राष्ट्रीय आन्दोलन
386.
लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन, 1936
1936
अप्रैल 1936 की लखनऊ कांग्रेस जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुई। तब तक कांग्रेस पचास साल की हो चली थी। यह
कांग्रेस का पचासवां अधिवेशन था। थोड़े दिनों पहले 28 फरवरी को अध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू की
जीवनसंगिनी कमला नेहरू का महज 36 साल की उम्र में देहांत हो गया था और नेहरू उनके शोक से
संतप्त थे। गांधीजी लखनऊ गए तो ज़रूर, पर उन्होंने अधिवेशन में भाग नहीं लिया। राजगोपालाचारी
व अन्य दक्षिणपंथी नेताओं के दबाव के बावज़ूद गांधीजी ने अध्यक्ष पद के लिए नेहरू
का समर्थन करके वामपंथी खेमे को ख़ुश किया। अप्रैल में लखनऊ में हुए कांग्रेस के
सालाना सेशन में नेहरू का भाषण समाजवादी मकसदों की घोषणा, फासीवाद
के खिलाफ दुनिया भर में हो रहे संघर्ष के संदर्भ में भारतीय संघर्ष पर ध्यान
केन्द्रीत करने और सभी साम्राज्यविरोधी ताकतों के एक बड़े मोर्चे की मांग के लिए
यादगार था, जिसमें मजदूरों और किसानों को कांग्रेस में
मुख्य रूप से मौजूद माध्यम वर्गीय लोगों के साथ एकजुट किया गया। नेहरू ने कहा कि
वह समाजवादी थे, क्योंकि सिर्फ़ समाजवाद से ही, जिसमें बड़े और क्रांतिकारी बदलाव शामिल हों, भारत और दुनिया की समस्याओं का हल हो सकता है। इस
अधिवेशन में नेहरू ने घोषणा की कि कांग्रेस वैज्ञानिक समाजवाद को अपना लक्ष्य
स्वीकार करे। भारत की समस्याओं के समाधान की एकमात्र कुंजी यही है।
नेहरू के अनुसार कांग्रेस का पहला मकसद आज़ादी थी, जिसके लिए सभी कांग्रेसियों को, चाहे सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर उनकी राय
कुछ भी हो, एक साथ खड़ा होना चाहिए। नेहरू ने एक जुझारू
कार्यक्रम के आधार पर चुनाव लड़ने की, पदों को अस्वीकार करने की और व्यस्क मताधिकार
पर आधारित संविधान सभा के नारे को अपनाने की हिमायत की। उन्होंने आगाह किया कि यह
सब अर्ध-क्रांतिकारी स्थिति में ही संभव है। उन्होंने कहा कांग्रेस को एक वास्तविक
साम्राज्यवादी विरोधी ‘संयुक्त-जन-मोरचा’ बनाया जाएगा। उन्होंने मौजूदा स्थिति की
कमजोरी की खुलकर आलोचना की और कहा: "हमने आम लोगों से काफी हद तक संपर्क खो
दिया है। कांग्रेस की मेंबरशिप पांच लाख से भी कम थी।" इस दिशा में आगे बढ़ने
के लिए ट्रेड यूनियनों एवं किसान सभाओं को कांग्रेस में ‘सामूहिक सदस्यता’ दी
जाएगी। इस तरह वह मज़दूर वर्ग के निकट आए।
अधिवेशन में नेहरू ने कहा कि जब इंडिया एक्ट का प्रांतीय
हिस्सा लागू होगा, तो कांग्रेस को विधानमंडलों के चुनाव ज़रूर
लड़ने चाहिए, लेकिन किसी भी हालत में कांग्रेस के लोगों को
ऑफिस नहीं लेना चाहिए। उन्होंने कहा, "एक्ट
की शर्तों के तहत अधिकार और मंत्रालय न लेना, इसे
नकारने का एक तरीका है। बिना पावर के ज़िम्मेदारी लेना हमेशा खतरनाक होता
है।"
भाषण खत्म करते हुए, नेहरू
ने गांधी का ज़िक्र किया: "मुश्किल, तूफ़ान
और तनाव के इस समय में, ज़ाहिर
है हमारा दिल और दिमाग हमारे महान नेता की ओर मुड़ता है जिन्होंने इतने सालों तक
अपनी ज़बरदस्त व्यक्तित्व से हमें निर्देशित किया है और प्रेरित किया है। शारीरिक
अस्वस्थता उन्हें अब सार्वजनिक गतिविधियों में पूरा हिस्सा लेने से रोकती है।
हमारी दुआएं उनके जल्दी और पूरी तरह ठीक होने के लिए हैं, और
उन दुआओं के साथ उन्हें फिर से हमारे बीच वापस लाने की स्वार्थी इच्छा भी है। हम
पहले भी उनसे अलग राय रखते थे और आगे भी कई बातों पर उनसे अलग राय रखेंगे, और यह सही है कि हममें से हर एक को उनके
विश्वासों के अनुसार काम करना चाहिए। लेकिन जो रिश्ते हमें एक साथ रखते हैं, वे हमारे मतभेदों से ज़्यादा मज़बूत और ज़रूरी
हैं, और जो वादे हमने साथ में किए थे, वे आज भी हमारे कानों में गूंजते हैं। हममें से
कितनों में भारत की आज़ादी और हमारे गरीब लोगों को ऊपर उठाने की वह ज़बरदस्त इच्छा
है जो उन्हें खा जाती है? कई
बातें जो उन्होंने हमें बहुत साल पहले सिखाई थीं——निडरता और अनुशासन। और बड़े मकसद
के लिए खुद को कुर्बान करने की इच्छा। वह सबक भले ही धुंधला हो गया हो, लेकिन हम उसे नहीं भूले हैं, और न ही हम उसे कभी भूल सकते हैं, जिसने हमें वह बनाया है जो हम हैं और भारत को
फिर से गर्त से ऊपर उठाया है। आज़ादी का जो वादा हमने मिलकर लिया था, उसे अभी भी पूरा करना बाकी है, और हम फिर से उसका इंतज़ार कर रहे हैं कि वह
अपनी समझदारी भरी सलाह से हमें रास्ता दिखाए। लेकिन कोई भी नेता, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, अकेले यह बोझ नहीं उठा सकता; हम सभी को इसे अपनी पूरी क्षमता से बांटना
चाहिए और चमत्कार करने के लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।"
कांग्रेस के बाहर रहने वाले उदारवादी और दक्षिणपंथी समूह दिनोदिन
अपनी प्रतिष्ठा खोते जा रहे थे। मालवीय और उनकी कांग्रेस नेशनलिस्ट पार्टी का
प्रदर्शन 1934 के चुनावों में निराशाजनक रहा। वे संयुक्त प्रांत की आठों
असेंबली सीटें हार गए। एक अखिल भारतीय मुस्लिम पार्लियामेंट्री बोर्ड के माध्यम से
मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित करने के जिन्ना के प्रयास भी असफल रहे। फिर भी इस साल
जो महत्वपूर्ण घटनाक्रम था वह था कांग्रेस के भीतर दक्षिणपंथियों की स्थिति का
मज़बूत होना। ये गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रमों को ज़ारी रखे हुए थे और इस कारण
उनका राष्ट्रीय आंदोलन पर वर्चस्व बना रहा। रचनात्मक काम और शांतिपूर्ण सत्याग्रह
की दोहरी नीति इन दक्षिणपंथियों के लिए सफल रही। गांधीजी कांग्रेस से अवकाश ग्रहण
कर चुके थे। वे अपने ग्रामीण कामों में लगे हुए थे।
लखनऊ अधिवेशन के बाद नेहरू के
समाजवादी रुख के कारण वर्किंग कमेटी के सात सदस्यों ने त्यागपत्र देने की धमकी
दी। राजेन्द्रप्रसाद, राजगोपालाचारी और
कृपलानी ने गांधीजी के वर्धा आश्रम में बैठकर अपने विरोध का मसौदा तैयार किया था।
उस समय तो गांधीजी ने इनके बीच सुलह करा दी। सदा की तरह नेहरूजी झुके थे। जन
संपर्क समिति की योजना को बदल दिया गया और जयप्रकाश नारायण के प्रभाव को संतुलित
करने के लिए राजेन्द्र प्रसाद को भी उस समिति में डाल दिया गया। इस तरह श्रमिकों
और किसानों की सामूहिक सदस्यता योजना का स्वरूप ही बदल गया।
नेहरू इस अधिवेशन से थोड़े निराश भी हुए क्योंकि वह कांग्रेस
की भावी योजनाओं में समाजवादी दृष्टिकोण का जितना समावेश करना चाहते थे, सरदार वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद और राजा जी के रहते नहीं कर
सके। वर्किंग कमेटी ने जवाहरलाल नेहरू के प्रस्तावित ज़्यादातर प्रस्तावों को अपना
लिया। मज़दूरों और किसानों के संगठनों को एक साथ लाने का उनका प्रस्ताव नहीं माना
गया। ऑफिस स्वीकार करने के सवाल को कांग्रेस
ने इसे सही समय पर A.I.C.C.
द्वारा तय करने के लिए छोड़
दिया। कांग्रेस की कार्यवाही के नतीजे से यह साबित हुआ कि ज़्यादातर लोगों ने पुराने
नेतृत्व को पूरा समर्थन दिया। वर्किंग कमेटी बनने से नेहरू और भी परेशान हुए। सैद्धांतिक
रूप से कमेटी को प्रेसिडेंट को नामित करना था, लेकिन वह कांग्रेस की ज़्यादातर राय को अवहेलना
नहीं कर सकते थे। नेहरू ने शुरू में ही इस्तीफ़ा दे दिया था, लेकिन उन्हें बने रहने और आगे बढ़ने के लिए मना
लिया गया। नेहरू ने वर्किंग कमेटी के लिए दूसरों के अलावा समाजवादी विचारधारा वाले
सुभाष बोस, नरेंद्र देव, जयप्रकाश
नारायण और अच्युत पटवर्धन को चुना।
इस अधिवेशन में महात्मा गांधी की यह चाह भी मुखर होकर सामने
आई कि चूंकि भारत गांवों का देश है, इसलिए आगे से कांग्रेस के अधिवेशन गांवों में हुआ करें। इसी
के फलस्वरूप उसका 51वां अधिवेशन महाराष्ट्र के फैजपुर गांव में आयोजित किया गया
जबकि 52वां गुजरात के सूरत जिले के हरिपुरा गांव में।
इस अधिवेशन ने दो योजनाएं निर्धारित कीं। एक, धारा सभाओं में प्रवेश की नीति अपनाकर उनके
संचालन के लिए कांग्रेस पार्लियामेंट्री बोर्ड स्थापित किया और उसे चुनाव संबंधी
घोषणापत्र तैयार करने का कार्य सौंपा। दूसरे, कांग्रेस कार्यसमिति को यह काम सौंपा कि वह देश
के किसानों की दशा उन्नत करने की एक योजना तैयार करे। 1937 के चुनावों में नेहरू
कांग्रेस के लिए सबसे ऊर्जावान और सफल प्रचारक के तौर पर उभरे, और इस तरह अपनी पार्टी के सबसे असरदार ‘वोट-कैचर’
के तौर पर उनका करियर शुरू हुआ जो लगभग तीन दशकों तक चला।
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मनोज कुमार
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