गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

आंच पर - सफ़े ज़िन्दगी के

समीक्षा
आँच-65
सफ़े ज़िन्दगी के
हरीश प्रकाश गुप्त
आँच का उद्देश्य कवि की भावभूमि की गरमाहट को पाठकों तक पहुँचाना और पाठक (समीक्षक) की अनुभूति की गरमाहट को कवि तक पहुँचाना है।
मेरा फोटोशिखा वार्ष्णेय के ब्लाग स्पंदन पर इसी माह 11 अप्रैल को खयाली मटरगश्ती शीर्षक से सम्मिलित क्षणिकाओं के रूप में एक रचना प्रकाशित हुई थी। जब मैंने इसे पढ़ा तो यह मुझे बहुत आकर्षक लगी। मैंने इसके अलग-अलग पदों को स्वतंत्र रूप में देखने के बजाए समेकित रूप में देखा तो वे सब एक सूत्र में पिरोए लगे। तब मुझे लगा कि इसका क्षणिकाएं शीर्षक कुछ दुविधामय है। मुख्य शीर्षक खयाली मटरगश्ती तो इसे कवयित्री द्वारा हल्के-पुलके अंदाज में लिखा जाना ही दर्शाता है परंतु इसकी भावभूमि की गंभीरता इस रचना की गुरुता को व्यक्त करती है। इसलिए सोचा कि क्यों न इसे ही आज की आँच का प्रतिपाद्य बनाया जाए।
भावनात्मक दृष्टि से शिखा की यह कविता बहुत ही संजीदा है जो अलगाव के पश्चात भी रिश्तों की नरमी और गरमी के अहसास से सराबोर है। ऐसा प्रायः ही घटित होता है कि दूरियां रिश्तों के आस-पास कभी बुने गए सघन ताने-बाने को बहुत नजदीक से और स्पष्ट रूप से दिखाती हैं। जिससे अन्यतम संबन्ध रहे होते हैं, उससे कुछ भी छिपा नहीं होता और एक की जिन्दगी के निजी पहलू दूसरे से इतना असम्पृक्त होते हैं कि उनका पृथक अस्तित्व देखना आसान नहीं होता। परंतु दूरियां बढ़ने पर वे होते तो वहीं आसपास ही हैं, लेकिन आत्मीयता का बंधन न होने के कारण वहीं बिखरे, अर्थात महत्वहीन ढंग से अस्त-व्यस्त पड़े होते हैं। कवयित्री ने इसे बहुत ही सुन्दर तरीके से व्यक्त किया है –
अपनी जिंदगी की
सड़क के
किनारों पर देखो
मेरी जिंदगी के
सफ़े बिखरे हुए पड़े हैं।
इस प्रेममय रिश्ते के अहर्निश साक्षी रहने वाले चाँद और सूरज के रूप में सम्पूर्ण प्रकृति इस बिखराव से उद्विग्न होती है और दोनों के मध्य संवाद रुकने से निराश होती है। ये दूरियां विपरीत चुम्बकीय ध्रुवों की भांति आकर्षण पैदा करते हुए सुख की तलाश कराती हैं। अपने साथी की सहानुभूति और संवेदना के दो शब्दों का स्मरण व उसके प्रति लगाव ठण्डे पड़ चुके रिश्तों में भी ऊष्मा का संचार करता है।
शब्दों के लिहाफ को
ओढ़े हुए पड़ी हूँ
इस ठिठुरती रूह को
कुछ तो सुकून आये।
खुशी के पलों का सुखद स्मरण विषाद को न्यून करता है। यह विषाद का इस प्रकार शमन करता है जैसे अश्रु रूपी खारे जल को बारिश का पानी बहा ले जाता है।
बारिश की बूंदों को
पलकों पे ले लिया है
आँखों के खारे पानी में
कुछ तो मिठास आये।
विप्रलम्भ जनित नीरसता के निविड़ अंधकार में कवयित्री आशान्वित है कि प्रीत का प्रकाश इस गहन तम को विलीन करके उसमें हर्ष भर सकता है।
आ चल
निशा के परदे पे
कुछ प्रीत के
तारे जड़ दें
इस घुप अँधेरे कमरे में
कुछ तो चमक आये।
जिसे हम सबसे अधिक प्रेम करते हैं, स्नेह करते हैं, उसे ही आँख की पुतलियों में बसाते हैं, क्योंकि आँख की पुतली के सदृश नाजुक, कोमल और अमूल्य अन्य दूसरा नहीं होता। वह ही गंडोला की भांति, गंडोला वेनिस शहर के जल से आप्लावित मार्गों में एक स्थान से दूसरे स्थान के पारगमन के लिए अपरिहार्य साधन के रूप में प्रचलित छोटी नौका को कहते हैं, दो सुदूर किनारों को जोड़ने वाले उपक्रम का कार्य करता है।
दो पलकों के बीच
झील में तेरा अक्स
यूँ चलता है
वेनिस की
जल गलियों में
गंडोला ज्यूँ चला हो।
यह दूरियों के बावजूद चाहत की पराकाष्ठा है। इसीलिए उसके प्रति अनिष्ट की आशंका स्वप्न में भी भयभीत करती है। प्रीत के कारण वह उसकी सुरक्षा और उसकी तकलीफ के प्रति इतनी सजग है कि अपनी पलक तक नहीं बंद करती ताकि पलक बंद करने से होने वाले अंधेरे से कहीं कहीं वह तनिक भयभीत न हो जाए।
हम
इस खौफ से
पलके नहीं बंद करते
उनमें बसा तू
कहीं अँधेरे से
डर ना जाये।
वास्तव में यह कविता विप्रलम्भ की सूक्ष्म अभिव्यक्ति है जो स्मृति पृष्ठ पलटते हुए नायक के प्रति अपने प्रेम को आवेग और संवेगों के माध्यम से व्यक्त करती है। इस अभिव्यक्ति में उपालम्भ भी है और पीड़ा भी है। उम्मीदें भी हैं और मिलन के प्रयास भी शामिल हैं। आशाएं और अपेक्षाएं भी हैं तो संबन्धों के प्रति पूर्ण निष्ठा भी है। यही तो समर्पित प्रेम के मूलभूत अवयव हैं। इस कविता का सबसे आकर्षक पहलू शायराना अंदाज में कविता को गढ़ना है। शृंगार की अभिव्यक्ति में शायरी का कोई सानी नहीं और इस कविता की शब्द योजना शेर-ओ-शायरी के बहुत करीब प्रतीत होती है लेकिन नाद में खरी नहीं उतरती। इसीलिए यह कविता पहले-पहल शायरी का भ्रम उत्पन्न करती है।
हालाकि जिस प्रकार कोई भी व्यक्ति कभी पूर्णतया निर्दोष नहीं हुआ करता उसी प्रकार कोई काव्य भी पूर्णतया निर्दोष नहीं होता। यह कविता इतनी सुगठित है तथा भावों के स्तर पर इतनी सघन है कि इसमें दोष देखना बेमानी सा लगता है। फिर भी, उत्कृष्ट काव्य की दृष्टि से बिम्ब और और प्रतीकों की पुनरावृत्ति काव्य की श्रेष्ठता में बाधक होती है और इस कविता में भी यह दोष देखने आता है। कविता में पलकें/पलकों पद का प्रयोग एकाधिक बार हुआ है। यदि इससे बचा जा सकता तो इस कविता के सौन्दर्य में और निखार आ सकता था। कविता की पंक्ति – आ / निशा के परदे पे / कुछ प्रीत के / तारे जड़ दें में कुछ प्रीत के / सितारे जड़ दें होता तो प्रवाह अधिक अच्छा हो जाता। इसी के साथ ऊपर की पंक्तियों को नीचे की पंक्तियों - इस घुप अँधेरे कमरे में - से मिला कर होना चाहिए था। क्योंकि उक्त दोनों भाग आपस में अन्विति बनाते हैं। पहले पद में प्रयुक्त शब्द सफहा अथवा सफा है जिसका अर्थ पृष्ठ होता है जबकि फ में नुक्ता लगने पर यह सफ़ा अर्थात सफ़ाई के अर्थुक्त बिम्ब, में प्रयुक्त होता है। यहाँ पर यह पृष्ठ के ही अर्थ में आया है, अतः टंकण त्रुटि प्रतीत होती है। पंक्तियां - हैं परेशान / महताब औ आफताब ये / शब्बे सहर भी / मेरे तेरे बोलो पे / टिके हैं – में “टिके हैं क्रिया प्रयोग से पद में प्रयुक्त बिम्ब अस्पष्ट और दुरूह बन गए हैं। कहीं-कहीं पर पंक्तियों को अगली पंक्ति से सम्बद्ध करते शिल्प पक्ष पर एक बार पुनः दृष्टिपात करने की आवश्यकता प्रतीत होती है। उपयुक्त शीर्षक कविता की गरिमा में वृद्धि कर सकता है। फिर भी, इस कविता में भाव सौन्दर्य बहुत ही सशक्त है और यह कविता शिखा वार्ष्णेय की काव्यगत गहन पैठ को स्पष्ट दर्शाती है।

23 टिप्‍पणियां:

  1. आंच पर शिखा जी कि यह मटरगश्ती सच ही गंभीर रूप में सामने आई है ...
    आज कि समीक्षा बहुत अच्छी लगी ...इससे वो दृष्टि मिली जो हमें दिखाई नहीं दिया था ...आभार

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  2. कौन कहता है कि ब्लॉग में साहित्य नहीं होता ....यहाँ साहित्य ही नहीं ....साहित्य की उत्कृष्ट समीक्षा भी है ......शिखा जी की जिस रचना की समीक्षा की गयी है ....वह ह्रदय को स्पर्श करती है....समीक्षा से तो ऐसा लगा कि एम. ए. की कक्षा में व्याख्यान हो रहा हो ........परिष्कृत भाषा .......निष्पक्ष समीक्षा .......कवियित्री और समीक्षक दोनों को धन्यवाद.
    किन्तु आप लोग इस तरह कहीं आदत न खराब कर दें ....५६ भोग के बाद फिर और कुछ किसे अच्छा लगेगा ?

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  3. शिखा वार्ष्णेय जी बहुत अच्छा लिखती हैं...उनकी रचना पर आपका समीक्षात्मक लेख बहुत अच्छा लगा....इस सारगर्भित लेख के लिये बहुत बहुत आभार !

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. शिखा वार्ष्णेय की कविता पर समीक्षा सराहनीय है। समीक्षा से कविता के सम्बन्ध में बारीकियां देखने को मिलीं। शब्द की स्पेलिंग में त्रुटि की महत्ता भी प्रकाश में आई। गंडोला और वेनिस शहर के बारे में नवीन जानकारी पता लगी। रचनाकार व समीक्षक दोनों के प्रति आभार,

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  6. सांच को आंच पर चढ़ाकर पकाई गयी समीक्षा पढ़कर सच में दिव्य स्वादिष्ट और गरिष्ठ भोज हुआ . इतनी गहराई में जाने के बाद ही मोती मिलते है जो की समीक्षक ने ढूंढ़ लिए है . कविता पहले भी पढ़ी थी लेकिन इतनी गहराई तक देखने की नजर के आभाव में " मै बापुरा बुडन डरा रहा किनारे बैठ ". साधुवाद कवियत्री और समीक्षक को .

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  7. कुछ तकनीकी व्यवधान के कारण टिपणियां पोस्ट करने की शिकायतें आ रहीं हैं। buzz par ek comment aaya hai
    GG Shaikh - 'मटरगश्ती' या 'निरूद्देश' भ्रमण में हल्का-पुलकापन कहाँ ...?

    "कविता की भावभूमि और गंभीरता इस रचना की गुरुता को व्यक्त करती है". इसमें कोई शक नहीं...समीक्षा में और भी बहुत सी बातें है जो 'पसंदीदा' लगे, क़ाबिले तारीफ़ है... शिखा जी की कविता में सत्व-सघन सा कलास्वरूप(forms)
    कभी-कभी उमड़ कर आता है, जो हमें चकित करता है, (और फ़िर से कहूँ) जो उनकी नई-नई पहचान हमारे आगे प्रस्तुत करता है...
    (unable to attach at "Manoj:Aanch-65)

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  8. आंच पर अपनी कविता की समीक्षा देखकर मन प्रफुल्ल हुआ . मैने तो इन मटरगश्त ख्यालों को बस सफों पर उतारा है . इस समीक्षा ने उसे वृहद् आयाम दे दिया . हरीश जी की समीक्षा पढने के बाद मुझे लगा की मेरे भावों को अब सही शब्द मिले है . उनका कोटिशः आभार.
    दोषों को सुधरने की कोशिश रहेगी.

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  9. समीक्षा सराहनीय है जी,धन्यवाद

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  10. शिखा वार्ष्णेय की क्षणिकाएं भी अच्छी थी और गुप्त जी की समीक्षा और भी अच्छी.

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  11. शिखा जी की क्षणिका और गुप्त जी की समीक्षा दोनों ही बेहतरीन.. आंच की प्रतिष्ठा हर सप्ताह बढ़ रही है...

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  12. वाकई शिखा जी की ये क्षणिकाये बहुत ही भावपूर्ण और बेहतरीन है. हरीश जी ने बहुत ही अच्छी तरह से समीक्षा भी की है.............

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  13. समीक्षा के बहाने शिखा जी रचना के बारे गम्‍भीरता से जानने को मिला। शुक्रिया।

    ---------
    भगवान के अवतारों से बचिए...
    जीवन के निचोड़ से बनते हैं फ़लसफे़।

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  14. बहुत खूब बहुत बढ़िया समीक्षा ... बधाई

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  15. sameeksha se shikha ji ki rachna ki gambheerta vistrit roop se saamne aaye. bahut acchhi sameeksha.

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  16. @ Sh. GG Shaikh जी,

    आंच पर आपका आना बहुत सुखद लगा। आपने आलेख पसंद किया इसके लिए आपका आभारी हूँ।

    आपके प्रश्न के संदर्भ में इतना कहना चाहूँगा कि प्रश्न 'मटरगश्ती' या 'निरूद्देश' भ्रमण में हल्के-पुलकेपन का नहीं है बल्कि मेरे लिखने का आशय यह था कि शिखा जी ने इस धीर गम्भीर कविता को इतने हलके पुलके अंदाज में, अर्थात बड़ी सहजता से, लिखा है। चूंकि इस कविता का भाव पक्ष बहुत सशक्त है इसलिए इसका शीर्षक यदि कविता के भावों की अभिव्यक्ति में समर्थ हो सकता तो यह कविता के गौरव में श्रीवृद्धि कर सकता था। मेरा कहना कविता की विशेषता बतलाना ही था। तथापि यह मेरे विचार मात्र हैं, साथ ही, इस कविता के और आयाम भी हो सकते हैं।

    आदर सहित,

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  17. मूल पोस्ट अपनी टिप्पणी एक नज़्म के मार्फ़त दे चुका था और फेसबुक पर मजाक में.. लेकिन यहाँ हरीश जी के लिए कहना है कि आंच पर न तो ये आंच को मद्धम होने देते हैं कि पकवान कच्चा रह जाए और न ही तेज कि जल जाए.. एक संतुलित समीक्षा ज़िंदगी के नाज़ुक सफों की...

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  18. जब शिखा वार्षणेय की खयाली मटरगश्ती शीर्षक से क्षणिकाएँ पढ़ा था, तो कविता का भाव-पक्ष बहुत ही सशक्त लगा था। इस पर समीक्षा लिखे जाने का ख्याल उसी समय मन में उठा था। हरीश जी एक कुशल समीक्षक हैं। प्रस्तुत समीक्षा में उन्होंने कविता के विभिन्न पहलुओं को अपनी कुशल तूलिका से प्रकाशित कर इसे स्पष्ट किया है। साथ ही इसके अर्थ की दिशा को आलोकित किया है, जिसके माध्यम से इसमें अन्तर्निहित अन्य अर्थों का अन्वेषण सुगम हो गया है। इसके लिए हरीश जी का आभार।

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  19. kisi bhi kavita ko main to bas ek najar me lagatar padh jata hoon, jo kabhi kabhi bahut achhhi lagti hai, to kabhi samajh se pare hota hai...
    par kisi kavita ki itni sukshhm sameeksha bhi ho sakti hai...ab jana...:)
    badhai shikha...jo tumne apne shabdo ko aaise peeroya ki hareesh jee ko usme itna kuchh dikha...!!

    sameeksha bahut saargarbhit hai..:)

    dono ko badhai...aur hamara gyanvardhan hua..:)

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  20. समीक्षा बहुत ही शानदार है... पर लिखने वाले ने लिखा भी तो शानदार है.
    आपको बधाई

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  21. "सफे जिंदगी के" - को आँच पर रखकर जो समीक्षा हरीश प्रकाश गुप्त जी ने की है,प्रशंसनीय है। उनकी पैनी दृष्ठि के कारण साहित्यिक छिद्रान्वेषण अपनी पूर्ण समग्रता में सार्थक सिद्ध होता है। इस प्रक्रिया को गरमाहट पहुंचाने वाले श्री मनोज कुमार एवं हरीश जी बधाई के पात्र हैं। दूसरे समीक्षा की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी। लगे रहो हरीश भाई।धन्यवाद।

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