शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

फ़ुरसत में... “आँखों देखा हाल : लाल बाग से।”

फ़ुरसत में...

आँखों देखा हाल : लाल बाग से।

DSC00162करण समस्तीपुरी

घड़ी की सूइयाँ इतिहास की इबारत लिखने में तल्लीन थी। एक-एक पल अतीत का अंश होता जा रहा था। आगमन और प्रस्थान, उदय और अवसान की योजक कड़ी...! प्रकृति परिवर्तनशील है। तीव्र परिवर्तनशील। एक सेकेंड में सबकुछ बदल जाएगा। समय, दिन, महीने और वर्ष तक। घड़ी की घूमती सुइयों ने दिन का चौबिसवां चक्र पूरा कर लिया... उल्लास चहुँ-दिस...! लोग गले मिले...! मिली मंगलमय कामनाएँ...। जो भी था, जैसा भी था वो बीत गया...! अब हो नव गति, नव लय, ताल-छंद नव... वर्ष नवल... हर्ष नवल....!

अवसान से शुरु हुआ उल्लास उदयोपरांत बढ़ता ही जा रहा था। 1 जनवरी 2012, नवीन वर्ष का प्रथम प्रभात... समस्त अग-जग के लिये प्रसन्नता की नई किरण लेकर आया था। मेरे लिए भी। दिवस-पर्यंत सचल दूरभाष-यंत्र की घंटियाँ खनखनाती रहीं। कुछ खुशखबरी ई-पत्रों में भी छुपे हुए थे। उनमें से एक था,

“मान्यवर,

आगामी १६ जनवरी’१२ से २२ जनवरी तक बेंगलूर में हूँ... आशा करता हूँ कि आपसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हो पायेगा!

सलिल”

ऊपर संबोधन और नीचे नाम देखकर मुझे लगा कि पत्रलेखक ने यह ई-पत्र गलती से मुझे प्रेषित कर दिया है। शंका निर्मूल नहीं थी। पत्रलेखक महोदय से मेरा संबंध “चाचा-भतीजा” का है। लौटती डाक से शंका-निवारण कर लिया। वो क्या है कि चाचाजी ने मेरे अतिरिक्त अन्य मान्य-जनों को भी अपने बंगलोर-आगमन की सूचना इस सामूहिक-पत्र के माध्यम से दिया था।

उनके इतना बताते ही मैं रूठ गया...! आखिर मैं भतीजा हूँ, सबसे छोटा हूँ तो “स्पेशल ट्रीटमेंट” मिलना चाहिए न। चाचाजी ने आफ़िसियल विजिट होने के कारण स्पेशल ट्रीट देने में विवशता जताई किन्तु प्रथम मिलन निश्चित होगा... चंद्र टरै, सूरज टरै....!

अमूमन खुशियों की उम्र बहुत कम होती है किन्तु इस बार यह कोई पंद्रह-बीस दिनों तक चली थी और उसकी सुखद स्मृति अभी कई दिनों तक चलेगी। संभवतः तब तक जब तक अगली भेंट न हो...।

सलिल चचा 16 जनवरी के पूर्वाह्न में ही बंगलोर पहुँच चुके थे। ‘सस्पेंस’ बनाकर रखने के स्वभावानुसार हमें बताया नहीं था। मैं कहाँ छोड़ने वाला था। उनके ‘रोमिंग’ में होने की चिंता छोड़ फोनवा पर नंबरवा टिपटिपा दिए। एक खनकती आवाज जिसमें आत्मीयता की हद थी। कुशलक्षेम आदान-प्रदान के बाद मिलने की संभावना पर संक्षिप्त संभाषण हुआ। किन्तु कार्यालयी जीव को सब सुख-सुविधा सुलभ होती है लेकिन फ़ुरसत ‘फ़ुरसत में’ खोजना पड़ता है। बिना फ़ुरसत के मिलें कैसे? कोई बात नहीं... आज नहीं तो कल...! आखिर उत्तम फल के लिए नियत प्रतीक्षा तो करनी ही पड़ती है। मिलनोत्सुकता थी तो बहुत तीब्र मगर हृदय को समझाना पड़ा, “रहिमन चुप होय बैठिए देखि दिनन के फ़ेर। जब शनिवासर आइहैं मिलत न लगिहैं देर॥”

शुक्रवार तक हम इस संकल्प-विकल्प में थे कि हम कब मिलेंगे...? कहाँ मिलेंगे...? कौन-कौन जन मिलेंगे...? चाचाजी की तरफ़ से कोई आश्वासन तो नहीं था किन्तु हमें एक आश थी कि शायद वह हमारे घर भी आएँ।

शनिवार भी आ गया। हम फ़ुरसत में थे। अपराह्न की बेला। छोटे पर्दे पर सीआईडी का रिपिटेडली रिपिटेड टेलिकास्ट चल रहा था। सहसा सचल दूरभाष यंत्र खुशी के मारे काँपने लगा। गीत गा-गा कर कुछ सूचना दे रहा था। दूरभाष-खिड़की पर उभरे नाम को पढ़कर एक पुराना फ़िल्मी गाना स्मरण हो आया, “लो आ गई उनकी ‘बातें’.... (आगे मेरी सात मास की व्याहता ने प्रश्नात्मक मुद्रा में जोड़ा...) वो नहीं आए...?” पुनः एक संक्षिप्त वार्ता में यह निश्चित हुआ कि उद्द्यान नगरी के प्रसिद्ध उद्यान ‘लाल-बाग’ में साधु-समागम होगा।

‘लाल-बाग’ हमारे बंगलोर निवास से यही कोई दस-बारह किलोमीटर की दूरी पर है। कुख्यात महानगरीय यातायात-अवरोधों को ध्यान में रखते हुए मैंने सलिल चचा को आधे घंटे बाद लाल बाग के पश्चिमी द्वार पर मिलने की बात सुपुष्ट कर दिया था।

फ़ुरसत में मिले साप्ताहंत के आलस्य को स्नान से धोकर साधु-समागम के लिए तैयार हो गया। डर था कि कहीं पत्नी (अभी तक मैं नवविवाहिता ही मानता हूँ।) भी साथ ले चलने की जिद न कर बैठे...। किन्तु भाग्य उस दिन मुझ पर कुछ अधिक ही उदार था। उन्होंने स्वयं ही कहा, “सुनो...! उधर से चाचाजी को भी साथ लेते आना... मैं तब तक घर-द्वार व्यवस्थित कर के रखती हूँ... और हाँ उधर से चलने से पहले मेरे को फोन जरूर कर देना... ताकि मैं ससुर जी के चरण-स्पर्श करने के लिए समुचित ‘तैयारी’ कर लूँ।” मैंने श्रद्धापूर्वक सर नवा कर उनसे विदा लिया।

उस दिन भाग्य अवश्य मुस्कुरा रहा था। अविलंब एक द्रुतगामी वोल्बो बस मिल गई। सबसे अच्छी बात थी कि यह बस सीधा लाल-बाग के पश्चिमी द्वार जाती थी। मैं सहर्ष सवार हो गया। पहले पाँच किलोमीटर मुश्किल से दस मिनट में पार हो गए। अगले चार किलोमीटर चालिस मिनट में और अगले चार कदम... शायद बहुत देर तक चल ही नहीं पाए। उफ़... वातानुकुलित बस की बंद खिड़कियों के बीच आक्सीजन का अभाव सा लगने लगा। छोटे बच्चों का रुदन, महिलाओं के चेहरे पर सिकन... पुरुष यात्री भी कुछ कम परेशान नहीं थे। मुझे लगा कि बस बहुत देर से बंद होने के कारण अंदर लोगों में परेशानी हैं। मैंने सहचालक से अनुरोध कर बस के दोनों द्वारों को खुलवा दिया था।

बाहर का मंजर भी कुछ कम नहीं था। वो तो मैं था इसीलिए...। अगर कहीं शहरयार साहब होते तो कह बैठते, “इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है?” उन्हें भले नहीं पता मगर मैं आपको बत्तीस आने सही कारण बता सकता हूँ। अजी यातायातावरोध... बोले तो ट्राफ़िकजैम। आज की तारीख में यह बंगलोर की सबसे बड़ी पहचान है। मेट्रो-रेल और फ़्लाइ-ओवर निर्माण के बीच में सैंडविच बना शहर गाड़ियों के हार्न की आवाज में चीखता है। जहाँ हर दो किलोमीटर पर पड़ने वाले सिगनल पर गाड़ियाँ कम देर और सिग्नलों के बीच ज्यादे देर तक रूकें, जहाँ आपको लोगों के सर नहीं हेलमेट दिखाई दे, जहाँ गाड़ियाँ चलती कम और रुकती अधिक दिखाई दें, और उन रुकी हुई गाड़ियों में गंतव्य तक पहुँचने की व्यग्रता में बोझिल आँखों की भीड़ दिखाई दे, आप समझ लीजिए कि बंगलोर आ गया है।

बंगलोर की एक विशेषता और है। यहाँ शाम नहीं होती है। धूप की मद्धिम किरणों की उदग्रता में कमी आते ही अचानक रात हो जाती है। रात का मतलब अँधेरा नहीं... बड़े-बड़े हैलोजन और सोलर लाइट का उजाला। दिन का प्रकाश तो नीला-पीला भी हो सकता है मगर हर निशा शरद पूर्णिमा की तरह धवल होती है... दूध में नहाई सद्यःस्नाता नायिका की तरह। बन्नरघट्टा रोड से चला था धूप की सुनहली किरणों के साथ और निम्हान्स तक पहुँचते-पहुँचते सद्यःस्नाता निशा-नायिका आँचल फ़ैलाने लगी थी। बढ़ते समय के साथ मेरे माथे पर लकीरें बढ़ रही हैं। आँख बार-बार घड़ी पर जाती है। मन झुंझलता है... उफ़...! बस रुकती है तो घड़ी क्यों नहीं रुक जाती! ससुरी एकदम पी टी उषा बनी हुई है।

आह...! बस चल पड़ी कुर्म गति से। सवारों ने राहत की सांस लिया। हमारा गंतव्य लाल बाग यहाँ से अब बस दो किलोमीटर रहा है। शीत-ताप-नियंत्रित बस में भी लिलार पर हठात आ गए श्वेद-कणों को रुमाल से पोछ लेता हूँ। ये लो... अगला सिगनल भी आ गया। सात बज चुके थे। पाँच मिनट तक गाड़ियों को हिलते-डुलते न देख मैंने बस त्याग करने का निर्णय किया। मेरा निर्णय इतना सही था कि उस सिगनल से लाल-बाग तक गाड़ियों की लंबी शृंखला सुस्थिर थी और स्थिर ही रही... किन्तु मैं लाल-बाग के पश्चिमी द्वार पर पहुँच गया।

पश्चिमी द्वार ही बंगलोर के लाल-बाग का मुख्य द्वार है। थोड़ी-सी भीड़ हमेशा रहती है यहाँ। गणतंत्र-दिवस निकट था अतः उद्यान में पुष्प-प्रदर्शनी की तैयारी चल रही थी। फिर भी ऐसा नहीं कह सकते हैं कि भीड़ कुछ ज्यादा थी। विश्वास था कि सलिल चाचा अब तक पहुँच चुके होंगे। पता यह करना था कि वे उद्यान के अंदर हैं या द्वार पर ही। मैं सचल दूरभाष यंत्र हाथ में लेता हूँ। इस से पहले कि मैं कोई कुंजी दबाता, एक हाथ मेरी ओर बढ़ता है। मैं भी हाथ बढ़ा देता हूँ। सहसा दृष्टि जाती है मुख-मंडल पर। मैं ससंकोच बढ़े हाथ को खींच लेता हूँ। नहीं इन हाथों से उन हाथों का नहीं पहले चरण-स्पर्श करना चाहिए। उनके भी बढ़े हाथ सस्नेह मेरे माथे पर फिर जाते हैं। जो हाथ मैंने खींच लिया था सलिल चाचा पुनः उस हाथ को अपने दोनों हाथों में दबा लेते हैं। स्नेह की उष्णता से अभीभूत हुआ जाता हूँ। शब्द नहीं फ़ूट रहे किन्तु दंत-शृंखलाएँ द्युति बिखेर रही है। उस मौन में जैसे युगों का संवाद छुपा था। हम पहली बार मिल रहे थे किन्तु कुछ भी कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं पड़ी। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि हम सलिल चाचा से मिल चुके हैं और अभी एक दूसरे के अभिमुख हैं। सम्मोहक व्यक्तित्व है उनका। गौर वर्ण, औसत कद-काठी, संतुलित शरीर, उम्र के अनुसार सघन और सुगढ़ केश राशि, छोटी मूँछ, उपनेत्र से झांकते बोलने को आतुर नेत्र... ममता और आत्मीयता की प्रतिमूर्ति।

कुछ संयत होने के उपरांत मुखर वार्तालाप का श्रीगणेश उन्होंने ही किया, “गणतंत्र दिवस के कारण आज गेट जल्दी ही बंद कर दिया है। लेकिन अंदर जा सकते हैं। बस दस रुपये के टिकट के बदले तीस रुपये का जुगार भेंट करना पड़ेगा मामुओं को।” मुझे हँसी आ गई थी, “ओह... तो यह है अन्ना-फ़ैक्टर।” भ्रष्टाचार से आरंभ हुई बात इस निष्कर्ष पर पहुँची कि भारत में सिर्फ़ एक ही समस्या ही है, “भ्रष्टाचार” और सारी समस्याएँ हैं उसका प्रतिफ़ल। अब शहर की यातायात-व्यवस्था को ही ले लीजिए। सप्ताह पूर्व पक्की सड़कें बनती है। एक सुबह श्रमिकों का जत्था उसे तोड़ता-खोदता मिलता है, क्योंकि अब उस सड़क के नीचे जल-निकासी बनाना है, दूरभाष के तार लगाने हैं... इत्यादि। और फिर उस सड़क को या तो यूँ ही जीर्ण-शीर्ण छोड़ दिया जाता है या उसके उद्धार के लिए नई निविदा निकाली जाती है। अब पता नहीं यह किसके हित के लिए है? सलिल चाचा अपने अनुभव भी बताते हैं। भारत के सीटी आफ़ जॉइ से लेकर दुबई तक के अनुभव।

बातों का क्रम हमारी अभिरुचियों तक पहुँच जाता है। सलिल चाचा नाट्य विद्या में निपुण हैं और यह मेरी अभिरुचियों में भी अग्रगण्य है। हाल ही में हमारी कंपनी के टैलेंट हंट में खेले गए अपने नाटक और उसमें मुझे मिली भूमिका की कहानी मैं सलिल चाचा को सुनाता हूँ। वो कहते हैं, “दरअसल यह सब शौक नहीं, असाध्य संक्रमण होता है। व्यस्तता और उत्तरदायित्व के बोझ के कारण भले ही कुछ समय के लिए दब जाए किन्तु उपयुक्त समय मिलते हीं इसके ‘विषाणु’ पुनः कुलबुलाने लगते हैं।” सत्य वचन।

सहसा सलिल चाचा के सचल दूरभाष यंत्र पर लघु संदेश सेवा आती है। चाचाजी देखकर सखेद बताते हैं कि ब्लाग पर हमेशा मुस्कराने वाले श्री प्रवीण पांडेयजी नहीं आ पाएंगे। भारतीय रेल सेवा के शीर्ष अधिकारी की व्यस्तता हम समझ सकते थे। और उस से भी अधिक यह संयोग की बात थी। (अब फ़ुरसत में आने से पहले ही श्री प्रवीण जी का निमंत्रण भी मिल चुका है, मिलने के लिए।) वार्ताक्रम में पता चला कि सरिता आंटी (अरे वही अपनत्व वाली) भी वर्टिगो की पीड़ा के कारण नहीं आ पाएंगी। अब हमें राजेश उत्साही जी की प्रतीक्षा है। सलिल चाचा ने कहा कि कोई घंटा भर पहले उन्होंने दूरभाष पर बताया था कि वे बसारूढ हो गए हैं। पहुँचने में जो समय लगे।

उनकी आँखें बहुत तेज, तत्पर और सचेष्ट हैं। बैंक वाले जो हैं। हमारे सामने अनेक चेहरे अनवरत गुजर रहे थे। दूर से गुजर रहे एक चेहरे को देखते ही सलिल चाचा चौंक जाते हैं, “अरे... दूबेजी...!” भीड़ को चीर कर बाज़ जैसी स्फ़ूर्ती के साथ उस गुजर रहे व्यक्ति का पीछा करते हैं। पूछे से उन्हे पुकार कर उनका चरण-स्पर्श करते हैं। दूबे जी...! एक कृषकाय प्रौढ़। सामान्य वेश-भूषा। चश्मे से झांकती आँखों में जीवन का अपार अनुभव। दूबे जी कभी सलिल चाचा के सहकर्मी थे। “सर, ये मेरा भतीजा है।” वो मेरा भी परिचय करवाते हैं। दूबेजी का स्थानांतरण बैंक के बंगलोर स्थित मुख्यालय में हो गया है। वे सप्ताहांत में सपरिवार लाल-बाग भ्रमण पर आए थे। सुहृद परिवार से मिलना बड़ा ही आत्मीय लगा। शायद कुछ बातें और होती किन्तु उद्यान से निकल रही पुलिस की जिप्सी के हार्न ने हमारे रास्ते अलग कर दिए।

हमारा वार्तालाप निरंतर जारी रहता है। उत्साहीजी के आने की प्रतीक्षा है। उत्साहीजी आएंगे अवश्य। सहसा सूचना मिलती है कि उत्साहीजी लाल-बाग पहुँच चुके हैं किन्तु वे लाल-बाग के किसी और द्वार पर पहुँचे हैं – एम. टी. आर. द्वार पर। अगले दस मिनट चलकर वो हमारे पास पहुँच जाते हैं। उनके आते ही यह निश्चित होता है कि हम यथाशीघ्र किसी भोजनालय में चलकर स्थान लेलें फिर रात्रि-भोज के साथ-साथ आगे की वार्ता भी जारी रहेगी।

यथा नामं तथा गुणं। उत्साही जी का उत्साह सच में अदम्य है। दो घंटे नगर-बस की थकाउ यात्रा के बाद, कोई दो किलोमीटर पैदल चलकर हम तक पहुँचे थे और फिर उतनी ही दूर पैदल चलने के लिए बेझिझक तैयार हो गए। एम. टी. आर जाना निश्चित हुआ। अब के हम तीनों उसी रास्ते पर थे। उत्साहीजी के आने से पहले हमने अपने पारस्परिक बातचीत के कोटा का पूरा उपभोग कर लिया था। अतः अभी सलिल चाचा और उत्साही जी के बीच ही अधिकतर बात चल रही थी। मैं या तो बीच में पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दे रहा था या अपनी जिज्ञासावश कुछ पूछ लेता था।

श्रेष्ठजनों की हर बात सूक्ती होती है। यह प्रमाणित भी हुआ। हमलोग चले जा रहे थे। कुछ दिकभ्रम हुआ था। हमलोग विपरीत रास्ते पर बढ़ रहे थे। एक सज्जन से पूछकर हमलोग मुड़े। उत्साही जी के अफ़सोस पर सलिल चाचा ने कहते हैं, “दरअसल  जिंदगी ने मुझे तो यही सिखाया है कि जब कभी दो राहा आता है तो जो रास्ता हम पहले चुनते हैं वो गलत होता है।” कितना बड़ा दर्शन छुपा है इस उक्ती में। अब बताइये जहाँ ऐसी-ऐसी सूक्तियाँ जनम रही थीं वहाँ भला मैं अपना छोटा मुँह क्या खोलता....?

बातों के क्रम में एम. टी. आर. पहुँच जाते हैं। भारी भीड़ है। शोर-गुल भी। चाय वहाँ शाम के बाद मिलती नहीं है, भोजन में बहुत देर लगेगी, बातचीत के लिए वह स्थान अनुकूल था नहीं। सो हम कहीं अन्यत्र भोजस्थल की खोज में चल पड़े। भ्रमण कुछ अधिक ही हो रहा था। लेकिन वो कहते हैं न कि “योग्य सहचर के साथ पथ की लंबाई का भान नहीं होता।” हम चलते रहे। चलते-चलते दक्षिण भारत के एक और प्रसिद्ध भोजनालय “कामथ” में पहुँच गए।

DSC00165उत्साही जी ने साधिकार तीन शाकाहारी थाली का ‘संकेत-पत्र’ ले लिया था। भोजन की थाली मेज पर रखकर एक छोटा सा फ़ोटो-शेसन हुआ। हमारे सामने जब दो-दो तस्वीर उतारू यंत्र की दामिनि छिटकने लगी, तब मुझे याद आया कि मिलनोत्सुकता में मैंने अपना तस्वीर उतारू यंत्र तो लिया ही नहीं। लेकिन आवश्यकता भी अपरिहार्य नहीं थी। तस्वीरें तो मिल ही जाएंगी। मधुर वार्तालाप के साथ-साथ हम सादे-सुस्वादु दक्षिण-भारतीय व्यंजन का रसास्वादन करते हैं। एक और स्नेहिल प्रस्तुति। सलिल चाचा अपनी थाली का दही मुझे दे देते हुए कहते हैं, “दही तो रेवाखंड में खाया जाता है।” कितनी आत्मीयता थी इस बात में। यह इस बात का भी प्रमाण था कि वे मेरे ‘देसिल बयना’ को न केवल मनोयोग से पढ़ते थे बल्कि उसके पात्र, घटना और स्थानों को स्मरण भी रखते हैं। पहली बार मेरे नाम से भिन्न एक पहचान मिला था मुझे...!

उस शनि-संध्या के चार घंटे मेरे मनोस्थल पर चार युग तक अमर रहेंगे। इस प्रविष्टी में अवदान के लिए मैं सलिल चाचा और राजेश उत्साही जी के साथ-साथ प्रवीण जी एवं सरिता आंटी को पुनः प्रणाम करता हूँ। ब्लाग पर इस भेंट को याद करने की प्रेरणा के लिए अपने चाचा श्री मनोज कुमार का भी अभिवादन और आभार प्रकट करता हूँ। इस मिलन के बाद आप सभी ब्लागर-बंधु-बांधवों को भी नमस्कार करता हूँ। मैं ने भी यह बात मान लिया है कि हमारा परिवार इतना बड़ा और उदार है कि इसके सदस्य दुनिया के हर कोने में मिल जाएंगे। आशा है आप सब में से फिर कोई बंगलोर आएं तो भेंट जरूर होगी। जो बंगलोर में हैं, उनसे भी भेंट होगी और यदि हम किसी और नगर-शहर में गए तो वहाँ भी हमारे परिवार के लोगों से मिलने की चेष्टा तो अवश्य करेंगे। जय हो... ब्लाग-जगत !

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19 टिप्‍पणियां:

  1. जब भी आप तीनों का यह चित्र देखता हूँ, मन ही मन उस चित्र में घुसने की कल्पना करने लगता हूँ, पर उस दिन की व्यस्तता घसीटते हुये मुझे उस चित्र से खींच ले जाती है..

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  2. इतनी विशेषता रही इस मिलने में कि शुरू से अंत तक आपने इतना बेहतरीन लिखा है कि मन खुश हो गया - हाँ एक बात मैं भी कहूँगी , जब कभी दो रास्ते आएँ तो पहला ख्याल ही सही होता है , तर्क होते अनिश्चित हो जाता है
    मुलाकात अच्छे लोगों से हो सब बहुत अच्छा लगता है . कभी मैं भी मिलूंगी सबसे

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  3. करण बाबू! मुग्ध हूँ, अभिभूत हूँ, चकित हूँ और स्तंभित हूँ.. आपकी गाड़ी "घड़ी की सुइयां" से जो चली तो "जय ब्लॉग-जगत" पर आकार थमी है... बेंगलुरु के रेंगते ट्रैफिक का इस पोस्ट पर तो कोइ प्रभाव दिखाई ही नहीं देता है... एक शंका निवारण करने का कष्ट करें कि आपकी पोस्ट पढते समय श्वासोच्छ्वास का स्थान कहाँ होता है.. अब इस वयस् में दम साधे रहने से दम निकलने का भय बना रहता है.
    दुल्हिन से न मिल पाने का विषाद मेरे मन में भी रहा.. मैं विवाह में भी सम्मिलित नहीं हो पाया था और यह अवसर भी मैंने गंवा दिया. किन्तु मेरी ओर से उनके लिए 'सदा सौभाग्यवती' का आशीष सदा ही रहेगा! सिर पर हाथ रखकर कहना और मेरे चरण स्पर्श का अवसर प्रदान करना मेरे ऊपर उस नवविवाहिता भ्रात्रिजवधु का ऋण है, परमात्मा ने चाहा तो जल्द ही उऋण हो जाउंगा!!
    उस मिलन की सुवास और उत्साही जी का वो अपनापन से पगा व्यवहार सदा मेरी स्मृति में सुवासित रहेगा!
    (पुनश्च:इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है-ये शेर बशीर साहब का नहीं शहरयार साहब का है... चाचा की नज़र इंसान और शेर दोनों को ही भीड़ में भी पहचान लेती है. :)

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    1. सही मार्ग पर लाने के लिए आभार। शुद्धिकरण हो गया।

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    2. मैं ’आभार’ नहीं कहूँगा क्योंकि मेरी गलतियों का परिष्कार करना आप लोगों का कर्तव्य है।
      प्रणाम !

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  4. बहुत खूबसूरती से मिलन की दास्ताँ सुनाई ..बहुत अच्छा लगा पढ़ कर ..

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  5. अच्छे लोगो से मिलना हमेशा अच्छा लगता है...मिलन की सुन्दर दास्तां..

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  6. इस मिलन को आप तीनों ने प्रस्तुत किया...घटना एक ही थी लेकिन पहलू बहुत रहे इस मिलन के...बहुत कुछ उत्साही जी से जाना...फिर सलिल जी से...और आज आपने तो इस मिलन के अंतस्तल का स्पर्श करवा दिया। बहुत ही सुंदर लिखते हो भैया!!!

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  7. इस मिलन का आँखों देखा हाल बहुत ही अच्छा लगा . ... सुंदर प्रस्तुति.

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  8. कुछ खुशी के आँसू इधर भी दिखे थे। सुन्दर वर्णन।

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  9. बहुत रोचक प्रस्तुति। अति सुन्दर।

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  10. बहुत रोचक प्रस्तुति। अति सुन्दर।

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  11. एक घटना और तीन वृतांत... अलग अलग फ्लेवर....बहुत बढ़िया लगा....

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  12. आपकी लेखनी से सिलसिलेवार भेंटवार्ता प्रस्तुति जीवंत हो उठी है ...धन्यवाद |

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  13. करण जी ! कभी बंगलोर जाना नहीं हुआ मेरा ...अलबत्ता भीड़ के मामले में कलकत्ता की याद ज़रूर दिला दी आपने.....वहाँ तो पैदल चलना ही अधिक द्रुतगामी साधन है.
    वैसे लाल बाग़ याद रखूँगा ....."ब्लोगर्स मिलनस्थल" .....

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  14. लो जी इसकी सूचना तो हम तक पहुंची ही नहीं। सो यह पोस्‍ट नज़र से छूट गई। बहरहाल आपने पूरा विवरण जिस तरह लिखा है उसे पढ़ना बंगलौर की बस में बैठकर यात्रा करने से कतई कम नहीं है। मजे़दार और छोटे छोटे विवरणों से भरपूर। बधाई।

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