बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

स्मृति शिखर से– 8: वे लोग, भाग - 1

-- करण समस्तीपुरी
बिहार प्रांत का सरैसा परगना। गंगा, गंडक और बागमती की धाराओं के बीच बसा है समस्तीपुर मंडल। पूरब दिशा में रास्ते का दसवां किलोमीटरी पत्थर पार करते ही मेरा गाँव शुरु हो जाता है। बीच से गुजरने वाली पूर्वोत्तर रेलपथ उसे दो भागों में बांट देता है। ठीक उसी तरह जैसे अंबूजा सिमेंट से बनी बीच की दीवार दो भाइयों के घरों को।
मेरी गाँव की मिट्टी उर्वरा तो है ही, बड़ी मृदु भी है। पहली बार उसी की गोद में कदम बढ़ाना सीखा था। असंख्य बार गिरा... चोट कभी नहीं लगी गोया ऐसा लगा कि माँ का कोमल अंक मेरे गात को सहला रहा हो। मेरे गाँव में पेड़-पौधे भी संवेदना रखते हैं। निदाघ जेठ में जब कहीं एक पत्ती भी ना हिल रही हो, मेरे घर के कोने पर खड़ा अंवाला पेड़ की छांव में हम भर दोपहरी बड़े आराम से गिल्ली-डंडा खेलते थे। सच में गर्मी का पता तक नहीं चलता था। अब वो पेड़ नहीं रहा... अबके पेड़ों में वह प्रकृति नहीं रही।
एक और पेड़ था, बरगद का। पोखर के किनारे। ये बड़ी-बड़ी जटाएं थी। साधु वृक्ष। उसकी टहनी क्या पत्ते-पत्ते लोग लदे रहते। झटकना-झिड़कना तो दूर कभी किसी को डराता तक नहीं था। प्रलय-प्रभंजन में भी सुस्थिर रहता था। और तो और उसकी दाढ़ी जैसी लंबी जटाओं को पकर कर हम झूलते रहते थे, कभी उफ़ तक नहीं कहा बेचारे ने...! आह...! क्या वात्सल्य था उस पेड़ में... बिल्कुल दादा जी की तरह।
पुराने जमाने का पेड़ था। स्वभाव भी पुराना ही था। नयी व्यवस्था ने उसकी जड़ें क्षीण कर दी थी। एक दिन पछुआ हवा के हल्के झोकें ने उसे जड़ से उखार फेंका। तब से उसकी छाँव में सदा कल-कल बहने वाला सरोवर भी सूख गया। अब तो षष्ठी-व्रत में सूर्य देवता को अर्घ्य देने के लिए भी दमकल से पानी भरना पड़ता है।
पुराना युग नहीं रहा। पुराने लोग नहीं रहे... बहुत कुछ मैंने नहीं देखा...। जो कुछ मैंने देखा उसकी सुखद स्मृति मेरे भविष्य की संपत्ति है। मैंने बड़ी सिद्दत से उन्हे संजोए रखा है। शायद ये उनके काम आ जाए जो अब उनमें से कुछ नहीं देख पाएंगे। एक शे’र अर्ज़ करता हूँ,
“पुराने लोग ग़जब का मिज़ाज रखते थे।
खुद को बेच पड़ोसी की लाज रखते थे।
सुना है भूख से वो लोग मर गए मंजर,
मुट्ठियों में जो छुपाकर अनाज रखते थे॥”
मेरे दादा जी भी ऐसे ही थे। हम उन्हें बाबा कहते थे। घर-परिवार की फ़िक्र उन्होंने कभी नहीं की। लेकिन उनकी जानकारी में गाँव में कोई भूखा-बीमार नहीं रहना चाहिए। अपनी पेंशन, कर्ज, उधार, चंदा या अपनी नई धोती या जमीन बेचकर भी दूसरों की मदद को तत्पर रहते थे। मझली फ़ुआ बोकारो में रहती थी। अभी भी रहती हैं। कई बार आने का आग्रह की थी। बाबा हर बार पैसे की तंगी का हवाला देकर टाल जाते थे। दो-चार बार मनि-आर्डर से पैसे भी भेजी थी। वह भी समाज-सेवा में चले गए। छोटे बाबा उन दिनों मुजफ़्फ़रपुर में रेलवे में कार्यरत थे। आखिर उन्हे कह कर आरक्षित टिकट भिजवाया था।
नियत यात्रा से एक सप्ताह पहले पड़ोस में रहने वालेP5160440_thumb[6] एक सज्जन के घर पुत्रोत्पन्न हुआ। प्रातः बेचारे बाबा के सामने आ बैठे, “जच्चा-बच्चा की देख-भाल कैसे होगी? घर में तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं है।” बाबा की पेंशन महीने के पहले सप्ताह में ही समाप्त हो जाती थी। इतनी जल्दी कहीं से कर्ज-उधार मिलने की भी उम्मीद नहीं थी। बाबा ने रेल का आरक्षित टिकट उनके हाथों में देते हुए कहा, “इसे रद्द करवा लो... पचहत्तर रुपये मिल जाएंगे। अभी काम चल जाएगा। आगे के लिए और देखते हैं।” बाबा अब नहीं हैं लेकिन वह परिवार दिल्ली में सकुशल जीवन निर्वाह कर रहा है। वह नवजात अब तो व्यस्क और आत्म-निर्भर हो गया होगा।
धूसर ग्रामीण अंचल ऐसे अगणित मनुज-रत्नों से दीप्त है। जब कभी कार्य से निस्तार पाता हूँ, वो गाँव, वे दिन, वे लोग, वो बातें, वो हरे-सुनहरे खेत, खाली खेतों में चरते मवेशी, खेत के मेड़ों पर गाते चरवाहे, वो पेड़-पौधे, कुआँ-पोखर, वो आबोहवा.... सब कुछ चलचित्र की भाँति मेरी स्मृति में दौड़ने लगते हैं। इस शृंखला में ऐसे कुछ और नर-रत्नों को मैं याद करुँगा आपके साथ हफ़्ता-दर-हफ़्ता।

22 टिप्‍पणियां:

  1. करण जी!
    इतनी आत्मीय प्रस्तावना, किसी आलेख या श्रृंखला की संवेदनाओं का पूर्वाभास देता है.. गुरुदेव राही मासूम राजा साहब का कहना है कि यादें कोई बादलों की तरह हलकी-फुल्की चीज़ नहीं, जो आहिस्ता से गुज़र जाए.. यादें एक पूरा ज़माना होती हैं और ज़माना कभी हल्का नहीं होता...
    आपके कई चरित्रों से हम मिल चुके हैं और आज जिस अंदाज़ में आपने काका के फकीराना अंदाज़ को बयान किया है, उससे मन श्रद्धा से झुक जाता है.. आगे की कड़ियाँ बहुत भारी होने वाली हैं... खुद को तैयार करने की कोशिश करूँगा!!

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    1. प्रणाम...! मैं इस विधा में आपको बस फ़ालो कर रहा हूँ।

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  2. naman hai 'baba' ko.....bahot khoobsurti se yadon ko sanjoye hain.....

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  3. असंख्य बार गिरा... चोट कभी नहीं लगी गोया ऐसा लगा कि माँ का कोमल अंक मेरे गात को सहला रहा हो। ऐसी ही होती है मातृभूमि की गोद....
    बहुत सुन्दर संस्मरण.. शब्द, भाव स्पंदित होते महसूस हो रहे हैं...
    सादर आभार इस स्पर्शी लेखन के लिए....

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  4. बड़ी याद आती हैं मुझको, मेरे गाँव की गलियाँ,
    याद आये मुँह घुल जाती है, गुड़ की पूरी डलियाँ,

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  5. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  6. बरगद का पेड़ मानो हमारी संस्कृति का प्रतीक है यहां।

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  7. मुझे कहीं से नही लग रहा कि ये मेरी स्मृतियाँ नहीं हैं.... वही पेड़, पौधे, नमी भरी मिटटी और सबकी मदद को तैयार रहते बाबा... हम लोग उनको दादा कहते थे.... सुनते हैं कि ६६-६७ के अकाल में गाव में कौन ऐसा नहीं था जिसकी अन्न से मदद नहीं की हो.... आपकी स्मृतियों में खुद को अभिव्यक्त पा रहे हैं...

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    1. अरुण जी जिस अकाल का आप ज़िक्र कर रहे हैं, उस समय तो करण पैदा भी नहीं हुआ था। वह क्या जाने उस अकाल का दंश। हां, हम थोड़े बहुत अकल रखते थे, और एक क्षीण-सी याद है। जिस बाबा का उसने ज़िक्र किया है वे उस समय परिवार के गार्जियन थे और परिवार संयुक्त था। क़रीब तीस लोगों के परिवार को किस तरह से राशनिंग कर उन्होंने जिलाए रखा, उस पर कभी “फ़ुरसत में” लिखेंगे।

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  8. बेहतरीन अनुपम स्मृतियों की अच्छी प्रस्तुति,.की करण जी..बधाई

    MY NEW POST...काव्यान्जलि...आज के नेता...

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  9. गाँव की यादें .....सुंदर आलेख ...!!

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  10. ये फाँका-मस्ती हर किसी को नसीब नहीं होती...अपने लिए जिए तो क्या जिए...तू जी ऐ दिल ज़माने के लिए...

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  11. गाँव की और गाँव के लोगों की स्मृतियाँ हम सभी के जीवन में एक जैसी होती हैं। लेकिन जिस प्रकार सजीवता करन बाबू,आपने उन्हें दिया है, कम लोग दे पाते हैं।

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  12. बाबा तो सचमुच महान थे ...
    आपके पोस्ट के माध्यम से गांव की मिट्टी की सोंधी महक हमलोगों तक भी पहुँच रही है ,ऐसे ही लिखते रहिए . आभार ...

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  13. चाहे जिस गांव का नाम लिख दें इस पर.

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  14. पढ़कर अपने गाँव की याद आ गयी. हालांकि गाँव तो आपके घर से काफी दूर है मगर नानी घर आपके पास ही पड़ता है, इसलिए इस माहौल से पूरी तरह अवगत हूँ और दूर रहकर मिस भी उतना ही करता हूँ. समस्तीपुर से १० किलोमीटर पूरब आप हैं तो १२ किलोमीटर पश्चिम (लगभग) पर हमारी ननिहाल पड़ता है. बथुआ गाँव, शायद सुना हो! पूसा के पास! :) :)
    http://draashu.blogspot.in/

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  15. बहुत ही कठिनाई हुई भरभाराए मन और झिलमिलाती आँखों पढने में..

    मन ऐसे भरा हुआ है कि मौन से सुखद इसे अभी कुछ भी नहीं लग रहा..

    पुराने लोग ग़जब का मिज़ाज रखते थे।

    खुद को बेच पड़ोसी की लाज रखते थे।



    सुना है भूख से वो लोग मर गए मंजर,



    मुट्ठियों में जो छुपाकर अनाज रखते थे॥”


    लेकिन समय ने गाँवों का यह संस्कार जिस बेदर्दी से छीना है, यह मन को और अवसादग्रस्त कर देती है...

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  16. पहले गांव में लोग ऐसे ही होते थे..
    अब खो रहा है सबकुछ ..
    कारण भी स्‍पष्‍ट है ..
    अपने लिए जो कुछ न कर सके ..
    ऐसे समाजसेवियों की कद्र कहां है आज ??

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  17. करण!
    क्या मुझे हर बार लिखना पड़ेगा वन ऑफ योर बेस्ट्स!
    उस बरगद से जुड़ी कई बातें याद आ गईं। उस पर चढ़ना और छपाक-छपाक पोखरी में कूदना उसमें सबसे प्रमुख है।
    पर अब न तो वह बरगद है न ‘वे बाबा”!

    हम भी तो इस परिवार के बरगद बन न सके। बस एक झाड़-झंखार की तरह हैं।

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  18. आज इस पोस्ट को प्पढ़ने के बाद समझ में आया उस पत्र का मर्म जो तुम्हारे बाबा ने तुम्हारे छोटे बाबा को लिखा था।
    “जब बरगद की कई शाखाओं में से कोई एक शाखा कमज़ोर हो जाए तो पेड़ को उस शाखा को ज्यादा भोज्य पदार्थ देना चाहिए ताकि वह भी मज़बूत होसके।
    आज समझ में यह भी आया कि वह शाखा कमज़ोर क्यों हुई थी?

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  19. गाँव - जहाँ भारत की आत्मा बसती है/ थी. सादा जीवन अब कोई आदर्श नहीं है, और बगैर सादगी के त्यागपूर्ण जीवन संभव नहीं. गाँव तो अब बस उच्छिष्ट का समूह ही रह गया है. हर तबके का जो श्रेष्ठ गाँव पैदा करता है वो वहां रुकता नहीं वो शहर चला जाता है. aise में अब न तो वो बाबा हैं न ही वो बरगद.

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