भारतीय काव्यशास्त्र-99
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में दुष्क्रमत्व, ग्राम्यत्व, सन्दिग्धत्व और निर्हेतुत्व
अर्थदोषों पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में प्रसिद्धविरुद्धता और
विद्याविरुद्धता अर्थदोषों पर चर्चा की जा रही है।
कवि सम्प्रदाय या लोक में कुछ प्रसिद्धियाँ हैं, जैसे- चन्दन के वृक्ष पर
सर्पों का लिपटे रहना, कामदेव का पुष्प का धनुष और पुष्प का बाण, हंस का दूध पीकर
पानी छोड़ देना, सुन्दरियों के चरण-प्रहार से अशोक वृक्ष का पुष्पित होना आदि। जब
काव्य में इनके विरुद्ध कथन हो, उसे प्रसिद्धविरुद्धता अर्थदोष कहा गया है।
इसे स्पष्ट करने के लिए आचार्य मम्मट ने तीन उदाहरण दिए हैं। उन्हें क्रमशः
यहाँ दिया जा रहा है-
इदं ते केनोक्तं
कथय कमलातङ्कवदने!
यदेतस्मिन् हेम्नः कटकमिति धत्से खलु धियम्।
इदं तद्दुःसाधाक्रमणपरमास्त्रं स्मृतिभुवा
तव प्रीत्या चक्रं
करकमलमूले विनिहितम्।।
अर्थात् हे चन्द्रवदने (यहाँ चन्द्रमा को कमल का आतंक कहा गया है), कौन कहता
है कि तुम्हारे हाथ में पहने हुए सोने के ये कंगन मात्र हैं, ये तो कामदेव ने
तुम्हारे करकमल के मूल में बड़े प्रेम से चक्र रूपी महान अस्त्र दिया है। जिससे तुम
जितेन्दिय तरुणों को, जिनपर कामदेव को स्वयं आक्रमण करना कठिन हो, वशीभूत कर सको।
यहाँ द्रष्टव्य है कि चक्र भगवान
विष्णु या कृष्ण के महान अस्त्र के रूप में प्रसिद्ध है और कामदेव का अस्त्र पुष्प
का बाण लोक प्रसिद्ध हैं। अतएव चक्र को कामदेव का महान अस्त्र कथन
से प्रसिद्धविरुद्धता अर्थदोष आ गया है।
उपपरिसरं गोदावर्याः परित्यजताध्वगाः
सरणिमपरो
मार्गस्तावद्भवद्भिरवेक्ष्यताम्।
इह हि विहितो रक्ताशोकः कयापि हताशया
चरणनलिनन्यासोदञ्चन्नवाङ्कुरकञ्चुकः।।
अर्थात्, हे पथिकों ! गोदावरी के किनारे के रास्ते को छोड़ दो और किसी दूसरे रास्ते को चुन लो,
क्योंकि किसी अभागिन ने चरणकमलों से लाल अशोक पर प्रहार कर दिया है। जिससे उससे
निकले अंकुरों ने इस मार्ग को आच्छादित कर दिया है।
कवि सम्प्रदाय में सुन्दरियों के चरणाघात से
अशोक का पुष्पित होना प्रसिद्ध है, अंकुरित होना नहीं। अतएव यहाँ भी प्रसिद्धविरुद्धता
अर्थदोष है।
निम्नलिखित उदाहरण में यह बताया गया है कि
लोक विरुद्ध होने पर भी यदि कथन कविसमयगत (कवियों में प्रसिद्ध) है, तो वहाँ दोष
नहीं होता-
सुसितवसनालङ्कारायां कदाचन कौमुदी-
महसि सुदृशि स्वैरं यान्त्यां गतोSस्तमभूद्विधुः।
तदनु भवतः कीर्तिः केनाप्यगीयत येन सा
प्रियगृहमगान्मुक्ताशङ्का क्व नासि शुभप्रदः।।
अर्थात् (हे राजन्) चाँदनी रात में श्वेत
वस्त्रों और आभूषणों से सजधजकर सुन्दरी के अभिसार करते समय यदि कभी चन्द्रमा छिप
जाता है, तो आपका कीर्ति-गान करने से (यश के उज्ज्वल प्रकाश में) वह निर्भय होकर
अपने प्रियतम के घर चली गयी। आप कहाँ कल्याणकारी नहीं हैं, अर्थात हर जगह आप लोगों
का कल्याण करते रहते हैं।
यहाँ अमूर्त यश को चाँदनी के प्रकाश की तरह
शुभ्र कहना लोक-विरुद्ध होते हुए भी कवि-प्रसिद्ध होने से यहाँ प्रसिद्धविरुद्धता
दोष नहीं है। क्योंकि काव्य में यश का वर्ण श्वेत माना जाता है।
प्रसिद्धविरुद्ध दोष के लिए हिन्दी का
निम्नलिखित दोहा उदाहरण के लिए दिया जा रहा है-
मार-कटार सरिस दिपै, घन में बिज्जु विलास।
दहकत आग समान
है, इंद्रबधू सहुलास।।
कवि-सम्प्रदाय में कामदेव की तलवार नहीं मानी गयी है, बल्कि धनुष और बाण माने
गए हैं। अतएव यहाँ भी प्रसिद्धविरुद्धता अर्थदोष है।
यदि काव्य में शास्त्र के विपरीत कथन किया
गया हो, तो उसे विद्याविरुद्धता दोष कहा जाता है। काव्यप्रकाश में इस
दोष को समझाने के लिए धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र के
विपरीत काव्य में प्रयोग के चार उदाहरण दिए गए हैं-
सदा स्नात्वा निशीथिन्यां सकलं वासरं बुधः।
नानाविधानि शस्त्राणि व्याचष्टेच शृणोति च।।
अर्थात् वह विद्वान व्यक्ति सदा मध्य रात्रि में स्नान करता है और दिनभर
विभिन्न शास्त्रों की व्याख्या सुनाता और सुनता है।
सूर्य
या चन्द्र ग्रहण आदि अवसरों को छोड़कर धर्मशास्त्र के अनुसार मध्य रात्रि में
स्नान करना वर्जित है- रात्रौ स्नानं न कुर्वीत राहोरन्यत्र दर्शनात्।
स्वास्थ्य विज्ञान (Medical Science) के अनुसार भी
रात्रि में स्नान करना अहितकर है। अतएव यहाँ विद्याविरुद्धता अर्थदोष है।
अनन्यसदृशं यस्य बलं बाह्वोः समीक्ष्यते।
षाड्गुण्यानुसृतिस्तस्य सत्यं सा निष्प्रयोजना।।
अर्थात् जिसके
बाहुओं में अपार बल हो, उसके लिए नीतिशास्त्र (भारतीय अर्थशास्त्र या आधुनिक
राजनीतिशास्त्र) के छः उपाय- सन्धि, विग्रह, यान (चढ़ाई करना), आसन (पड़ाव),
संश्रय (शरणस्थल ढूँढ़नना) और द्वैध (दुरंगी नीति या विदेशनीति)- का प्रयोग वास्तव
में व्यर्थ हैं।
यहाँ राजनीति-शास्त्र के विपरीत कथन किया गया है। अतएव यहाँ भी विद्याविरुद्धता
अर्थदोष है।
विधाय दूरे केयूरमनङ्गाङ्गणमङ्गना।
बभार कान्तेन कृतां
करजोल्लेखमालिकाम्।।
अर्थात् काम-क्रीड़ा
में स्त्री ने अपने बाजूबन्दों को हटा दिया और उसके स्थान पर पति के नख-क्षत
(काम-क्रीड़ा के दौरान लगे नाखून के निशान) की माला कर ली।
कामशास्त्र के अनुसार नख-क्षत के स्थानों में बाजू नहीं आता- नखक्षतस्य
स्थानानि कक्षो वक्षस्तथा गलः। पार्श्वो जघनमूरु च स्तनगण्डललाटिका (कामशास्त्र)।।
अतएव यहाँ कामशास्त्र के विरुद्ध कथन होने से विद्याविरुद्धता अर्थदोष है।
अष्टाङ्गयोगपरिशीलनकीलनेन
दुःसाधसिद्धिसविधं विदधद्विदूरे।
असादयन्नभितामधुना विवेकख्यातिं समाधिधनमौलिमणिर्विमुक्तः।।
अर्थात् समाधि रूपी
धन के धनी योगियों में श्रेष्ठ यह योगी अष्टांग योग का परिशीलन और अभ्यास करके
कठिनाई से मिलनेवाली सिद्धि (मुक्ति) को समाधि के बिना ही अभीष्ट विवेकख्याति
(पुरुष-प्रकृति के भेद का ज्ञान) को प्राप्तकर मुक्त हो गया है।
योगशास्त्र के अनुसार विवेकख्याति के बाद संप्रज्ञात
समाधि, तत्पश्चात असंप्रज्ञात समाधि और तब मुक्ति मिलने का क्रम है। अतएव
विवेकख्याति के पश्चात तुरन्त मुक्ति की बात करना असंगत और विद्याविरुद्ध होने से
यहाँ विद्याविरुद्धता अर्थदोष है।
इसी प्रकार काव्य में अन्य शास्त्रो या
विद्याओं के विरुद्ध कथन को भी समझना चाहिए। एक हिन्दी का दोहा इस दोष के उदाहरण
के रूप में नीचे दिया जा रहा है-
पूजौ तीनौ बर्न जग, करि बिप्रन
सों भेद।
पुनि लीन्हों उपबीत तुम, पढ़ि लीजै सब बेद।।
ब्राह्मण को छोड़कर शेष तीन वर्णों की पूजा करना,
तब यज्ञोपवीत धारण करना और फिर वेद का अध्ययन करना शास्त्र-विरुद्ध होने से यहाँ
भी विद्याविरुद्धता अर्थदोष है।
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इन दोषों से बचा जा सकता है। गहन अध्ययन के उपरांत लिखा आलेख निश्चय की काव्य रचनाकारों का मार्गदर्शन करेगा।
जवाब देंहटाएंKavy doshon ko pahchanane ki urja se sannhit aalekh bahut hi upyogi laga ...saprem abhar.
जवाब देंहटाएंप्रसिद्धि विरुद्ध और विद्या विरुद्ध अर्थ दोषों पर सुंदर आलेख जिसमे प्रस्तुत उद्धरण दोष को समझाने में बहुत सहायता करते हैं.
जवाब देंहटाएंआचार्य जी ने इस श्रंखला में बहुत श्रम किया है. उनका बहुत आभार.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 13-02-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
कविता पढना, कविता लिखना और कविता के गुण-दोष निकालना एक अलग बात है और शास्त्रीय पद्धति से उनका अध्ययन एक बिलकुल अलग बात है... आपकी इस श्रृंखला को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि हमें अपनी दृष्टि में सुधार की आवश्यकता है.. ये सब पढ़ने के बाद अपनी अज्ञानता का बोध होता है.. एक बहुमूल्य श्रृंखला!!
जवाब देंहटाएंउपयोगी आलेख। आभार,
जवाब देंहटाएंकाव्य शास्त्र के अर्थ दोषों पर गहरी विवेचना !
जवाब देंहटाएंआभार !