आँच-106
(कविता की भाषा-7)
आचार्य परशुराम राय
कुछ अपरिहार्य कारणों से आँच
लगभग दो माह से ब्लॉग पर अपनी भौतिक उपस्थिति से अलग होकर हम लोगों के मानस में
कुछ कुतूहल के साथ धधकती रही। प्रिय श्री हरीश जी पर यह भार देकर हमलोग निश्चिन्त
हो गए थे। किन्तु हम कभी-कभी अपने उद्देश्य को क्षमता होते हुए भी पूरा नहीं कर
पाते हैं। किन्हीं कारणोंवश वे भी व्यस्त हो गए और मैं भी कुछ समस्याओं में उलझ
गया था। जिसके कारण यह गतिरोध थोड़ा लम्बा हो गया। बीच में प्रिय भ्राता श्री सलिल
वर्मा जी का एक अंक प्रकाशित हुआ था, जिसे पाठकों ने काफी सराहा था।
आज यहाँ हम किसी रचना की समीक्षा लेकर नहीं
उपस्थित हुए हैं, बल्कि इस शृंखला को एक नया आयाम देने के उद्देश्य से कविता की
भाषा पर कुछ अंक लिखे गए थे, उस क्रम को ही आगे बढ़ा रहे हैं। इस शृंखला का
श्रीगणेश श्री सलिल वर्मा जी की लेखनी से हुआ था, उसके बाद का एक अंक सम्भवतः
मैंने लिखा था। इसके बाद हरीश जी ने महाकवि भारवि के निम्नलिखित श्लोक में निहित
भाषा की चार विशेषताओं को आधार बनाकर चार अंक लिखे थे - अपवर्जितविप्लव, शुचिता,
हृदयग्राह्यता और मंगलास्पद-
अपवर्जितविप्लवे शुचौ,
हृदयग्राहिणि
मंगलास्पदे।
विमलां तव विस्तरे गिराम्,
मतिरादर्श इवाभिदृश्यते।
इसी कड़ी को आगे
बढ़ाते हुए महाकवि भारवि के ही एक और श्लोक को यहाँ लेते हैं, जिसमें भाषा के अर्थ-गौरव
के लिए आवश्यक बातों का उल्लेख किया है। हालाँकि यह उक्ति भी उसी प्रसंग में महाराज
युधिष्ठिर की है और भीम की भाषा की प्रशंसा करते हुए कही गयी है। इन श्लोकों को
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने अपनी पुस्तक अच्छी हिन्दी में उद्धृत किया है-
स्फुटता न पदैरपाकृता
न च न स्वीकृतार्थगौरवम्।
रचिता पृथगर्थता गिरां न च
सामर्थ्यमपोहितं क्वचित्।। (किरातार्जुनीयम्)
अर्थात् (हे भीम, तुम्हारी) वाणी (भाषा) में पदों का ऐसा प्रयोग हुआ है कि
अर्थ समझने में जरा भी कठिनाई नहीं हो रही है, लगता है प्रयुक्त प्रत्येक पद अर्थ
को अपने- आप स्थान देते चल रहे हैं और वाक्यार्थ स्वतः हस्तामलवक हो जा रहा है।
ऐसा भी नहीं कि तुम्हारे सरल और मधुर पदों में अर्थगौरव न हो। सभी पद और वाक्य
अपना अलग-अलग अर्थ दे रहे हैं तथा उनका समेकित अर्थ वाणी के केन्द्र में निहित है।
(तुम्हारी भाषा में) सभी प्रयुक्त पद एक दूसरे की आकांक्षा को पूरा करते हैं,
(अर्थात्) एक भी पद अनावश्यक नहीं हैं।
यहाँ मोटे तौर पर देखा जाय तो तीन-चार बातों पर
बल दिया गया है - 1. वाक्य में पदों का क्रम (अन्विति), 2. शब्द (पद)
जितने अपेक्षित अर्थ के लिए आवश्यक हों, उतने ही दिए जाएँ, 3. शब्द इतने भी
कम न हों कि पाठक की आकांक्षा बनी रहे या दूसरे शब्दों में काव्य या वाक्य के अर्थ
को स्पष्ट होने में शब्द कम पड़ें, 4. शब्द और अर्थ दोनों ही प्रांजल
(प्रवाहपूर्ण) हों।
वाक्य या काव्य में पदों का क्रम यदि उचित क्रम में
नहीं होता है तो वांछित अर्थ ग्रहण करने में व्यवधान होता है, जैसे - पुलिस
द्वारा भगाई गई लड़की बरामद। यह एक समाचार पत्र की हेड-लाइन है। इसे पढ़कर
लगता है कि पुलिस ने लड़की को भगाया था, जो किसी के द्वारा बरामद कर ली गई है।
जबकि वास्तविकता यह है कि किसी के द्वारा भगाई गयी लड़की को पुलिस ने बरामद किया
था। यदि इस हेड-लाइन को यों लिखा जाता - भगाई गई लड़की पुलिस द्वारा बरामद, तो
संदिग्धता समाप्त हो जाती। अन्विति भाषा का एक आवश्यक अंग है। भाषा को असंदिग्ध
बनाने के लिए इसका ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है। अतएव, पदों का ऐसा प्रयोग होना
चाहिए कि अर्थ के ग्रहण होने में माथे पर बल न पड़े।
दूसरी आवश्यकता है कि कविता में या गद्य में अर्थ
को व्यक्त करने के लिए जितने शब्दों की जरूरत हो उतने ही शब्द प्रयोग किए जाएँ।
क्योंकि अनावश्यक अथवा अतिरिक्त शब्द भाषा और अर्थ दोनों के प्रवाह में ठोकर की
तरह बाधा पहुँचाते हैं, जिस प्रकार खेतों में खर-पतवार मुख्य फसल के विकास में
बाधक होते हैं। यहाँ परमप्रिय श्री मनोज कुमार जी
की एक लम्बी कविता जो छोटी पड़ गयी का
अंश उनकी अनुमति से यहाँ उदाहरण के तौर पर दिया जा रहा है-
मुझे
आलोचक नहीं चाहिए
हां, जब
मैं
पप्पू
पेंटर पर लिखता हूँ,
जब कालू
रिक्शे वाले की बातें करता हूँ,
तो मुझे आलोचक की आलोचना नहीं चाहिए।
नहीं
चाहिए तारीफ भी...
जब मैं
उनके दर्द को दर्द कहूँगा,
उनकी
गाली-गलौज वाली भाषा को
उनकी
हताशा-निराशा को
जैसा है वैसा ही लिखूँगा।
पचास
फीट ऊपर पोल पर चढ़कर चित्र गढ़ता
वह जो
पप्पू पेंटर है
सीढ़ियों का सहारा लेकर नहीं चढ़ता ।
अब आप
अपनी आलोचना के बाण चलाएंगे
मेरी
कल्पनाशीलता पर प्रश्न चिह्न लगाएंगे
कि कवि एक सीढ़ी तो लगा ही सकता था।
पर मैं
पप्पू की परेशानियाँ कम
नहीं कर सकता
आप गढ़
सकते हैं तो गढ़ दीजिए
पप्पू की ज़िन्दगी में सीढ़ी का सहारा
जड़ दीजिए !
पर शाम
होते ही सीढ़ियाँ बेचकर
वह
सफेद
द्रव्य वाला पाउच पकड़ लेगा
और जब
तरंग उतरेगी
तो बिना सीढ़ियों के फिर पोल पर चढ़
लेगा।
कवि द्वारा संशोधन करने के बाद कविता के इस अंश को देखिए –
समाज
के कुछ लोग
जिन्दगी
के हासिए पर
जीते
हैं,
जैसे
सेफ्टी
के नियमों की परिधि से,
अभिज्ञ
पचास
फीट ऊपर चढ़े –
पप्पू
पेंटर का
पेटिंग
करना
और शाम
ढलते ही
अपनी
कमाई को
देसी
पाउच
पर
चढ़ाने के बीच
फँसी उसके परिचय की तलाश
आपको
आलोचना
की गाँठ बाँधने के लिए
भले ही
आकर्षित करे,
लेकिन
जिंदगी के
मौन
चौराहे पर
प्रकृति
को तालियाँ बजाते
देखना
एक
सुखद अनुभूति है।
यहाँ कुछ शब्दों को हटाकर और कुछ आवश्यक शब्दों को जोड़कर कवि ने जो सुधार किए
हैं, वे काफी चमत्कृत करने वाले हैं। साथ ही पद और अर्थ दोनों प्रवाहमान हो गए
हैं, जिनका कविता के प्रारम्भिक रूप में अभाव है।
इसी
प्रकार, शब्दों के मामले में इतने मितव्ययी भी न हो जाएँ कि उसे कंजूसी की संज्ञा
देनी पड़े, अर्थात् काव्य के अर्थ को समझने में सिर खुजाने की नौबत आ जाए। इस
सन्दर्भ में मैं अपने प्रिय मित्र श्री हरीश
प्रकाश गुप्त का एक नवगीत यहाँ
देना चाहूँगाः
किससे
पूछे
कहाँ सुनाएँ
बीच धार में
खड़ी नाव सी
कभी सुबह को
सोने जाती
भरी दोपहर
पड़ी
छाँव सी ।
रोज खूँटती
उग-उग आती
गर्म जेठ में
खड़ी ठूँठ सी
पी-पी पानी
प्यास अधूरी
उबड़-खाबड़
पीठ
उँट सी ।
कोर-कोर से
फूल और आँसू
अथ इति में है
व्यस्त अस्त सी
कोना-कोना
धूप समेटे
हँसी खुशी और
मस्त
मस्त सी ।
यह नवगीत इसी ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ था और इस पर
समीक्षा भी आँच या चौपाल स्तम्भ पर की गयी थी। इस नवगीत में उपमान तो कई हैं, पर
जिसकी उपमा दी गयी है, वह उपमेय नदारद है, जिसके कारण यह नवगीत काफी दुरूह हो गया
है। अनेक उपमानों का केवल एक उपमेय जिन्दगी
यदि दे दिया गया होता, तो शायद अर्थान्वेषण में सिर पर बल नहीं पड़ते।
कोई भी रचना भारी-भरकम शब्दों की अपेक्षा नहीं
करती, बल्कि रचना में उचित और गठी शब्दावलि की अपेक्षा होती है। इस प्रकार काव्य
रचना में भाषा का सावधानी से प्रयोग होने पर रचना उत्तम और कालजयी होती है। साथ ही
पद और अर्थ प्रवाहमान बने रहते हैं। अन्त में महाकवि भारवि के ही एक श्लोक से इस
अंक का समापन अच्छा रहेगा -
भवन्ति ते सभ्यतमा विपश्चितः मनोगतं वाचि निवेशयन्ति ये।
नयन्ति
तेष्वप्युपपन्ननैपुणाः गम्भीरमर्थं कतिचित् प्रकाशताम्।।
अर्थात् वे विद्वान सबसे अधिक सभ्य माने जाते हैं, जो अपने मन की बात को वाणी
मे पिरोते हैं और उनमें भी कुछ ही निपुण व्यक्ति उसमें गम्भीर अर्थ प्रकाशित कर
पाते हैं।
अतएव, काव्य रचना (गद्य या पद्य)
में प्रवृत्त कविगण को इसमें सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में कुछ ऐसे
ही तथ्यों के साथ प्रस्तुत होने का प्रयास रहेगा।
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यह शृंखला विशेष रूप से नए रचनाकारों के लिए बहुत ही उपयोगी है।शृँखला को आगे बढ़ाने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंअच्छी शृंखला की शुरुआत ....
जवाब देंहटाएंmanoj jee ki bina sanshodhit kavita apni saralta ke karan mujhe zyada prabhawit karti hai.
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सिखने और समझने को मिला है !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार .....
आप की इस पोस्ट में बहुत कुछ सीखने को मिला ..आभार
जवाब देंहटाएंउपयोगी श्रृंखला रहेगी.आभार.
जवाब देंहटाएंसहज व्याख्या और नए उदाहरणों के कारण बात एकदम-से समझ में आती है।
जवाब देंहटाएंउपयोगी सीखने योग्य बेहतरीन पोस्ट .
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....
उपयोगी पोस्ट
जवाब देंहटाएंउल्फ़त का असर देखेंगे!
यह श्रॄखला काफ़ी उपयोगी रही।
जवाब देंहटाएंआपसे हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता रहता है।
आभार!
आचार्य जी!
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों से मुझे भी यह सूनापन खल रहा था. सोचा था मैं ही तोडूंगा इसे.. लेकिन अच्छा हुआ आपने शुरुआत कर दी... वास्तव में शब्दों की मितव्ययिता तो गद्य और पद्य, दोनों विधा में आवश्यक है.. मैं तो हमेशा कहता हूँ चर्चा में कि जैसे ढीले-ढाले कपड़ों को फिट बनाने के लिए, कुछ सिलाई, कुछ तुरपाई, कुछ कटाई और सिलाई करनी है, वैसे ही लेखन में भी है!!
आपने जो उदाहरण प्रस्तुत किये वो भी सटीक हैं.. अच्छी श्रृंखला!!
गुप्त जी सदियों से गुप्त हैं!! उनके आगमन की भी प्रतीक्षा है!! (मेरा सन्देश उन तक पहुंचा देंगे)
बिलकुल आपका सन्देश उनके पास तुरन्त पहुँच जाएगा।
हटाएंसलिल भाई, सादर नमस्ते।
हटाएंआपका लिखित और मौखिक, दोनों ही सन्देश मिले। हृदय से आभारी हूँ कि मेरा स्मरण है आपको। अधिक शारीरिक कार्य के चलते दिसम्बर-जनवरी में कुछ अस्वस्थ रहा। इसके पहले भी जलदी-जलदी निरन्तरता में व्यवधान होते रहे। परिस्थितवश कुछ कार्य और बढ़ गए। सोचा कि इतनी थकान ठीक नहीं, शरीर को थोड़ा अवकाश दिया जाए। हालॉकि यदा-कदा नेट पर आता रहा, पर अब शीघ्र ही आप सबके समक्ष उपस्थित होऊँगा।
वैसे, मैंने तो कुछ छिपाया भी नहीं है, अपने नाम के साथ ही लिख भी देता हूँ कि मैं गुप्त हूँ।
स्वागत है आपका ...
जवाब देंहटाएंआपके सहयोग से भाषा बलिष्ठ होगी ...
शुभकामनायें आपको
भाषा को सुधारने का सुंदर अवसर दिया आचार्य जी. इस श्रंखला को आगे बढ़ाने के लिये आभार.
जवाब देंहटाएंशुभकामनाऎं!
जवाब देंहटाएंआज शुक्रवार
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच पर
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति ||
charchamanch.blogspot.com
बड़ा ही ज्ञानवर्धक है ये आलेख.
जवाब देंहटाएंमेरे मत में तो मनोज जी की कविता का पहला रूप ही ज्यादा संप्रेषणीय और प्रभावी है। अगर कविता का दूसरा रूप भी मनोज जी ने ही लिखा है तो मैं कहना चाहूंगा कि यह बहुत जटिल है। इसे समझने के लिए सचमुच माथे पर बल डालने पड़ते हैं।
जवाब देंहटाएंइसी तरह हरीश जी की इस सुंदर गीत का शीर्षक निश्चित ही जिंदगी रहा होगा। लेकिन न तो उसका उल्लेख यहां किया गया है और न ही पहले की मूल पोस्ट में। अगर शीर्षक का उल्लेख हो तो बाकी की बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है।
सारगर्भित जानकारीपूर्ण आलेख...
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख ...सुन्दर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबैसाखी के पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं.
!!आपका स्वागत है!! !!यहाँ पर भी आयें!!
Active Life Blog
बहुत शुक्रिया इस बहुमूल्य लेख के लिए.
जवाब देंहटाएंसादर.