रविवार, 19 फ़रवरी 2012

भारतीय काव्यशास्त्र – 100


भारतीय  काव्यशास्त्र – 100
आचार्य  परशुराम राय
    आज काव्यशास्त्र शृंखला का 100 वाँ अंक प्रस्तुत करते हुए बहुत हर्ष हो रहा है। इस शृंखला की शुरूआत करते समय एक बार विचार आया था कि यह पाठकों की रुचि के अनुरूप हो भी सकेगी अथवा नहीं। बीच-बीच में कुछ व्यवधान भी आए, परन्तु, आप सब द्वारा इसे स्वीकार करने तथा मुझे निरंतर प्रोत्साहित करते रहने के फलस्वरूप यह शृंखला आज इस पायदान तक पहुँच सकी है। इस उपलब्धि के लिए मैं आप सबका आभारी हूँ।

पिछले अंक में प्रसिद्धविरुद्धता और विद्याविरुद्धता अर्थदोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में अनवीकृत, सनियमपरिवृत्त, अनियमपरिवृत्त, विशेषपरिवृत्त और अविशेषपरिवृत्त  अर्थदोषों पर चर्चा की जाएगी।
      जहाँ  काव्य में नवीनता का अभाव हो, वहाँ अनवीकृत अर्थदोष होता है। जैसे-
 प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः  किं दत्तं  पदं शिरसि  विद्विषतां ततः  किम्।      
सन्नर्पिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं कल्पं  स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम्।।
      अर्थात् सम्पूर्ण इच्छाओं को पूरी करनेवाली सम्पत्ति मिल गयी, तो क्या हुआ? शत्रुओं के सिर पर पैर रख लिया, तो क्या हुआ? प्रियजनों को सम्पत्ति से मालामाल कर दिया, तो क्या हुआ? शरीर-धारी अपने शरीर कल्प-पर्यन्त धारण किये रहें, तो क्या हुआ? (अर्थात् आत्मज्ञान के अभाव में ये सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं।)
      यहाँ  कवि ने ततः किम् (इससे क्या हुआ) चारों चरणों में प्रयोग किया है, इसमें कोई नयी बात नहीं है। यदि यह कहा जाता कि आत्मज्ञान के बिना ये सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ हैं, तो इसमें नयी बात होती। लेकिन इस श्लोक में ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया गया है। अतएव यहाँ अनवीकृत अर्थदोष है।
      निम्नलिखित  श्लोक में बताया गया  है कि अनवीकृत दोष कैसे नहीं होता-
      यदि दहत्यनिलोSत्र किमद्भुतं यदि च गौरवमद्रिषु किं ततः।
      लवणमम्बु  सदैव  महोदधेः  प्रकृतिरेव  सतामविषादिता।।
      अर्थात् यदि अग्नि जलाती है, तो इसमें आश्चर्य क्या है? यदि पहाड़ों में गुरुता (भारीपन) है, तो इससे क्या? समुद्र का जल सदा खारा रहता है और कभी दुखी न होना सज्जनों की प्रकृति है।
      इस  श्लोक में भी कुछ समान ढंग से बात कही गयी है, परन्तु यहाँ यथार्थ की बातों  को बताकर यह स्पष्ट किया गया  है कि कभी दुखी न होना सज्जनों  की प्रकृति है। अतएव यह श्लोक उक्त दोष अर्थात्  अनवीकृत अर्थदोष से मुक्त है।
      अब  लेते हैं सनियमपरिवृत्त अर्थदोष को। यहाँ नियम का अर्थ बल देना या सीमित करना या अवधारण है और परिवृत्त का विपरीतता। तात्पर्य यह कि जहाँ सीमित करने की बात कहनी चाहिए, वहाँ बिना सीमित किए बात कही जाय, तो सनियमपरिवृत्त अर्थदोष होता है- 
      यत्रानुल्लिखितार्थमेव निखिलं  निर्माणमेतद्विधे-
      रुत्कर्षप्रतियोगिकल्पनमपि  न्यक्कारकोटिः  परा।
      याताः प्राणभृतां मनोरथगतीरुल्लङ्घ्य यत्सम्पद-
      स्तस्याभासमणीकृताश्मसु  मणेरश्मत्वमेवोचितम्।।
      अर्थात् चिन्तामणि के सामने ब्रह्मा की सम्पूर्ण सृष्टि निरर्थक लगती है, जिसके समान किसी अन्य की कल्पना करना भी इसका अपमान करना है, जिसकी सम्पत्ति प्राणियों के मनोरथों से भी परे है, अन्य पत्थरों के साथ मिल जाने पर जिसकी छाया के आभास से वे पत्थर भी चिन्तामणि के समान प्रतीत होते हैं, ऐसी स्थिति में चिन्तामणि की पत्थर-रूपता ही उचित है।
      इस  श्लोक में तस्याभासेन (उस मणि की छाया के आभास से) के स्थान पर छायामात्रेण (छाया मात्र से) प्रयोग करने से यह इस दोष से मुक्त हो जाता। मात्र शब्द से छाया शब्द को अधिक बल मिलता, उसका अवधारण होता। ऐसा न होने के कारण यहाँ सनियमपरिवृत्त अर्थदोष है।

      उक्त  दोष अर्थात् सनियमपरिवृत्त अर्थदोष के विपरीत स्थिति में अनियमपरिवृत्त अर्थदोष है, अर्थात् नियम के बिना (सीमित किए बिना) बात कहनी चाहिए, वहाँ उसके विपरीत कहा जाय। जैसे-
      वक्त्राम्भोजं सरस्वत्यधिवसति सदा शोण एवाधरस्ते
      बाहुः    काकुत्स्थवीर्यस्मृतिकरणपटुर्दक्षिणस्ते    समुद्रः।
      वाहिन्यः  पार्श्वमेताः क्षणमपि भवतो नैव मुञ्चन्त्यभीक्ष्णं
      स्वच्छेSन्तर्मानसेSस्मिन् कथमवनिपते! तेSम्बुपानाभिलाषः।।
      अर्थात् हे राजन्, आपके मुखरूपी कमल  में सदा सरस्वती (यहाँ नदी  और वाग्देवी) निवास करती है, आपका अधर ही शोण (सोन नदी एवं लाल रंग का) है, भगवान रामचन्द्र के पराक्रम को याद दिलाने वाली आपकी दाहिनी भुजा (राजचिह्न की मुद्रा से अंकित) दक्षिणी समुद्र है, ये वाहिनियाँ (एक पक्ष में नदियाँ और दूसरे पक्ष में सेनाएँ) कभी भी आपका साथ नहीं छोड़तीं, और आपके भीतर स्वच्छ मानस (मानसरोवर और दूसरे पक्ष में मन) के होते हुए आपको पानी पीने की कैसे इच्छा होती है?
      यह  श्लोक बल्लाल द्वारा विरचित भोजप्रबन्ध से लिया गया है। जिसका तात्पर्य है कि जिस राजा के मुँह में और समीप में सब नदियाँ है, उसे पानी पीने की इच्छा क्यों हो रही है। यहाँ शोण एवाधरस्ते (आपका अधर ही शोण है) में एव पद के प्रयोग से अधर पद पर बल दिया गया है, जो अनुचित है। क्योंकि जब मुख में सरस्वती है, चारों ओर वाहिनियाँ हैं तो इसके साथ कहना चाहिए था- अधर शोण है, न कि अधर ही शोण है। अतएव यह नियम विरुद्ध है, अर्थात् एव (ही) पद प्रयोग कर उसे सीमित नहीं करना चाहिए था। जैसे, कहा जाय कि केवल हम सभी लोग जाएँगे, तो यह गलत है। यहाँ केवल शब्द की आवश्यकता नहीं है। यह अनियमपरिवृत्त अर्थदोष पैदा कर रहा है। इसी कारण से इस श्लोक में अनियमपरिवृत्त अर्थदोष है।
      जहाँ  विशेष-वाचक पद का प्रयोग करना चाहिए, वहाँ सामान्य-वाचक पद प्रयोग किया जाय, अर्थात् विशेष के विपरीत कथन किय जाय तो विशेषपरिवृत्त अर्थदोष  होता है। जैसे-
      श्यामां श्यामलिमानमानयत  भोः सान्दैर्मषीकूर्चकैः
      मन्त्रं तन्त्रमथ प्रयुज्य हरत श्वोतोत्पलानां श्रियः।
      चन्द्रं चूर्णयत क्षणाच्च कणशः कृत्वा शिलापट्टिके
      येन द्रष्टुमहं क्षमे  दश दिशस्तद्वक्त्रमुद्राङ्किताः।।
        अर्थात् हे सेवकों, गाढ़ी काली स्याही की कूँचियों से इस (चाँदनी) रात को काली कर दो, श्वेत कमलों की शोभा को मंत्र-तंत्र का प्रयोग कर नष्ट कर दो और चन्द्रमा को शिला पर रखकर चूर्ण-चूर्ण कर दो, ताकि उसकी (प्रेमिका की) मुखमुद्रा से अंकित दसों दिशाओं को देख सकूँ।
      यहाँ  रात के लिए इसका सामान्य-वाचक शब्द श्यामा प्रयोग किया गया है। जबकि सन्दर्भ के अनुसार चाँदनी रात का विशेषवाचक शब्द ज्योत्सनी प्रयोग करना चाहिए था। ऐसा न होने से यहाँ विशेषपरिवृत्त अर्थदोष आ गया है।
      विशेषपरिवृत्त अर्थदोष के विपरीत है अविशेषपरिवृत्त अर्थदोष, अर्थात् जहाँ सामान्य-वाचक पद का प्रयोग करना चाहिए वहाँ विशेष-वाचक पद का प्रयोग किया जाय। जैसे-
      कल्लोलवेल्लितदृषत्परुषप्रहारै   रत्नान्यमूनि   मकरालय   मावमंस्थाः।
      किं कौस्तुभेन विहितो भवतो न नाम  याञ्चाप्रसारितकरः  पुरुषोत्तमोSपि।।
      अर्थात् हे समुद्र (मकरालय), अपनी लहरों  से कठोर पत्थरों का प्रहार करके इन रत्नों का अपमान मत करो। क्या इन्हीं रत्नों में  से केवल एक कौस्तुभ ने पुरुषोत्तम (भगवान विष्णु) को आपके सामने  हाथ फैलानेवाला याचक नहीं बना दिया था?
      यहाँ  द्रष्टव्य है कि समुद्र से निकली एक ही कौस्तुभ मणि  है, जो भगवान विष्णु के पास  है। इसलिए उसे कौस्तुभ  नाम से यहाँ अभिहित करने की आवश्यकता नहीं है। किं कौस्तुभेन विहितो भवतो न नाम के स्थान पर एकेन किं न विहितो भवतो स नाम कहना चाहिए था। नाम विशेष का उल्लेख होने के कारण यहाँ अविशेषपरिवृत्त अर्थदोष आ गया है।
इस अंक में बस इतना ही।

11 टिप्‍पणियां:

  1. १००वे अंक पर शत शत बधाइयाँ. आपकी यह साहित्य सेवा ऐसी ही निरंतर चलती रहे. शुभकामनायें.

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  2. adarniya raai jee kavyashashtra ko niratar padha hoon.. mujhe lagta hai ise pustak ka roop dijiye kyonki sahaj roop me yah samgri hindi me kam hi uplabdh hai... shaktkeey ank kee badhai..

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  3. बहुत ही अच्छा लगा इस पोस्ट को पढ़ कर....बेहद उम्दा

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  4. आचार्य जी! सर्वप्रथम इस शतकीय (अविजित-नौट आउट) पोस्ट के लिए आपके चरण स्पर्श.. बधाई जैसा शब्द आपकी इस श्रृंखला के लिए छोटा है... यह हमारा सौभाग्य है कि हमें यह श्रृंखला पढ़ने को मिली.. इसलिए यह शतकीय उपलब्धि आपकी नहीं, हमारी है और आभार हमें आपका व्यक्त करना चाहिए कि आपने इतने सरल शब्दों में काव्यशास्त्र की बारीकियां हमारे सामने रखीं... वे दोष जिन्हें हम सुंदरता समझते रहे काविता की वास्तव में उनके दोष है, यह आपने ही हमें सिखाया है..
    आचार्य जी, आज का यह कमेन्ट, आज की पोस्ट के लिए नहीं है, बल्कि उन सभी पोस्ट के लिए है जो मैंने पढ़ी, नहीं पढ़ी... मगर जब भी पढ़ी है चकित हुआ हूँ, सीखता रहा हूँ!!
    एक शातंजिवी अनुभव के लिए आभार आपका!!

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  5. काव्यशास्त्र शृंखला का 100 वाँ अंक--------वाह हार्दिक बधाई आपको और मनोज जी भी.
    काव्य शास्त्र सम्बन्धी आपके आलेख बहुत जानकारीपरक और ज्ञानवर्धक होते हैं.पुनः बधाई.

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  6. सलिल भाई, आपकी इस टिप्पणी के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। लेकिन इसका पूरा श्रेय श्री मनोज कुमार जी को जाता है, जिन्होंने प्रेरित किया और शेष आपलोगों को प्रोत्साहित करने के लिए।

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    1. मनोज जी के प्रयास को अनदेखा नहीं किया जा सकता.. उनके भागीरथ प्रयास से यह सुरसरि हम तक पहुंची है... आभार मनोज जी!!

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    2. मुझमें इतनी शक्ति कहां थी।

      राय जी तो मेदक से (सोलह वर्ष पहले से) हमारे लिए प्रेरणा पुंज रहे हैं। इस ब्लॉग पर उनको सहयोग देने के लिए कहा और उन्होंने न सिर्फ़ सहर्ष स्वीकारा बल्कि हरीश जी, और अन्य कई कानपुर के मित्रों को प्रोत्साहित करते रहे इस ब्लॉग की साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ाए और बनाए रखने के लिए। इसके लगभग सभी श्रृंखला में लिखे जाने वाले स्तंभ शतक छु चुके हैं, छूने वाले हैं। इसका अधिकांश श्रेय राय जी को जाता है।

      बड़े भाई , अब तो आप भी इस टीम के हिस्सा हैं।

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  7. इस शतकीय पारी के लिए अशेष शुभकामनाएं और आभार!

    मैं हर बार यही कहता हूं और आज फिर कहूंगा ...
    भारतीय काव्यशास्त्र को समझाने का चुनौतीपूर्ण कार्य कर आप एक महान कार्य कर रहे हैं। इससे रचनाकार और पाठक को बेहतर समझ में सहायता मिल सकेगी। सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।

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  8. काव्यशास्त्र पर १०० वीं पोस्ट पर हार्दिक बधाइयाँ...ये वाकई एक चुनौती भरा कार्य था...आपकी श्रद्धा और लगन को कोटिशः प्रणाम...

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