आंच-105
“आज ...... बसंत चहुँ ओर छाया है ....... !!”
अनुपमा त्रिपाठी जी को पढ़ना सदैव एक सुखद और आध्यात्मिक अनुभूति लिए होता है। वे एक कवियत्री तो हैं ही, साथ ही संगीत साधक भी हैं। इसीलिए वो कहती हैं – “संगीत और कविता एक ही नदी की दो धाराएं हैं -- इनका स्रोत एक ही है, किंतु प्रवाह भिन्न हो जाते हैं।” इनकी रचनाओं से गुज़रते वक़्त ऐसा लगता है कि ये धाराएं फिर से मिलकर संगम-स्थल बन गए हों।
इनका जीवन भी कुछ ऐसा ही रहा है। बहुत कुछ का संगम-स्थल। अर्थशास्त्र से स्नातकोत्तर, संगीत से जुड़ाव, हिंदी से प्रेम, कॉलेज में अध्यापन, आकाशवाणी पर गायन, -- फिर धाराओं का अलग-अलग दिशाओं में मुड़ जाना। यानी सब कुछ छोड़ गृहस्थ जीवन संभालना ... और फिर सारी धाराओं का ब्लॉगजगत में आकर संगम। संगीत से जुड़ाव इन्हें जहां स्वरोज सुर मंदिर ब्लॉग तक लाता है, तो साहित्यिक अभिव्यक्ति ये Anupam’s Sukrity के माध्यम से करती हैं।
पिछले दिनों इनकी एक रचना “आज ...... बसंत चहुँ ओर छाया है ....... !!” पढ़ी। प्रकृति, बसंत, कविहृदय, संगीत साधक – अब जब इन सबका संगम हो, तो सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि रचना की ऊँचाई क्या होगी, इसका विस्तार क्या होगा ? एक संगीत की साधना में डूबे साधक का, प्रकृति की उस छटा में, जो बासंती विम्बों से अटा पड़ा है, – बासंती धुन और राग बसंत ही दिखाई पड़ना स्वाभाविक ही है।
वेदों में वर्णित ऋतु सिद्धांत के अनुसार संगीत की उपासना ऋतुओं के आधार पर करने की परंपरा रही है। पहले यह लोकगीत में प्रचलित था, बाद में शास्त्रीय संगीतों में भी इन्हें अपना लिया गया। राग बसंत का गायन समय यूं तो रात का अंतिम पहर है, लेकिन जब ऋतु ही बसंत हो, तो इसके ऊपर गाए जाने वाले गाने को पहरों तक कैसे कैद किया जा सकता है। ... और वह भी तब जब बसंत के उन्माद में सम्पूर्ण धरा डूबी हो .... कवयित्री के शब्द देखिए –
कैसा उन्माद
कण-कण पर छाया
हुलक-हुलक.....पुलक-पुलक
हुलक-पुलक.....पुलक-हुलक
लहराती गीत गाती है धरा
शब्द के चयन और उनके परिवर्तन के प्रयोग से ऐसा लग रहा है जैसे ऋतु राज बसंत अपनी उपस्थिति से पूरी सृष्टि को आहलादित किए हुए है।
बसंत की ऋतु जहां एक ओर श्रृंगार के रचनाकारों को प्रेरित करती है वहीं दूसरी ओर इस ऋतु में विरह की वेदना भी अपने पूरे स्वरों में प्रकट होती है ..... कवयित्री का ‘राग बसंत’ शब्द का कविता में प्रयोग करना भी इस ओर इशारा करता है। क्योंकि इस राग में जहां एक ओर मध्यम, ऋषभ, धैवत कोमल स्वर हैं, तो वहीं शेष स्वर शुद्ध होते हैं और आश्चर्य की बात तो यह है कि इस राग में श्रृंगार और विरह दोनों प्रकार की बंदिशें बहुत ही खूबी के साथ लगती है, खूबसूरत भी लगती है।
इस ऋतु का आगमन, जाड़े की ठंढ भरी रातें और धुंध भरे दिन के बीतते ही आता है। मानों मन-प्राण को नवजीवन का संदेश देने आया हो यह मधुमास। इस सुहाने मौसम में सबके चेहरे हर्ष से प्रफुल्लित हो उठते हैं।
बासंति छवि ..... बसंती रूप
जब बसो अंखियन आन.....
धरा के अधरो पर..............
कैसी खिल गई .....
कुसुमित ये बसंती मुस्कान.. ।
इस ऋतु में दिक-काकली के किलोल से गुंजित, मुकुलित मकरंद सुवासित पीत-वसना वसुंधरा के मखमली आंगन में मंद सुगन्धित समीर रथ से उतरते हैं ऋतुराज। उनकी आगवानी में संपूर्ण धरा पंच स्वर में गूंज उठती है – गूंज उठता है -- राग बसंत।
ओढ़ पीली चुनरिया
खनकाए हरी हरी पतियन सी चूडि़यां
किसलय लूमे-झूमे
लहरिया ... केसरिया पगड़ी धर ....
पिया घर आया है
आज बसंत चहुँ ओर छाया है ....
इस अद्भुत प्रकृति लीला, और उसके संगीत की झंकार के झंकृत हो जाते हैं हृदय के तार। बसंत के शीतल मंद बयार में घुल जाते हैं मन के समस्त विकार और हम करते हैं मन से, हृदय से उसका सत्कार !
अनुपमा जी की इस कविता में काव्यात्मकता के साथ संप्रेषणीयता भी है। हां शिल्प के प्रति सतर्कता नहीं बरती गई है। पर जब बात बसंत की हो तो कौन सतर्क रह सकता है। कौन सतर्क रहना चाहेगा ?
भाषा में कोई उलझाव नहीं है। उनकी यह कविता पाठक को कवयित्री के मंतव्य तक पहुंचाती है। बसंत की आ रही आहटों को उन्होंने बहुत ही तन्मयता से सुना है और कविता में दर्ज कर दिया है। चित्रात्मक वर्णन हमें बांधता है और शब्दों का चयन अपनी भिन्न अर्थ छटाओं में कविता को ग्राह्य बनाए रखता है।
किसी भी रचनाकार के लिए कविहृदय और संवेदनशील होना ज़रूरी है। जो ऐसा होता है, उसके लिए अपनी रचना में बसंत और वर्षा ऋतु को कविता के लिए विषय नहीं बनाना, असंभव-सा ही है। एक कविहृदय और संवेदनशील अनुपमा जी के लिए बसंत पर कविता लिखना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ‘पद्मावत’ से लेकर अभी तक ऋतुराज बसंत पर एक-से-एक बेहतरीन कविताओं की परंपरा रही है। उसी परंपरा का अनुकरण करते हुए अनुपमा जी ने भी एक अद्भुत कविता पाठकों को परोसा है। संगीत में जैसे एकतानता से गाया राग श्रोताओं के बीच समा बांधता है, उसी तरह इस काव्य का शिल्प और उसकी एकतानता ने उन सारी बातों को समाहित कर रखा है जिसमें कविता पूरी लय के साथ हमारे सामने आती है और लगता है ऋतुराज बसंत खिलखिला रहा हो।
कुल मिलाकर यही कहना चाहूँगा कि अनुपमा जी एक समर्थ सर्जक है और उनके इस सृजन का सौंदर्य मन को भावविह्वल करता है।
आनंद आ गया मनोज जी, शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंBahut,bahut sundar!
हटाएंहर शव्द में बसंत पिरोया हुआ है......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सर......:)
हुलक-हुलक.....पुलक-पुलक
जवाब देंहटाएंहुलक-पुलक.....पुलक-हुलक
लहराती गीत गाती है धरा
शब्द और संगीत का सौंदर्य ......
मनोज भैया जी ! क्या वसंत पंचमी के दिन से ही आपने होली की भी शुरुआत कर दी....माथा देख कर तो ऐसा ही लग रहा है .....
कौशलेन्द्र भाई मुझे भी वह फोटो जंच नहीं रहा था। हटा दिया है।
हटाएंअनुपमा जी की यह कविता मैंने भी पढ़ी थी और मन झूम झूम गया था... कविता में वसंत के दृश्य का वर्णन इस प्रकार किया गया मानो चित्र खींच दिया हो.. आज आपकी समीक्षा ने इसमें कुछ और फूल खिला दिए हैं!! बहुत ही सधी हुई समीक्षा!!
जवाब देंहटाएंबड़े भाई!
हटाएंआपका आशीष मिला। आभार। परशुराम राय जी की माता का निधन हो गया है और हरीश जी अन्य जगह व्यस्त हैं, इसलिए यह जिम्मेदारी संभालनी पड़ी।
इस काव्य-समीक्षा में एक त्रुटि पर नज़र पड़ी...छठे अनुच्छेद में 'प्रकार' से 'र्' का वियोग हो गया है, कृपया शीघ्र संयोग करायें.
जवाब देंहटाएंआने वाले 'बसंत-पर्व' में मैं भी कुछ गाना चाहूँगा.....
"आया बसंत, पट हटा अरी!
चख चहक रहे, अब करो बरी.
तुमने इनको क्यों कैद किया
है पूछ रही ऋतुराज-परी."
... जिसने भी अपने नयनों को उपनयनों में कैद किया हुआ है, कम-से-कम बसंत में उन्हें मुक्त कर देना चाहिए... प्राकृतिक-छटा देखने का अधिकार सभी को है.... बंदियों को भी.
प्रकृति-दर्शन मन के मैल-विकारों को धो देता है. बसंत में नयनों पर किसी भी प्रकार का पट नहीं रहना चाहिए.... न तो लज्जा का पट और न ही संकोच का पट. न क'पट और न ही क'पाट.
प्रतुल भाई,
हटाएंसही इशारा किया। ठीक कर दिया है।
बढ़िया गीत बहुत सुंदर है
जवाब देंहटाएंइसपर आपकी समीक्षा भी अच्छी लगी !
बहुत बढ़िया समीक्षा जितनी सुन्दर रचना उतनी ही सटीक समीक्षा ..
जवाब देंहटाएंसंगीता जी,
हटाएंआपका यह मेल मिला। अशुद्धियां बताने के लिए आभार। शुद्ध कर दिया है।
इस सुहाने मौसम में सबके चहरे हर्ष से प्रफुल्लित हो उठते हैं।
बासंति छवि ..... बसंती रूप---------- चेहरे
वे एक कवियत्री तो हैं ही,
. कवियत्री का ‘राग बसंत’ श
कवियत्री के शब्द देखिए –
कैसा उन्माद
कण-कण पर छाया
उनकी यह कविता पाठक को कवियत्री के मंतव्य त --------------- कवयित्री
bahut khoobsurat sameeksha aur basant geet. Anupama ji ke baare mein vistaar se jaankar achchha laga. shubhkaamnaayen.
जवाब देंहटाएंअनुपमा जी को पढ़ती रही हूँ. बहुत सुन्दर समीक्षा की है आपने.
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा कवयित्री के शब्दों की गरिमा बन गई है ... संगीत , बसंत , और शब्द ... तीनों का अदभुत संयोग कविता में भी है और उसकी समीक्षा में भी .
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर...कविता भी ...प्रस्तुति भी...
जवाब देंहटाएंडॉ. सिंह,
हटाएंबहुत दिनों के बाद ब्लॉग जगत में दिखीं। आभार आपके आगमन के लिए।
बहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंआँच की कसौटी पर परख कर और भी निखर गयी रचना………शानदार समीक्षा।
जवाब देंहटाएंअनुपमा जी तो लाजवाब हैं ही...
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा भी उत्तम..
शुक्रिया..
इधर अनुपमा जी की कई रचनाएँ एक साथ पढने का अवसर मिला है. उनके ब्लॉग पर वसंत की यह सुन्दर कविता भी पढ़ चूका हूँ... सुन्दर कविता की सुन्दर कविता...आंच की प्रतिष्ठा के अनुकूल ...
जवाब देंहटाएंसबसे पहले मनोज जी ह्रदय से आभार ...आपने मेरी कविता का चयन किया समीक्षा के लिए |कविता तो मेरी भावना ही है लेकिन समीक्षा से जैसे पत्थर की मूर्ती जीवित हो उठी है ......!!बसंत बोल उठा है .....! समीक्षा के लिए ह्रदय से आभारी हूँ |मेरे लिए बहुत ख़ुशी की बात है की इस बसंतोत्सव में आपने मुझे मुखर होने का सौभाग्य दिया ...|आप जितनी निष्ठा से हिंदी की सेवा करते हैं और जितना उत्कृष्ट लेखन आपके ब्लॉग पर रहता है ...मैं सच में आज बहुत खुश हूँ ......ये मेरे लिए ''एक मील का पत्थर '' ज़रूर है |शिल्प के विषय में आपने लिखा है ...मैं ज़रूर ध्यान रखूंगी |एक बार पुनः आभार...अपना स्नेह एवं आशीर्वाद बनाये रखियेगा और ...हिंदी की इस सेवा में मार्गदर्शन करते रहिएगा ....!!
जवाब देंहटाएंआभार आपका, अनुपमा जी। हमने तो बस अपने मन की बात कही है। समीक्षा आपको पसंद आई, मुझे जान कर बहुत अच्छा लगा।
हटाएंसच बसंत चारों ओर छाया है...शब्द,भाव और अर्थ सभी संगीत की गूंज से गुंजित हो उठा है...एक सुंदर कविता पर सटीक भावपूर्ण समीक्षा। आभार!!!
जवाब देंहटाएंशब्द बसन्त के अलंकरण में व्यस्त दिखे इस गीत में..
जवाब देंहटाएंअनुपमा जी के गीत की सुंदर समीक्षा,बहुत अच्छी लगी,....
जवाब देंहटाएंmy new post...40,वीं वैवाहिक वर्षगाँठ-पर...
अनुपमा जी अच्छा लिखती हैं |यहाँ पढ़कर और भी अच्छा लगा |
जवाब देंहटाएंओढ़ पीली चुनरिया
जवाब देंहटाएंखनकाए हरी हरी पतियन सी चूडि़यां
किसलय लूमे-झूमे
लहरिया ... केसरिया पगड़ी धर ....
पिया घर आया है
आज बसंत चहुँ ओर छाया है ....
जितनी सुन्दर रचना उतनी ही मनोहर भाव पूर्ण समीक्षा .
मनोज भाई मेरे ब्लॉग पर आपकी एक टिपण्णी जिसमे एक नीतिपरक दोहा आपने जोड़ा था मेरे अनादी पण के चलते से गलती से हट गई .भाव था नहाने धुने से मन का मेल नहीं जाता जैसे मीन पानी में रहते भी बॉस देती है .कृपया माफ़ करें और दोबारा यह दोहा लिखें जो मुझे बड़ा अच्छा लगा है .
जवाब देंहटाएंनये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
हटाएंमीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥
हर बार की तरह एक और निः शब्द कर देने वाली रचना . बधाई
जवाब देंहटाएंमेरे हिसाब से,इस कविता की सबसे महत्वपूर्ण पंक्ति हैः
जवाब देंहटाएं"अमराई पर हर्षाई बौराई है धरा
तुम्हें ही चढ़ाती है
तुम्हारे दिए हुए फूल"
जीवन में उत्सव जब चरम पर हो,तब ही अपने मिटने में भी मुक्ति का अहसास होता है।
मनोज जी ,आज अनजाने में एक अपराध हो गया ,अपराध बोध मुखर है .आपकी एक बेहतरीन टिपण्णी जिसमे मीन की बाबत -जैसे जल में रहते भी मीन बासी ,नहाए धोये कुछ नहीं ....एक नीतिपरक दोहा साथ लाइ थी ,सकें में चली आई थी यह टिपण्णी इसे 'स्केम नहीं है 'घोषित करवाने की प्रक्रिया में मुझसे कोई गलत बटन दब गया ,अब जब तक यह दोहा आप दोबारा नहीं लिखेंगे चैन नहीं आयेगा .गलती के लिए क्षमा करें यह टिपण्णी साफ़ हो गई .हटा दी गई अनजाने ही .
जवाब देंहटाएंनहाए धोये क्या हुआ ,जो मन मैल न जाए ,
जवाब देंहटाएंमीन सदा जल में रहै,धोये बॉस न जाए .
कृपया 'नहाए 'कर लें नए के स्थान पर .
वीरू जी! मुझे भी एक संशोधन करवाना है.. कृपया "बॉस" (मालिक) को 'बास' (गंध)कर लें!!
हटाएंबहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय.......
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा.अनुपमा जी को बधाई.
जवाब देंहटाएंek chitr kaviyitri ne kheencha hamare manas patal par aur is sameeksha ko padh kar ek manohari chitr aapne chitrit kar diya....yahi dono k lekhan aur sameeksha ki safalta hai.
जवाब देंहटाएंuttam sameeksha.
अनुपमा जी के गीत की समीक्षा बहुत ही सुन्दर ठंग से किया है पढ़ कर अच्छा लगा..
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