़्रीका छोड़कर भारत चले आए। गोकुलदास की शिक्षा वहीं हुई और इससे गांधीजी काफ़ी संतुष्ट थे। दुर्भाग्यवश, भरी जवानी में कुछ ही दिनों की बीमारी के बाद, उनका देहान्त हो गया। गांधीजी के बाक़ी के तीन बच्चे कभी स्कूल में नहीं गये। सत्याग्रह के दिनों में उन्होंने एक स्कूल खोला था। इन बच्चों ने इसी में थोड़ी-बहुत नियमित शिक्षा प्राप्त की। औपचारिक शिक्षा के लाभ से वंचित, वे सभी अपनी जन्मजात क्षमता के अनुसार जीवन में आगे बढ़े। एक समय ऐसा भी आया जब वे अपने भाग्य से असंतुष्ट थे और उन लोगों से ईर्ष्या करते थे जिन्हें वह मिला था जो उन्हें नहीं मिला था। लेकिन समय के साथ उन्होंने उस भावना को पूरी तरह त्याग दिया और जो कुछ उन्होंने खो दिया था उसके बदले में जो कुछ उन्होंने प्राप्त किया था, उसके महत्व की सराहना करना सीख लिया।

बच्चों की शिकायत

बड़ी ही विकट स्थिति थी। बच्चों को जो शिक्षा गांधीजी देना चाहते थे, दे नहीं पाए। इसका परिणाम यह हुआ कि बच्चों को कोई औपचारिक शिक्षा नहीं मिली और हालाँकि गांधीजी अक्सर उन्हें स्कूल न भेजने के लिए अपना बचाव करते थे, लेकिन उन्हें इस बात का अस्पष्ट एहसास था कि उन्होंने बच्चों को बहुत बड़ा नुकसान पहुँचाया है; और उनके सभी बेटों को लगता था कि उनके द्वारा उनके साथ बुरा व्यवहार किया गया है। बच्चों की हमेशा उनसे शिकायत रही। गांधीजी ने खुद स्वीकार किया है कि बाद में उनके बच्चे उनके फैसले से खुश नहीं थे। व्यवस्थित शिक्षण के अभाव का क्षोभ चारों बच्चों के मन में जीवन भर बना रहा। डिग्री के अभाव में ऐसे बच्चों का एक तरह की हीन भावना से ग्रसित होना स्वाभाविक था। लेकिन गांधीजी का दृढ़ मत था कि गुलाम क्लर्क पैदा करने वाली अंग्रेजी शिक्षा और केवल अक्षर ज्ञान सार्थक जीवन के लिए नाकाफी है। फिर भी गांधीजी और कस्तूरबाई के सान्निध्य में उन्हें काफ़ी अनुभव-ज्ञान प्राप्त होता रहा। उन्होंने सेवा भाव सीखा। सादगी सीखी। स्वतंत्रता के पाठ पढ़े। देश कार्य सीखा। मनुष्यता सीखी। हो सकता है गांधीजी उन्हें अपने से दूर रखकर अक्षर-ज्ञान दे सकते थे, किन्तु उस दशा में स्वतंत्रता और स्वाभिमान का जो पाठ उन्होंने सीखा वह न सीख पाते। मां-बाप के सादगीपूर्ण जीवन से ये चारों बच्चे भी मेहनती, देश-प्रेमी और सेवा भावी बन गये। बच्चे संस्कारी, नम्र और समझदार बने। गांधीजी व्यक्ति  को संस्कारित करने और स्वरोजगार में सक्षम बनाने वाली शिक्षा के पक्षधर थे। गांधीजी तो न्यायनीति के उपासक थे, उन्हें सत्य की साधना करनी थी, न कि बच्चों को ऐश्वर्यशाली बनाना था। बच्चों ने कोई डिग्री भले ही न पाई हो, किन्तु उनका आभिजात्य और निर्भयता, सदाचार, सेवा भाव और सच्चरित्र उच्च कोटि का था। वे स्वावलंबी, स्वाभिमानी और न्यायप्रिय थे। कभी किसी हस्ती से नहीं डरे। अन्याय का प्रतिकार करने में उन्होंने कोई कमी नहीं की। कालांतर में गांधीजी ने इसी तरह की संस्कारित करने और आत्म निर्भर बनाने वाली शिक्षा के कई प्रयोग अपने अफ्रीका और भारत के आश्रमों और चांपारन के आंदोलन के दौरान वहां के पिछड़े इलाके में भी किये।

उपसंहार

अपने बच्चों के साथ शिक्षा के लिए प्रयोग के बारे में गांधीजी कहते हैं, सत्य का पुजारी इस प्रयोग से यह देख सके कि सत्य की आराधना उसे कहाँ तक ले जाती है, और स्वतंत्रता देवी का उपासक दखे सके कि वह देवी कैसी बलिदान चाहती है। बालकों को अपने साथ रखते हुए भी यदि मैंने स्वाभिमान का त्याग किया होता, दूसरे बालक जिसे न पा सके उसकी अपने बालकों के लिए इच्छा न रखने के विचार का पोषण न किया होता, तो मैं अपने बालकों को अक्षर ज्ञान अवश्य दे सकता था। किन्तु उस दशा में स्वतंत्रता और स्वाभिमान का जो पदार्थ पाठ वे सीखे वह न सीख पाते। और जहाँ स्वतंत्रता तथा अक्षर-ज्ञान के बीच ही चुनाव करना हो तो वहाँ कौन कहेगा कि स्वतंत्रता अक्षर-ज्ञान से हजार गुनी अधिक अच्छी नहीं हैं? सन्1920 में जिन नौजवानों को मैंने स्वतंत्रता-घातक स्कूलों और कॉलेजों को छोडने के लिए आमंत्रित किया था, और जिनसे मैंने कहा था कि स्वतंत्रता के लिए निरक्षर रहकर आम रास्ते पर गिट्टी फोड़ना गुलामी में रहकर अक्षर-ज्ञान प्राप्त करने से कहीं अच्छा हैं, वो अब मेरे कथन के मर्म को कदाचित  समझ सकेंगे।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

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