स्मृति शिखर से ...7
गाँधीगिरी
करण समस्तीपुरी
एक साल हो गए थे बंगलोर में रहते हुए। कपड़ों का सलिका आ गया था, आफ़िस-मैनर्स भी सीखे, अंगरेजी भी कुछ हद तक सुधर गई थी लेकिन वह गँवई मेरे व्यक्तित्व से अलग नहीं हो पा रहा था या यूँ कहें कि मैं खुद भी उस से अलग नहीं होना चाह रहा था। गाँव के लोग बहुत सीधे होते हैं। ये अमूमन हर बात पर विश्वास कर लेते हैं। राजनिति-बाज़ार-अर्थशास्त्र-समाज शास्त्र के दाव-पेंच इन्हे समझ नहीं आता। इसीलिए तो आजन्म शहरजीवी नेताजी भी चुनाव में वादों की सबसे लंबी झरी गाँव में आकर ही लगाते हैं। निर्मल-मन देहाती जीव उन वादों को सत्य मानकर अपना मत भी दे देते हैं।
भैय्या के घर में टेलीफोन के साथ-साथ इंटरनेट का कनेक्शन भी था। अभी भी है। शुरुआती कुछ दिनों तक तो इन सबसे मुझे कुछ ज्यादा मतलब नहीं होता था लेकिन धीरे-धीरे कार्यालय के बाद घर पर भी इंटरनेट पर बने रहने की आदत बन गई। लैपटाप तो दो-तीन थे मगर इंटरनेट का मोडेम सिर्फ़ एक ही कंप्यूटर को सपोर्ट कर सकता था। उस पर से तुर्रा किसी का फोन आ जाए तो दोनों ठन-ठन गोपाल। बहुत ही नाइंसाफ़ी थी.... उपयोगकर्ता तीन और कनेक्शन एक।
उस दिन तो भैय्या झुंझला ही पड़े थे। मैंने कहा कि वायरलेस मोडेम क्यों नहीं लगवा लेते? तब पता चला कि उन्होंने आवेदन और भुगतान तो वायरलेस मल्टी-कनेक्शन मोडेम (वाइ-फ़ाइ) के लिए ही किया था किन्तु तभी भंडार में अनुपलब्ध होने के कारण सामान्य मोडेम दिया गया था इस शर्त के साथ कि अगले सप्ताह इसे बदल कर वांछित उपकरण से इसे बदल दिया जाएगा। साल से अधिक हो गए, कई आवेदन और अनुस्मारक के बावजूद वायरलेस मोडेम नहीं मिला। गरचे जिन्हे अधिक आवश्यकता थी कुछ सुविधा-शुल्क देकर हासिल कर लिया था। भाई साहब ने न केवल सुविधा शुल्क देने से मना कर दिया था बल्कि उन्हे सकोप नीति-शिक्षा भी दे आए थे।
वस्तु-स्थिति पता चलने पर मैंने नई कोशिश शुरु कर दी। अच्छी बात यह थी कि शनिवार को हमारा अवकाश रहता है और भारतीय दूरसंचार विभाग में कार्य-दिवस। मैं हर शनिवार नियमित दूरसंचार विभाग के अनुमंडलाधिकारी के दफ़्तर का चक्कर लगाने लगा। एक शनिवार को प्रतिक्रिया का पता लगा। फिर से दरख्वास्त देना होगा। जब तक दरख्वास्त लिखकर लाया एक बज चुके थे। बोला गया कि आज दरख्वास्त लेने का समय समाप्त हो गया। अगले कार्य-दिवस को आइए।
अगले कार्य-दिवस यानी कि अगला शनीचर समयानुसार पहुँचकर अपना दरख्वास्त जमा करवा दिया। बड़े बाबू का आश्वासन भी लेकर आया कि आगामी पंद्रह दिन के अंदर हमें वांछित उपकरण मिल जाएगा।
ठीक पंद्रहवें दिन मैं फिर से एस.डी.ओ.टी, बंगलोर साउथ के दफ़्तर में पहुँच गया। हमें आश्वासन देने वाले बड़े बाबू उस दिन कुछ अधिक ही व्यस्त नजर आ रहे थे। कई बार की कोशिशों के बावजूद उन तक मेरी बात नहीं पहुँची तो मैं ने उस कार्यालय के सबसे बड़े अधिकारी एस.डी.ओ. साहब से गुहार लगाई। डेढ़ साल पहले दिए गए आवेदन और पावती के साथ-साथ समय-समय पर दिए गए ताकिद की प्रतियाँ भी प्रस्तुत किया। साहब ने एक कर्मचारी को आवाज लगाई और आदेश दिया कि हमारा कार्य यथा-शीघ्र निष्पादित कर दिया जाए। मैंने यथाशीघ्र का अर्थ पूछा तो कहा कि भंडार में मोडेम आते ही सबसे पहले आपही को दिया जाएगा। अब यह नहीं पता कि उनके भंडार में मोडेम कब आएगा इसलिए मैं अधिकारी महोदय के इस आश्वासन पर संतुष्ट नहीं हुआ। अपने कर्मचारियों से सलाह-मशवरा करके उन्होंने कहा कि मंगल-बुध तक आपके घर में मल्टीकनेक्शन वायरलेस मोडेम (वाइ-फ़ाइ) लग जाएगा। उम्मीद के साथ मैं घर लौट आया।
बुध के बाद शनिवार तक की कठिन प्रतीक्षा के उपरांत मैं फिर धमक पड़ा संबंधित दूर-संचार कार्यालय में। साढ़े दस बजे। कार्यालय तभी खुला ही था। मैंने सीधा एस.डी.ओ. साहब से संपर्क किया। श्री अश्वथ नारायण। उनके कक्ष के बाहर काठ के पट्टे पर लिखा था। दुबले-पतले, गौर वर्ण, दाढ़ी-मूछ सफ़ाचट, उम्र का अंदाजा लगाना इसलिए थोड़ा मुश्किल था कि उनका शीर्ष बाल-विहीन था। आँखों पर चश्मा उनके अनुभवी और कार्यकुशल होने का संकेतक था। मैं साहब के सामने अपनी गुहारों और उनके कार्यालय की शिथिलता का पिटारा खोलकर बैठ गया।
कुछ आरंभिक बातें अनसुनी करने के बाद उन्हें मेरी बात सुननी ही पड़ी। उन्होंने फिर उसी कर्मचारी को आवाज दी। फिर से भंडार खाली होने की बात। इस बार मैं मानने के लिए तैय्यार नहीं था। मैंने साहब से स्पष्ट आग्रह किया कि यदि भंडार खाली है तो निजी कंपनियों से उक्त उपकरण खरीदकर दिया जाए या प्रदत्त राशि ब्याज समेत वापस की जाए। साहब चौंके तो जरूर थे किन्तु विनयशील बातों पर क्रोध आए भले दिखला तो नहीं ही सकते थे। उन्होंने इस देर-दुरुस्ती के अनेक कारणों के साथ-साथ अपनी कठिनाइयां भी गिनबाई। मैं उनकी सभी बातों में सविनय हाँ-हाँ करता रहा और इससे पहले कि वो अगली तिथि दें मैं ने साग्रह हठ कर बैठा कि उक्त उपकरण तो मैं आज ही लेकर जाउंगा।
साहब को भी कुछ कहते न बना...। उन्होंने कहा कि वे अपने भर कोशिश करेंगे। यहाँ तो नहीं है किन्तु यदि अन्य निकटवर्ती दूरभाष अंचल में भी उपलब्ध हुआ तो वे वहाँ से मंगवा देंगे। मुझे थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी बाहर। प्रतीक्षा के लिए तो मैं तैय्यार हो गया लेकिन बाहर नहीं, वहीं एस.डी.ओ. साहब के कार्यालय-कक्ष के अंदर ही मेरा सत्याग्रह शुरु हो गया।
विनम्रता ने फिर एक बार मेरा साथ दिया। मैं साहब के मेज के सामने लगी दो चक्करदार कुर्सियों में से एक पर डटा रहा। एस.डी.ओ. साहब मेरे वहां होने से थोड़े असहज तो थे ही, उपर से कुछ-कुछ देर पर मैं उनसे पढ़ाई-लिखाई, भारत की भौगोलिक-राजनितिक स्थिति, बंगलोर, टेक्नोलोजी, पार्क, दुनियाँ-जहान की बातें करने लग जाता था। यद्यपि वे मेरी बातों में ‘लिस्ट-इंटरेस्टेड’ लग रहे थे, फिर भी मैं हर पाँच मिनट पर सविनय, सप्रेम एक नई बात शुरु करने की कोशिश जरूर कर देता था वह भी हिंदी में। “सर, आप कभी नार्थ-इंडिया गए हैं? आपने कभी चूरा-दही खाया है? सर, आप ने इंजिनियरिंग कहाँ से किया है? यह वाइ-फ़ाइ काम कैसे करता है? आप, नेटिवली बंगलोर से ही हैं.... आदि-आदि।
साहब ऊब तो जरूर रहे थे लेकिन मेरी भोली-भाली मिठी-मिठी बातों पर गुस्से की कोई गुंजाइश नहीं थी। बीच में चाय और बन भी खिलाया। शनिवार होने के कारण कार्यालय दो बजे ही बंद हो जाता है, सो हमारी चिंता तो बढ़ ही रही थी। लेकिन वहाँ बैठ-बतिया कर मैंने उनकी चिंता भी बढ़ाए रखा। मैं बीच-बीच में उनके धैर्य, कर्तव्य-निष्ठा, निपुणता आदि की प्रशंसा भी कर देता था जिस पर वे सहज ही प्रसन्न होकर अपने ही कार्यालय को खरी-खोंटी कहने लगते थे। एक बज गए थे। दो घंटे में मैंने इतना तो शुनिश्चित कर ही दिया था कि साहब कोई काम न कर पाएँ। हर पाँच मिनट पर एक नई बात... नम्र और सादर।
डेढ बजने को आया। कुछ भी न कर पाने की झुंझलाहट अब साहब की जुबाँ से फ़ूट पड़ी...! एक साथ कई कर्मचारियों को आवाज लगाई। आए उनमें से सिर्फ़ दो। एक बड़े बाबू भी थे। मेरी प्रेमवार्ता का सारा कसर उन्होंने बड़े बाबू पर ही निकाला, “आपलोग कोई असाइनमेंट एक्जिक्यूट क्यों नहीं करते...? कितना दिन लगता है....? बड़ा मजा आता है... कस्टमर कंपलेंट.....लाकर दो...!” कन्नड़ में किए गए उनके क्रोधवाचन का मैं इतना ही अर्थ समझ पाया था। फिर उन्होंने मुझसे अंग्रेजी में कहा था कि मैं बड़े बाबू के साथ जाकर वाइ-फ़ाइ मोडेम ले सकता हूँ।
मैं विजयी योद्धा की तरह और बड़े बाबू हारे हुए जुआरी की तरह एस.डी.ओ. कक्ष से निकले। कुछ खानापुर्ती हुई। एक दस्तखत। दो मिनट में एक सील-मुहर दुरुस्त वाइ-फ़ाइ मोडेम मेरे हाथों में था। भागते भूत की लंगोटी पकड़ने की गरज से एक तकनीकी कर्मचारी ने मुझसे पूछा भी कि इसे इंस्टाल करने आता है....? आगे उनके प्रश्नों का निहितार्थ कुछ और ही था मगर मैंने भैय्या के अभियंत्रण-कौशल पर विश्वासकर कांख में उस उपकरण को ऐसे दबाकर चला मानो किसी अकिंचन की जन्मसंचित निधि हो।
वापसी में पूरे रास्ते प्रसन्नता होलोरें लेती रही। विजयोल्लास में भी गाँधीगिरी नहीं भूला रही थी। फ़िल्म के मुन्ना भाई की गाँधीगिरी तो सच में बहुत कारगर है। घर पहुँचते ही खुशी और बढ़ गई। सच में विजयी योद्धाओं जैसी अगवानी हुई गोया मोडेम नहीं अश्वमेध का घोड़ा जीत लाया हो। मेरा विश्वास दृढ़ हुआ अधिकार को सविनय अधिक सहजता से पाया जा सकता है। बोले तो गाँधीगिरी सबसे बेहतरीन नुस्खा है, बाप !
उस साहब ने उस दिन तो सबक सीख ही लिया होगा , कि किसी को टालना कितना आसान होता है और काम करना कितना मुश्किल .....साहब को आपने उनके ही कार्यालय में सविनय सब कुछ सिखा दिया ......!
जवाब देंहटाएंवाह ....रोचक प्रेरक गांधीगिरी ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख ...
aapaki gandhidiri kamal ki lagi. unhon ne to sawinay awagya ki thi, apane cawinay ha-ha ki!
जवाब देंहटाएंउस फिल्म ने गांधी जी के सत्याग्रह को जितना रेलेवेंट साबित किया था, आपकी यह घटना उसमें एक नया अध्याय जोड़ती है.. इस घटना के विनोदी पक्ष को अलग भी रखा जाए तो यह एक प्रेरक प्रसंग है.. आपकी लेखनी ने सम्पूर्ण घटना को इतना जीवंत कर दिया है कि ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मैं वहीं एक कुर्सी पर अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए सब देख रहा हूँ..
जवाब देंहटाएंइस टेलीफोन सेवाओं के लिए तो मैं हमेशा कहता हूँ कि ये लगाए न लगे और कटाये न बने!!
आपकी गांधी गीरी अच्छी लगी,..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति,
MY NEW POST ...कामयाबी...
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति. फिर भी मैं कहूँगा की दूसरों से बीएसएनएल कई मायनों में अच्छी ही है.
जवाब देंहटाएंआप उनके पीछे ही पड़ गये तो पा सके,पर ऐसी गांधीगीरी चलाने से अच्छा है कि व्यवस्था बदली जाये ,जिससे कि लोगों के समय,श्रम और धैर्य का दुरुपयोग न हो और मजबूरी का नाम गांधी न बन जाये.
जवाब देंहटाएंगांधीगिरी प्रासंगिक है... बढ़िया संस्मरण...
जवाब देंहटाएंजय हो, इसे कहते हैं, लग कर काम करवा लेना..
जवाब देंहटाएंगांधीगिरी ..बहुत रोचक लगी..बढ़िया संस्मरण...
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत बढ़िया, रोचक और अनुकरणीय...
जवाब देंहटाएंसादर..
क्या कहूँ ऐसा कुछ पढ़ती हूँ तो तो गांधी जी के लिए हमेशा एक ही लाइन मन में आती है
जवाब देंहटाएं"बंदे में था डैम वंदे मातरम"...बढ़िया संस्मरण
वाह ...बेहद रोचक प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंमजा आ गया. गांधीगिरी - विनय और हठ का अनूठा मिश्रण है. इनका अनुपात सही होना बिलकुल जरूरी है और यह समझने में वक्त लगतअ है-- आप तो बिलकुल माहिर हैं. जय हो!
जवाब देंहटाएंगांधीगिरी जिंदाबाद
जवाब देंहटाएंसंस्मरण अच्छा और प्रेरक है। आभार।
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंएक साल हो गया था .या फिर बारह महिने हो गए थे .
जवाब देंहटाएंachchi lgi aapki gandhigiri mujhe bhi.
जवाब देंहटाएंइन्हीं घटनाओं...दुर्घटनाओं...से ये पता चलता है...कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है...
जवाब देंहटाएंbahut manoranjak hai apki aapbeeti.
जवाब देंहटाएंसही बात है गाँधीगिरी एक अचूक हथियार है.और ज्यादातर काम कर ही जाता है.रोचक किस्सागोई
जवाब देंहटाएंआज व्यवस्था ऐसी ही है की काम बन जाए तो लगता है अश्वमेध का घोडा ही जीत लाये हों ...
जवाब देंहटाएंDECENT WAY.IT WORKS OUT BUT SOMETIMES WE ARE HELPLESS.AFTER ALL BEAUTIFUL
जवाब देंहटाएंधाराप्रवाह रोचक और बहुत ही सार्थक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंसीखने और समझने की बात है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार,मनोज जी.
मेरे ब्लॉग पर आप आये इसके लिए भी आभारी हूँ.
अरे वाह ये गांधीगिरी आपकी तो कारगर हो गई । सुंदर रोचक आलेख ।
जवाब देंहटाएंअश्वथ नारायण कमाल के भले आदमी थे........वरना कुछ लोग तो साफ़-साफ़ कह देते हैं...मुझे काम करना है आप ज़रा बाहर जाकर बैठिये ...
जवाब देंहटाएंबहरहाल ..बाबू राज्य ही भारत की असली संस्कृति है.